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(सिरि भूवलय
ही नहीं उठता । इस दृष्टि से पूर्वसूरियों के विचारों को और एक बार पुनः परामर्श करना पडेगा।
संख्यानिष्ठ ५६ अध्यायों के इस चक्रबंध रचनाओं को निर्दिष्ट वाचनविधि के अनुसार पढकर भाषा रूप में परिवर्तित करने पर प्रथम कन्नड भाषा का शास्त्रकाव्य नज़र आएगा विभिन्न वाचनक्रम से १८ महाभाषाएं, ७०० सामान्य भाषा अपने साहित्यों को प्रकट करतें हैं ऐसा कुमुदेंदु स्वतः कहते हैं । इस दिशा में भारतीय भाषा विद्वानों को गहरे, तल स्पर्शी होकर संशोधन को अपनाना चाहिये। वस्तुवैविध्य की दृष्टि से सिरिभूवलय एक विश्वकोश ही है ऐसा ज्ञातव्य ही हैं। भगवद्गीता से समाहित वैदिक साहित्य, विविध विज्ञान विषय मानविक शास्त्र विषय, सामाजिक सांस्कृतिक संगतियां, भाषा लिपियां ऐसे अनेक लोककल्याणकारक, विस्मयकारी वस्तु विवरण इस ग्रंथ के गर्भ में खान में अमूल्य रत्नों जैसे दबेछिपें हैं । इसको जानकार और विद्वानो को समझ कर शोधन और प्रकाशित करना होगा।
साहित्य लोक के एक विस्मयकारी, परिगणित, कुमुदेंदु कवि का सिरिभूवलय क्या हैं? यह जानने के लिये कर्नाटक के विद्यावंत नागरिक, विद्या संस्थाओं के द्वारा किए गए प्रामाणिक प्रयत्न के लिये हमें प्रतीक्षा करनी होगी। ऐसे प्रयत्न जारी रहें इस के लिये ग्रंथ के संरक्षक संपादक, प्रकाशक सभी हृदय पूर्वक कामना करतें हैं।
मैसूर के सेंट्रल इन्सिट्यूट आफ इंडियन लैंगवेज़स संस्था के भाषा संशोधको ने पहले से ही इस विषय में अपना कुतूहलभरित अभिलाषाओं का प्रकट किया हैं । ऐसा कहने में मुझे (वाय के मोहनजी) अत्यंत आनंद मिलता हैं । ग्रंथ के हस्तप्रति संरक्षक और संशोधक पंडित येलप्पा शास्त्री जी वैद्य शास्त्र के विविध शाखाओं से संबंधित अपने शोधों को प्रकटित करने की भाँति ही अन्य शास्त्र के विषयों में भी विशेषज्ञ अपने-अपने शोधों को प्रकटित करे तो वह सारे संसार के लिये बहुत बड़ा उपकार होगा ।
मैसूर १-१-२००२
डॉ. टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री
प्रधान संपादक
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