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________________ (सिरि भूवलय के कारण यह प्राकृत पंचिके ग्रंथ किसी और ग्रंथकार का होगा। यह सत्तकम्म अथवा कषाय पाहुड ७२०००ग्रंथ है ऐसा धवल में कहा गया है ।इस लिए वीरसेन ने उनके शिष्य जिनसेन ने ६०,००० ग्रंथ प्रमाण का जयधवल नाम के टीका को रचा । इसके पहले गुणधर के शिष्य नागहस्ति और आर्यमंगु (मंक्षु) (२) नागहस्ति के शिष्य यति वृषभ (चूर्णीसूत्र कर्ता) उनके शिष्य उच्चारणाचार्य (वृत्तिकार) थे। वीरसेन ने अपने से भी पूर्व में सूत्रों पर रचित व्याख्यानों के नामों का उदाहरण दिया है। कुंदकुंदन परिक्रम(१२००० ग्रंथ) (२) श्यामकंदन पद्धति, (१२०००) (३) तुंबलूराचार्य का चूडामणि(कन्नड, ११०००) (४) समंतभद्र का भाष्य (४८,०००?) (५) बप्पदेव का व्याख्यान प्रज्ञप्ति (प्राकृत ७३,००० श्लोक) इतना ही नहीं पूज्यपाद का सारसंग्रह, छेदसुत्त, कम्मपवाद, दशकरणि संग्रह, जोणिपाहूद, इत्यादि का भी उल्लेख है। वीरसेन के धवल टीका में (अमरावती,प्रति,पृ.३९७) धनंजय के अनेकार्थ नाममाला के हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादा वेसमाप्तौ च इति शब्दं विदुर्बुधाः।। ऐसा शब्दकोष व्यक्त हुआ है। कुंदकुंदपुर के पद्मनंदी कर्माप्राभृत को समझ कर षट्टखंडागम के प्रथम तीन खंड (जीवविभाग) के लिए व्याख्यान को रचा, ऐसा श्रुतावतार (इंद्रनंदी का एक ग्रंथ) भी कहते हैं । विबुध श्रीधर, कुंदकुंदन के शिष्य कुंदकीर्ति ने इस टीका की रचना की, ऐसा कहते हैं। वीरसेन ने चित्रकूटान्माय के ऐलाचार्य तथा पंचसूप्तान्माय के चंद्र सेन के शिष्य, आर्यनंदी के शिष्य थे, ऐसा आनतेन्द्र से वाटग्राम में निर्मित बसदि(जैन देवालय) में ग्रंथ रचना की ऐसा धवळग्रंथ से भी इंद्रनंदी के श्रुतावतार से भी ज्ञात होता है । वीरसेन ने निर्णयसागर प्रति में धवळटीका ग्रंथ के रचना समय को इस प्रकार सूचित किया है। हीरालाल ने विक्रमराय के समय को ७१८ का है कहने पर भी शालिवाहन शक के लिए (सगणामे) अन्वयन कर धवलग्रंथ समाप्ति सन् ८१६ कार्तिक शुद्ध १३ (अक्टूबर ८) ऐसा उस समय जगत्तुंग का राज्य समाप्त होकर बिद्दनरय (बदेग-अमोघ वर्ष) के शासन का आरंभ हुआ था निर्धारित किया गया। परन्तु जे.पी. जैन (jaina Antiquary jan 1949, vol 15) विक्रम संवत ८३८ (सन् ७८०) कार्तिक शुद्ध १३ (सोमवार अक्टूबर ८) ऐसा मानते हैं ।हीरालाल के अभिप्रायानुसार विक्रमरायंहि के लिए समर्पक अर्थ नहीं है। जे. पी. जैन के अनुसार सगणामे अथवा संगरमोक के लिए कोई उत्तर नहीं है। वीरसेन के कहेनुसार ग्रहस्फुट में अनेक समस्याएं हैं सामान्य तौर पर जैन ग्रंथों में विक्रम
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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