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( सिरि भूवलय
महिय गेल्दंकव वशगेदु राजनु। वहिसिद दक्षिणद भरत।। सिहियखंडद कर्माटक चक्रिय । महियेमंडलवेसरांतु॥ ९-१६९ १७२
अर्थात इस सत्कार्य को करने के कारण अमोघ वर्ष को धवल, जय धवल, महा धवल, जयशील धवल, अतिशय धवल, नाम के भूवलय के उपाधियाँ प्राप्त हुई, ऐसा कवि कहते हैं । कुमुदेन्दु के कहेनुसार कारण सूत्र, पूर्वे काव्य, विश्व सेन पाहुड, जोणी पाहुड, भूतबलि भूवलय, आदि महावीरोपदेश शिष्य वर्ग के अनादर से नाश हो गए। आने वाले पीढी की अप्रगल्भते( उपेक्षा, नज़र अंदाज़) से यह अद्भुत निर्माण नाश हो गया ऐसा कहने की स्थिति में आ गया है। इस इतिहास की दुर्भाग्य पूर्ण घटना से कुमुदेन्दु भी नहीं बच सके।
पिछले ११५० सालों तक अनेक मेधावी, जैन समाज में हो गए । कुमुदेन्द का ग्रंथ कहीं न कहीं सुरक्षित था ही, किसी ने भी इस अंक चक्रों से भूवलय को पढा, पूछा जाए तो उत्तर नकारात्मक ही होगा । यदि पूछा जाए तो इस ग्रंथ को पढने वाले केवल दो ही व्यक्ति होंगें, यह भी कितना सच है निर्धारित रूप से नहीं कह सकते ।
प्राचीन तीर्थंकर और उनके गणधरों के द्वारा किए गए मानव हितकर साहित्य संपूर्ण रूप से लुप्त हो गया । उप गणधर, गुरु आचार्य, के ग्रंथों की भी यही दशा हुई । सर्वभाषा मयी भाषा में पुरोषोत्तम जैसे महावीर ने वार्तालाप किया था ऐसा जैन पुराणों में मिलता है। पर यह असंभव है ऐसी निंदा की गई उनके द्वारा की गई बातचीत का कुछ भी भाग उदाहरण की रूप में न मिलने के कारण, बातचीत की थी या न की थी कुछ भी कहना संभव नहीं है।
देश की इस स्थिति में पुनः प्राचीन सत्य स्थापना के लिए अभिनव तीर्थंकर जैसे महात्मा का उदय हुआ। वह भी कन्नड प्रदेश में, गणधरों के कुल में उन्हीं के वंश में । यह महात्मा तीर्थंकर निरूपित, गणधर निरूपित, सभी ज्ञानमयी साहित्य को आपने सर्वभाषामयी कन्नड में निर्मित कर, निरूपित कर, परिशुध्द कर, जनता के सामने रखा। इस कुमुदेन्दु तीर्थंकर को दुर्भाग्य से कोई भी गणधर प्राप्त नहीं हुए । इस कार्य को भी आपने ही किया। आपका समय ११५० वर्षों से, इस महात्मा को एक गणधर की आवश्यकता थी, इसे पूर्ण करने के लिए श्री शास्त्री
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