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सिरि भूवलय
७. महाबल कवि अपने नेमिनाथ पुराण में (सन् १२५४) शुभचंद्र और विनय चंद्र नाम मुनि पर के मध्य एक कुमुदेन्दु मुनि प्रसक्ति को लाए हैं ।
८. मूल संघ के बलात्कार गण जैन यतियो के एक समूह का नाम के जैन यति शास्त्रासार समुच्यादि ग्रंथों के कर्ता माघणंदी (सन् १२५३) स्वयं को कुमुदेन्दु के शिष्य के रूप में मानते हैं। अपने पदार्थ सार के अंतिम तींसवें अधिकार में मूल संघ बलात्कार गण के गुरु परंपरा को एक दीर्घ गद्य में कहने के बाद २९ संस्कृत श्लोकों में अपने गुरु कुमुदेन्दु की स्तुति करते हैं। इतना ही नहीं ग्रंथात्यंत में स्वयं को श्रक्कुमुद चंद्र भट्टारक देव के प्रिय शिष्य भी कहते हैं। गद्य भाग के स्तुति में वासु पूज्य त्रैविद्यदेव, उनके शिष्य उभय चंद्र सिध्दांत देव के बाद क्रम से कुमुद चंद्र ( कुमुद चंद्र भट्टारक) नाम के अपने गुरु की स्तुति करना ध्यान की बात है।
९.
विविध षट्टदियों सम्मिश्रित काव्य कन्नड रामायण ग्रंथ की रचना करने वाले कुमुदेन्दु (सु सन् १२६५) कन्नड वाचक लोक में अधिक परिचित हैं । इनकी कृति कुमुदेन्दु रामायण के नाम से प्रसिध्द है। ये पद्मनंदी व्रती कामांबिके के पुत्र सिध्दांतत्रय चक्रेश्वर भी उस के बाद होयसल राय मणि गण किरण भी हुए। माघणंदी चक्रेश्वर के (सन् १२५३) शिष्य ( यही माघणंदी शास्त्रसार समुच्यादि टीका ग्रंथों के कर्ता और श्रवण बेळगोळ १२९वें शासनादि में उक्त नाद कहने वाले विद्वानोंके ग्रहिक) प्रतिष्ठा कल्प टिप्पण के कर्ता भी रामायण कर्ता कुमदेन्दु ही है, ज्ञात हुआ है। यही कुमुदेन्दु पूर्व जैन गुरुओं को स्वयं स्मरण करते समय कलियुग गणधर के द्वारा स्मरण किये हुए अभयेंदु के शिष्य एक और कुमुदेन्दु का स्मरण करते हैं।
आत्रेय गोत्र के जैन ब्राह्मण कवि देवप्पा (सु सन् १५२५) पिरिया पट्टण के थे। इनहोंनें कुमुदेन्दु शतक ( कोमदेन्दु शतक) नाम के शतक ग्रंथ की संस्कृत में (आदिय एक कन्नड ग्रंथ भाग) रचना की थी, ऐसी जानकारी मिली है।
मुझे देखने को प्राप्त इस शतक के आरंभ गद्य और १३ पद्यों को एक कागज के पन्ने पर और कर्ल मंगलम श्रीकंठैय्या जी १९३५ में सिरि भूवलय
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