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( सिरि भूवलय -
मिलती है। पतंजलि के महाभाष्य में ( महाभाष्य, १. २२, पक्ति २१-२४) छान्दोगानाम सात्यमुनि राणायाणीयाः अर्धमेकारमर्धमोकारं चाधीयते । नैव हि लोके नान्यस्मिन वेदे अर्ध ऐकारो अर्ध ओकारोवास्ति। चिन्नयसूरी अपने आंध्र व्याकरण में प्राकृत में कुछेकों के अभिप्रायानुसार ए, ऐ, ओ, औ, के लिए ह्रस्ववक्र और अन्य ऐ, औ, के लिए वक्रतम कहतें हैं ऐसे अभिप्राय का उदाहरण दिया है। (गंटिजोगि सोमयाजुलु, आंध्र भाषाविकासमु)। ह्रस्व ए, ओ, औ प्राकृत में नहीं है ऐसा कहने वाले ऐ, औ, दीर्घ हैं ऐसा अभिप्राय रखते हैं। अभी प्रकाशित भूवलय के भाग में सर्वभाषामयीभाषे ६४ अक्षरानुसार अध्यायों को प्राकृत गाथाओं को कुमुदेन्दु ने बाँधा है। इन्हें परिक्षित किया जाए तो (प्रकटित २० अध्यायों के आद्यक्षरबंध) आकार से २०वा दीर्घ ऐ तक प्राकृत पद उदाहरण रूप में प्राप्त होतें हैं १. अ- अट्टविहकम्म
१५. ळू (इ?)- ळो(?) अट्टावयौसहो २. आ-आदिम
१६. ए-एसहरराय ३. आ-आणेहिं
१७. ए।- ए बाहुबली वन्दमि ४. इ- इयमूलतन्न
१८. एा- एावं कल्लाणठाणइजाण ५. ई- ईयमणाया
१९. ऐ- ऐवं हि जीवरायाणदव्वो ६. डी- इीसमुहग्गह
२०. ऐ- ऐघुणघाईमहणा ७. उ- उववाद
२१. गो- गोलियासापरसमय ८. ऊ-ऊणापमाणां
२२. ओण्णाण ९. - वर्वर
२३. ओधिरधारिय १०. ऋ-ऋषिओ
२४. औौन्देपंचगुरू ११. ऋ- ऋअमसुदो
२५. औसहिमंगल १२. ऋा-ऋऐवाणाऐतीरे ----
२६. औगालयदिवि १३. ळ (इ?)- ळाडावंशापज्जुण्णो
२७. औौण्णिवियप्टा, अनंतर्पश्चादानुपूर्वि १४. ळु(इ?)- ळुविसन्तु जिणवरिन्दा __ यह प्राकृत पद बहुशः निर्वाण गाथा है। एक ही स्वर के दीर्घ और प्लुत रूपों से अर्थ किस प्रकार भिन्न होता है इसे आगे विमर्शन करना होगा।
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