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( सिरि भूवलय
जयधवळ सन् ८३७ फरवरी १९ सोमावार को संपूर्ण हुआ। बहुशः जिनसेन ने महापुराण ग्रंथ रचना को अनंतर में आरंभ कर असंपूर्ण ही छोड दिया था जिसे उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने बंकापुर में सन् ८९८ मार्च २ गुरुवार श्री पंचमी के दिन उत्तर पुराण रूप में संपूर्ण किया (संकलन संस्करण १, पृ.सं १०९)
वीरसेन तथा द्वितीय जिनसेन लंबे समय तक जीवित रहें होंगें ऐसा मानना होगा हरिवंश के जिनसेन ने अपने ग्रंथ को नन्न राजा से निर्मित बसदि( जैन देवालय) में रचा है ऐसा कहने के कारण, बहुषः यह नन्न राजा सन् ७९३ में रहे शंकर गण के पिता काका के पुत्र रहे नन्न राजा होंगें। राष्ट्र कूट मम्मडि गोविन्द (सन् ७९३-८१५) को जगत्तुंग उपाधि रही होगी (सु.क्रि.श.८००) बनवासी के राज्यादित्य परमेश्वर के शासन काल से, हूलीहळ्ळि शासन से भी ज्ञात होता है। इस हूलिहळ्ळि शासन में जगत्तुंग के शासनावधि में सलुकिक वंश के मणिनाग के पौत्र बनवासी के राज्यादित्य के पुत्र सामंत बुद्धरस एरेयम्मरस के साथ दान किया ऐसा कहा गया है। वीरसेन ने जगत्तुंग देवराज्य ऐसा कह विद्दणरायनरेन्द्र ऐसा बहुशः एक सामंत का नाम लिया होगा। मम्मडि गोविन्द के पुत्र अमोघवर्ष (नृपतुंग) ही बोद्दन नरय (बद्धेग नरप) नाम के हीरालाल के पाठांतर से अमोघवर्ष का भी बद्धेग नाम होगा ऐसा कुछ लोगों का मानना है। सन् ९३७ में रहे इम्मडि कृष्ण के पौत्र युवराजावस्था में निधन हुए, जगत्तुंग के द्वितीय पुत्र भी रहे, मुम्मडि अमोघवर्ष का, बद्देग नाम भी था । परन्तु उनके पहले के दो अमोघवर्ष का नाम बद्देग रहा होगा इस के लिए पर्याप्त आधार नहीं है । केवल नरेन्द्र कहा जाने के कारण सामंत बुद्धरस के नाम को ही वीरसेन ने मोद्दणराय कहा होगा। अमोघवर्ष नृपतुंग को अतिशयधवळ ऐसी उपाधि थी ऐसा कविरजमार्ग से विदित होता है।(संकलन संस्करण १,पृ.७९)
भूतबलि का महाधवल, वीरसेन का धवळ, जिनसेन का जयधवळ, इतना ही नहीं कुमुदेन्दु विजयधवळ, जयशीलधवळ, और अतिशय धवळ, का उल्लेख किया है। जिनसेन का जयधवळ (सन् ८३७) के पश्चात अमोघवर्ष के अंत्य में (सन् ८७७) और ई.सा. ८६६ के नीलगुंद सिरूरु शासन से पहले नृपतुंग को अतिशयधवळ उपाधि प्राप्त हो इस अंतर में कुमुदेन्दु का भूवलय और “कविराजमार्ग” रचित हुआ होगा।
बहुशः छहखंडाशास्त्र की छह भाग जीवठ्ठाण, खुद्दाबंध, बंध समित्त विचय, वेदणा, वग्गणा, महाबंधों के लिए अनुक्रम रूप से धवळ, जयधवळ, महाधवळ, जयशीलधवळ,