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(सिरि भूवलय
था । उसको नेरद दृष्ट बीळलु विषवमृत... ॥, चित्रवचित्रवादौषधि.....॥ जैसे अनेक पद्य के अर्थ को पुनः अवलोकन करे तो यह स्पष्ट होगा ।
__ श्री पूज्यपादाचार्य पंडित का नाम अभी भी आनुवंशिक वैद्यों ने सुना है । वह कोळ्ळेगाल मे स्थित माधवभट्टाचार्य के संतान हैं । उनके ससुरजी ही पाणिनि आचार्य है। श्री पूज्यपादाचार्य ११ साल तक उस समय के दिगंबर जैनमुनि संस्था के आचार्य थे । यह समान्य विचार नहीं है ।
इससे पूर्व चौथी सदी में समंतभद्राचार्य , सिद्धांतरसायन कल्प जैसे अनेक वैद्यग्रंथ के कर्ता थे। उन्होंने नरसिंहराजपुर में एक मठ(पाठशाला) की स्थापना की थी। गेरुसोप्पे के समीप रह रहें जैनमुनि द्वारा सूत स्वर्णविद्याओं को जानते थे । इनके द्वारा रचित भूपुट, भूरुहपुट, गणित पुट, मूष( लोहे को पिघलाने के साधन) गणित आदि अत्यंत मूल्य है।
आज के प्लाटिनं कहनेवाले लौह को श्वेतस्वर्ण-सफेदस्वर्ण ऐसा इस ग्रंथ में कहा गया है।
समंतभद्राचार्य ने सिंदूर को अत्यंत आरोग्यदृढकाय शरीर के रक्तरेणु की भाँति है ऐसी जानकारी दी है। पूज्यपाद के वचन के अनुसार सिंदूर
उद्यद् भास्कर सन्निभं च विमचं तत्सूर्य भारंजितं । वातं पित्तेन शीतं तपनिल नहितं विंशतिर्मेह हति ।। तृष्णादाहार्ध गुलं पिशगुद रजोपाडु शोमोदराणां ।। कुष्टं अष्टदशघु सकलवण सन्निशूलाग्र गंधी ॥ बाल स्त्री सौख्य संगं जरा मरणा रुजा कांति मायुप्रवर्ध।।
इस सिंदूर १८ प्रकार के कुष्ठरोगों का नाश करता है । इससे जरा(बुढापा) मरणरुज(रोग) का नाश होता है ऐसा कहा गया है ।
इसी प्रकार सिरिभूवलय में आनेवालाजयचक्र केसरगर्भदंतरदर्ध । नयका कक्षपिंछ बला । नियतिकांतार भल्लातकीगडिया । शम्याकामृतमोघं ॥
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