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सिरि भूवलय
पत्रिका का तथा “जैनायुर्वेद" और "जैन वैद्य” नाम से साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन करते थे।
१९३८ में “ दी ऑल इंडिया हेरेडीटरी आयुर्वेदिक डॉक्टर्स लीग” की स्थपना कर उसके सचिव के रूप में कार्य किया । १९४० में संस्कृत जैनायुर्वेद ग्रंथ सुमंत भट्टाचार्य का सिध्दांत रसायन कल्प, पूज्य पाद जी का वैद्य सार संग्रह और कल्याण कारक और अनुवांशिक सिध्दौषध रत्नमाला ( रस, गंधक, नवरत्न, स्वर्ण शिला, लौह इत्यादि) इन ग्रंथों को कन्नड मे अनुवादित कर, जैनायुर्वेद सम्मेलनोंके विवरण, स्याद्वाद वैद्य शाला के नित्योपयोगी प्रायोगिक औषधियो का परिचय इत्यादि भारत अनुवंशीय अहिंसायुर्वेद, महा संघ के प्रथम कुसुमों के साथ ५५० पृष्ठों के ग्रंथ को अपने ही प्रेस में संपादित कर, मुद्रण कर उसे उस समय के श्रीमान महाराजा नाळवडी कृष्ण राजेन्द्र वडेयार महास्वामी जी को १९४० में श्रवण बेळगोळ में आयोजित महा मस्तकाभिषेक सभा में अर्पित किया। यह ग्रंथ आज भी आयुर्वेद के वैद्यों के लिए अपूर्व व आधार युक्त बना हुआ है। आपने १९५० तक जैन ग्रंथ षट्टखंडागम (पाँच धवल) वड्डाराधने, नियमसार, राजवार्तिकालंकार, तिलोयपण्णति, कसायपाहुड, आदि संस्कृत प्राकृत ग्रंथों का कन्नड में अनुवाद किया।
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उसी समय आपको, जब आप दिवंगत श्री धरणेन्द्र पंडित जी के वंशजों से प्राप्त अंक चतुर्थ चौक रूप के ग्रंथ को सुलझाने के विचार में थे तभी एक सुबह सबेरे तीन बजे उन्हें ज्ञानोदय होकर चक्र सुलझाने की कुंजी (key) मिली । अंक रूप यंत्र स्वरूप के इस ग्रंथ को पढने का क्रम भी मिला, इस वज़ह से उन्हें श्रम समय और द्रव्य का बहतायत व्यय सहना पडा, ऐसा वे कहते
हैं।
यल्लप्पा जी से संशोधित होकर श्री कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी से संपादित होकर श्री एन. डी. शंकर जी के मुद्रणालय में मुद्रित होकर “प्रस्तावना”, "मंगलाचरण रूप” “मंगल प्राभृत" के साथ सिरी भूवलय के भाग एक और भाग दो तैयार हुए। दिनांक २२-३ - १९५३ को कन्नड साहित्य परिषद मे उस समय के शिक्षा मंत्री सर्व श्री ए. जी. राम चन्द्र राय के अमृत हस्त से विमोचित हुआ ।
श्री यल्लप्पा अपने गुरु आचार्य श्री १०८ देशभूषण मुनि जी को, ग्रंथ के दिखाने पर उत्तर भारत की जनता भी इस ग्रंथ से परिचित हो इस कारण सिरि
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