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सिरि भूवलय
कन्नड है अपने संपूर्ण ग्रंथ की रचना में कन्नड की गौरव गाथा को कहते हैं। आप पुरातन जैन परंपरा धर्म आज विलुप्त प्रायः मत यापनीय मत से संबंधित है । वृषभसेनान्वय, सेनगण, सद्धर्मगोत्र, द्रव्यांग शाखा - ज्ञातवंश - वृषभ सूत्र इक्ष्वाकुवंश के जैन ब्राह्मण हैं ऐसा आप स्वयं कहते हैं।
बंगलोर सर्वार्थ सिद्धि संघ के स्थापक, आयुर्वेद वैद्य दिवंगत यल्लप्पा शास्त्री जी की धर्म पत्नी की ओर से इस ग्रंथ की कोरी कागज़ (हाथ से बना हुआ मोटा और खुरदुरा कागज) प्रति वंशपरंपरा के फलस्वरूप प्राप्त हुआ । इसके पहले यह ग्रंथ यल्लप्पा शास्त्री जी की पत्नी ज्वालामालिनी के पिता श्री धरणेन्द्र पंडित जी के पास दोड्डबेले में था । इस ग्रंथ को कर्लमंगलं श्री कंठैय्या जी ने अपने जीवन को दाँव पर लगा कर परिशोधित किया । इस प्रयत्न के फलस्वरूप ग्रंथ का कुछ भाग १९५३ में प्रकाशित हुआ । महर्षि देवरात के द्वारा राष्ट्राध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को इस ग्रंथ में आसक्ति जागृत होकर, आप ने भारत सरकार के प्राच्यपत्रागार में ( National Archives) १९५६ में ही ग्रंथ की हस्त प्रति को माइक्रोफिल्म बनवा कर रखवा दिया । सुनीत कुमार चटर्जी, महर्षि दैवरात, मंजेश्वर गोविन्द पै, डॉ. एस. श्रीकंठैय्या, डॉ. ए. आर. कृष्ण शास्त्री डॉ. ए. वेंकटसुबैय्या, चीमहळ्ळि रघुनाथाचार्य, कलकत्ता के डॉ. सूर्यदेव शर्मा, डी. वी. गुण्डप्पा आदि अनेक विद्वानों इस ग्रंथ की प्रशंसा की थी ।
इस ग्रंथ के विषय में विस्तार से प्रजावाणी साप्ताहिक में चार रविवार १४-६-१९६४ से ५-७- १९६४ तक लेखों का प्रकाशन हुआ ।
विक्रम ११ - ५ - १९९७
विश्व का अद्भुत साहित्य सिरि भूवल्य का प्रकाशन प्रचार का
आह्ववान
दसवीं सदी के पहले कर्नाटक के मुनि कुमुदेन्दु कृत्त सिरि भूवलय अंकभाषा ग्रंथ विश्व के आश्चर्यों में से एक था ऐसा निःसंकोच कहा जा सकता है । केवल से लेकर ६४ तक के अंकों को २७ गुणा २७ के चौकोर खानों के ७२९ खानों में जमा कर एक चक्र की रचना की गई है। ऐसे १२७० चक्र ही इस ग्रंथ की साहित्य राशी है । अंकों के आधार पर ध्वनि से भाषा का रूप उभर
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