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(सिरि भूवलय
___महापुराण में हो या फिर अन्यत्र कहीं भी न दिखाई देने वाला रत्नाकर का (ईसा सन् १५५७) केवल “भरतेश वैभव” में दिखाई देने वाला भरत चक्रवर्ती की पत्नियाँ कही जाने वाली कुसुमाजी-सुमनाजी नाम के प्रयोग अंकों (=भाषाओं) का यहाँ परिचय दिया गया है । कुसुमाजी का “देश अंक" “(५-५३) रसिकर सुमनाजी का अंक (५-५४) इतना ही नहीं एक और बार “कुसुमाजी मुडिदलंकार" (७-१५८) कहकर आवृति की गई है। “भरतेश वैभव में भोग विजय का अरगिळियाळापसंधिया “ अमराजी ने लिखा कुसुमाजी ने कहा। सुमनाजी ने कृति बनाया।। गमकद नुडियत्ले..” यहुक्ति (७-६५) द्यान में आती है इतना ही नहीं भरतेश वैभव में विशि रूप से प्रस्तावित भोगयोग-समन्वय के विचार भी यहाँ गोचर होते हैं (२-२६)। गोमटेश्वर नाम बाहुबली को गंगरस के काल के चामुण्ड राय के गोमट्टनाम के द्वारा प्राप्त है, ऐसी जानकारी है । सिरि भूवलय में गोमटेश्वर नैय्या वृषभ। श्री महासूक्ष्मस्वरूप (३-८६-८७) ऐसा होने के कारण ग्रंथ चामिण्ड राय
के समय (सन् ९७८) से पहले का होना संभव नहीं है ७. कुमुदेन्दु अपने कति में अनेक जैन क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं जिनमें
पेनूगोण्डे, गेरुसोप्पेगलु होयसला विजय नगर के समय से पहले के शासन में नहीं मिलते ऐसा श्री कंठ शास्त्री जी कहते हैं । इतना ही नहीं उस सूची में कैदाळ, मैदाळ, मलेयूरु, नंदापुर, तिरुमले, सिध्दापुर, सागर, तवरुरु, और कूच तमिलनाडु के स्थान आज के ही लगते हैं ।
इन कुछ साक्ष्यों को ध्यान में रखकर कहा जाए तो कुमुदेन्दु यति अपने कृति सिरि भूवलय को (सन् १५५०-१६००) की अवधि में अथवा और भी कुछ बाद में कभी रचा होगा, ऐसा कहना होगा। पदार्थ सार (सन् १२५३) कुमदेन्दु स्तुति और देवप्पा द्वारा रचित कुमुदेन्दु शतक आदि के लिए उभय समान कुमुदेन्दु यति के गुरु परंपरा को आधार माना जए तो इस कवि का समय १२२०/ ३० कह सकते हैं। इन्हीं को सिरि भूवलय के कर्ता मानना अनिवार्य होगा । परन्तु ग्रंथ की भाषा और छंद, पूर्वोक्त वस्तु विवरण ऐसा मानने के लिए अवसर नहीं देते हैं क्योंकि कुछ साक्षाधार अधिक आधुनिक है।