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सिरि भूवलय
इस नूतन प्रथम मुद्रण में अंक- चक्रों को बिना किसी लोप दोष के समाहित किया गया है। प्रथम मुद्रण में पाए गए अनेक मुद्रण दोषों को सुधारने के लिये इन अंक - चक्रों की सहायता ली गई है। ग्रंथ के प्रथम आठ अध्यायों के ८५ अंकचक्रों को संकलित करके उनको नवमांक बंध में पढने के एक क्रम जानने और मुद्रण दोषों को सुधारने के लिये तीन साल का समय लगा । इस समय में मोहनजी के पुत्रवधु श्रीमती वंदना जी का कंप्यूटर परिज्ञान से बहुत मदद मिली । इस प्रकार प्रथम मुद्रण को सुधार कर प्रचलित कन्नड लिपि में पढने के लिये उपयुक्त हो इस प्रकार से मुद्रित किया गया है।
उलझनों का यहीं अंत नहीं था। मुद्रण के स्तर में पहले आने वाले छायाक्षरों को मिलाने में अनेक कष्टों का सामना करना पडा । इस ग्रंथ का प्रत्येक चक्र में १ से लेकर ६४ तक अंकों का उपयोग किया गया है ।
इन अंकों के लिए समान अक्षरों को यल्लप्पा शास्त्रीजी ने ढूंढा था। हमने चक्रों को डी.टी.पी में मुद्रित करने के लिये प्रयत्न किया तब नए अक्षर मिलें । उदा : आ, ईी, एगा, और, ऐ, ऐौ - इत्यादि । इन कुछ उलझनों को सुधार कर - सिरिभूवलय के प्रथम संस्करण को अत्यंत सुंदर रूप में ईस्वी २००३ के मार्च महीने में प्रकाशित किया गया है । वह संस्करण सभी के प्रशंसा का पात्र बना। प्रशंसा के बारिश में भीगने के बावजूद प्रतियों की बिक्रि में कोई भी प्रगति नहीं दिखाई दी। फिर भी वाय. के. मोहन जी का उत्साह कम नहीं हुआ । तत्कालीन राष्ट्रपति डा. बाबु राजेंद्र प्रसाद जी ने इस पुस्तक की प्रति सावधानी होने के कारण उसकी माइक्रो फिल्म बनवाकर एक पति को दिल्ली के प्राच्यकोषागार में रखवाया। मोहन जी ने अपने दिल्ली प्रवास में महिनों तक रहकर गुमनाम ही रही इस प्रति के विषय में वहां के कार्यालय के कार्यकर्त्ताओं में अनुराग जगाकर अनेक जानकारियों को प्राप्त कर वापस आये। इन जानकारियों को मोहनजी अपने लेखन में स्पष्ट किया है ।.
यह ग्रंथ अत्यंत प्रमुख, समस्या पूर्ण, अनेक नए संभावनाओं को उपलब्ध कराने वाला ग्रंथ है इसमें संदेह नहीं है । इस कारण इसके संपूर्ण अध्ययन के लिये विद्वानों को आकर्षित करना है ।
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