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सिरि भूवलय)
इन शासनों का विस्तृत विवरण हम नही करेंगे । इस समय के भाषा विचार अत्यधिक चर्चित होकर एक स्तर तक पहुंच चुकी है। वर्तमान में हासन जिला के बेलूर ताल्लुक के हलमडि वीर भद्र देवालय के एक शिलालेख प्रकाश में आकर इस शासन में काल निर्देश न होते हुए भी यहाँ लिए गए नाम कादम्ब मृगेश वर्मा के नामानुसार यह शासन सन् ४६६ के लगभग जान कर, यही कन्नड में उपलब्ध अत्यंत प्राचीन शासन होगा, ऐसी जानकारी दी गई है (मै. अ. री.१९३८)
इस काल के कन्नड के विषय में विपुल रूप से चर्चा होने के कारण सिध्द साहित्य उपलब्ध होने के कारण इस संदर्भ में हम कोई विवरण नहीं देंगें।।
यहां से आगे आज के इतिहास का प्राचीन समय कुछ भागों को विषय से सीधे संबंध न होने के कारण छोड रहे हैं। (प्र. स.) भूवलय का स्वरूप परिचय
कुमुदेन्दु मुनि भूवलय को अपने पंच भाषा मय भगवत गीता के अट्टविहकम्म वियला नाम के प्राकृत भाग से ग्रंथ का अक्षरारंभ कर इस गीता श्लोक को ऊपर से नीचे उतारते जाते हैं। तत्पश्चात अपने नवमांक पध्दति के अनुसार
भूवलय सिध्दांतद इप्पत्तेळु । तावेल्लवनु होन्दिसिरुवा।। श्री वीरवाणी योळ्ह इ मंगल काव्य । ई विश्व दूधर्व। ४-७०॥
अभी सामने प्रस्तुत चक्र बंध के “ऊर्ध्व" भाग के २७ तावों (स्थाना) से लेकर उसी भगवद् गीता के “ओंकार बिन्दु संयुक्त” इस पहले श्लोक से भूवलय को प्रारंभ किया है। और अपने स्वीकृत भगवद् गीता को महाभारत से न लेकर इस महाभारत के लिए प्राचीन भरत-जय काव्य से अचानक ले लिया है, ऐसी जानकारी देते हैं । उस गीता के चक्रबंधाक्षर स्वरूप का परिचय देते हुए समग्र गीतामृत को ही हमारे सामने प्रस्तुत किया है। विश्व में लुप्त हो जाने वाले जयाख्यान का नाम लेते हुए उस भारत में अंतर्गत गीता को कहते हैं । गीता के एक श्लोकाध्याय के अंत में इस श्लोक को कहते हैं
चिदानंद घने कृष्णे नोक्ता स्वमुख तोजुर्नम। वेदत्रै परानंद तत्वार्थ ऋषि मंडलम।।।
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