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-( सिरि भूवलय -
के अर्थ को कह पाने का सामर्थ्य को जुटाना होगा । भाषाओं को समाहित करना संभव है और इसी संभवता के कारण काव्य रचना की है ऐसा कवि कहते हैं। गणित की स्पष्टता के कारण गणित प्रक्रिया के द्वारा ही यह संभव हुआ है । श्री कृष्ण गीतोपदेश देने की रीति में ही , इस भाषा में अर्जुन को उपदेश दिया ऐसा कवि कहते हैं । भगवद गीता के मूल श्लोकों को इस ग्रंथ राशी से बाहर निकाल कर पढ पाना संभव है कहा गया है। महावीर जी ने भी अपने शिष्य गौतम गण्धर को इसी रीति से बोध ज्ञान कराया ऐसा कवि कहते हैं । कवि के कहेनुसार
सर्वज्ञ देवनु सर्वांगदिं पेळ्द । सर्वस्य भाषेय सरणि ॥ सकलव कर्माटदणुरूप होम्दुत । प्रकटद ओन्दरोळ अडगि ॥ हदिनेंटु भाषेय महाभाषेयागलु । बदिय भाषेगळेळुनूरु ॥ हृदय दोळडगिसि कर्माट लिपियागि। हुदुगिदंक भूवलय ॥ परभाषेगळेल्ल संयोगवागलु । सरसशब्दागम हुट्टि ॥ सरवदु मालेयादतिशय हारद । सरस्वति कोरळ आभरण ॥
इस प्रकार केवल कन्नड के रहने पर ही यह माला बनती है कन्नड के बिना यह माला नहीं बन सकती ऐसा कवि कहते हैं । इस ग्रंथ का एक और नाम परमागम भी है ग्रंथ कर्ता उस नाम को ही सूचित करते हुए सिरि भूवलय को विलोम क्रम में पढते हुए यलवभू रिसि कहते हैं । इनका एक और नाम सिरि कुमुदेन्दु भी है । इनका ऐलाचार्य नाम भी है । कन्नड साहित्य क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कुमुदेन्दुओं से इन का कोई संबंध नहीं है । आप अपने शिष्यों में प्रमुख नवकाम, शिष्टप्रिय आदि उपाधि प्राप्त प्रथम शिवमार नाम के गंगराज, मान्य खेट के राजा राष्ट्र कूट अमोघ दंदिदुर्ग का नाम लेते हैं । इस ऐतिहासिक प्रमाण के अनुसार कवि का काल लगभग ईसा के उत्तरार्ध ६८० होगा क्योंकि प्रथम नवकाम शिवमार का शासन काल सन् ६७९से लेकर ७१३ तक तथा दंति दुर्ग मोघ का शासन समय सन् ६७० से लेकर ६८० तक है यह ज्ञात ही है । यह कवि बंगलोर के समीप नंदिदुर्ग में तपस्या कर सिद्धि को प्राप्त हुए । इनका जन्म स्थान यलव अथवा यलवळ्ळि नंदिदुर्ग की उपत्यका(घाटी) में है इनका जन्म कुल