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(सिरि भूवलय
होना है और इनके छंदोवैलक्षण अलग (प्रत्येक) परामर्श से विस्तृत होना भी है। वैसे ही बीच के पद छंदांशों के द्वारा वाचन के लिए अनुकूल होकर दिखाने वाले आगे के अध्यायों के छंद प्रकारों के छंदोवैलक्षण भी परिचित वाचन मुद्रण क्रम में प्रकाश में आने से और भी स्पष्ट होना होगा। विविध भाषा सम्योजनों के संसर्ग के कारण इन कुछ भागों के छंद प्रकारों को तुरन्त जानना मुमकिन नहीं हो सकता है।
बंध चित्र
सिरि भूवलय नाम का जैन सिध्दांत ग्रंथ अक्षरात्मक लिपि स्वरूप में ही न रहकर गणित में प्रचलित अंकों को निश्चित संख्या के चौकोर खानों में समाहित श्रेणी बंध के रूप में होना भी अत्यंत कौतूहल का विषय है। अंकों को अक्षरों में परिवर्तित कर विशिष्ट क्रम में पढा जाए तो संस्कृत-प्राकृत-कन्नड भाषाओं के पद साहित्य का निष्पन होता है वैसे ही अन्य भाषाओं का साहित्य भी। एकएक श्रेणी बंध लम्बाई में २७ और चौडाई में २७ चौकोर खानोंके साथ ७२९ खानों की एक रचना बनती है। कवि इसे चक्रबंध कट्टिनोळ विश्व काव्य (चक्र बंध के बंधन में बाँधा हआ विश्व काव्य) कहते हैं(१-१९)। श्रेणी बंध को अक्षरात्मक रूप में परिवर्तित करके लिखे तो चित्र काव्य संप्रदाय में परिचित चक्रबंध के प्रभेदों(रूपान्तरों) में विश्व के समस्त भाषाओं के लिए भी स्वयं का एक सिध्दांत शास्त्र ग्रंथ उद्भव हो सकता है ऐसा कवि का आशय रहा होगा।
चक्र बंध अरगल सहित या रहित रहने वाले द्विश्रृंगाटक, विविडित, द्विचतुष्क, चतुरर, षोडशदळ, गरुडगति इत्यादि प्रभेदों के एक प्रकार से षडर, अष्टार, नाम के और दो प्रकार से भी मिले हुए रहते हैं। इनके लक्षण लक्ष्य संस्कृत कन्नड काव्य लक्षण ग्रंथों में निरूपित हुए हैं। ऐसे इस अक्षरांक काव्य के अन्तर्गत अनेक संख्याओं में छिपे हो सकते हैं। इस ग्रंथ को परिचय कराते समय ७ सांगत्य पदों के १ चक्र में समाहित हुए होकर ऐसे १२७० चक्रों के नाना बंधों में पढा जाए तो ५६ अध्यायों के ६४८०० श्लोक (पद) मंगल प्राभृत नाम के पहले खंड के साहित्य का सृजन होता है ऐसी जानकारी दी गई है। इतना ही नहीं
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