________________
( सिरि भूवलय
ग्रंथ प्रति संरक्षक के विचार
कुमुदेन्द मुनि द्वारा रचित सिरि भूवलय ग्रंथ की मूल प्रति उपलब्ध न होने पर उसकी प्रति कृति (नकल) सेना नामक दंड नायक की पत्नी मल्लिकब्बे द्वारा माघनंदाचार्य को शास्त्र दान करने का उल्लेख मिलता है। आगे चलकर मलिक्कब्बे द्वारा दान दिए गए पुर्नप्रति में कोरी कागज़(हाथ से बना हुआ मोटा और खुरदुरा कागज़) पर लिखी गई प्रति दोड्डबेले के आस्थान विद्वान व शतावधानी श्री धरणेन्द्र पंडित के पास उपलब्ध थी। यह एक अपूर्व ग्रंथ है, यह जान कर पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने दोड्ड्बेले से संपर्क रखने के उद्देश्य से श्री धरणेन्द्र पंडित के छोटे भाई की सुपुत्री ज्वालामालिनी से विवाह किया। कुछ दिनों के पश्चात श्री धरणेन्द्र पंडित का निधन हो गया। १२७० चक्र वाले ग्रंथ के पुराने बंडल को पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने अपनी पत्नी के एक जोडी सोने के कंगन के बदले में धरणेन्द्र पंडित के पुत्रों से प्राप्त किया। यह प्रसंग १९२० का है । इसके पश्चात १९५० तक इस ग्रंथ को खोला ही नहीं गया और यूँही यल्लप्पा शास्त्री जी के पुस्तक भंडार में पड़ा रहा था। आखिर में प्रत्येक चक्र में उपलब्ध १ से ६४ कन्नड के अंको को ध्वनि अथवा अक्षर लिपि का ही है, सोचकर, इसी परिपाटी को अपनाया गया। इसी तरह सभी चक्रों के परिवर्तन को पूर्ण किया गया। उपलब्ध कोरी कागज़ों के बहुतेरे पत्र शिथिल होने के कारण नष्ट हो गए थे। यल्लप्पा जी के उस समय तक के कार्य उनके गुरु( जो दिल्ली में थे) १०८आचार्य श्री देश भूषण मुनि जी के ध्यान में आया और उनके आह्वान पर तथा उनके आशीर्वाद से भारत के प्रप्रथम राष्ट्रपति श्री डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को भी इस ग्रंथ के महत्त्व का आभास हुआ। इस संदर्भ में चार-पाँच दफ़े डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने पंडित जी को बुला भी भेजा था। यह ग्रंथ संसार के अदभुतों में १०वाँ स्थान रखता है मान कर और यह ग्रंथ राष्ट्र की संपत्ति है तथा इसका संरक्षण आवश्यक है ,ऐसा समझ कर उसी समय इस ग्रंथ की माइक्रो फिल्म बनाने की व्यवस्था की गई ।
१९५२ के पश्चात पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी के संशोधन की राह पर श्री कर्लमंगलं श्री कंठय्या और कन्नड के बेरलच्चु (टायपिंग) के पितामह श्री के.
47