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(सिरि भूवलय
णवदनदद ई भाषेगळेललवु। अवतरिसिद करमाट ॥६-३३।। घन करमाटकदादियोळ बहभाषे। विनयत्व वळवड्सिहुदु ॥६-३४।।
कुमुदेन्दु मुनि इस तरह कन्नड_ कर्माटक दोनों को अनुरूप कर इस भाषा के शब्दों को ही विश्व के समस्त भाषाओं के लिए गणित पध्दति से विभक्त कर कन्नड में जोडते हैं। इस जुड़े हुए कन्नड काव्य में आदि में अक्षराणुओं को विनयत्व कहते हैं । इस पध्दति से प्रथम प्राकृत भाषा आती है। पूरे ग्रंथ में पद्य का आदि श्रेणी ऊपर से नीचे प्राकृत काव्य प्रवाह से बहती है। प्रथम खंड में तीसरा नवम संस्कृत बन सरिता सी बहती है । मुद्रित पूरे काव्य में इसे देखा जा सकता है।
इस काव्य के तीन अध्यायों की श्रेणी में धर सेन शिष्य भूत बलि के भूवलय के समान प्राकृत-संस्कृत-कन्नड बन बहती है (अ-३-१७४)। ग्यारहवें अध्याय से दो सिर वाले एक प्राणी जैसे एक ही काव्य को दो भागों में विभक्त करते हुए इस भाग में १८ श्रेणी है ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं । यहाँ से काव्य के प्रथम अध्याय के पद्यों को अंतराधिकार के पद्यादि अक्षरों से पढा कर काव्य को बढाते हैं । इस श्रेणी से दूसरे काव्य को ऊपर से नीचे तक नीचे से ऊपर तक चलाते हैं । यहाँ से गद्य बेदंडे को चलाते हुए गद्य-पद्य दोनों को समान रूप से बढाते हैं । १३-१४ की श्रेणी में भगवद गीता के एक-एक श्लोको को उतार कर १४वें अध्याय से गीत को पद्यों के अंत तक ऋजुवक्रगति दोनों से आगे बढाते जाते हैं। आगे इस गीता के कन्नड श्रेणी में तत्वार्थ सूत्र, गणधर मंडलादि को गूंथ दिया है। १४से कन्नड गीता के साथ तत्वार्थ सूत्र को जोडा है। १६वें के बाद कायकल्पागम श्रेढीयोळ श्रेढी को १६ बनाकर इस श्रेढी में ही १६+१८=३४ काव्योंको समाहित किया है, कहते हैं ।
१८वें अध्याय से (प.५) से गीता को प्रथम अंकों में जोड़ते हैं । यहां गीता के लिए एक सरमग्गी कोष्ठक( गुणन सूची, पहाडा) को दिया है। इस प्रकार १९वें अध्याय में अनेक श्रेणियों का परिचय पुस्तक में देखा जा सकता है। इसी तरह इस पहाडा की कला को बढाते हुए अध्याय २० में १० संस्कृत श्रेणियों
1994