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(सिरि भूवलय
अध्ययन किया। ज्ञानार्जन के लिए देश भ्रमण कर ग्रंथ भंडारों का परिचय प्राप्त किया। इस बीच साहित्य ग्रंथ, शास्त्र ग्रंथ, वेद, उपनिशद तत्व शास्त्र के शिलालेखों का तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत, तेलगु, तमिल, मराठी, हिन्दी, बंगाली, उर्दू आदि भाषाओं में व्यवहार का सामर्थ्य रखते थे। आपको वैदिक, जैन, बौध्द दर्शन मात्र ही नहीं और भी अनेक दर्शन के विषय में गहरा ज्ञान था। प्राचीन और नवीन संस्करणों के बाइबिल कुरान ग्रीक इतिहास के विषय में भी परिचय था। फलस्वरूप अपार ज्ञान और विस्तार पूर्वक जीवन दर्शन आपका था। अपने ज्ञान को आपने अभिप्राय मंडल के संदर्भ में तार्किक स्पष्टता के लिए किया था।
आपने गहस्थ आश्रम स्वीकार नहीं किया। शायद इसका कारण स्वतंत्रता संग्राम की ओर झुकाव था। कांग्रेस कार्य कर्ता के रूप में आप परम देश भक्त थे। गांधी जी में आदर भाव रखते थे। आप स्वयं लेखक भी थे। १९३२-३२ में अहिंसा नाम की पत्रिका के संपादक थे। अनंतर में १९३५ मार्च से १९३६ जून तक ब्राह्मण नाम की पत्रिका के भी संपादक थे।
"सिरि भूवलय” श्रीकंठैय्या जी के पांडित्य परिश्रम का संग्रह है। सर्वार्थ सिध्दि संघ के पंडित यल्लप्पा शाह जी के सहयोग से १९३० से ही इस ग्रंथ का निरंतर अध्ययन करते रहे। इस अंक के अंकाक्षर को सर्व भाषामयी स्वरूप को पहचान कर परिचय का कार्य भविष्य मे आगे बढाया।
__ अनवरत श्रम के परिणाम स्वरूप सिरी भूवलय का प्रथम संस्करण २२मार्च १९५३ को कन्नड साहित्य परिषद में विमोचित हुआ। द्वितीय संस्करण १९५५ में प्रकाशित हुआ। जन सामन्य को कृति का परिचय हो इस उद्देश्य से भाषण और लेखों का कार्य भी जारी रहा। कृति के विषय में प्राप्त टीका-टिप्पणी का आपने प्रभावी उत्तर दिया। आप निराडंबर दार्शनिक विचारवादी थे।
__ मानव कल्याण की कल्पना करने वाले आपको पुष्पायुर्वेद तथा रस वाद ने आकर्षित किया। कन्नड सारस्वत जग ने आपकी प्रतिभा को नहीं पहचाना यही
क आश्चर्य जनक सत्य है। आपका साहित्य संशोधन साहित्य के इतिह स में एक मोल का पत्थर न बन कर केवल . ण्य रूप में ही रहना एक विषादमय स्थिति
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