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(सिरि भूवलय
कुमुदेन्दु (अ.५.१०१) हंसलिपि, भूतलिपि, वीर, यक्षि, राक्षसि, ऊहिया, यवनानि, तुर्किय, द्रमिळ, सैन्धव, मालवणीय, कीरियनाडु, देवनागरि, लाड, पारशि, आमित्रिक, चाणक्य, ब्राह्मी ऐसे १८ भाषाओं को कह, अंकों में शुद्ध कर्माटका, प्राकृतलिपि अंक, संस्कृत द्रव्य अंक, द्राविद, महाराष्ट्र, मलेयाळ, गुर्जर, अंग, कळिंग, काश्मीर, काम्भोज, हम्मीर, शौरसेनि, वालोयंक, तेबति, आदि अंक, वेंगिप, वंग, ब्राह्मीअंक, विजयार्ध, पद्म, वैदर्भ, वैशालि, सौराष्ट्र, खरोष्टि निरोष्टि, अपभ्रंशिक, पैशाचिक, रक्ताक्षर, अरिस्टदेश्दंक, कुसुमाजि देशदंक, सुमनाजि देशदंक, ऐन्द्रध्वज, जलजदल, महापद्म, अर्धमागधी, अरस, पारस, सारस्वत, बारस देशदंक, शूर, मालव, लाट, गौड, मागध, विहारु, उत्कल, कन्याकुब्ज, वराहनाडु, वैश्रमणर नाडु, वेदान्त, अडविय, बनवासि, कर्णाटक और वर्धमानांक, ऐसे चौवन में एक जोडा जाए तो पचपन होगा ऐसा कहते हैं। नागवर्मन के कहे षट्पंचाशत भाषाओं में और इन भाषाओं में सम्बंध हो सकता है।
इनमें से तेबति(टिबेटिन) लिपि गप्त काल के नागरी लिपि को अनसरित कर तिब्बत में सातवीं-आठवीं सदी में प्रचारित हुई। हर्ष के समकालीन स्रो-त्सान-गाम-पो नाम के राजा नेपाली राजपुत्री (नीलतारा) और चीनराजपुत्री (श्वेततारा) से विवाह कर उनके प्रभाव से बौद्ध मत को स्वीकार कर प्रचारित किया। पद्मसंभव शांतिरक्षित (सु सन् ७५०), शांतिदेव, कमलशील नाम के नालांदा विश्वविद्यालय के बौद्ध भिक्षुओं ने तिब्बत में बौद्ध मत को स्थापित कर बौद्ध ग्रंथों को उस भाषा में तर्जुमें(अनुवादित) करने के लिए उस काल के देवनागरी लिपि को ही अपनाया (एस. सी. विद्याभूषण, तिब्बत ग्रामर) । ब्राह्मी
और खरोष्ठी (खरोष्ट्री) लिपियों का परिचय अशोक के शासन को प्रिन्सेप,कोल्बुकादि ने ग्रीकों के द्विभाषालिपि में रहे सिक्कों की सहायता से पढने के बाद हमें पता चला। यवनानी, पाणिसूत्रों से भी प्राचीन है। इंद्रभवशर्म रुद्रमृडहिमारण्य यवयवन मातु लाचार्या णामानुक इस सूत्र के लिए कात्यायन के वार्तिका, पतंजलि के महाभाष्य, यवनानि लिपि ऐसी व्याख्या करने के कारण अलेक्सांडर (एलेक्जेन्डर) के साथ आए यवनों के अतिरिक्त ई.पू. छठे शतमान में अकेमीनियन ग्रीक निवासी है ऐसा अनुमान लगाया गया है। तुर्की, मध्य एशिया में चौथी-पाँचवीं सदी की भाषा है। द्रमिळ लिपि का उल्लेख भी जैनों के अंगग्रंथों में ही दिखाई पडता है। छठी-सातवीं सदी तक ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न दाक्षिणात्य लिपियाँ ही तमिल देश में भी प्रचलित थी। मौर्य साम्राज्य के दक्षिण भागों में ब्राह्मी लिपि ही थी ऐसा अशोक के शासन से ज्ञात होता है। तमिल देश में प्राप्त अत्यंत प्राचीन शासन भी ब्राह्मी अक्षरों में ही है। बहुशः सातवीं सदी के पश्चात पल्लव ग्रंथ लिपि के लिए
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