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सिरि भूवलय
स्वसमय परसमयगळ्नोद्दिदते । स्वसमय दंते रक्षिव ॥ विषद मत्तेरिद हाविनंतेल्लर रसगब्ब विज्ञानधररु ||
अदु श्रेष्ठविदु श्रेष्ठ ज्येष्ठ कनिष्ठद । विधियनारिसि समन्वयद || चदुरिनंकद धर्म हिरिदेल्ला मतकेंदु । विदुर नीतियोळ कंड जनरू।।
कुमुदेन्द शिव, विष्णु, ब्रह्म, जिनादि सकल दैव- व्यक्ति - शक्तियों को, उनके आधारों को अत्यंत आदर भाव से देखते हैं । कैलास वैकुंठ सभी का वर्णन करते हैं ।
कुमुदेन्द द्वैत-अद्वैत, अनेकांत मतों को श्रेष्ठ मत के रूप में मानते हुए यह तीनों अरहंत के रत्न के हार हैं ऐसा कहते हुए इनके ३६३ भेद हैं कहते हैं।
ग्रंथ की ख्याति
आदिजिन से अर्जुन तक आए गीता की ख्याति को कहते हैं : उसह जिनेंद्रादि नेमिय परियंत । बेसेदु बंदिरुवंक ख्याति ।। यश “सिरिकृष्णन” भाविकालद ख्याति । हितदोळगैदंक सिद्धि ।।
नररूपिनुद्धार कुरुक्षेत्रदोळगेंब । हरियंक गणित II ।। अरिहंतविंतागे अरहंताविंतागे । गुरुनेमि “अर्जुन” ख्याति।।
कुमुदेन्द अपने शिष्यों को बोध कराए इस भूवलय गीता के विषय में कहते
ऋषिगळेल्लरु एरगुव तेरदलि । ऋषिरूपधर कुमदेन्दु । हसनाद मनदिंदमोघवर्षांकगे । हेसरिट्टु पेळद श्री गीते । ।
राजर्षि ब्रह्मर्षि व्यासर्षिगोरेदंते । श्री जिननेमियंकगळं नैजस्वरूपदिं केळिद सैगो । राजर्षि कुमदेन्दु गुरुविं ॥
कुमुदेन्द आदिजिन के "ऋग्धवल" परंपरा को गौतम से ग्रंथस्थ कर श्रुतकेवली द्वारा आगे चलकर स्वयं को जिनवाणी संयोग प्रवाहित हुई, वही यह सिरि भूवलय हैं कहते हैं निम्न लिखित श्लोक का यही भावार्थ है
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