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सिरि भूवलय
हूँ। सिरि भूवलय ग्रंथ भूमंडल का सिरि (संपत्ति) बने सौभाग्य बने ऐसी शुभकामना करता हूँ।
सिरिभूवलय का प्रथम संस्करण के विमोचन के संदर्भ में डा. टी. वी. वेंकटाचलशास्त्री जी का भाषण
कुमुदेन्दु मुनि
सिरिभूवलय कन्नड में एक अपूर्व, अनन्य तथा चमत्कारपूर्ण ग्रंथ हैं । दुनिया की किसी भी भाषा में इस प्रकार का एक और ग्रंथ शायद नहीं हैं । इस ग्रंथ में वर्णमाला के अक्षरों का प्रयोग नहीं किया गया है ; केवल संख्याओं का प्रयोग किया गया है । यह संख्याएँ अक्षरों का प्रतिनिधित्व करते हैं । संख्याओं को वर्णों में परिवर्तित करने पर भाषारूप साहित्य सिद्ध होगा । इसलिये यह एक अंक लिपि काव्य हैं ।
सिरिभूवलय के कर्त्ता कुमुदेंदु मुनि हैं । आप कुमुदचंद्र, कुमुदेंदु सूरी, कुमुदेंदु पंडितमुनी ऐसे अनेक नामों से परिचित थे । कन्नड साहित्य में कई कुमुदेंदु हैं । हमें ज्ञात सिरिभूवल के कर्त्ता ; शायद कोलार जिला के हैं।
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ग्रंथ और ग्रंथ कर्ताओं के बारे में इससे पहले कई विद्वानों ने विशेष कर पंडित येल्लप्पा शास्त्री जी, कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी, के अनंतसुब्बरावजी, प्रो. एस. श्रीकंठशास्त्रीजी, कट्टे नागराजजी, के. आर, शंकर नारायणजी, अपने लेखनों में विचारों को प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेकों ने कुमुदेंदु, १०वीं सदी में, अमोघवर्ष नृपतुंग नाम के राष्ट्रकूट राजा के समय में, अपने ग्रंथ को रचा ऐसा कहा है। यह ज्ञात करने के लिये ग्रंथों में रहें आधारों का शोधन किया है । इनके अलावा १६वीं सदी के कवि देवप्पा द्वारा लिखित कुमुदेम्दु शतक नाम के संस्कृत-कन्नड मिश्रित कृति का भी अध्ययन किया गया है । किंतु उनके द्वारा प्रस्तावित आधार निर्विवाद, प्रमाणिक हैं ऐसा नहीं कह सकतें हैं । हमें अनेक उलझनों (रुकावट) का सामाना करना पडता हैं।
कुमुदेंदु शतक के आधारोंनुसार कह सकते हैं कि : कवि कुमुदेंदु, वासुपूज्य का परम शिष्य, उदयचंद्र के शिष्य, आप देशीगण - नंदिसंघ - कुंदकुंदान्वय- वक्रगच्छद
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