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सिरि भूवलय
ग्रंथ का मूल
कुमुदेन्दु मुनि द्वारा रचित मूल प्रति कहाँ है? समय के बदलाव के साथ उसकी क्या स्थिति है? यह हमें ज्ञात नहीं है । इस ग्रंथ को किसने पढ़ा ? किसने देखा? कुछ पता नहीं है किसी भी संस्कृत, प्राकृत, कन्नड कवि ने इनका नाम नहीं लिया है। यह विषय, सिरि भूवलय ग्रंथ का नाम ही नए रूप में जनता के सामने आने के कारण विद्वानों को उस काल के ग्रंथ का, शासन पध्दतियों का परिशीलन कर, एक अनुशीलन की आवश्यकता हुई। हमारी जानकारी के अनुसार सर्वभाषा मयी काव्य का दर्शन करने वाले पढने वाले और पढाने वाले यदि कोई है तो तो वह है एक महामाता मल्लिकब्बे और दूसरे पिरिय पट्टण के देवप्पा नाम के जैन ब्राह्मण कवि । कन्नडड के कवि रन्न के पोषक दान चिंतामणि अत्तीमब्बे की भाँति इस मल्लिकब्बे ने भी भूवलय के साथ, धवल, जयधवल, महा धवल, विजय धवल, अतिशय धवल, नाम के ग्रंथों की प्रतिलिपि बनवाई, और इस सिध्दांत शास्त्र ग्रंथों को अपने परम गुरु गुण भद्र सूरी के शिष्य माघनंदी नामक महात्मा को शास्त्र दान किया, ऐसा ग्रंथ के आखिरी प्रशस्ति में लिखा गया है। यहाँ अनूनधर्मज नाम से प्रसिध्द
महनीय गुणनिधानम । सहजोन्नतबुध्दि विनयनिधियेने नेग्दळं ॥ महिविनुत कीर्तिकांतेय । महिमानं मानिताभीमानं सेनं ॥
इस सेन की पत्नी
अनुपम गुणगण दासवर । मन शीलनिदानेयेनिसि जिनपदसत्को कनद शिलीमुखळेने मा । ननिधि श्री मल्लिकब्बे ललनारत्नं ।। आवनिता रत्नद पें । पावंगं पोगळलरिदु जिनपूजियना ॥ ना विधध दानदमळिन । भावदोळा मल्लिकब्बेयं पोल्ववरार ।। विनयदे शीळदोळ गुणदोळादियं पेंपिनिं पुट्टिदमनो । जन रति रूपिनोळ खणि येनिसिर्द मनोहरप्पुदोंद रू ।।
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