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अथवा उपशमवागे हितदे शुद्धात्मस्वरूप अतिशयसबल विराग
सिरि भूवलय
एारलु गुणस्थानदग्र दारिये सिद्धलोकाग्र दारिये शुद्धविशेष शूर अयोगिकेवलियु
नुत क्षयोपशमनदिन्दे
नुत शुद्ध सम्यक्त्वसार
हितवदे तन्न स्वरूप
॥३९॥
॥४२॥
॥४५॥
॥ ४८ ॥
अथवा स्वरूपाचरण गुरुगळाचरिसुव चारित्रसारद । परियन्ते देशचारित्र । दिरवि म्★ अप्रत्याख्यानदुपशम । बरलथवा क्षयोपशमम् रद यवागे देशचारित्रद । दारियु सकलचारित्र ॥ शूर ज्ञा* निगळ सोम्मागुव कालदे । मूरनेय क्रोधादि नाल हितवल्लदिरुव कषायगळुपशमम् । अथवा यदुपशम ना* ॥ सततोद्योगद फलदिन्द यवागे । क्षितिपूज्य महाव्रतबहुदु जुणुजुणुरेनुव दिव्यध्वनि सारद । गणनेय सकलचारित् रान् * ॥ क्षणक्षणकावत उज्वलवागुत । कुणियुत बहुदात्म योग त्नगे बन्द् आ ध्यानदनुभवदिन्दलि । घनवाद यथाख्यात ज★ निसे ॥ गुणस्थानवेरुव परमावधियागे । जिनर यथाख्यातवदु तोरदे तोरुत जारुत बरुतिरूप । चारित्रदन्तल्लव || शूर न* योगद दारियिन्द्ऐतन्द । चारित्र सार भूवलय ॥ ५४ ॥
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सारात्म चारित्र योग नेरकषायवियोग
चारित्रवे यथाख्यात
आरेन्टु गुणस्थानदग्र
नेरदे देहवर्जितवु वैरिद बळिक सिद्धत्व
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अथवा यवागलात्म
॥४३॥
नुतस्वसम्वेद विराग ॥४६॥ हतरक्म लीनवात्मनोळु
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भूरिवय् भवदात्म योग
शूर कषायदभाव
दूर पूर्णतेय अयोग
गाराद सम्सार नाश
॥७१॥
सार प्रतर लोकपूर्ण विष पूर्णकुम्भदेम्भत्नालकु लाद । वशद औम्दम्रुत शरावे ।। यशवदरोळगे अन्धकनु आकाशदि । नेसेद चिन्तामणिरत्न शुभभद्रवागि बिद्दन्ते मानवदेह । अभवनागलु बिट्टुद ला* ॥ उभय भवार्थसाधनेय तटद्वय । शुभमन्गल लोकपूर्ण दर्शन ज्ञान चारित्रद मूरन्ग । स्पर्शमणि सोकलाग ।। मर्कट मानवनादन्ते मानव । सवर्मनवळिवुन् अर धरणियमेलिर्दु धरेयन्तरन्गद । परिपरियणुविन विष या * ।। वरिदु तन् आत्मन दर्शनवेरसिद | धरेयग्र लोकव होन्दे चामरवादतिशयवादवय्भव । आ महात्मरिगिल्लवागे || प्रेम चराचरवन्नेल्ल काणिप । कामिनि मोव होन्दि भामेयोळ् कोडुवनात्म
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प्रेमादिगळगेल्द कामि
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शरीमयसुखसिद्ध भद्र
शूररध्यात्म स्वातन्त्र्य ॥६८॥ पूर्णदन्डदे कपाटकवु
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