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( सिरि भूवलय)
तनगे बारद मातु गळ्नेल्ल कलिसुतं । विनयादध्यात्मा अचल ॥ तनुवनाकाशिके हारिसि निलिसुव । घनवैमानिक दिव्य काव्य ॥ रणकहळेय कूगनिल्लवागिप काव्य। दनुभवखेचर काव्य।
अर्थात यह काव्य एक निर्मल काव्य है लौकिक धर्म का काव्य है। यह काव्य जिसे न सुलझा जा सके पर सुलझा हुआ कोयल की ध्वनि सा है। स्वयं को जिसका ज्ञान नहीं है उसे समझाने वाला तन-मन को काशी में पहुँचा देने वाला दिव्य काव्य है, ऐसी प्रशंसा करते हुए गीत गाते हैं । __ लेकिन यह सभी चक्र बंध संख्या लिपि में लिपि बध्द है । बहुतेक कन्नड सांगत्य छंदो विलास रूप में है । प्रत्येक चौकोर चक्र बंध रचना में कन्नड का ह्रस्व दीर्घ और प्लुतों से मिले २७ स्वर, क, च, त, ट, प जैसे २५ वर्गीय वर्ण, य, र, ल, व अवीय व्यंजन, बिन्दु अथवा अनुस्वार, (०) विसर्ग अथवा विसर्जनीय(8) जिह्वा मूलीय (8) उपध्मानीय (::) नाम के चार योगवाह सभी मिला कर ६४ मूलाक्षर १ से लेकर ६४ संख्याओं का संकेत देते हैं । यह क्रम रूप से २७ x २७=७२९ बनते हैं। कवि के निर्देशानुसार ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, अंकों की राह पकड कर चले तो अक्षरजोडनेगैदरे वह एक भाषा की छंदोबध्द काव्य अथवा एक धर्म, दर्शन, कला विज्ञान बोधक शास्त्र कृति लगती है। उसे प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा दिए गए चक्र बंधों के विविध गतियों को अत्यधिक जागरूकता से ध्यान में रख कर अनुकरण करना चाहिए। उन्होंने अनेक अंक बंधों को दिया है। उनमें चक्र बंध, हंस बंध, पद्म, परपद्म, महापद्म, शुध्द, नवमांक बंध, द्वीप, सागर, पल्या, अंबुबंध, सरस, शलाक, श्रेणी, अंक, लोक, रोम कूप, क्रौंच, मयूर, सिमातितादि बंध, कामन, पदपद्म, नख, सीमातीत, गणीत बंध इत्यादि के नाम लिए जा सकते हैं । अश्व गति, सर्प गति, आदि गति गमन निर्देश भी देते हैं । इन गति बंधों में ही अपने काव्य को बाँधा है ऐसी जानकारी देते हैं । यह एक अर्थ में बाँधा गया है उत्पन्न नहीं हुआ है । भावजन्य मधुर काव्य नहीं है। फिर भी केवल एक ही कन्नड भाषा लिपि में प्रतिनिधित्व अंकों में ही विश्व की अनेक भाषाओं, अनेक काव्य शास्त्रों को अर्थ पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने वाली विश्वविनूतन आश्चर्यकर रचना होने के कारण इसे अंकाक्षार विज्ञान रूपी विश्व कोष भी कह सकते हैं।
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