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सिरि भूवलय
मेरा अभिप्राय :- सिरिभूवलय स्याद्वादशिरोमणी जी को प्राप्त अमूल्य संपत्ति है। आचार्य कुमुदेन्दु जी की यह रचना एक असाधरण चक्र बंध है। नाना अंको से बने इस चक्र में ७०० से भी अधिक भाषाओं को पढा जा सकता है कहा गया है। वंशपरंपरागत रूप से प्राप्त उस अलौकिक निधि को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उस के प्रसार के हेतु श्रम उठाने वाले श्री धर्मपाल जी का पुरुषार्थ वास्तव में प्रशंसनीय है।
दिवगंत श्री कर्लमंगलम श्रीकंठैय्या जी आदरणीय स्याद्वादशिरोमणी, हमारे विश्वेश्वरपुरं आर्य समाज के बरामदे में बैठ कर सिरिभूवलय की गूढ भाषा को सुलझाने, समझने के प्रयास को मैंनें स्वयं देखा है। दिवंगत श्री कंठैय्याजी ने मुझसे एक बार आचार्य कुमुदेन्दु कन्नडिगा । हमने कन्नड को समझने का यत्न करते समय आदिभगवद्वाणि ऋगवेद उसमें तुम्हारी इच्छानुसार किसी भी कला को पढ लो ऐसा वाक्य प्रकटित हुआ ऐसा कहा । श्री धर्मपाल जी ने गीता श्लोकों को पढ कर दिखाया है।
कुल मिलाकर सिरिभूवलय एक असाधरण कृति है ऐसा कहने में संदेह नहीं है । श्री धर्मपाल जी ने उलझी हुई पहेली की भाँति रहने वाले सिरि भूवलय के रहस्य को बहिरंग कर, कन्नडांबे (माता) के लाडले पुत्र आचार्य कुमुदेन्दु के दिव्य वेदशक्ति का परिचय संपूर्ण जग को दिखाने का सामर्थ्य श्री धर्मपाल जी को विश्व चेतना प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करता हूँ ।
डॉ. एस. श्रीकंठशास्त्री जी
संशोधन लेखन :- भूवलय में जैन गणित;
केवल कर्नाटक साहित्य में ही नहीं वरन विश्व साहित्य में भी अत्यंत आश्चर्यकर ग्रंथ सिरिभूवलय में कुमुदेन्द नाम के कवि समस्त शास्त्रों को संग्रहित करने के लिए नवमांक गणित पद्धति का अनुसरण करते हैं । कुमुदेन्द, राष्ट्रकूट चक्रवर्ति अमोघवर्ष तथा गंगराज सैगोट्ट शिवमार के भी गुरु थे तथा वीरसेनाचार्य के शिष्य और जिनसेन के मित्र थे ऐसा माना जाता है। अपने भूवलय ग्रंथ में वीरसेन का धवळाटीका का अनुसरण कर गुरु से भी अधिक ज्ञानार्जन प्राप्त किया ऐसा कहा जा सकता है। इस बृहद्ग्रंथ को संख्या- अंकों में ही विविध बंधों में सूचित किए होने के कारण कवि के मार्ग को समझने के लिए सर्वतोमुख ज्ञान का होना आवश्यक है । यह केवल कुतूहल जनक ग्रंथ नहीं है | साहित्यकारों के लिए, दार्शनिकों के लिए, वैज्ञानिकों के लिए, सर्वमताभिमानियों के
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