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- सिरि भूवलय -
भूविकीर्तियह सेनगणदि । अवतरिसिद ज्ञात वंशी। अवन गोत्रवदु सद्धर्म । अवन सूत्रवु श्री वृषभ।। अवन शाखेयु द्रव्यांग । अवन वंशवदु इक्ष्वाकु
अर्थात उनका वंश इक्ष्वाकु उनका गोत्र सदधर्म उनका सूत्र वृषभ और उनकी शाखा द्रव्यांग है ।
___ यह ग्रंथस्थ गण-गच्छ विवरण शतक में उक्त गण-गच्छ विवरणों से भिन्न है । परिशीलन करें तो यहाँ कुमुदेन्दु का नाम ही नहीं आने के कारण उनको यहाँ के विवरणों से (९-१९२-१९४) परस्पर संबंध नहीं बनते। यदि तालमेल बैठते तो बहुशः घनवाद काव्यद कथेय के कर्त्ता नवनवोदित शुध्द जयद अवतारद( मूल आशय को नवीन रूप से निदृष्ट रूप से व्याख्या किए हुए जयधवल का टीका?) जैन यतियों को वीरसेन-जिनसेन से तालमेल बैठता है या फिर केवल जिनसेन से ताल मेल बैठता है। विद्वान गण इन दोनों का व्यक्ति चरित्र के गण-गच्छ विवरण स्पष्ट नहीं हैं, कहते हैं। लेकिन ये दोनों मूल संघ-सेन गण है इस विषय में संदेह नहीं है।यह कुछ भी हो सिरि भूवलय के कर्ता कुमुदेन्दु से यह विवरण तालमेल नहीं बैठता है, विदित है।
__ वीरसेन-जिनसेन के अमोघवर्ष के समय में रचित धवलाटीका पर आधारित कुमदेन्दु अपने सिध्दांत ग्रंथ भूवलय/सिरि भूवलय को कन्नड में रचने की बात स्वयं स्पष्ट करते हैं ।
आगे यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सिरि वीरसेन भट्टारकरुपदेश । गुरु वर्धमान श्री मुखदे तरतरवागी बंदिरुवुदनेल्लव । विरचिसि कुमदेन्दुगुरुवु॥ ओदिसिदेनु करमाटद जनरिगे । श्री दिव्यवाणिय कर्मदे। श्री दयाधर्म समन्वय गणितद । मोदद कथेय नालिपुदु॥
इन उल्लेखों से मुनियों की गुरु परंपरा से अनुस्यूत (एक साथ मिले हुए, पिरोया हुआ, ग्रंथित) वीरसेन से संपादित होकर षटखंडागम का धवला जयधवला नाम के टीकाओं को उसमें भी मंगल प्राभृत के (बहुशः गुणधर कृत कषायप्राभृत
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