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सिरि भूवलय
यती; यलवभूनिवासी, सिद्धांत शास्त्र पंडित, राजपूजित थे । यलवभू कोलार जिले के चिक्कबल्लापुर तालुक्क के नंदिदुर्ग के समीप यलवळ्ळि ग्राम ऐसा विद्वानों ने पता लगाया हैं । यलवभू को दायें से बायें पढ़ने पर भूवलय बनाकर यही पुस्तक का नाम रख कवि ने अपने स्वस्थल के अभिमान बढाया हैं ऐसे कहतें हैं । ग्रंथों में श्रवणबेल्गोल- कोलार - तलकाडु आदि के नाम आने से आप दक्षिण कर्नाटक प्रांत के हैं ऐसा समझा जा सकता है।
१२वीं सदी में प्रसिद्ध माघनंदी यति ने पदार्थसार नाम के जैनधर्म शास्त्रग्रंथ की रचना की हैं । उसमें अपने गुरु के रूप में एक कुमुदेंदु यति की स्तुति करते हैं । पिरिया नगर के देवप्पा भी उसी स्तुति को लेकर उसको अपने अनुसार परिष्कृत कर अपने शतक ग्रंथ की रचना की है ऐसा कुछ लोग कहतें हैं । इसके समर्थन के लिये थोडा अवकाश हैं ।
देवप्पा के पुत्र दोड्डैय्या के द्वारा रचित भुजबलिशतक नाम के एक ग्रंथ में कुमुदेंदु यति से संबंधित उन्हीं विवरणों को यहाँ स्तुतित पंडितमुनि से मेल खाना एक आश्चर्यजनक विषय हैं । कुमुदेंदु पंडित मुनि और यह पंडित मुनि यदि अलग अलग हों तो ग्रंथ के कर्तृत्व संबंधी अनेक उलझनों का निवारण होगा । तब यह कुमुदेंदु मुनी १६वी सदी के पिरियानगर के देवप्पा दोड्डैय्या के समकालीन होंगे । तब इस ग्रंथ की भाषा नडुगन्नड, (मध्यकन्नड) छंद सांगत्य, वस्तु विवरण आदि मध्यकालीन भारत के हैं ऐसी वस्तु स्थिति से अन्य संगतियां परस्पर तिलती है
वस्तुविचार : जीवस्थान को मिलाकर छह खंडों का जैन सिद्धांत ग्रंथ षट्खंडागम रचना को अमोघवर्ष के काल में उनके गुरुस्थानीय वीरसेन, जिनसेन आचार्यों ने धवला नाम के संस्कृत प्राकृत मिश्र टीकाओं की रचना की । उनके आधार पर कुमुदेंदु ने अपने कन्नड ग्रंथ की रचना कर षट्खंड शब्द के पर्याय शब्द भूवलय नाम से शायद उसको संबोधित किया होगा, ऐसा लगता हैं । मुनि परंपरा से प्राप्त वीरसेन द्वारा संपादित धवला - जयधवला के टीकाओं को उसमें भी कर्ममीमांसा के भागों को आधारित आचार्यनुरिसिद वाणिय देवनरियुत कन्नड में कुमुदेंदु कृति की रचना की ऐसा ग्रंथ से ही ज्ञात होता हैं । इस प्रकार वीरसेन - कुमुदेंदु मुनिद्वय के साक्षात गुरुशिष्यत्व और समकालीनत्व प्रश्नों का प्रश्न
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