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- सिरि भूवलय -
पुस्तक “कपणपुर" आणेग वंशज जिन्नम म(मु)नु नीतिमार्ग ऐसी प्रति बनवाने वाले का उल्लेख भी है कहा गया है । (भुजबलि शास्त्री केटलॉग पृ. २२६ सं १७ यह प्रति शा श ७३८ ऐसा कहना गलत है।) तत्वार्थ सूत्र के लिए कर्नाटक लघुवृत्ति को रचे दिवाकरणंदि सन् १०६२ सोरब ५८, नगर ५७ शासनों में बीर सांतर पट्टणस्वामी नोक्क के गुरु सकलचंद्र के गुरु हैं चंद्र कीर्ति के शिष्य हैं (उभय) सिध्दांत रत्नाकर ऐसी उपाधि से विभूिषित थे, कहा गया है (क. क. च. आई पी. ७९) नयसेन के धर्मामृत (सन् १११२) में उक्त हुए गुरु परंपरा में ऐळचार्य, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, (शु)भचंद्र, अजित सेन, सोमदेव, नरेन्द्र सेन, नयसेनमुनि, दिवकरणांदि, शुभचंद्र, आदि नाम हैं क. च. आई पी १२०)। इस कारण से यह धवळ प्रति लगभग ई.पू. १०५० में प्रकाश में आई होगी। मूडबिद्रि के धवळ और महाबंध प्रति ग्यारहवीं सदी में प्रचारित हुई होगी । हीरालाल जी ने मूडबिद्रि के धवळव प्रति लगभग ९-१० वीं सदी की हैं ऐसा माना है।
कुमदेन्दु गुरु परंपरा को कहते समय स्वस्तिश्रीमद्राय राजगुरु भूमंडलाचार्य, भाष प्रभाकर ,मीमांसक विद्याधर, कन्नाडिराजा, पुष्पगच्छदलि भूवलय, मध्याह्न कल्पवृक्ष, इंद्रप्रस्थ गद्गे, योवनालि भाषाभाषित, वृषभ सेननायक, पुष्पगच्छ के सेनगण आदि उपाधियों से विभूषित किया है। रायराजगुरु भूमंडलाचार्य ऐसी उपाधि १३वीं शताब्दी से पहले के शासनों में दिखाई नहीं देता। मूडबिद्रि की हस्त प्रति (संख्या ३४४) गुणभद्र प्रशस्ति में वृषभ सेनान्वय का सिद्ध सेन, शिवकोटी भट्टारक, रैवत पर्वत पर सिद्ध चक्र को स्थापित करने वाले वीरसेन, धवळ, महाधवळ, जयधवळ, विजयधवळ, महापुराणादि के रचनाकर जिनसेन तत्पश्चात नेमिसेन, छत्रसेन, जिनसेन, लोकसेन, ब्रह्मसेन, उदयसेन आदि नामों को कहते हुए कंदर्परूपवतार चतुर्दशपूर्व, पंचप्रज्ञप्ति, पंचविध दृ िवादांगादि सकल श्रुत गुणभद्राचार्य तथा बारह पीढी के बाद
श्री मुद्रायराजगुरु वसंसुधराचार्यवर्य महावादि वादी श्वर रायवादि पितामह सकलविद्वज्ञनचक्रवर्ति वंकडिकडिवाण परग्रह विक्रमादित्य मध्याह्न कल्पवृक्ष पुष्करगच्छबिरुदावळी विराजमान.. षड्दर्शनस्थापनाचार्य चक्रेश्वर डिल्लि सिंहासनाधीश्वर साभिमानवादीभसिंहचक्रेश्वर सोमसेन मूलसंघ वृषभसेनान्वय सेनगण ऐसी उपाधियों को कहा गया है।
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