SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरि भूवलय साधारण तौर पर जैन - वैदिक संप्रदाय के वेद संस्कृत अथवा प्राकृत में होने पर भी उस भाषा के वेद तथा पुराणादि को कन्नड लिपि में ही कन्नडिगाओं ने लिख रखा है यह ध्यान देने योग्य तथ्य है। बारह वर्षीय वीरक्षाम उत्तर देश आने पर अपने महाव्रत कोन होने से बचाने के लिए सम्राट चंद्रगुप्त के साथ १२००० संघ के साथ समृद्ध सूर देश के कळ्वप्पु -श्रवणबेळगोळ में पहुँच कर सल्लेखन (जैनों में मृत्यु प्राप्त होने नक निर्जल व्रत विधि) विधि से शरीर त्याग करने वाले अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के समय से लेकर श्री कुमुदेन्दु मुनि के समय तक सभी दिगबंर जैन सिद्धांत ग्रंथ अधिकतर कन्नड लिपि में ही उपलब्ध है उपरोक्त कथन के लिए यही साक्षाधार है। कन्नड भाषा के न होने पर सर्वभाषा मयी भाषा ग्रंथ को लिखना मुमकिन नहीं होता ऐसा स्वयं कुमुदेन्दु मुनि कहते हैं । इतना ही नहीं २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी जी को केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात ६६ दिनों तक दिव्य ध्वनि लहरी को प्रवाहित किए बिना मौन क्यों साधा ऐसा एक संदेह उत्पन्न होता है इसके लिए कन्नड को जानने वाले लोग समवसरण (केवलज्ञानी होने के पश्चात तीर्थंकर को ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुबेर द्वारा रचित मंडप) नहीं थे उसी कारण से स्वयं देवेन्द्र कन्नड देश में पधार कर उपायांतर (उपाय) से ऋगवेदादि चतुर्वेद में चतुर महर्षि गौतम को ले जाकर गणधर पदवी देने के पश्चात ही तो दिव्य ध्वनि चालित हुई थी । ऐसा क्यों हुआ ??? क्योंकि गौतम गणधर को कन्नड का ज्ञान था यही उत्तर होगा। इस बात के लिए महा पुराण में श्री जिनसेनाचार्य कहे हुए सांगत्य वाक्य ही साक्षी है। सेन गण के महामेधावी सभी आचार्य कृतयुग से, श्री वृषभ सेनगण से लेकर आज के कोल्हापुर, जिनकंचि तथा मधुगिरि इन तीनों पीठाधिकारी तक आया है। दिल्ली का सेनगण पीठ किसी कारणवश न होने पर भी, लाल किले के आगे लालमंदिर का सोने का मंदिर दिगबंर जैन मंदिर सेनगणों के कीर्ति स्तंभ की भाँति भीमाकार रूप से खड़ा है। इस गुम हुए मठ को पुनः स्थापित करना इन तीनों मठाधिपतियों का कर्त्तव्य बनता है । गृहस्थ जीवन में १६ संस्कारों को स्थिर कर शिक्षारक्षा के द्वारा जैन धर्म को शाश्वत रूप से स्थिर करने के लिए यह भट्टार (जैन संस्यासी) अवश्य होने चाहिए । श्री कुमुदेन्दु गुरु इसी सेन गण के आचार्य बन पीठासीन होने पर ( सिंह पीठ) उस समय के राजा शिवमारने गंगवंशके कीर्ति स्तंभ कहे जाने के समान अखंड भारत जय कर चक्रवर्ती बन हिमालया में कन्नड पिंछ ध्वज को फहराया। यह पिंछ ध्वज आज का मैसूर राज्य के महामहिम की जंबू सवारी ( दशहरा के समय आज 429
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy