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सिरि भूवलय
वर्गभंग, सूक्ष्म केन्द्र, प्रतिलोमराशि, प्रतिलोमनवम, अशुध्द नवम, आदि गणित शास्त्र के शब्दों के लिए अलग-अलग व्याख्यान ही करना पडेगा ।
तृतीय “आ” अध्याय
इस अध्याय में भूवलय की रचना रीति तथा अध्यात्मक तत्व का विवरण है। यह भूवलय का काव्य आदि देव के कहे गए अध्यात्म योग और अज्ञान नाश के द्वारा धर्म साधना का कारण बनता है। यह “हितवाद अतिशय मंगल प्राभृत" है । भद्र पर्याय, ज्ञात-अज्ञात, तत्वों को सतत रूप से कहने वाले ख्याति का "अंक शिवसौख्य काव्य" है । मन को सिंहासन बनाने वाले, काव्य के अनुभव को धनत्व के सिध्दांत के ओर खींचने वाला काव्य है। समझना ही ज्ञान है ज्ञान के द्वारा देखना ही दर्शन है दर्शन के द्वारा परम को समझना ही आचरण है कहना ही रत्नत्रय ( जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष साधन के तीन तत्व, सम्यग दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग आचरण) है। नवशुध्द चारित्र, नवयोग शक्ति, नव शुध्द दर्शन योग, नवमांक अद्वैत योग, आदि की साधना इस काव्य से संभव है।
सिध्द को नमस्कार करते हुए चलने वाले योग से लोकाग्रक पर पहुँचने वाले योगी को कहते हुए, गुरुओं के द्वारा आचरण की रीति ही देश के आचरण को दर्शाती है, ऐसा वर्णित करते हैं । कवि कुमुदेन्दु अहितकर काढे (क्रोध, माया, मोह) को निर्मूल करने की रीति का वर्णन करते हुए सिध्द बनने के लिए आयोग केवली बनने के लिए काढे का वियोग होना है । उसके लिए इस गहरे संसार का नाश और देह वर्जना होना है ऐसा निरूपित करते हैं ।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र(आचरण) इन तीन स्पर्श मणी के छूते ही मर्कट मानव बना। नवपद धर्म का गणित, नवमांक गणित, नवपद योग के द्वारा स्वद्रव्य को समझने वाला भवभय नाशक बनता है।
अवतार लेने वाला घने अंधकार को दूर करने वाला होता है। वह निरन्जन पद वाला बनता है(परमात्मा, निर्दोष) । ऐसे निरंजन पद वाला विशाल साम्राज्य के पर्वत पर स्थित होता है इस कारण कवि की कल्पना को प्राप्त नहीं होता। ऐसा व्यक्ति नौ का भाग करता है, भवसागर को दो से गुणा करता है, नवकार जप में रह कर नव स्वरों को मिलाता है, ऐसी उक्ति की गूढार्थ की व्याख्या होनी बाकि है।
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