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पासणाहचरिउ एक समीक्षात्मक अध्ययन
लेखक: डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन भारती
प्रकाशक/प्रकाशन : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मन्दिर संघी जी
सांगानेर, जयपुर आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर
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दो शब्द
महाकवि 'रइधू' कृत 'पासमाहर्चात' 'पशपालगन्मों विशिमा स्थान रखता है। इसको कथावस्तु सात सन्धियों में विभक्ति है। रहधू की समस्त कृतियों में यह काव्य श्रेष्ठ, सरस एवं रुचिकर है। इसमें संवाद तत्त्व बड़ा रोचक है। ये संवाद पात्रों के चरित्र चिक्षण में पयांत सहायक होते हैं। 'रइधृ' काष्ठासंघ की माथुर गच्छ की पुष्कर गणांय शाखा मे सम्बद्ध हैं। इनकी लगभग 40 रचनायें प्राप्त होती है। ___पासणाहवरिट' जैनधर्म के तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ के चरित्र की गौरव -गाथा से सम्बन्धित हैं। 'जिम्मर'का कथन है कि 'वे वर्द्धमान महावीर के निर्वाण के 246 वर्ष पहले विद्यमान थे।'1 'महावग्ग' में जिस वर्षावास का उल्लेख किया गया है, वह पार्श्वनाथीय परम्परा से प्रभावित होना चाहिए । 'डॉ. हर्मन जैकोबी' ने भगवान पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष माना है। डॉ. ए. एम. घाटे ने लिखा है कि पार्श्वका ऐतिहासिकत्व जैन आगम ग्रन्थों से सिद्ध है। श्री विमलचरमला भी इसी मत के समर्थक हैं। जॉलं शाण्टियर ने 'द हिस्ट्री और जैनाज' में लिखा है कि प्रोफेसर बोकोबी तथा अन्य विद्वानों के मत के आधार पर पार्श्व ऐतिहासिक पुरुष और जैनधर्म के सच्चे स्थापनकत्ता के रूप में माने जाने लगे हैं। भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता इस बात से भी सिद्ध होती है कि-"भगवान महावीर ने कहा था कि वे उस धर्म का प्रचार कर रहे हैं जिसका पहले तीर्थकर पार्श्वनाथ ने प्रचार किया था। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी कति 'हिन्द सिविलाइजेशन' में लिखा है कि "पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरुष थे;
1 Zimmer H. Philosophies of India (keyan paul) 1953, p. 183
महावग्ग 2/1/1 That parsva was a historical person, is now admited by all as very probable-Thesacred book of the East vol. xiv Introduction, p.22
हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इण्डियन पोपुल, खण्ड 2 ( जैनिज्म) पृ. 412 5 इण्डालॉजिकल स्टडीज, भाग--3, 4. 236 37 . केम्ब्रिज हिस्ट्री आव इण्डिया, जिल्द. 1, पृ. 156
व्याख्या प्रज्ञास 5/9, पृ. 227
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क्योंकि उनके अनुयायी महावीर और बुद्ध के जीवनकाल में मौजूद थे. यहाँ तक कि महावीर के माता-पिता स्वयं यात्रा के पापन भोर श्रमणों के अनुयायी थे।"
पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ को आयु 100 वर्ष की थी। वे बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। उनकी माता का नाम बामा था। 30 वर्ष की अवस्था में उन्होंने राज्य का परित्याग कर जिनदीक्षा ग्रहण की और कठोर तपश्चरण किया। केवलज्ञान प्राप्ति के उपगना अपनी दिव्य ध्वनि के माध्यम से लगमन 70 वर्ष तक धर्म का प्रचार करते हुए 777 ई. पूर्व में 'सम्मेद शिखर'से निवांण प्राप्त किया। सम्मेद शिखर' को शाश्वत तीर्थ की संज्ञर प्राप्त है। यह स्थान बिहार राज्य में स्थित है, इसे आब भी 'पारसनाथ पर्वत' कहते हैं। यह तीर्थ 20 तीर्थकरों की निर्वाण भूमि होने के कारण जन-जन की श्रद्धा का केन्द्र हैं।
भगवान पार्श्वनाथ का जीवन यद्यपि पौराणिकता से भरा हुआ है तथापि यह स्पष्ट है कि उनके अन्तिम अनेक जमा की कहानी प्रतिद्वन्द्वी कमठ के साथ संघर्ष की कहानी है, जिसमें कमठ अशुभ का और पार्श्वनाथ शुभ के प्रतीक हैं। कमठ के एकक्षीय बैर पर पार्श्वनाथ की क्षमा शीलता, अहिंसक भावना विजयी होती है तथा वे निर्वाण लक्ष्मी प्राप्त करते हैं और कमठ के जीच शबरासुर को भी जिन महिमा के प्रत्यक्षदर्शन के साथ आत्मान्वेषण का अवसर प्रारा होता है। भगवान पार्श्वनाथ की समबुद्ध का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण एककवि ने इस रूप में किया-है
कमठे धरणे-ट्रे च स्वोचित कर्म कुर्वती।
प्रभोस्तुल्य मनोवृत्ति पार्श्वनाथ श्रियेडस्तुवः। भगवान पार्श्वनाथ के महान चरित्र को काव्यमयी शैली में गुम्फित्त करने वाले महाकवि रइधू की कृति 'पासणाहचरिउ' ने मुझे प्रभावित किया फलस्वरूप मैने हिन्दी विषय में एम. ए. उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त पी. एच, डी. उपाधि हेतु शोधकार्य के लिये 'पासणाहचरिउः एक समीक्षात्मक अध्ययन' विषय चुना, जिस पर रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली (उ. प्र.) द्वारा दिनांक 12 अगस्त सन् 1989 ई. को पी.एच.डी. उपाधि प्रदान की गयी। __इस शोध प्रबन्ध में मैंने भगवान पार्श्वनाथ के जीवन चरित को तुलनात्मक दृष्टि एवं प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है साथ ही रइधकृत 'पासणाहचरिंउ' में गर्भित साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं
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सांस्कृतिक मणियों का अनुसन्धानकर सिलसिलेवारं सआने का प्रयास किया है। इसमें कुल आठ परिच्छेद हैं। भूमिका में जैनचरित काव्य परम्परा का उल्लेख करने के बाद प्रथम परिच्छेद में तीर्थकर पाश्वनाथ के जीवनचरित का तुलनात्मक विवेचन तथा उनकी ऐतिहासिकता एवं विविध साहित्य में भगवान पार्श्वनाथ सम्बन्धी कथानकों का तुलनात्मक विवेचन किया है। द्वितीय परिच्छेद में 'पासणाहबरिअ' का परिचय' शीर्षक से महाकवि रइधृ का परिचय, रचनायें, पासणाहचरिउ का रचनाकाल, कथासार, मूलस्रोत आदि का विवेचना किया है। तृतीय परिच्छेद में 'पासणाहरित' को भाषा-शैली, चतुर्थ परिच्छेद में 'पासणाहचरित' का महाकाव्यत्व सिद्ध करने के उपरान्त पञ्चम परिच्छेद में 'पासणाहचरित' में वर्णित सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन एवं सांस्कृतिक पक्ष को उद्घाटन किया है। ज पारतोद में राजनैतिक प्यास्था एवं सप्तम परिच्छेद में धर्म और दर्शन सम्बन्धी मान्यताओं का स्वरूप विश्लेषण किया है। अष्टम परिच्छेद में पार्श्वनाथचरित विषयक रचनाओं में रइधकृत 'पासणाहचरित' का स्थान निर्धारित करते हुए इसे भारतीय साहित्य की अनुपम कृति निरूपित किया है।
उक्त शोध प्रबन्ध के लेखन में मुझे जिन महान् लेखकों, कवियों, दानिकों की रचनाओं का योगदान मिला. उनका मैंने यथाशवय लेख पादटिप्पणियों में किया है। प्राचीन रचनाओं के दिव्यालोक में नवीन रचनाओं का संबल पाकर मैं अपना शोध कार्य पूर्णता के शिखर पर ला सका इस हे गटन सब रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
जिस तरह मरुभूमि में 3रे चरण चिन्हीं से भ्रमित पथिक को ना का दिशादर्शन मिलता है उसी तरह निदेशक विपत्र से भटकात्र को अपने दिशादर्शन से बचा लेता है। मेरे शोध निर्देशक डॉ. प्रेमचन्द जैन ( प्राध्यापक हिन्दी विभाग, साहू जैन कालेज, नजीबाबाद उ. प्र.) अपभ्रंश एवं हिन्दी साहित्य के प्रख आयेता एवं अधिकारी विद्वान हैं। आपके कुशल निर्देशन एवं भ्रातृवत् स्नेह के कारण यह शोध ग्रन्थ पूर्ण हो सका। इस हेतु मैं डॉ. प्रेमचन्द जैन के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
महाकवि रइधृ रचित साहित्यानुशीलन को साधना में अनवरत संलग्न श्रद्धेय डॉ. राजाराम जैन (आरा) को कृतियों में मुझे भरपूर सहायता प्राप्त हुई। मेरे समय जीवन विकास के मृत स्रोत हैं पृल्य पितामह स्त्र. मि. भागचन्द जैन
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सोरया, पूज्य पिताश्री सिं. शिखरचन्द जैन सोरया, पूज्या माँ श्रीमती अशफाँदेवी, बहिन अंगूरी देवी एवं श्रद्धास्पद अग्रजन्नय डॉ. रमेशचन्द जैन (बिजनौर), डॉ. अशोक कुमार जैन ( लाइनूं). डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन (सवावद)। तीनों भाई संस्कृत, प्राकृत एवं जैन विद्या के अधिकारी विद्वान्, सुलेखक एवं ख्यातिप्राप्त प्रवक्ता हैं। जिनका वरद आशीर्वाद सदैव मेरे साथ रहा है। आज भी इनका पथप्रदर्शन मेरी उल्लेखनीय निधि हैं। इन सन्त्रको मैं प्रणाम करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि भविष्य में भी आप सबका आशीर्वाद मेरे जीवन-पथ को कंटक रहित बनायेगा। प्रिय अनुज श्रीवीरेन्द्र कुमार जैन 'सोरंया (मड़ावरा) एवं सहधर्मिणी श्रीमती इन्द्रा जैन को भी उनके यथोचित सहयोग के लिए हार्दिक स्नेह से अभिसिंचित करता हूँ। प्रस्तुत कृषि प्रान
किसी भी मौलिक कृति का प्रकाशन इस अर्थ युग में अत्यन्त दुष्कर होता है किन्तु जहाँ पूज्यपाद गुरुओं का आशीर्वाद सुलभ हो वहाँ कोई कार्य दुष्कर कैसे हो सकता है? इस बीसवीं शती में सुयोग से समाज को परमपूज्य आचार्य श्री शन्ति सागर जी महाराज, परमपूज्य महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज. एवं परमपूज्य महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रत्यक्ष/परोक्ष दिशा निर्देशन एवं प्रेरणात्मक आशीर्वाद प्राप्त होता रहा। परिणामत: श्रद्धा ज्ञान एवं चारित्र के त्रिवेणी प्रावाहित हुई । इन्हीं पूज्यात्माओं की परम्परा में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्य परमजिनधर्मप्रभावक, अध्यात्म प्रवक्ता, मूलाधार निर्देशित श्रमणसाधनारत, चारित्रपुंज परमपूज्य मुनि श्री सुधा सागर जी महाराज ने प्रारम्भ से ही अपने सद्कर्मों व सद्प्रेरणाओं से समाज में यश तो अर्जित किया ही साथ ही जैन धर्म की प्रभावना में महनीय योगदान किया। शाकाहार क्रान्ति की योजना, तीर्थ संरक्षण और साहित्य लेखन इत्यादि अनेक क्षेत्र में वे सजग हैं। आपके संसर्ग में आने वाला व्यक्ति मंगलाचरण से प्रेरित हुए बिना नहीं रहता। मानव मानव बने यहीं आपका सदेश है। आपकी पावन प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से मेरा यह शोधप्रबन्ध 'पासणाहचरितः एक समीक्षात्मक अध्ययन' प्रकाशित किया जा रहा है। इस शुभ अवसर पर मैं कृतज्ञतापूर्वक स्वात्मबोधलाभात्मक शुभाशीवाद की कामना के साथ पूज्य मुनि श्री के प्रति सादर नमोऽस्तु अर्पित करता हूँ।
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इस कृति के प्रकाशक एवं मुद्रक बधाई के पात्र हैं जिन्होनें इसे सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित कर गरिमा प्रदान की। यह पुस्तक जिनके आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित हो रही है, उन दानशील महानुभाव को हार्दिक धन्यवाद। अन्त में मैं सभी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहयोगियों के प्रति शुभभावना, शुभकामना व्यक्त करता
मेरी भावना है किजय णंतगुणायर भवतमभायर पास जिणेस पणटुभय!। अम्ह हैं दइ जिणवर पणवियसुरणर बोहिलाहु भवि-भवि जि सया।।
पाप... 12,72) अनन्तगुणों के आकर, भवरूपी अन्धकार को दूर करने के लिये भास्कर के समान तथा समस्त भयों से रहित हे पाचं जिनेश! आपकी जय हो। देवों एवं मनुष्यों द्वारा नमस्कृत हे जिनेश्वर, हमारे लिये भव- भवान्तर में सदैव बोधिलाभ दीजिए। सेवा सदन महाविद्यालय बुरहानपुर (म. प्र.)
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' भगवान महावीर जयन्ती 1997 ई.
विनम्र
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प्रकाशकीय भारत के सांस्कृतिक विकास की कथा अति प्राचीन है। भारत वसुन्धरा के उद्यान में अनेक म दशन और विपिरवाराओं के विविधिवर्ण-सुमन खिले हैं, जिनकी सुरभि से बेचैन को त्राण मिला है। तप:पूत आचार्यों/ऋषियों मनीषियों का समग्र चिन्तन ही भारतीय संस्कृति का आधार है। जैन धर्म प्रवर्तक तीर्थङ्करों तथा जैनाचार्यों ने भारतीय संस्कृति के उन्नयन में, जो योगाधान किया है, वह सदा अविस्मरणीय रहेग। पुरातत्त्व, वास्तुकला, चित्रकला तथा राजीनित के क्षेत्र में इस धारा के अवदान को भूलकर हम भारतीय संस्कृति की पूर्णता को आत्मसात् कर ही नहीं सकते। साहित्यिक क्षेत्र की प्रत्येक विधा में उनके द्वारा सृजित महनीय ग्रन्थों से सरस्वती भण्डार को श्रीवृद्धि हुयी है। ___ अद्यावधि उपलब्ध जैनों के प्राचीन साहित्य से ज्ञात होता है कि जैन साहित्य लेखन की परम्परा कम से कम ढ़ाई वर्षों से हजार व अविच्छन्न गति से प्रवाहशील है। इस अन्तराल में जैनाचार्यों ने सिद्धान्त धर्म दर्णन, तर्कशास्त्र, पुराण, आचारशास्त्र, काव्यशास्त्र, व्याकरण, आयुर्वेद, वास्तु-कला, ज्योतिष
और राजनीति आदि विषयों पर विविध विधाओं में गम्भीर साहित्य का सर्जन किया है। जैनाचार्यों ने प्राकृत व अपभ्रंश के साथ युग की आवश्यकता के अनुसार किसी भाषा विशेष के बन्धन में न बँधकर सभी भाषाओं में प्रचुर मात्रा में लिखा है। ____ कालदोष के कारण, समाज में अर्थ की प्रधानता के बढ़ने से साम्प्रदायिक व दुराग्रही संकीर्णमना राजाओं द्वारा दिगम्बर साधुओं के विचरण पर प्रतिबन्ध लगने से तथा अन्यान्य कारणों से जैन साहित्य-मंदाकिनी की धारा अवरूद्ध सी होने लगी थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में महाकवि पं. भूरामल शास्त्री का उदय हुआ, जिन्होंने सिद्धान्त, धर्म दर्शन अध्यात्म के अतिरिक्त संस्कृत व महाकाव्यों का प्रणयन कर साहित्य- भागीरथी का पुन: प्रवाहित कर दिया और तब से जैन साहित्य रचना को पुनर्जीवन मिला और बीसवीं शताब्दी में अनेक सारस्वत आचार्यों/मुनियों/गृहस्थ विद्वानों ने गहन अध्ययन करते हुए महनीय साहित्य की रचना की और अब भी अनेक आचार्यों, मुनियों व विद्धान् गृहस्थों द्वारा यह परम्परा चल रही है।
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__ग्रन्थों की सर्जना मात्र से कोई संस्कृति विश्व साहित्य में अपना स्थान नहीं बन पाती। विश्व साहित्य में स्थापित होने के लिये इन ग्रन्थों में छिपे तत्त्वों को प्रकाश में लाने की आवश्यकता है क्योंकि ये विश्व युगीन समस्याओं के समाधान करने में सक्षम है। इस दृष्टि से ग्रन्थ प्रकाशन, ग्रन्थालयों की स्थापना के साथ इन पर व्यापक और तुलनात्मक अध्ययन भी अपेक्षित है। हर्ष का विष है कि सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तथा उनके शिष्यों तपोधन मुनिवन्द की अनुकरणीय ज्ञानाराधना ( चारित्राराधना में तो उनका संघ प्रमाणभूत है ही) से समाज में ऐसी प्रेरणा जगी कि जैनाजैन विद्यार्थियों का बड़ा समूह अब विश्वविद्यालय शोधोपाधि हेतु जैन विद्या के अंगों को ही विषय बना रहा है, जो कि जैन साहित्य के विकास का सूचक है।
जैन संस्कृति के धर्मायतनों के सौभाग्य तब भी ज्यादा बढ़े जब इतिहास निर्माता, महान् ज्योतिपुञ, मुनिपुंगज श्री सुधासागर जी महाराज के चरण राजस्थान की ओर बढ़े। उनके पदार्पण से सांगानेर और अजमेर को संगोष्ठियों की सफलता के पश्चात् ब्यावर में जनवरी, 95 में राष्ट्रीय ज्ञानसागर संगोष्ठी आयोजित की गयी, जहाँ विद्वानों ने आ. ज्ञानसागर वाङ्मय पर महानिबन्ध लेखन कराने, शोधार्थियों के शोध-कार्य में आगत बाधाओं के निराकरणार्थ उन्हें यथावश्यक सहायता प्रदान करने तथा जैन विद्या के शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन करने के सुझाव दिये। अतः विद्वानों के भावनानुसार परमपुज्य मुनिश्री के मंगलमय आशीष से ब्यावर में "आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र" की स्थापना की गयी।
परमपूज्य मुनिवर श्री की कृपा व सत्प्रेणा से केन्द्र के माध्यम से बरकत उल्लाह खाँ विश्वविद्यालय, भोपाल, कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल, चौधरी चरणसिंह विविद्यालय, मेरठ, रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर व रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से अनेक शोध छात्रों ने आ. ज्ञानसागर वाङ्मय को आधार बनाकर Ph. D.उपाधिनिमित्त पंजीकरण कराया है पंजीकरण हेतु आवेदन किया है। केन्द्र माध्यम से इन शोधार्थियों को मुनि श्री के आशीष पूर्वक साहित्य व छात्रवृत्ति उपलब्ध करायी जा रही है तथा अन्य शोधार्थियों को भी पंजीकरणोपरान्त छात्रवृत्ति उपलब्ध करायी जाएगी।
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केन्द्र द्वारा मुनिवर के आशीष से ही डेढ़ वर्ष की अल्पावधि में अनेकों ग्रन्थों का प्रकाशन किया जा चुका है।
इसी क्रम में "पासणाहूचरिउ", एक समीक्षात्मक अध्ययन नामक शोध प्रबन्ध प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है, प्रस्तुत शोध प्रबन्ध सेवासदन महाविद्यालय बुरहानपुर में हिन्दी प्रवक्ता के रूप में कार्यरत विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र जैन भारती के योग्यता एवम् परिश्रम का सफल है, आपको प्रस्तुत ग्रन्ध पर रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय द्वारा पी.एच.डो. उपाधि प्रदान की गयी है। हम भाई सुरेन्द्र जी के साहित्यिक अध्यवसाप के प्रति उन्हें साधुवाद।। ____ मैं पुन: अपनी विनवाञ्जलि एवम् श्रद्धा- भक्तिपूर्ण कृतक्षता अर्पित करता हूँ, परम-प्रभावक व्यक्तित्व के धनी. जैन संस्कृति के सबल संरक्षक एवम् प्रचारक परमपूज्य मुनिपुंगव सुधासागर जी महाराज के चरणों में, जिनकी अहेतुकी कृपा-सुधा के माध्यम से ही केन्द्र द्वारा अल्पावधि में ही समय व श्रम साध्य दुम्ह कार्य अनायास ही सम्पन्न हो सके।
चूँकि पूज्य महाराजश्री का मंगल-आशीष एवम् ध्यान जैनाचायों द्वारा विरचित अप्रकाशित, अनुपलब्ध साहित्य के साथ जैन विद्या के अंगो पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में किये शोष कायों के प्रकाशन की और भी गया है, अत: हमें विश्वास हैं कि साहित्य उन्नयन एवम् प्रसार के कार्यों में ऐसी गति मिलेगी, मानो सम्राट् खाखेल का समय पुनः प्रत्यावर्तित हो गया हो। एक बार पुनः प्रज्ञा एवम् चारित्र के पुञ्जीभूत देह के पावन कमलों में सादर सश्रद्ध नमोऽस्तु।
सुधासागर . चरण भ्रमर
अरुणकुमार शास्त्री 'व्याकरणाचार्य' निदेशक, आचायं ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर (राज.)
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पुरोवाक्
डॉ. रमेशचन्द जैन रोटर एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग
वर्द्धमान कॉलेज, बिजनौर (उ.प्र.)
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नीतिकारों ने कहा है किजीवितं ? अनवद्यं' अर्थात् जीवन क्या है? इसके उत्तर में कहा गया है कि निर्दोष जीवित ही वास्तव में जीवन है। भगवान् पार्श्वनाथ के जीव ने निर्दोष जीवन जीने की अनेक जन्मों से साधना की थी। उन्हें अपनी साधना के लिए प्रत्येक जीवन में कठिन परीक्षा की घड़ियों से गुजरना पड़ा, यहाँ तक कि इस परीक्षा की कसौटी पर खरा उतरने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग भी करना पड़ा, तो भी वे अपने कर्त्तव्य से किञ्चित् मात्र भी विचलित नहीं हुए। उनकी वैरी कमल के साथ अनेक जन्मों तक शत्रुता चलती रही। देवाधिदेव पार्श्वनाथ भगवान् का जीव शुभ का प्रतीक बनकर निरन्तर अच्छाई करता रहा, जबकि कमठ का जीव अशुभ का प्रतीक बनकर अच्छाई का बदला बुराई से चुकाता रहा। फलतः शुभ के प्रतीक को निर्वाण और अशुभ के प्रतीक को संसार मिला। बुराई के ऊपर अच्छाई की विजय 'भारतीय साहित्य और संस्कृति का मूल मन्त्र रहा है। इसी अच्छाई की सेवा और स्तुति के लिए धरणेन्द्र अपनी पत्नी के साथ आया और समीध में छत्र तानकर खड़ा हो गया। कुछ समय बाद भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान उपलब्ध हो गया। उनके सामने उपसर्गकर्ता कमठ था और स्तुतिकर्त्ता धरमेन्द्र भी था, किन्तु उनका दोनों के प्रति समभाव था। उनके इस समभाव ने ही उन्हें नमस्करणीय बना दिया। कहा भी है
कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचिते कर्म कुर्वती ।
प्रभोस्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तुवः ॥
अर्थात् कमठ और धरणेन्द्र दोनों ने अपने अपने स्वभाव के योग्य कर्म किया, किन्तु पार्श्वनाथ की दोनों के प्रति तुल्य मनोवृत्ति थी ऐसे पार्श्वनाथ हमारे कल्याण के लिए होवें ।
भगवान् पार्श्वनाथ की कठिन जीवन साधना और आत्मत्व की उपलब्धि कवियों के गुणगान का विषय रही है। यही कारण है कि आचार्य गुणभद्र,
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जिनसेन, वादिराज सूरि, भट्टारक सकलकीर्ति, पं. भूधरदास प्रभृति अनेक दिगम्बर मनीषियों और अनेक श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने संस्कृत में उनके चरित्र का गणगान किया है। उन पर प्राकत, अपभ्रंश, हिन्दी तथा अनेक भारतीय भाषाओं में चरित वाप्य और भक्तिरस से ओत- प्रांत मुक्तक रचनायें लिखी गयी, जिनकी चर्चा डॉ. जयकुमार जैन ने अपने शोध प्रबन्ध 'पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन' में की है। ___महाकवि रइधू ने 'पासणाहरित' नाम से अपभ्रंश में संक्षिप्त किन्तु सरस
और मनोहर काव्य लिखा। जिसका योग्यतापूर्ण सम्पादन और हिन्दी अनुवाद कर श्री डॉ. राजाराम जैन, आरानिवासी ने 'रइधु ग्रन्थावली' के प्रथम भाग के अन्तर्गत प्रकाशित कराया। अनुज डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन ने रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से हिन्दी विषय में जब पी.एच.डी. करने की इच्छा व्यक्त की तो मैंने उन्हें रइधकृत 'पासणाहचरिउ' पर शोधकार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने मेरे सुझाव को मानकर कार्य प्रारम्भ कर दिया, फलस्वरूप उन्होंने 'पासणाहचरिउ : एक समीक्षात्मक अध्ययन' ग्रन्थ रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया, जिस पर उन्हें पी.एच.डी. उपाधि से विभूषित किया गया। कार्य कैसा हुआ है? इसका निर्णय तो सुधी पाठक स्वयं करेंगे, किन्तु मैं इतना अवश्य कहता हूँ कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य पर कार्य करने वाले विद्वान उँगलियों पर ही गिनने लायक हैं, इनमें भी अपभ्रंश के अधिकारी विद्वान् तो दो चार ही हैं। ऐसी स्थिति में भाई सुरेन्द्र कुमार जैन का यह सत्प्रयास एक साहस ही है। अपनी योग्यता तथा बड़े जनों के अनुभवों का लाभ लेते हुए उन्होंने ग्रन्थ लिखने में पर्याप्त परिश्रम किया है, एतदर्थ उन्हें मेरा हार्दिक शुभाशीर्वाद है। उनके निर्देशक डॉ. प्रेमचन्द्र जैन (अध्यक्ष-हिन्दी विभाग, साहू जैन कॉलेज, नजीबाबाद (उ.प्र.) रहे हैं। जिनसे उन्हें पर्याप्त साहाय्य मिला है।
विद्वानों के लिए कल्पतरु परमपूज्य आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य अध्यात्मयोगी मुनिवर श्री १०८ सुधासागर जी महाराज, पूज्य शु. श्री गम्भीरसागर जी महाराज तथा प.क्ष. श्री धैर्यसागर जी महाराज के पावन आशीर्वाद से यह ग्रन्थ पाठकों के हाथों में सौंपते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। आशा है. इससे साहित्य जगत् लाभान्वित होगा। दशलक्षण पर्व १०.९.१९९७ ई.
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भूमिका
जैन चरित काव्य परम्परा
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भारतीय महाकाव्यों की परम्परा में जैन चरित काव्यों का विशेष स्थान है। वे काव्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखे गए हैं। वस्तुतः चरित काव्य कोई स्वतन्त्र विधा नहीं हैं, बल्कि यह महाकाव्य का ही एक रूप है। चरित नामान्त जैन महाकाव्यों से तात्पर्य उस प्रकार के महाकाव्यों से हैं, जिनमें किसी तीर्थंकर या पुण्य पुरुष का आख्यान निबद्ध हो, साथ ही वस्तु व्यापारों का नियोजन काव्य शास्त्रीय परम्परा के अनुसार संगठित हुआ हो । अवान्तर कथाओं और घटनाओं में वैविध्य के साथ अलौकिक और अप्राकृतिक तत्वों का अधिक सनिवेश न हो। दर्शन और आचार तत्त्व इस श्रेणी के काव्यों में अवश्य समन्त्रित रहते हैं। कथावस्तु व्यापक, मर्मस्पर्शी स्थानों से युक्त और भावपूर्ण होती है। इनमें रससिद्ध महाकाव्य, पौराणिक महाकाव्य और रोमांचक या कथात्मक महाकाव्य के लक्षणों का समन्वय होता है।
प्राकृत चरित काव्य :
प्राकृत चरितों की कथावस्तु राम, कृष्ण तीर्थंकर वा अन्य महापुरुष के जीवन तथ्यों को लेकर निबद्ध की गई है। 'तिलोयपण्णत्ती' में चरित काव्यों के प्रचुर उपकरण वर्तमान हैं। 'कल्पसूत्र' एवं जिनभद्र गण क्षमाश्रमण के 'विशेषावश्यक भाष्य' में चरित काव्यों के अर्द्धविकसित रूप उपलब्ध हैं।
प्राकृत मैं सर्वप्रथम विमलसूरि ने पउमचरिय की रचना की । ग्रन्थ में इसका रचनाकाल वीर नि. सं. 530 या वि. सं. 60 उल्लिखित हैं। 2 विद्वानों में इसके रचना काल के विषय में विवाद है। डॉ. हर्मन जेकोबी उसकी भाषा और रचना
1 डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ. 19 2 पंचैव वासवा दुसमाए, तीसवरस संजुत्ता ।
वीरे सिद्धिभुवगए तओ निवद्धं इमं चरियं ॥ पउमचरियं (जैन साहित्य और इतिहास पृ. 87
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शैली पर से अनुमान करते हैं कि वह इंसा की तीसरी चौथी शताब्दी की रचना है। डॉ. कीथम, डॉ. बुलनर आदि इसे इंसा की तीसरी शताब्दी के लगभग की या उसके बाद को रचना गानते हैं, क्योंकि उसमें दीनार शब्द का और ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी कुछ ग्रीक शब्दों का उपयोग किया गया है। दर्दा, न. केशवराव ध्रुव उसे और भी अर्वाचीन मानते हैं। इस नन्थ के प्रत्येक उद्देस के अन्त में जो गाहिणी, शरभ आदि छन्दों का उपयोग किया गया है, वह उनकी समझ में अर्वाचीन हैं। गीति में यमक और सगन्ति विमल शब्द का आना भी उनकी दृष्टि में अर्वाचीनता का होता है। दो दिन्टमिल्न डॉ. यमन आदि विद्वान वीर नि० सं. 530 को ही पङमचरिय का रचनाकाल मानते हैं। पउमरिय ग़मकथा से सम्बद्ध सर्वप्रथम प्राकृत काव्य है। संस्कृत साहित्य में जो स्थान वाल्मीकि रामायण' का है. वहीं प्राकृत में पङमचरिय' का है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। विमलहरि ने हरिवंसचरिंय' भी लिखा था, जो अनुपलब्ध हैं। लगभग 11 वीं शताब्दी विक्रमी में लिखा हुआ 'जावरिय' जम्बृस्वामी के विषय में लिखा गया सुन्दर काव्य है। इसकी रचना नाइलगच्छीय वीरभद्रमुनि के शिष्य गुणपाल मुनि ने की। ग्रन्थ पर 'समराइच्छकहा' और 'कुवलयमाला' का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
धनेश्वर सृरि ने विक्रम संवत् 1095 की भाद्र पर कृष्ण द्वितीया को धनिष्ठा नक्षत्र में 'सुरसुन्दरी चरिय'' काव्य की रचना की। यह एक प्रेमारयानक चरित काव्य हैं। इसमें 16 परिच्छेद हैं और प्रत्येक परिच्छेद में 250 प हैं। कवि ने इस काव्य में जीवन के विविध पहलुओं के चित्रण के साथ प्रेम, विराग और पारस्परिक सहयोग का पूर्णतया विश्लेषण किया है। विक्रम सं. 1129 में 'आख्यानमणिकोश' के रचयिता नेमिचन्द्र ने "यणचूडराय चरिय' की रचना की। इसमें देवामूजा और सम्यक्त्व आदि धमों का निरूपण हैं। यह संस्करा से प्रभावित है, इसकी काव्य छटा दर्शनीय है।
। एना-भइक्लोपीडिया आफ रिलिजन एण: इचिम्ल, भाग 7. P. 137 और मोड- रिव्यू
दिस. 1914 ई. 4 संस्कृत साहित्य का इतिहास (कोथ) 5 Introduction to Prakrit. 6 जैन साहित्य और इतिहास पृ.91 7 वहीं 7.91
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विक्रम सं. 1168 में गुणभद्रसूरि ने "पासणाहरिय' की रचना की। प्राकृत गद्य-पद्य में लिखी गई इस रचना में समासान्त पदावलि और छन्द की विविधता देखने में आती है। पार्श्वनाथ के सम्पूर्ण चरित्र को इसमें निबद्ध किया गया है। गुणचन्द्रगणि ते वि. सं. 1139 में "महावीर चरिम' भी लिखा यामह12025 श्लोक प्रमाण है। इसमें आठ प्रस्तात्र हैं, जिनमें से आधे भाग में भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन है, शेष में वर्तमान जीवन का वर्णन है।
अभयदेवसूर के शिष्य श्री चन्द्रप्रभ महत्तर ने वि. सं. 1127 में "सिरिजयचंद के वलिंचरिय' की रचना की। इस चरिय काव्य का उद्देश्य जिनपूजा का माहात्म्य प्रकट करना है। इसमें अष्टद्रव्यों से पूजा किए जाने का उल्लेख है। प्रत्येक द्रव्य से पृथक्-पृथक् पूजा का फल बतलाने के लिए कथानकों का प्रणयन किया गया है।
विक्रम सं. 1199 में माघशुक्ल दशमी गुरुवार को पूर्णता को प्राप्त "सुपासनाहचरिय" भगवान सुपार्श्वनाथ पर लिखित एक सुन्दर काव्य है। इसके रचयिता लक्ष्मण गणि हैं। उन्होंने आठ हजार गाथाओं में इसकी रचना पूर्ण की। समस्त काव्य तीन भागों में विभक्त है। पूर्वभत्र प्रस्ताव में सुपार्श्वनाथ के पूर्वभवों का वर्णन किया गया है और शेष प्रस्तावों में उनके वर्तमान जीवन का वर्णन है। ___1270 ई. के लगभग हुए श्री देवेन्द्रसूरि ने "सुदंसण चरिंय" काव्य लिखा। इस में चार हजार पद्य हैं, जो कि आठ अधिकार और सोलह उद्देसों में विभक्त हैं। ग्रन्थ का नाम नायिका के नाम पर है।
1513 ई. में जिनमाणिक्य अथवा उनके शिष्य अनन्त हंस ने "कुम्मापुत्तरिय'' की रचना की। इसमें 198 प्राकृत पद्मों में कूर्मापुत्रचरित है।
उक्त काव्यों के अतिरिक्त चन्द्रप्रभमहत्तर (1070ई) द्वारा रचित "चन्दके.. वली चरिय", वर्द्धमान सूरि ( 1085ई.) द्वारा रचित 'मनोरमाचरिय' तथा 'आदिनाहचरिय', देवचन्द्रसूरि द्वारा रचित मंतिनाह चरिंय, शान्तिसूरि (1104ई.) कृत 'पुहवचन्दरिय', मलधारी हेमचन्द्र कृत 'नेमिनाहचरिय', श्रीचन्द्र ( 1135ई.) कृत 'मुणिसुन्वयसामिचरिय' देवेन्द्र सूरि के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि ( 1157ई.) कृत 'सणयकुमारचरिय', हरिभद्र कृत 'चन्दण्यहचरिय', 'मल्लिनाहचरिय' तथा 'नेमिनाहचरिय', सोमप्रभसूरि कृत 'सुमतिनाहचरिय' तथा मुनिभद्र (1353ई.) कृत्त 'संतिनाहचरिय' लथा नेमिचन्द्रसूरिकृत 'अनन्तनाहचरिय' प्रमुख प्राकृत चरित काव्य हैं।
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डॉ. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ. 568. 569
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संस्कृत चरित काव्य :
संस्कृत में जैन चरित काव्य लिखने का आरम्भ सबसे पहले आचार्य रविषेण ने किया। इन्होंने "पद्मचरित " की रचना 667 ई. में पूर्ण की। यह 18000 अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण है और संस्कृत जैन कथा साहित्य सम्बन्धी प्रारम्भिक जैन रचना है। इसमें पद्म (राम) की कथा निबद्ध है। रामकथा सम्बन्धी यह सबसे प्रारम्भिक संस्कृत जैन रचना है। इसकी कथावस्तु 123 पर्वों में विभक्त है। सर्वप्रथम पं. दौलतराम जी ने इसका हिन्दी गद्यानुवाद किया था। इस अनुवाद को पढ़कर या सुनकर अनेक अजैनों ने जैनधर्म अपना लिया और जैनधर्म की बड़ी प्रभावना की ।
सातवीं आठवीं शताब्दी के सचल में दिने गरि " की रचना की। इसमें श्रीकृष्ण के समकालीन राजकुमार वरांग का जीवन संस्कृत पद्मों में सरल भाषा में निबद्ध किया गया है। इसमें 31 सर्ग हैं। बीच-बीच में धर्म तत्व का वर्णन है।
898 ई. में उत्तरपुराण के कर्त्ता आचार्य गुणभद्र ने नवसगत्मिक " जिनदत्तचरित" की रचना की। जिनदत्त अंगदेश के वसन्तपुर नगर के निवासी सेठ जीवदेव के पुत्र थे। इनका चरित्र इसमें निबद्ध है।
950-999 ई. में हुए आचार्य वीरनन्दि ने "चन्द्रप्रभचरित" की रचना की। इसमें जैनधर्म के आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभका चरित निबद्ध है। इसकी काव्यशैली प्रौढ़ है और काव्यरसिकों तथा विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
लाटवागड़ संघ के आचार्य महासेन ने 947 ई. में " प्रद्युम्नचरित" की रचना की। इसमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का चरित निबद्ध है। काव्य 14 सर्गों में पूर्ण हुआ है।
महाकवि असग ने 'वर्द्धमानचरित' और 'शान्तिनाथ चरित' नामक महाकाव्यों की रचना की। इन्होंने 988 ई. में 'बर्द्धमानचरित' की रचना पूर्ण की। इसका कथानक भगवान् महावीर सम्बन्धी है। 'शान्तिनाथचरित' में भगवान् शान्तिनाथ का जीवन चरित्र वर्णित है।
1025 ई. में वादिराज सूरि ने 'पार्श्वनाथचरित' की रचना की । वादिराज सूरि प्रसिद्ध तार्किक और कवि थे। न्याय एवं दर्शन सम्बन्धी उनकी प्रौढ़ता का दिग्दर्शन कराने में 'न्यायविनिश्चय विवरण' एवं 'प्रमाण निर्णय' पूरी तरह समर्थ हैं। वादिराज का 'पार्श्वनाथचरित' भगवान् पार्श्वनाथ के समग्र जीवन पर विस्तृत
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रूप से लिखा गया प्रथम महाकाव्य है। उनके द्वारा लिखा गया एक अन्य ग्रन्थ 'यशोधरतरित' आगामी जैन कथा लेखकों एवम् श्रोताओं का कण्ठहार बन गया
है।
वादिराज सूरि के समसामयिक आचार्य मल्लिषेण ने 'नागकुमारचरित' की रचना की। इसकी रचना पाँच सर्गों में हुई। इसमें श्रुतपञ्चमी का माहात्म्य दिखलाया गया है।
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विक्रम सं. 1216 - 1228 में आचार्य हेमचन्द्र ने 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' की रचना की। इसमें जैनधर्म के 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, नारायण तथा 9 प्रतिनारायण इन 63 शलाकापुरुषों के जीवन का वर्णन किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में यह बहुत लोकप्रिय है। हेमचन्द्राचार्य ने जैन राजा कुमारपाल पर भी एक काव्य लिखा, जिसे 'द्वयाश्रय काव्य' या 'कुमारपाल में चरित' कहते है। इसमें 18 सर्ग हैं, जिनमें 10 संस्कृत भाषा में और 8 प्राकृत
हैं।
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उपर्युक्त काव्यों के अतिरिक्त जैन परम्परा में संस्कृत में अन्य अनेक चरितकाव्य लिखे गए, जिनमें संवत् 1216 में नेमिचन्द्र रचित 'धर्मनाथचरित', गुणभद्रमुनि (12वीं शताब्दी ई.) रचित 'धन्यकुमार चरित' मुनिरवसूरि कृत अभय 'स्वामिन्नरित' ( 1195ई), देवप्रभसूरि ( 12 - 13वीं शताब्दी) कृत 'पाण्डवचरित' और 'मृगावतीचरित', जिनपाल उपाध्याय (13वीं शताब्दी) कृत 'सनत्कुमारचरित', भाणिक्यचन्द्रसूरि त्रिरचित 'पार्श्वनाथचरित' (1229ई.) तथा 'शान्तिनाथ वरित', उदयप्रभसूरिविरचित 'संघमत्तिचरित' (1233ई.) अमरसूरि (13वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) कृत 'चतुर्विंशतिजिनेन्द्र चरित' तथा 'अम्बरचरित', पूर्णचन्द्र सूरि कृत 'धन्यशालिभद्रचरित' (1228 ई.) तथा ' अतिमुक्तक चरित्र', वर्द्धमानमुरि कृत 'वासुपूज्यनति' (1282 ई.) अर्हदास कवि (तेरहवीं शताब्दी ई.) विरचित 'मुनि सुव्रतचरित', अजितप्रभसूरि कृत 'शान्तिनाथचरित' (1250ई.) लक्ष्मीतिलक गणि कृत ' प्रत्येकबुद्धचरित' ( 1254 ई.) चन्द्रतिलक उपाध्याय कृत 'अभयकुमारचरित' (1555 ई.) विनयचन्द्र सूरि (12291288 ई.) कृत 'मल्लिनाथचरित' तथा 'पार्श्वनाथचरित', सर्वानन्द सूरि (13वी शताब्दी) कृत 'पार्श्वनाथचरित', 'चन्द्रप्रभ चरित' तथा 'जगडुचरित', मुनिदेव सूरि कृत 'शान्तिनाथ चरित' (वि. सं. 1322 ) मानतुंगसूरि कृत श्रेयांसनाथचरित् (1275 ई.), प्रभाचन्द्र कृत 'प्रभावक चरित' ( 1277 ई.) जिनप्रभसूरिकृत
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'श्रेणिकचरित' (1298ई.) रामचन्द्र मुमुक्षु कृत 'शान्तिनाथ चरित', धर्मकुमार कृत 'शालिभद्र चरित' (1277ई.), देवेन्द्रसूरि (तेरहवीं शताब्दी ई.) कृत 'श्रेणिकरित', विक्रम (13वीं शती) कृत 'नेमिचरित', कमलप्रभसृरि कृत 'पुण्डरीक चरित' ( 1315ई.). मेरुतुंग सूरि (14 वीं शताब्दी). कृत 'महापुरुषचरित', 'कामदेवचरित' तथा 'संभवनाथचरित', मुनिभद्रसूरिं कृत 'शान्तिनाथचरित' ( 1353 ई.). भावदेवसरिंकृत पार्श्वनाथचरित' (वि. सं. 1412), कीर्तिराज उपाध्याय कृत 'नेमिनाश्च चरित्र' ( 1356ई.), वर्तमान भट्टारक (14 वीं 15 वीं सदी) कृत 'चरांगचरित', जयसिंहसूरि कृत 'कुमारपालचरित' (1265ई.), पद्मनन्दि ( 14 वीं शताब्दी) कृत 'वर्द्धमान चरित', भद्रगुप्त कृत 'धन्यसालिभद्रचरित' ( 1371ई.), जय शेखरसृरि कृत 'जम्बू स्वामिचरित' (1381ई.), जयतिलसृरि कृत 'मलयसुन्दरीचरित', 'हरिविक्रमचरित' तथा 'सुलसाचरित्र' वाग्भट्ट कृत 'ऋषभदेवचरित', जयानन्द सूरि ( 11वीं सदी ई.) कृत 'ठूलका परित', 'मारक साव :1393 1453 ई.) विरचित 'शान्तिनाथधरित'. 'वीर वर्द्धमानचरित', 'ऋषभदेवचरित', 'धन्यकुमारचरित', 'सुकुमालचरित', 'सुदर्शनचरित', 'श्रीपालचरित' तथा 'मल्लिनाथचरित', माणिक्यचन्द्र सूरि कृत 'श्रीधरचरित' (1406ई.), ब्रह्मजिनदास (15वीं शताब्दी का प्रारम्भ) कृत 'जम्बूस्वामिचरित' तथा 'रामचरित', मुनि सुन्दरसूरि कृत 'जयानन्द केवलिचरित' ( 1421- 1446 ई.). चारित्रसुन्दरगणि कृत 'महीपालचरित' तथा 'कुमारपालचरित', रामचन्द्र कुत विक्रमचरित्र' (1433ई), जयसागर कृत 'पृथ्वी चन्द्रचरित' (1446 ई.) जयानन्दकृत 'धन्यकुमार चरित' (1453ई.) तथा 'स्थूलभद्रचरित', राजबालभ (15वीं शताब्दी) कृत भोजचरित्र, 'चित्रसेन पद्मावती चरित्र', शीलसिंहगणि कृत 'श्रीचन्द्र के वलिचरित' (1437ई.), जिनहर्षगणि कृत 'वस्तुपालचरित्र' (1440ई.) धर्मधर कृत 'नागकुमारचरित' (1454ई.) तथा 'श्रीपालचरित', विद्यानन्दि (1432 - 1481) कृत 'सुदर्शनचरित', सत्वराज गणि कृत 'पृथिवीचन्द्रचरित' (वि.सं. 1535) तथा 'श्रीपालचरित', भुवनकीर्ति (14511470ई.) कृत 'अंजनाचरित', ज्ञानसागर कृत 'विमलनाथचरित' (1459ई.), इन्द्रहंसगणि कृत 'भुवनभानुचरित्र' ( 1497ई.), सोमकीर्ति ( 1469. 1433ई.) कृत 'प्रद्युम्रचरित', 'वशोधरचरित' तथा 'सप्तव्यसनचरित्र', भावचन्द्रसूरि कृत 'शान्तिनाथचरित' (1478ई.) श्रुतसागर सूरि (15वीं शताब्दो) कृत
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ReshamestessesressTastesrusheshastessesTASEASRASTASIAS 'यशोधरचरित' तथा 'श्रीपालचरित', ब्रह्मअर्जित (15वीं शताब्दी) कृत 'हनुमात्चरित', लब्धिसागर कृत पृथिवी चन्द्रचरित (वि.सं.1558) रत्न कीर्ति (15-16वीं शताब्दी) कृत 'भद्रबाहुचरित', 'ब्रह्मनेमिदत्त कृत 'श्रीपालचरित' (1528 ई.), 'धन्यकुमारचरित' तथा 'प्रीतिकर महामुनिचरित', भट्टारक शुभचन्द्र (1535 1556 ई.) कृत 'चन्द्रप्रभचरित', 'करकण्डुचरित', 'चन्दनचरित', 'जीवन्धर चरित' तथा ' श्रेणिक चरित', पं. जिनदास कृत 'होलिरेणुकाचरित' (1557 ई.), विनयसागर गणिकृत 'शालिभद्रचरित' (1566ई.), कवि राजबल्ल कृत 'जम्बूस्वामी चरित' (1575ई.) हेमविजयकृत 'पार्श्वनाथधारत', रबिसागर गणिकृत 'साम्व प्रद्युम्न चरित' (1588ई.), विद्या भूषण भट्टारक कृत 'जम्बूस्वामिचरित' ( 1596ई.), पदमसुन्दरकृत भविध्यदत्त चरित' (1557ई.) तथा 'पार्थनाथ चरित', उदयवीरगण कृत 'पाश्वनाथचरित', चारुचन्द्र (16वीं शताब्दी) कृत 'उत्तमकुमारचरित', भट्टारक वादिबन्द्र (15801607ई.) कृत 'सुलोचना-चरित' तथा 'यशोधर चरित', दोडच्य (16वीं शताब्दो) कृत 'भुजबलिचरित', देव-विजयमणि कृत 'पाण्डवचरित' (दि. सं. 1660) तथा 'रामचरित्र', गुणविजयगणि कृत 'नेमिनाथचरित' (1611ई.), रवचन्द्रगणि कृत 'प्रद्युम्नचरित' (1617ई.) ब. कामराज ( 17वीं शती) कृत 'जयकुमारचरित', ज्ञानविमलसूरि कृत 'श्रीपालचरित' (1688ई.), जगन्नाथ (17वीं शती) कृत 'सुषेणचरित', विश्वभूषण भट्टारक (अट्ठारहवीं शताब्दी का पूर्वाद्ध) कृत 'भक्तामरचरित', रूपचन्द्रगणि (1795 ई.) कृत 'गौतमचरित', रूपविजयणि कृत 'पृथिवीचन्द्रचरित' (1825 ई.) तथा ज्ञानसागर महाराज (जन्म 1891 ई.) कृत समुद्रदतचरित, तथा महावीरचरित (वीरोदय काव्य) प्रमुख हैं। कुछ चरित्रनामान्त ऐसे काव्य भी मिलते हैं, जिनका काल अज्ञात है। इनमें ऋद्धिचन्द्र कृत 'मृगाङकचरित', हर्ष कुन्जर उपाध्याय कृत 'सुमित्रचरित्र' शुभवर्द्धनगणिकृत 'पाण्डवचरित्र'. हर्षवर्द्धनगणिकृत 'सदय वत्मचरित्र', जिनसूरि कृत रूपसेनचरित्र' त्रैलोक्य सागर कृत 'रत्रसरचरित्र', मतिवद्धनगणिकृत 'समरादित्य चरित्र' तथा वत्सराज मुनि विरचित 'शान्तिनाथ चरित्र' के नाम आते हैं।
9 चरितकायों के विशेष विवरण के लिए देखिए (1) डॉ. जयकुमार जैन द्वारा लिखित
चार्थनाश्वचरित का समीक्षात्मक अध्ययन (2) जैन साहित्य का वृहद इतिहास भाग 5 6
(3) भगवान् महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ( 47 भट्टारक सम्प्रदाय आदि। SXSXSXSTAMATAsuses viitusxSIMITESTASTASTESTATUS
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अपभ्रंश चरित काव्य : पउमचरिद, रिट्ठणेमिचरिउ, सोका नहर, पंचूरियति ।।
अपभ्रंश का प्रथम महाकवि होने का श्रेय स्वयम्भु को प्राप्त है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जैसे महारथियों ने स्वयम्भू को हिन्दी का प्रथम महाकवि एवं उनके 'पउमचरिङ' को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य स्वीकार किया है। उनके अनुसार संस्कृत काव्य गगन में जो स्थान कालिदाय का है, हिन्दी में तुलसी जिस स्थान पर हैं. प्राकृत में जो स्थान "हाल" ने प्राप्त किया. अपभ्रंश के सारे काल में 'स्वयम्भृ' वहीं स्थान रखते हैं।10 महाकवि स्वयम्भू ने छ: कृतियों को लिखने का गौरव प्राप्त किया, लेकिन अभी तक 'पउमचरिंउ' 'रिटलणेमिचरिउ' एवं 'स्वयम्भू छन्द' वे तीन रचनायें ही प्राप्त हो सकी हैं और 'सोद्धयचरिउ', 'पंचमिचरिउ' एवं 'स्वयम्भू' व्याकरण जैसी कृतियाँ अभी तक अनुपलब्ध हैं। 'पउमचरिड' रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है, जो 90 सन्धियों में पूर्ण होता है। इनमें से 83 संधियाँ स्वयं स्वयम्भू द्वारा तथा शेष 7 उसके पुत्र त्रिभुवन स्वयम्भू द्वारा निबद्ध हैं। 'रिट्टणेमिचिरिउ' 'हरिवंशपुराण' के नाम से प्रसिद्ध है। यह 112 संधियों में पूर्ण होता है। इस महाकाव्य का 18000 श्लोक प्रमाण आकार है। इस काव्य में 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ. श्रीकृष्ण एवं पाण्डवों का वर्णन मिलता है।11 स्वयम्भू का काल 8 वीं शताब्दी ई. माना जाता है। णायकुमार चरिउ तथा जसहरचरिउ :
अपभ्रंश भाषा के सन्दर्भ में महाकवि पुषपदन्त ( 10वीं शताब्दी ई.) का स्थान महाकवि स्वयम्भू के समान प्रमुख है। इन्होंने 'महापुराण', 'णायकुमारचरिउ' एवं 'जसहरचरिउ' की रचना कर अपभ्रंश भाषा के इतिहास में अपना अमर स्थान बनाया है। गायकुमारचरिउ में नव सन्धियों में श्रुतपञ्चमी का माहात्म्य बतलाने के लिए नागकुमार का चरित वर्णित है। 'जसहरचरिउ' में यशोधर की कथा के माध्यम से जीव-बलि का विरोध किया गया है। पासणाहचरिउ :
शक संवत् 999 में पद्मकीर्ति ने भगवान पाश्वनाथ की कथा को आधार बनाकर 'पासणाहवरिउ' की रचना की। इस काव्य में महाकाव्य के सभी लक्षण
10 . चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ ५. 413 11 जनविद्या (स्वयम्भू विशेष क) . 19-20
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विद्यमान हैं। कवि ने काव्य को 18 सन्धियों में विभक्त किया है। संधि कडवकों में विभक्त हैं। प्रत्येक संधि में कड़वकों की संख्या भिन्न हैं। समचे ग्रन्थ में 315 कड़त्रक है। 'पासणाहनरिउ' का प्रधान रस शान्त है। 11वीं और 12वीं संधियां को छोड़कर शेष में से प्रत्येक सन्धि में मुनि की शान्त तपस्या, आत्मोत्सर्ग का उपदेश तथा मुनि और श्रावकों के शुद्ध चरित्रों का विस्तृत वर्णन है। ग्रन्थ की अन्तिम चार संधियों में पार्श्वनाथ की पवित्र जीवनच एवं ज्ञानमय उपदेशों से केवल शान्तरस की ही निष्पत्ति हुई है। जम्बूसामिचरिउ :
वीर कवि ने अपनी रचना "जम्बूसामिचरिंउ" की समाप्ति वि. सं. 1076 में की थी, जम्बू स्वामी इस काल के अन्तिम केवली थे एवं उन्होंने महावीर निर्वाण के 64 वर्ष पश्चात् 463ई, पूर्व में निर्माण प्राप्त किया था। जम्बूस्वामी की कथा अत्यन्त रोचक हैं। यही कारण है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उन पर 700 से अधिक ग्रन्थ रचे गए। महाकवि वीर ने भी एक वर्ष में जम्बूस्वामी को ही आधार बनाकर अपना काव्य रचा। इसमें यह कहा गया है कि मनुष्य जो कुछ होता है, अपनी अतीत की घटनाओं का फल होता है। धार्मिक अनुष्ठान से वह अपने भविष्य को संवा मामला है और वर्तम्गमो संगमित रखने में समर्थ होता है। इस प्रकार समूची कथा प्रतीक रूप में गृहीत है।12 करकंडचरिउ : ___ग्यारहवीं शती के मध्य भाग में मुनि कनकामर ने 'करकंडचरिड' की रचना की। इसमें कलिंग के राजकुमार करकण्डु का जीवन चरित निबद्ध किया गया है। करकण्डु भगवान् पार्श्वनाथ के तीर्थ में हुए थे। बौद्ध इन्हें महात्मा बुद्ध से पूर्व हुए स्वीकार करते हैं। इसमें एक कथा के अन्तर्गत कई कथायें वर्णित हैं। सुदसंणचरिउ :
कविवर नयनन्दि ने संवत् 1100 में सुदंसणचरिउ को रचना की। इसमें पंच नमस्कार मन्त्र के माहात्म्य स्वरूप सेठ सुदर्शन की कथा का वर्णन है। घटनाओं की योजना प्रसंगतः मार्मिक, स्वाभाविक तथा प्रभावोत्पादक है। यद्यपि इसकी बाह्य रचना अलंकृत एवं शास्त्रीय प्रतीत होती है, किन्तु अन्तरंग में भाषा और शैली की मधुरता तथा लोकजीवन का पूरा पुट मिलता है। श्लिष्ट तथा अलंकृत
12 बैनविद्या (वीर विशेषाङक.) पृ. 34
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शैली में जहाँ कवि एक और बाणभट्ट के निकट दिखाई देता है। वहीं लोकजीवन के यथार्थ चित्रण में स्वयम्भृ का स्मरण हो जाता है।13 पउमसिरीचरिउ :
कवि धाहिल विरचित 'पलमसिरीचरिउ. (पद्मश्रींचरित) चार सन्धियों की रचना है। यद्यपि कवि ने इसे धर्मकथा कहा है, किन्तु यह एक प्रेम कथा काव्य हैं, जिसमें समुद्रदत्त और पद्म श्री के प्रेम व्यापारों का सुन्दर वर्णन है। रचना छोटी होने पर भी काम्यात्मक कार से मह वणं है। भावानुभावों का बहुत ही सुन्दर चित्रण इस काव्य में हुआ है। वस्तुवर्णन अलंकृत होने पर भी स्वाभाविक है। लोक जीवन की झलक भी इसमें मिलती है। वर्णन विस्तृत तथा मधुर है।14 पउमसिरीचरित की हस्त लिखित प्रति सं. 1191 विक्रम की लिखित मिलती है। अत: उसके पहले धाहिल का समय निश्चित है।15 सुकुमालचरिउ : ___महाकवि श्रीधर ने 'सुकुमालचरिउ', 'पासणाहचरिउ' और 'भविसयतचरिउक' ये तीन अपभ्रंश रचनायें की। 'सुकुमालचरि3' की रचना अगहण कृष्ण तृतीया चन्द्रवार विक्रम सं. 1208 में हुई। सुकुमालचरिउ में छः सन्धियाँ हैं। इसमें मुकुमाल स्वामी के पूर्व जन्मों की कथा दी है। पासणाहचरिंउ में 12 सन्धियाँ हैं और परम्परा से प्रसिद्ध कथा के आधार पर ही तीर्थंकर की कथा कवि ने प्रस्तुत की है। भविसयत्तचरिउ :
भविरमय चरित्र में श्रुतपञ्चमी व्रत के फल को प्रकट करने के लिए कवि ने भविष्यदत्त की प्रसिद्ध कथा उपस्थित की है। जिसमें कथा की दृष्टि से कोई नवीनता नहीं है। भाषा, छन्द, शैली सब कुछ अपभ्रंश के अन्य जैन चरित काव्यों के समान है16
13 डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : भविमयदकहा तथा अपभ्रंश कथाकाब्य पृ. 330 14 डॉ. देवेन्दकुमार शास्त्री : 'भविसवतकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य, पृ. 333 '15 प्राकृत और आनभ्रंश स्नाहित्य तथा उनका हिन्दी पर प्रभाव ( राम सिंह तोगर) . 132 16 वही, पृ. 123
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सुलोयणाचरिउ :
प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के पुत्र भरत के सेनापत्ति जयकुमार की पत्नी सुलोचना के चरित को लेकर देवसेन ने सुलोवणाचरिउ की 23 सन्धियों में रचना की। कवि ने अपने पृर्ववती कवियों में पुष्पदन्त का भी उल्लेख किया है। अत: ये पुष्पदन्त के बाद और 1315 ई. से पूर्व ही किसी समय उत्पन्न हुए माने जा सकते हैं। पज्जुपणचरिउ :
'पजुण्णचरिउ' सिंह विरचिता । सन्धियों का अप्रकाशित काव्य है। इसमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का चरित्र ग्रथित है। प्रो. हीरालाल जैन ने ग्रन्थ का काल इंसा की 12 वीं सदी का पूर्वार्द्ध माना है।17 णेमिणाहचरिउ :
श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'मिगणाह चरिउ' की रचना की उसी का एक अंश डॉ. हर्मन जैकोबी ने जमनी से सनत्कुमारचरित' के नाम से प्रकाशित किया है। कवि ने ग्रंथरचना अणाहल पाटल पत्तन में वि.सं. 1216 में की थी कृत्ति की भाषा प्राचीन गजगती के चिलों से युक्त गुर्जर अपभ्रंश है। जिणदत्तचरिउ :
जिनदत्त की कथा को आधार बनाकर कविवर लाखू ने जिणदत्तचरिंउ' की रचना की। इसमें श्रीमतो और जिनदत्त के प्रेम की परीक्षा होती है और दोनों अपने प्रेम में दृढ़ रहते हैं तथा अन्त में मिलते हैं। कवि पुया अंशोभृत सिरिधर धाम विरदा के पुत्र थे। इन्होंने बिल्लरामिपुर में कृति की रचना वि. सं. 1275 में की थी।18 णेमिणाहचरिउ :
कवि लक्खण ने बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ को लेकर 'णेमिणाहचरिउ' की रचना की। इस कृति में धर्म और उपदेश के उपकरणों के साथ नगरों के वर्णन, राजमती के वियोग वर्णन में काव्य की पर्याप्त झलक मिलती है। प्रत्येक सन्धि की पुष्पिका में कवि ने अपने को रयण (रत्र) का पुत्र कहा है।19 इस ग्रन्थ को
17 हरिवंश कोछड़ : अपभ्रंश साहित्य पृ. 221, 222 18 प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, पं. 145. 146 19 वही पृ. 148-149
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हस्त लिखित प्रति वि.सं. 1510 की लिखी उपलब्ध हुई है। अत: ग्नन्थ रचना इससे पूर्व अवश्य हुई। बाहुबलिचरिउ : ___ 18 सन्धियों में समास बाहुबलिचरिउ धनपाल को महत्वपूर्ण कृति है। इसमें प्रथम कामदेव बाहुबलि का चरित्र ग्रथित है। कृति की रचना कवि ने गुर्जर देशान्तर्गत चन्दवाड नगर के राजा सारंग के मन्त्री यदुवंशी वासाहर की प्रेरणा से की थी और उन्हीं की कृति समर्पित की है। कृति वैशाख शुक्ल त्रयोदशी सोमवार स्वाति नक्षत्र सं. 1454 विक्रमी में समाप्त हुई।20 चंदप्पहचरित:
ग्यारह सधियों में विभक्त "चंदप्पहचरिउ'' यश: कीर्ति की रचना है। इसमें कवि ने भगवान चन्द्रप्रभ के चरित्र का वर्णन किया है। कृति में इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता है। कहीं-कहीं कुछ काव्यात्मक स्थल भी मिल जाते हैं। महाकवि रइधू के चरित काव्य :
महाकवि रइधू ने अनेक रचनाओं का प्रणयन किया। इनमें से बलहद्दचरिउ, मेहे सरचरिउ, जसहरचरिउ, पज्जुण्णचरिउ, करकंडचरिउ, सावयचरिउ, सुकोसलचरिउ, पासणाहारउ, सम्मदइजिणचरिउ, सुदंसणचरिठ, घण्णकुमारचरिउ, अरिट्ठणेमिचरिंड, जीमंधरचरिउ तथा संतिणाहचरिउ नामक चरित काव्य प्रसिद्ध हैं। इनमें से पज्जुण्णचरिठ, सुदंसणचरिउ तथा करकण्डचरिउ अनुपलब्ध हैं। संतिणाहचरिउ :
कवि महिन्दु ने संतिणाहचरिउ की रचना की। यह योगिनीपुर (दिल्ली) में बादशाह बाबर के राज्यकाल में वि.स. 1587 ई. में हुई। इसमें चोपाई, सोरठा आदि छन्दों का प्रयोग कवि ने किया है।21 सिरिवालचरिउ :
नरसेन विरचित सिरिवालचरिड 82 कड़वकों की एक सुन्दर प्रेमकथा है। आत्मविश्वासी, दृढ़ साहसी, धार्मिक तथा अनेक गुणों से युक्त श्रीपाल का चरित्र
20 प्राक़त और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभार, पृ. 149. 150 21 अनेकान्त वर्ष 5, किंग्ण 6-7. पृ. 153-156
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कृति का मुख्य विषय है। सिरिवालचरिउ की एक हस्तलिखित प्रति 1512 वि. की लिखित मिलती है। अतः नरसेन विक्रम की पन्द्रहवीं शती के पीछे नहीं हो सकते | 22 णायकुमारचरित :
माणिक्कराज ने 'जायकुमार चरिउ' तथा 'अमरसेन चरिठ' की रचना की। 'णायकुमारचरिङ ' में नौं सन्धियाँ हैं और पुष्पदन्त की कृति के समान कथा है, कोई परिवर्तन नहीं है। 'अमरसेन चरिउ' में सात सन्धियाँ हैं। 'णायकुमारचरिउ की रचना सम्वत् 1579 वि. में हुई 23
हरिसेण चरिउ
1
किसी अज्ञात कवि द्वारा रचित हरिणचरिउ 4 सन्धियों में लिखा गया है। इसमें हरिषेण चक्रवर्ती की कथा निबद्ध है। इसकी हस्तलिखित प्रति सं. 1583 की हैं, अतः कृति का रचनाकाल इससे पूर्व होना चाहिए 24
मयंगलेहाचरिउ :
भगवतीदास ने वि. सं. 1700 में 'मृगांक लेखा चरित' की रचना की। ये अग्रवाल दिगम्बर जैन थे और दिल्ली के भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। ग्रन्थ में किन्तु केवल 4 सन्धियाँ हैं। इसकी रचना धत्ता कड़वक शैली में की गई है, बीच-बीच में दोहा, सोरठा तथा गाथा छन्द भी मिल जाते हैं। 25
उपर्युक्त काव्यों के अतिरिक्त अमरकीर्तिगणिकृत गेमिणाहचरिठ, सुलोयणाचरिउ तथा जसहरचरिउ, देवदत्त कृत पासणाहचरिङ, तेजपाल कृत समभवणाहचरिउ तथा वरागंचरिउ, मुनि पूर्णद्र विरचित सुकुमालचरिट, सागरदत्त सूरि विरचित जंबुसामिचरिउ, शुभकीर्ति कृत संतिणाहचरिउ, असवाल कृत पासणाहचरिउ, अभयगणिकृत सुभद्दाचरिङ, जिनप्रभसूरितकृत वज्रनाभिचरिंड, तेजपाल कृत पास चरिउ, श्रीधर कृत वड्ढमाणचरिउ तथा सुकुमालचरिउ एवं कवि ठाकुर कृत संतिणाहचरित्र प्रमुख अपभ्रंश चरित नामान्त कृतियाँ हैं।
22 रामसिंह तोमर : प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, पृ.
161-162
23 राम सिंह तोमर : प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, पृ.
163 165
24 वहीं पू. 165-166
25 हरिवंश कोछड़ : अपभ्रंश साहित्य पृ. 244
Xxiii
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AKAARS ALASIASTATATATAT
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प्रथम परिच्छेद तीर्थंकर पार्श्वनाथ : तुलनात्मक अनुशीलन तीर्थंकर विषयक मान्यता ___जैनधर्म एक प्रागैतिहासिक एवं अनादि धर्म है। जैन परम्परा कालचक्र को मान्यता देती है। काल दो माने गए हैं एक अवसर्पिणी और दूसरा उत्सर्पिणी। एक काल में तीर्थंकरों की संख्या 24 होती है। धर्मतीर्थ के कर्त्ता को तीर्थकर कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि तीर्थंकर ही केवलज्ञान की उत्पत्ति के बाद धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। तीर्थङ्कर की उत्पत्ति का काल जतकाल दी निशिा है। नी शब्द की सामानुकूल परिभाषा हमें इस प्रकार मिलती है :
जो इस अपार संसार समुद्र से पार करे, उसे तीर्थ कहते हैं; ऐसा तीर्थ भगवान जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही होता है, अत: उसके कथन करने को तीर्थाख्यान कहते हैं। 'तिलोयपण्णत्ति' में तीर्थङ्कर को समस्त लोकों का अधिपति (स्वामी) कहा गया है।
वर्तमान काल के चौबीस तीर्थङ्करों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं :
1, श्री ऋषभनाथ जी, 2. श्री अजित नाथ जी, 3, श्री संभवनाथ जी, 4. श्री अभिनन्दन नाथ जी, 5. श्री सुमतिनाथ जी, 6. श्री पद्मप्रभु जी, 7. श्री सुपार्श्वनाथ जी, 8. श्री चन्द्रप्रभु जी, 9. श्री पुष्पदन्त जी, 10. श्री शीतलनाथ जो, 11. श्री श्रेयांसनाथ जी, 12, श्री वासुपूज्य जी, 13. श्री विमलनाथ जी. 14. श्री अनन्तनाथ जी, 15. श्री धर्मनाथ जी, 16. श्री शान्तिनाथ जी, 17, श्री कुन्थुनाथ जी, 18. श्री अरहनाथ जी (श्री अरनाथ जी), 19. श्री मल्लिनाथ जी, 20. श्री मुनिसुव्रतनाथ जी, 21. श्री नमिनाथ जी, 22. श्री नेमिनाथ जी,
1 षखण्डागम, भाग 8, १.91 2 संसाराब्धेपारस्य तरणे तीर्थीमष्यते ।
चेष्टितं जिनताथाना तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा | भगवज्जिनसेनाचार्य कृत आदि पुराण 4/8 3 तिलोयपण्णत्ती 1/48
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టోటోట్ 23. श्री पार्श्वनाथ जी तथा 24. श्री महावीर जी । इस समय अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर का ही शासन चल रहा है।
23 वें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ :
जैनधर्म के तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ थे। वे अपने अनुपम 15 बाहुबल से रिपुवर्ग को सिद्ध (नष्ट) करने वाले माण्डलिक राजा हुए जैन तीर्थङ्करों में भगवान पार्श्वनाथ का चरित सर्वसाधारण में लोकप्रिय रहा होगा, यही कारण है कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी के जैनकवियों ने भगवान पार्श्वनाथ विषयक अनेक रचनायें लिखीं। भ. पार्श्वनाथ विषयक अनेक चरित काव्यों, समस्त सम्प्रदायों की विभिन्न मान्यताओं, ऐतिहासिक प्रमाणों आदि का अध्ययन करने पर उनके जीवन का जो विवरण प्रकाश में आता है, वह इस प्रकार है :
भगवान पार्श्वनाथ का गर्भावतरण :
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में काशी देश में वाराणसी नगरी स्थित हैं वहाँ अश्वसेन नामक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम वामा देवी था। एक दिन रानी वामा देवी ने वैशाख कृष्ण द्वितीया के दिन विशाखा नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देखे, जिनका फल जानकर अश्वसेन ने बताया कि तुम्हारी कुक्षि से भावी तीर्थङ्कर जन्म लेगा। यह स्वप्नफल जानकर रानी अत्यन्त प्रसन्न हुई और सुखों का उपभोग करने लगीं। इधर भव भ्रमण का विनाश करने वाली सोलह भावनायें भाकर, तीर्थङ्कर गोत्र को बाँधकर एवं वैजयन्त स्वर्ग में जो तेजोराशि वाला देव हुआ था, वही बत्तीस सागर
4 अ. ऋषभोऽजितनाथश्च संभवञ्चाभिनन्दनः ।
सुपति: पद्मभासश्च सुपार्श्वः शशभृत्प्रभः || सुबुद्धिः शीतलः श्रेयान् वासुपूज्योऽमलप्रभुः । अनन्तो धर्म शान्ती च कुन्युदेवो महानरः ॥ मह्निः सुव्रतनाथ नमिनेमिश्च तीर्थकृत् । पार्श्वोऽयं पश्चिमो वीरो शासनं यस्य वर्तते ॥ - पद्मपुराणे विंशतितमं पर्व / श्लोक 9 से 10, पृ. 424
. द्र तिलोयपण्णत्ती यतितृषभाचार्य 1/ 512-513 पृ. 206
S
तिलीयपण्णत्ती, हिन्दी टीका 4/606
6 वर्तमान में वाराणसी भारतवर्ष के उत्तरप्रदेश का एक प्रमुख जिला है जिसमें काशी भी
सम्मिलित है।
52025 2
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की आयु भोगकर वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन वामा देवी के गर्भ में अवतरित हुआ।
तिलोयपारणती में भगवान् पार्श्वनाथ को प्राणत कल्प से अवतरित माना गया है। उत्तरपुराण में भी अच्युतस्वर्ग में प्राणत विमान में इन्द्र होने का उल्लेख मिलता है। इस विषय में मतैक्य नहीं है। भगवान पार्श्वनाथ के माता-पिता :
भगवान पार्श्वनाथ के माता-पिता के नामों के सम्बन्ध में आगम ग्रन्थों में समानता नहीं मिलती। 'तिलोयपण्णत्ती' में पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वर्मिला बताया गया है।10 श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग11 और आवश्यक नियुक्ति12 में पार्श्व के पिता का नाम "आससेण" तथा माता का नाम "वामा" बताया गया है। उत्तरपुराणकार ने पार्श्व के पिता का नाम "विश्वसेन" और माता का नाम "ब्राह्मी" बताया है।13 संस्कृत पार्श्वनाथ चरित के रचयिता श्री वादिराज ने पार्श्व के पिता के नाम के लिए तो उत्तरपुराण का ही अनुसरण किया किन्तु माता का नाम "ब्रह्मदता" बताया है।14 महाकवि रइधू ने पार्श्व के पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामा बताया हैं;15 किन्तु कहीं-कहीं हयसेन16 भी आया है। मेरी दृष्टि में "अश्व" और "हय" दोनों समानार्थी हैं अत: कोई भेद नहीं किया जा सकता। 'पद्मपुराण' में पार्श्व की माता का नाम वर्मा17 है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता हैं कि "वर्मिला" या "वर्मा" शब्द "वामा" को संस्कृत में रूपान्तर करने का परिणाम है। आधुनिक लेखक अश्वसेन और वामा को ही मान्यता प्रदान करते हैं।
7 पासणाहचरित (रइधू) 2:5 8 तिलोयपत्ती 4:524 9 उत्तरपुराण 73/68 10 तिलोयपण्णत्ती 4/548 11 समवायांग 247 12 आवश्यक नियुक्ति 388 13 उत्तरपुराण 7374 14 श्री पार्श्वनाथ चरित (वादिराज) 9.95 - 15 पासणाहूचरिठ (रइधू) 1/10 16 बही 2/7 17 पद्मपुराणे विर्शतितम पर्व/59, पृ. 427
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भ, पार्श्वनाथ का वंश :
महापुराण18 एवं तिलोयपण्णति19 में भ. पार्श्वनाथ के वंश का नाम "उग्रवंश" बताया गया है। उत्तरपुराण20 में पार्श्व के पिता को "काश्यपगोत्री" कहा गया है। 'आवश्यक नियुक्ति' के सन्दर्भ में पार्श्व को काश्यप गोत्री माना जा सकता है, क्योंकि इस ग्रन्थ में मुनिसुव्रत तथा अरिष्ट नेमि तीर्थङ्करों को गौतम वंश का कहकर शेष सभी तीर्थङ्करों को "कासवगुत्त' अर्थात् 'काश्यपगोत्री" कहा गया है।1 श्री देवसूरि ने सिरिपासनाहचरियं में आससेण (पा के पिता) को ''इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न" बताया है।22 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम्' में भ. पार्श्व के वंश का नाम इक्ष्वाकु ही मिलता है23 वादिराज सूरि तथा रइधू ने पार्श्व के वंश का कोई कथन नहीं किया है। 'समवावांग' और 'कल्पसूत्र' भी इस विषय में मौन ही हैं। भ. पार्श्व का जन्मस्थल : ___ भ. पार्श्वनाथ का जन्म किस नगर में हुआ था, इस बात पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के सभी लेखक एकमत हैं। सभी ने काशी देश की वाराणसी नगरी को ही इनका जन्म स्थल स्वीकार किया है। जम्बूद्वीप की । जो दस राजधानियाँ थीं; वाराणसी उन्हीं में से एक थी24 विशेष पुष्टि के लिए तिलोयपण्णत्ति25, पद्मपुराण26, समवायांग27, उत्तरपुराण28, पासणाहचरिउ29 .
आदि देखे जा सकते हैं। आज भी वाराणसी भ. पार्श्व के जन्म स्थान के रूप में पूजी जाती है।
18 महापुराण : पुष्पदन्त 4:22 23 19 तिलोयपत्तो 4:550 20 उत्तरपुराण, पर्व 73/75 21 आवश्यक नियुक्ति 381 22 सिरिपासनाहचरियं, पृ. 135 23 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्, पृ. 93-94 24 स्थानाङग 995 25 तिलोयपणनी 4/548 26 पद्मपुराणे विंशतितमं पर्च, श्लोक 59, पृ. 427 27 समवायांग 250/24 28 उत्तरपुराण 73/75 29 पासणाहचरिउ (रइधू) 2/1
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जन्म-तिथि:
तिलोयपण्णत्ति के अनुसार भ. पार्श्वनाथ का जन्म पौषकृष्णा एकादशी के विशाखा नक्षत्र में हुआ था 30 किन्तु उत्तरपुराण में पौष कृष्णा एकादशी के दिन अनिलयोग में जन्मोत्पत्ति बताई है।31 रइधू ने नक्षत्र के नाम का तो उल्लेख नहीं किया, किन्तु उस नक्षत्र को शुभ माना है। पद्मपुराण में भी जन्म नक्षत्र विशाखा ही लिखित है।33 नामकरण :
भ. पाश्वनाथ के नामकरण के सम्बन्ध में उत्तर पुराण3 4 , पासणाह चरि उ 35, पार्श्वपुराण36 आदि में यह उल्लेख मिलता है कि जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने ही बालक का "पार्श्व" ऐसा नाम रखा। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख है कि जब पार्श्व वामा देवी के गर्भ में थे तब वामा देवी ने पार्श्व (बाजू) में एक काला सर्प देखा अत: बालक का नाम "पार्श्व' रखा गया।37 दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थकार आवश्यक नियुक्ति का नामकरण के सम्बन्ध में अनुसरण करते हैं। भ, पार्श्व के शरीर का वर्ण :
भ, पार्श्वनाथ किस वर्ण के थे उन पर विद्वानों में मतभेद पाये जाते हैं।
भ, पार्श्वनाथ "हरित' वर्ण के थे, ऐसा तिलोयपण्णत्ति में उल्लेख आया है। उत्तरपुराण' के अनुसार उनके शरीर की कान्ति धान के छोटे पौधे के समान हरे रंग की थी39 पद्मपुराण40 और पङमचरिउ41 से भी इस बात की
30 तिलोयपण्णत्तो 4/543 31 उत्तरपुराण पवं 73/90 32 पास. (रइधू) 2/5 33 पद्मपुराणे विंशतितमं पर्व श्लोक 59 पृ. 427 34 उत्तरपुराण, पर्व 73,92 35 रइ - पासणाहचरिउ 2/14 36 पाचपुराण : भूधरदास 6/126 37 आवश्यक नियुक्ति 1091 38 तिलोयपण्णत्ती 47588 39 उत्तरपुराणम् पर्व 23 श्लोक 24 40 पद्मपुराणे विंशतितम पर्व श्लोक 64/पृ. 428 41 पठमचरिय (विमलसूरिकृत) पर्व 20/श्लोक 55
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पुष्टि होती हैं। तिलोयसार और पाईपुराम 3 (हिनी में पार्थ का वर्ण 'नील' बताया गया है। वादिराज ने स्वलिखित पार्श्वनाथ चरित में पार्श्व प्रभु को 'श्यामवर्ण'44 का और मरकत की तरह 'हरित वर्ण'45 का माना है। सुप्रसिद्ध कल्याणमन्दिर स्तोत्र में पार्श्वनाथ का 'श्याम वर्ण' बताया है।46 भक्ति गीतों में 'सांवलिया पारसनाथ' कहकर भी पार्श्वनाथ की अनेक जगह गुणगान किया जाता हैं और वर्तमान में मिलने वाली अधिकांश पार्श्वनाथ की जैन मर्तियाँ श्याम वर्ण की ही हैं, इससे भी उनके श्याम वर्णी होने का आभास मिलता है।
उपर्युक्त विवेचन से पार्श्व के तीन वर्ण मिलते हैं - हरित, नील और श्याम। लेकिन एक ही व्यक्ति के तीन रंग होना सम्भव नहीं है। इस विषय में श्रीमान पं. रतनलाल मिलापचन्द कटारिया ने लिखा है कि - काला, नीला और हरा; 'ये तीनों रंग एक (कृष्ण) ही माने जाते हैं।47 फिर भी युक्तिवाद . का आश्रय लें तो निम्न तथ्य सामने आता है -
"काले वर्ण के मनुष्य तो देखे जाते हैं, किन्तु हरे और नीले रंग के मनुष्य कहीं भी देखने में नहीं आते।" हाँ नीली आँखों वाले मनुष्य अवश्य देखे जाते हैं।+8
उपर्युक्त विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि पार्श्वनाथ का वर्ण न्यूनाधिक श्याम ही रहा होगा। शरीर का उत्सेध (ऊँचाई):
भ. पार्श्वनाथ के शरीर की ऊँचाई नव हस्त (नौ हाथ) प्रमाण थी,49 ऐसा तिलोयपण्णत्ती में उल्लेख मिलता है। परवर्ती एवं पूर्ववर्ती सभी ग्रन्थकार इससे सहमत हैं। रइधू भी यही मानते हैं।50
.
42 तिलोयसार (नेमिचन्द्रकृत) श्लोक 847 43 पार्श्वपुराण (भूधरदास)7/30 (नीलवरण नो हाथ उत्तंग) 44 पार्श्वनाथचरित (वादिराज) 1.9 एवं 10/69 45 पाश्वनाथचरित (वादिराज) 10/68, 11/23 एवं 45 46 कल्याणमन्दिर स्तोत्र, श्लोक 23 47 द्र. श्री पं. मिलापचन्द्र रतनलाल कटारिया द्वारा लिखित लेख "तीर्थङ्करों के शरीर का
वर्ण" (जैन निबन्ध रत्नावली) पृ. 135 48 वही पृ. 138 49 तिलोयपण्णत्ती 4:587 50 रइधू : पास. 2/15
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कुमार काल :
भ, पार्श्वनाथ का कुमार काल तीस वर्ष था51 राज्य भोग :
भ. पार्श्वनाथ ने राज्यभोग नहीं किया था।52 भ. पार्श्वनाथ का विवाह नहीं हुआ :
जैन परम्परा के किसी भी ग्रन्थ में भ. पार्श्वनाथ के विवाह की सूचना नहीं मिलती है। जैन अनुयायियों में भी "पंच बालयति' में से एक प. पार्श्वनाथ को मान्यता दी गई है। ___ रइधू फल पासमाहवार में पाव द्वारा अर्ककीर्ति को उनकी पुत्री प्रभावती के साथ विवाह हेतु स्वीकृति देने का उल्लेख आया है,53 किन्तु तभी नाग-नागिनी का प्रसंग उपस्थित हो जाने और तजन्य वैराग्य से उनके विवाह का कार्य सम्पन्न नहीं हो सका। भ, पार्श्व के वैराग्य का कारण :
जिस प्रकार प्रत्येक तीर्थकर के वैराग्य में कोई न कोई कारण अवश्य रहा, उसी प्रकार पार्श्व के वैराग्य में भी कुछ कारण मिलते हैं। उत्तरपुराण54 के अनुसार - "पार्श्व जब तीस वर्ष की आयु प्राप्त कर चुके तब अयोध्या के राजा जयसेन द्वारा उनके पास एक भेंट दूत के माध्यम से भेजी गई। पार्श्वनाथ ने जब उस दूत से अयोध्या की विभूति के बारे में पूछा तो उस दूत ने पहले ती अयोध्या में उत्पन्ना प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया और फिर अयोध्या के अन्य समाचार बताए। भ. ऋषभदेव के वर्णन से पार्श्व को जातिस्मरण हो गया और वे संसार से विरक्त हो गए।" पार्श्वपुराण में भी यही उल्लेख है।55 महाकवि रइधू ने पार्श्व के वैराग्य का कारण कमठ तपस्वी के साथ हुई घटना तथा सर्प सर्पिणी की मृत्यु को पार्श्व की वैराग्य भावना का
51 तिलोयपण्णती 4/584, उत्तरपुराण 73/119, रइ : पास. 2/15 52 तिलोयपण्णत्ती 4/603 53 रइधू : पासणाहरिउ 3:11 54 उत्तरपुराण 73:119 से 124 55 भूधरदास : पावपुराण 7.74 से 72
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कारण बताया है।56 त्रिषष्ठि शलाकापुरुषचरित57 तथा पद्मकीर्ति के पासणाहचरिउ58 से रइधू द्वारा बताए कारण को पुष्टि होती है। 'उत्तरपुराण' में उक्त घटना का वर्णन अवश्य किया गया है पर उसे पाश्चं को वैराग्यभावना का कारण नहीं माना है। 'उत्तरपुराण' के अनुसार तो यह घटना उस समय घटित हुई जला पार्श्व की आय केवल सोलह वर्ष की थी।59 वादिराज ने भी कमठ के साथ हुई घटना का उल्लेख ता किया है किन्तु 'इसे वैराग्योत्पत्ति में कारण न मानते हुए स्वभावत: ही उन्हें संसार से विरक्त होना दिखाया है।60 ___ वैराग्य के सन्दर्भ में एक और घटना देवभद्रसूरि ने सिरिंपासणाहचरियं में दी है, जिसके अनुसार पार्श्व ने बसन्त समय में उद्यान में जाकर भ. नेमिनाथ के भित्ति चित्रों का अवलोकन किया, जिन्हें देखकर पार्श्व को वैराग्य हो गया 1 ___इस उल्लेख के सन्दर्भ में मेरा अनुमान है कि पार्श्व के मन में इस घटना के पूर्व ही वैराग्य के अंकुर फूट चुके होंगे, क्योंकि बसन्त के समय में, जबकि समस्त जन कामोत्सव आदि मना रहे होते हैं ऐसे समय में भ. नेमिनाथ के भित्ति चित्रों का अवलोकन उनके सांसारिक जंजाल से विरक्त होने की पुष्टि करता है। अत: यह ज्यादा सम्भव है कि कम के साथ हुई वार्ता और नाग-नागिनी की मृत्यु ही सर्वप्रथम वैराग्य का कारण बनी हो
और बाद में हुई घटनाओं से उनकी वैराग्यभावना अपने शीर्ष स्तर पर पहुँची हो अत: कमठ और नाग-नागिनी की घटना ही वैराग्य भावना का प्रबल कारण माना जाना चाहिए। भ, पार्श्वनाथ द्वारा दीक्षा ग्रहण :
तिलोयपण्णत्ती के अनुसार भ. पार्श्वनाथ ने काशी62 (वाराणसी) में माघ शुक्ला एकादशी को पूर्वाह्न काल में विशाखा नक्षत्र के रहते षष्ठ भक्त63 के
56 पासणाहचरित 13 57 विषष्ठिशलाकापुरुषचरित 912:215 से 232 58 पद्मकोति : पासणाहचरिउ 59 उत्तरपुराण 73.95 60 पादिराज कृत पार्श्वनाथचरितम् 61 सिरिपासनाहचरियं (देवभद्रसूपि) 162 62 तिलोयपण्णत्ती 4:643 63 छठी भोजन बेला में पारणा करने को श्रष्ठ भक्त कहते हैं।
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साथ अश्वत्थ वन में दीक्षा को ग्रहण किया।4 गुणभद्र ने दीक्षा का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि मतिज्ञानावरण कर्म के बढ़ते हुए क्षयोपशम के वैभव से उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया और लौकान्तिक देवों के आकर उन्हें (पाच को) सम्बोधित किया। उसो समय इन्द्र आदि देवों ने आकर प्रसिद्ध दीक्षा कल्याणक का अभिषेक आदि महोत्सव मनाया, तदनन्तर भगवान विश्वास करने योग्य युक्तियुक्त वचनों के द्वारा भाई-बन्धुओं को विदाकर विमला नाम की पालकी पर सवार होकर अश्ववन में पहुँचे। वहाँ अतिशय धीर वीर भगवान तेला का नियम लेकर एक घड़ी शिलातल पर उत्तर दिशा की ओर मुख करके पर्यङ्कासन से विराजमान हुए। इस प्रकार पौष कृष्ण एकादशी के दिन प्रात:काल के समय उन्होंने सिद्ध भगवान को नमस्कार कर तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा रूपी लक्ष्मी स्वीकृत कर ली। भगवान ने पंचमुष्टियों के द्वारा उखाड़कर जो केश फैंक दिए थे, इन्द्र ने उनकी पूजा की तथा बड़े आदर से ले जाकर क्षीरसमुद्र में उन्हें डाल दिया65
श्री रइधू ने पार्श्व के दीक्षा की तिथि पौष मास की दशमी बतायी हैं।66 'कल्पसूत्र' के अनुसार पार्थ ने 30 वर्ष की आयु पूरी होने पर पौष कृष्ण एकादशी को आश्रम पद नामक उद्यान में दीक्षा ग्रहण की थी।57
समवायांग68 तथा कल्पसूत्र में पार्श्व जिस शिविका (पालकी) में बैठकर नगर से बाहर आए थे उसका नाम विशाखा बताया गया है।
पुष्पदन्त के अनुसार दीक्षा बन का नाम अश्वत्थवन था|70
'पद्मपुराण के अनुसार भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली, वह धव (घो) का वृक्ष था।1
64 तिलोयपण्णत्ती 41666 65 उतरपुराण पवं 73/124 से 131 ६ हिमफ्डलपयासहि पूसहिं मासहि दहमिहिं गुण-गण सेणि-धरु । . पिरि पासकुमार विणिहियमारें धारिंड तें णिक्खमण-भरु |
- पासणाहचरित / घत्ता 53 67 कल्पसूत्र 157 68 समवायांग 250 69 कल्पसूत्र 157 70 महापुराण 94/22/10 71 पामुराणे विंशतितमं पर्व (59) पृ. 427
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दीक्षा तिथि के सम्बन्ध में रइधू का अन्य पुराणों से मतभेद मिलता है लेकिन रइधू के पूर्व मन्तिः सभी ग्रन्थ पौष कृपया एकादशी ही गगनते हैं अत: यही समीचीन प्रतीत होती है। इतिहासकारों ने भी पौषकृष्णा एकादशी के प्रातः का समय दीक्षा तिथि, पालकी का नाम विमला, अश्व वन और साथ में दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या 300 बतायी है।72 इसे ही निष्कर्ष मानना चाहिए। दीक्षा के समय पार्श्व की अवस्था :
भ. पार्श्वनाथ की दीक्षा के समय अवस्था 30 वर्ष थी, ऐसा दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य है। पार्श्व प्रभु का प्रथम आहार :
उत्तरपुराण के अनुसार भ. पार्श्वनाथ पारणा के दिन आहार ग्रहण करने के लिए गुल्मखेट नामक नगर में गये, वहाँ श्यामवर्ण वाले धन्य नामक राजा ने अष्ट मंगल द्रव्यों के द्वारा पड़गाहकर उन्हें शद्ध आहार दिया। 3 रइधू ने लिखा है कि भगवान पार्श्व आठ उपवासोपरान्त (दीक्षा के बाद) चया (आहार) हेतु निकले और हस्तिनापुर (हथिणापुर) में वणिक श्रेष्ठ बरदत्त द्वारा प्रदत्त आहार ग्रहण किया तभी पंचाश्चर्य हुए।74 कविवर भूधरदास75 एवं श्री बलभद्र जैन78 ने, जहाँ प्रथम आहार हुआ उसका नाम गुल्मखेट ही बताया है किन्तु भूधरदास जी ने आहारदान देने वाले राजा का नाम ब्रह्मदत्त बताया है।77 वैसे अनेक ग्रन्थकार उत्तरपुराण के वर्णन को ही मान्यता देते
पंचाश्चर्य : ___तीर्थङ्कर के आहार ग्रहण करते ही पंचाश्चर्य होते हैं जो तिलोयपण्णत्ती79 में निम्न प्रकार वर्णित हैं :
72 विशेष के लिए देखें ''जैन धर्म का प्राचोन इतिहास" प्रथम भाग. ले. बलभद्र जैन.पू.
353 73 उत्तरपुराण पर्व 73/132 133 74 रइधू : पासणाहचरित 4/3 75 "गुल्मखेटपुर पहुँचे नाह" - भूधरदास कृत पार्श्वपुराण 8/3 76 जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - 1, पृ. 353 77 पार्श्वपुराण - भूधरदास 84 73 रहधू : पासणाहचरिट 4/3 79 तिलोयपणमत्ती - गाथा 672 -674 SeasureshasesresherotusesxesKSRUSester
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1. पारणा (आहार) के दिन सब दाताओं के यहाँ आकाश से उत्तम रत्नों
की वर्षा होती है, जिसमें अधिक से अधिक पाँच के धन से गुणित दश लाख प्रमाण अर्थात् साढ़े बारह करोड़ और कम से कम इसके हजारवें
भाग प्रमाण रत्न बरसते हैं। 2. दान विशुद्धि को विशेषता को प्रकट करने के निमित्त देव मेघों से
अन्तर्हित होते हुए रत्नवृष्टिपूर्वक दुन्दुभी बाजों को बजाते हैं। 3. उसी (आहार के) समय दान का उद्घोष अर्थात् जय-जय शब्द फैलता
4. सुगन्धित एवं शीतल वायु चलती हैं। 5. आकाश से दिव्य फूलों की वर्षा होती है। भ. पार्श्वनाथ का तप:
जिन नाथ (पार्श्व) संसार से पार उतारने वाले, त्रस एवं स्थाबर जीवों की रक्षा करने में तत्पर तथा इन्द्रियरूपी भुजङ्ग के विष दर्प का हरण करने वाले दुस्सह तप को करने लगे। तेरह प्रकार के चारित्र से मण्डित शरीर वे जिनेन्द्र अहर्निश गहनवन में रहते हुए तथा पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से मुक्त होकर निरन्तर ध्यानाश्रित रहने लगे, फिर सोलह कषायों को क्षीण करके विहार करते हुए वे केलिवन पहुँचे और वहाँ हाथों को लटकाकर ध्यान करने लगे, मानो वहीं शाश्वतनगर अर्थात् मोक्ष का निवास हो। संबर देव द्वारा उपसर्ग :
भ. पार्श्वनाथ चार मास से शुद्धात्मा में लीन होकर जब तप के द्वारा अपने कर्मों की निजंरा कर रहे थे तभी कमठ का जीव संवर नामक देव अपनी भार्या के साथ आकाश मार्ग से कहीं जा रहा था कि उसका रथ वहीं रुक गया, तब उसने नीचे ध्यान में मग्न भ. पार्श्व को देखा और अपने पूर्व भव के वैर का जिसे जातिस्मरण हो गया है, ऐसे उस संवर देव ने भयंकर जल वर्षा, छोटे-मोटे पहाड़ों को समीप में गिराना इत्यादि उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया किन्तु पार्श्व अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संयम रखते हैं। इस प्रकार
80 रइधू : पास. 416
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के भयंकर उपसर्ग कमठ ने सात दिन तक किए। 1 रइधू ने संवर देव द्वारा किये गये भंयकर उपसर्ग का चित्रण स्वाभाविक रूप में करते हुए लिखा है कि - "उसने विक्रिया ऋद्धि से मेघों का निर्माण कर जल बरसाना प्रारम्भ किया कि कोई भी उसे रोकने में समर्थ नहीं हो सका। आकाश में प्रचण्ड वज्र तड़तड़ाने, गरजने, घड़बड़ाने और दर्पपूर्वक चलने लगा। तड़क-धड़क करने हुए उसने सभी पर्वत समूहों को खण्ड-खण्ड कर डाला। हाथियों की गुर्राहट से मदोन्मत्त सांड़ चीत्कार कर भागने लगे। आकाश भ्रमर, काजल, ताल और तमाल वर्ण के मेघों से उसी प्रकार आच्छादित हो गया जिस प्रकार कुपुत्र अपने अपयश से। मृगकुल भय से त्रस्त होकर भाग पड़े और दु: :खी हो गए, जल धाराओं से पक्षियों के पंख छिन्न भित्रा हो गये। नदी, सरोवर, गफायें, पृथ्वी मण्डल एवं वनप्रान्त सभी जल से प्रपूरित हो गए। वहाँ मार्ग एवं कमार्ग का किसी को भी ज्ञान न रहा लेकिन इससे पार्श्व प्रभु रन्चमात्र भी विचलित नहीं हुए। दुर्जनों की कलह के समान उस (संवर) ने कहीं भी मर्यादा नहीं रखी और वह पापी भगवान पर मनमाना उपसर्ग करने लगा। विक्रियाऋद्धि धारण कर अपनी शक्ति भर उसने अनेकविध क्लिष्ट एवं भयानक रूप निर्माण करके दिखलाए।82 पुन; जलधर को बरसाया, प्रलयकालीन मेघ का गर्जन होने लगा, पर्वत खहड़ा उठे, कायर व्यक्ति डर गये। विस्तीर्ण जलधाराओं से पृथ्वी खण्डित हो गई। जल कल्लोलें पृथ्वी को रेलती-पेलती हुई जिन भगवान के शरीर के पास तक पहुँच गई. फिर भी प्रलयकालीन पवन से आहत धाराओं से व्याप्त होने पर भी पार्श्वप्रभु की योगमुद्रा भङ्ग नहीं हुई। अत्यन्त दुस्सह जल सम्मुख दौड़ पड़ा और जिनेन्द्र (पार्श्व) के कण्ठ तक पहुँच गया।83 उपसर्ग कर्ता कौन :
इस प्रकार पार्श्व के ऊपर भयंकर उपसर्ग किए जाने का तो सभी ग्रन्थकारों ने वर्णन किया है किन्तु उपसर्गकत्ता के नाम के बारे में भिन्नता है। जहाँ उत्तरपुराण में उसका नाम "संवर ''84 बताया है, वहीं वादिराजसूरि ने
81 उत्तरपुराण 73/138 82 रइधू : मासणाहचरिउ 4/8 83 वहीं 4/9 84 उत्तरपुराण 73/736
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उनका नाम "भूतानंद" बताया है।85 पद्मकीर्ति ने अपने पासणाहचरिउ' में विघ्नकर्ता (उपसर्गकर्ता) का नाम "मेघमालिन" दिया है।86 श्वेताम्बर परम्परा में लिखे हुए सिरिपासनाचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि ग्रन्थ इसी नाम को स्वीकार करते हैं। रइधू ने उत्तरपुराण की तरह उपसर्गकर्ता का नाम संवर ही लिखा है।87 वैसे सभी इस बात पर एक मत हैं कि वह कमठ का जीव ही था। उपसर्ग का कारण : ___ संवर देव द्वारा भ. पार्श्व पर किए गए उपसर्ग का कारण दोनों के पूर्व जन्म का वैर था। संवर देव ने जब आकाश से पार्श्व को तपस्या रत देखा तो उसने इस प्रकार सोचा - "तुम पूर्वभव में कमठ नाम के जो ब्राह्मण थे उसे इसी दुष्ट (पार्श्व के पूर्वभव का जीव - मरुभूति) के कारण नगर से निकाल दिया गया था। यही महादोषी है। मैं इसे ध्यानावस्था में ही यम के घर भेज देता हूँ।''88 इससे उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है। धरणेन्द्र - पद्मावती द्वारा उपसर्ग निवारण :
जब संवर देव (कमठ का जीव) भ, पार्श्व पर भयंकर उपसर्ग कर रहा था, तभी सुरेश्वर (धरणेन्द्र - नाग का जीव) का आसन कम्पायमान हुआ। अवधि ज्ञान का प्रयोग करके वह अपनी प्रिया से बोला - "हे प्रिये ! जिसकी कृपा से सुरपद प्राप्त हुआ, जिसने वह परमाक्षर मन्त्र (णमोकार मंत्र) दिया था, उसी श्री पार्श्वप्रभु के ऊपर पृथ्वीतल पर अत्यन्त दुखकारी उपसर्ग हो रहा है।''89 ऐसा कहकर वे दोनों पवित्र मन वाले देव एवं देवी चल पड़े और वहाँ आये जहाँ पार्श्व प्रभु स्थित थे। तीन प्रदक्षिणायें देकर, दोनों हाथ
85 श्री पार्श्वनाथ चरितम् 10/88 86 पासणाहचरित : पद्मकीर्ति 14/5 87 रइधू : पासणाहचरित 4/घत्ता 57 88 क. हो तुहर आसि कम्मट्ठ जो बंभणों,
एण दुढेण जिद्धाडियो तं पुणो । एहु दोसी महो जाइ कि दिलओ,
णेमि अंतस्स गेहम्मि झापट्ठिभो ॥ पासणाहचरिउ - रइधू 4/7/7-8 ख. विशेष के लिए देखें - वही 6/2 से 8 तक। ४१ जसु पसाइँ पिए सुरपउ पावित, जेण आसि परमक्खर दाविउ । तहु सिरि पासजिणहुँ बहु दुहयरु, महिवट्टई उवसग्गु महायरु ।।
- रइधू : पासणाहचरिउ 4/9/7-8
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जोड़कर उन्होंने उनके चरण युगल में प्रणाम किया90 और फिर उपसर्ग को दूर करने के लिए कमलासन का निर्माण किया और पार्श्वप्रभु को उस पर विराजमान किया। सात फणों का छत्राकार बनाया और जिन भगवान के शीर्ष पर उसे मण्डलाकार स्थित कर दिया। इस प्रकार फणीश्वर जब पार्श्व के शरीर की रक्षा कर रहा था, उस समय पद्मावती अपने प्रिंच में आसान होकर वहीं स्थिर थी। उसे देखकर संवरदेव कुपित हो गया और दुगुना-तिगुना उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया। उसने पुनः पत्थरों के ढेर बरसाये और बहुत धुलि और बालकण प्रकट किये 91 जैसे-जैसे उस पापी एवं दुष्ट कमठ ने उपसर्ग किए, वैसे-वैसे नागेश ने अपने उठाए हुए फण से उन सभी को क्षणमात्र में ही निरस्त कर दिया92 पार्श्व का छद्मस्थ काल :
जिन दीक्षा के पश्चात् केवलज्ञान की उत्पत्ति तक के मध्य के समय को छद्मस्थकाल कहते हैं।
'तिलोयपण्णत्ती' में पार्श्व का छद्मस्थकाल चार मास93 और 'कल्पसूत्र' में 83 दिन 4 की अवधि का बताया गया है छद्मस्थकाल के विषय में दिगम्बराचार्यो/ग्रन्थकारों ने 'तिलोयपण्णत्ती' का और श्वेताम्बरों ने कल्पसूत्र का अनुसरण किया है। केवलज्ञान की प्राप्ति, तिथि और स्थान :
पार्श्व को चैत्र कृष्णा चतुर्थी के पूर्वाह्नकाल में विशाखा नक्षत्र के रहते शक्रपुर में केवलज्ञान हुआ. ऐसा 'तिलोयपण्णत्ती' में उल्लिखित है।95
महाकवि रइथू ने केवल्योपलब्धि का विस्तृत वर्णन इस प्रकार किया है।
"धरणेन्द्र के फणिमण्डल के द्वारा कमठ के उपसर्ग के निवारित होने पर पार्श्व जिनेन्द्र निश्चल एवं नासाग्रदृष्टि से स्थिर हो गये। तब उन्होंने उन
90 वही, घता 60 91 रइधू : पास. 4/11 92 जिहँ जिहे कम्म? दु?, उत्सग्गाई पउँजियई ।
जिहँ-तिहँ णाएसँ ट्ठिय-सीसैं-खणि णिरत्थ सयल कियई। 93 तिलोयपणत्ती 4:678 94 कल्पसूत्र 158 95 तिलोयपण्णत्ती 4/700
- वही, घत्ता - 62
.
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अनन्तानुबन्धी कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) के चक्र का घात किया, जिससे संसार दुर्गति पथ में पड़ता है। दर्शन मोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों का घात किया, फिर आयु कर्म की तीन प्रकृतियों को काट डाला। (इस प्रकार उन्होंने अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यक् मिथ्यात्व, तिर्यञ्चायु, देवायु, नरकायु; इन दस कर्मप्रकृतियों को चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान के मध्य क्षय कर दिया; ऐसा जानना चाहिए (उसके बाद इन्द्र द्वारा प्रणम्यचरण जिनेचर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान पर आरूढ़ हो गए और एक अन्तर्मुहूर्त तक उस स्थिति में रह कर जिनेश्वर अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान पर चढ़ गये। इसके प्रथम अंश में जिनेश्वर ने नामकर्म की उन तेरह प्रकृतियों का क्षय किया, जिनके द्वारा सारा जग व्याकुल रहता है। अनन्तर दर्शनावरण की तीन कर्म प्रकृतियों - निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला एवं स्त्यानगृद्धि का नाश किया। (इस प्रकार पार्श्व ने नौवें गुणस्थान के प्रथम चरण में निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला. स्त्यानगृद्धि, नरकगति. तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रूप चार जातियों, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यगगति, तिर्यम्त्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, इन सोलह कर्मप्रकृतियों को नष्ट किया)
इसी के द्वितीय अंश में उन्होंने आठ प्रकार की (अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानरूप कषायें जो चारित्र की घातक कही गई हैं) मध्यम कषायों का क्षय किया और उसके कारण चैतन्यरस का ध्यान किया।
इसी नौवें गणस्थान के ततीय भाग में पार्श्व ने नपंसक वेद और चतर्थ भाग में स्त्रीवेद का क्षय किया, पुनः पंचम भाग में चारों गतियों में दुःखदायक हास्यादि (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा.) कषायें नष्ट की। छठवें भाग में पुरुष वेद को भी दूर कर दिया तथा सप्तम भाग में संज्वलन (सूक्ष्म क्रोध) को भी नष्ट कर दिया तथा अष्टम भाग में संज्वलन मान का क्षय किया
और नौवें भाग में संज्वलन माया को नष्ट किया।96 इस प्रकार संसार रूपी अन्धकार को नाश करने के लिए सूर्य के समान जिनेश्वर (पार्श्व) भवन में निवास कराने वाले छत्तीस प्रकृतियों के समूह को अनिवृत्तिकरण नामक
96 रइध : पासणाहत्तरिठ 4/12
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(नवम्) गुणस्थान के नौ अंशों में नाशकर दसवें गुण स्थान पर आरुढ़ हुए,97 तो वहाँ संज्वलन लोभ का नाश किया। (इस प्रकार समस्त मोहनीय कर्म को नष्ट किया, उपशान्तमोह नामक यह 11वां गुणस्थान कहलाता है)
और फिर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में आरूढ़ हुए और उसमें सोलह प्रकृतियों (निद्रा, प्रचला = 2 कर्म प्रकृतियों + पांच ज्ञानावरण + चार दर्शनावरण + पाँच अन्तराय कर्म प्रकृतियाँ = 16 प्रकृतियों) को नष्ट किया। __इस प्रकार प्रथमतः उन्होंने सैंतालीस कर्म प्रकृतियों का उच्छेद किया
और फिर सोलह कर्म प्रकृतियों का निवारण किया, इस प्रकार कुल (47-16 - 63) सठ कर्म पकनियों का निवारण किया। फिर 12वें गणस्थान में आरोहण किया।
सठ प्रकृतियों के समूह को भग्न करने पर पार्श्व को केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। एक खम्भे के समान महान त्रिलोक और अलोक को भी ज्ञान से प्रत्यक्ष देख लिया। जो त्रिलोक सूक्ष्म एवं स्थूल जीवों से भरा हुआ है, वह सब केवल ज्ञान के होते ही विस्फुरायमान हो उठा/98
आत्मा के स्वरूप का सहभावी, शाश्वत एवं मनरहित, अनिन्द्य, अलक्ष्य, श्रेष्ठ, इन्द्रियसुखरहित. एवं कर्म से अपराभूत परम आनन्द हुआ,99 जिससे वे पार्श्व तीनों लोकों में महान, विचित्र, पवित्र एवं अचिन्त्य परमात्म पद में लीन होकर स्थित हो गये। विकल्प रहित समाधि में लीन, कर्मों की प्रेसठ प्रकृतियों से सहित सयोगी जिनेन्द्र एक शुद्धात्म में लीन हो गये। इस प्रकार चैत्र के पवित्र कृष्ण पक्ष में चतुर्थी के दिन शोभन नक्षत्र में जिनेन्द्र (पार्श्व) ने केवलज्ञान प्राप्त किया।100
'उत्तरापुराण' में भी इसी काल का उल्लेख आया है।101
मेरे विचार से रइधू ने किसी नक्षत्र का नाम न लेते हुए जो सोभगरिविख (शोभन नक्षत्र) का प्रयोग किया है उसका तात्पर्य शुभ नक्षत्र से ही जानना चाहिए।
97 रइधू : पासणाहचरिठ, 4/12, घत्ता 63 98 वही; 4/13 99 वही बत्ता 64 100 वही 4/14 101 उत्तरपुराण 73743 144 Castesastusxexxsesex 16 Semestesxesxesexesxsi
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केवल ज्ञानोपरान्त तीर्थङ्कर की स्थिति :
केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर तीर्थकरों का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है ऐसा यतिवृषभ ने लिखा है।102 अन्य शास्त्रों का भी यही मत है। केवलज्ञान महोत्सव :
शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर तीर्थङ्कर को समस्त लोक और अलोक को प्रकट करने वाला केवलज्ञान जब प्रकट हो जाता है तभी इन्द्र का आसन कम्पायमान होने लगा, जिससे इन्द्र ने भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति को जान लिया और स्वयं ही वहाँ आकर उसने मन, वचन, काय रूप त्रिशुद्धिपूर्वक स्तुति कर स्तोत्रपाठ किया एवं उनके चरणों में नमस्कार किया।103 इस प्रकार सभी देव एवं मनुष्यों ने भक्तिभावपूर्वक उनके केवलज्ञान की पूजा की और हर्ष मनाया। पार्श्व का केवलि काल :
भ. पार्थ जिनेन्द्र के केवलि काल की संख्या आठ मास अधिक उनहत्तर वर्ष प्रमाण है।104 पार्श्व का चिह्न:
भ. पार्श्वनाथ का चिह्न सर्प था।105 पार्श्व का संघ :
महाकवि रइधू ने पार्श्वनाथ के गणघरों की संख्या दस बताई है।106 तिलोयपण्णत्ती107 तथा आवश्यक नियुक्ति 108 में भी पार्श्व के दस गणधरों के होने की पुष्टि होती है। यही संख्या समस्त उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों को मान्य है। गणधरों के नामों के विषय में ग्रन्थकाल एकमत नहीं हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' में
102 तिलोगपण्णत्ती 41705 103 रइ : पासणाइचारिक 4/14 104 तिलोयपण्णत्ती 4/960 105 वही 4/605 106 पासणाहचरिउ 7/2 107 तिलोयपण्णत्ती 4/963 108 आवश्यक नियुक्ति 290
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sxesires
టోటో
पार्श्व के प्रथम गणधर का नाम स्वयम्भू बताया है 109, किन्तु सिरिपासनाहचरियं में उसका नाम आर्यदत्त दिया है।110 ने प्रथम गणधर
के प्रसंग का वर्णन इस प्रकार दिया है :
" सभी सुरों एवं खेचरों के द्वारा संस्तुत वह मुनि स्वयम्भू पार्श्व जिनेन्द्र की भव्य जनों के मन को शतावधि संशयों का हरण करने वाली वाणी का भारक प्रथम गणधर हुआ। "111
धू ने पार्श्वनाथ की प्रथम शिष्या तथा प्रधान आर्यिका का नाम प्रभावती बताया है, वर्णन इस प्रकार है
1.
" प्रभावती नाम की जो श्रेष्ठ कन्या कही गई है वह वहाँ श्रेष्ठ आर्यिका बनी। शील लक्ष्मी के निवास की शिखर ध्वजा के समान वह कन्या समस्त आर्यिका संघ की प्रधान बनी। ''112
पार्श्व प्रभु के निर्वाणोपरान्त प्रभावती आयिका ने भी अपने शरीर को त्याग कर अच्युत स्वर्ग को प्राप्त किया। 113
'समवायांग' में पार्श्व की प्रथम शिष्या का नाम पुष्पचूला कहा गया है, 114 जबकि 'कल्पसूत्र' में पुष्पचूला को पार्श्व की मुख्य आर्यिका बताया गया है । 115 सम्भवतः दोनों एक ही हों। 'तिलोयपण्णत्ती' के अनुसार मुख्य आर्यिका का नाम सुलांका था। 118 उत्तरपुराण' में उसका नाम सुलोचना आया है । 117 इस प्रकार मुख्य आर्यिका के नाम पर ग्रन्थकारों में मतभेद पाया जाता है।
भ. पार्श्वनाथ के चतु:संघ में मुनि, आर्यिका आदि की स्थिति जो प्रमुख 4 ग्रन्थों में निर्दिष्ट है, वह इस प्रकार है :
109 तिलोयपण्णत्ती 2/975
110 सिरिपासनाहचरियं 15/12/4 पर दी गई टिप्पणी द्रष्टव्य है।
111 रइनु : पासणाहचरिंड 4 / 20
112 वही 4/20
113 वही 775
114
समवायांग
115 कल्पसूत्र
116 facit 4/11-80
117
उत्तरपुराण 73/153
2235 18 *Shrest
1
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1600
350
10900
1500
.
"
:
38000
100000
10
SxsxssiestessTRASTESTastesxesxxxesxasxeSXESXesxesy
कल्पसूत्र तिलोयपण्णती आवश्यक नियुक्ति पास. रइधू ऋषि
1600 1600 पूर्वधर
350
414 शिक्षक अवधिज्ञानी 1400
1400 केवली 10000 10000
13500 विक्रियाधारी 1100
1000
4500 विपुलमतिधारी 750
750 वादि
600 आर्यिका 38000 38000
38000 श्रावक
165000 श्राविका 300000 327000
300000 गणधर शिष्य
To मनःपर्ययज्ञानधारी व्रती
100000 वागेश्वर
800 मुक्ति को प्राप्त
1090 करने वाली स्त्रियों की संख्या भ. पार्श्वनाथ का विहार :
भ. पार्श्व ने बारह सभाओं के साथ घमोपदेश करते हुए पाँच माह कम सत्तर वर्ष तक विहार किया और अन्त में जब उनकी आयु का एक माह शेष रह गया तब वे विहार बन्द करके सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये।118 भ. पार्श्वनाथ का निर्वाण :
महाकवि रइधू ने पार्श्व का निर्वाण क्षेत्र सम्मेद शिखर माना है। 13 पूर्ववर्ती एवं पश्चाद्वतीं सभी ग्रन्थकार इस विषय पर एकमत हैं। यह "सम्मेद
900
118 उत्तरपुराण 73/154-156 119 रइधू : पास. 72.3 MSResushustestastesexss s castesTesmuslexushastresses
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शिखर" नाम से विख्यात पर्वत भारतवर्ष के बिहार राज्य के गिरिडीह जिले में स्थित है तथा आज भी जैन धर्मानुयायियों का प्रमुख नीर्थ एवं वन्दनास्थल है। जैनतेर समाज में वह 'पार्श्वनाथगिरि" के नाम से भी प्रसिद्ध है। पार्श्व की निर्वाणतिथि :
श्री रइधू ने भगवान् पार्श्वनाथ की निर्वाणतिथि श्रावण शुक्ला सप्तमी मानी है120 'कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ को विशाखा नक्षत्र में श्रावण शुक्टा अ.मी को पूर्णदों पो पानि हुई।121 'तिलोयपण्णत्ती' के अनुसार वह समय श्रावण शुक्ला ससमी का प्रदोषकाल है।122
निर्वाणतिथि के विषय में दिगम्बर लेखक 'तिलोयपण्णत्ती' का और श्वेताम्बर लेखक कल्पसूत्र का अनुसरण करते आ रहे हैं। भ, पार्श्वनाथ की आयु :
भ. पाश्वनाथ की आयु के सम्बन्ध में सभी ग्रन्थकार एक मत हैं। सभी के अनुसार उन्होंने सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। भ. पार्श्व के साथ मोक्ष गए मुनियों की संख्या :
भ. पार्श्वनाथ के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए मुनियों की संख्या 36 (छत्तीस) है।123 तीर्थङ्कर पार्श्व के निर्वाणोपरान्त देवों द्वारा की गई क्रियायें : ___ तीर्थंकर पार्श्व का निर्वाण जानकर इन्द्र सुरवृन्द सहित वहाँ आया। उस धीर ने विक्रिया ऋद्धि से मायामय धीर शरीर बनाया और उसे सिंहासन पर विराजमान किया। पुनः अष्ट प्रकार से पूजा की, जो सभी के हृदयों को अतिमनोज्ञ लगी! गोशीर्ष प्रमुख देवदारु, श्रीखण्ड और नाना प्रकार के काष्ठ मिलाकर उससे शैय्या (चिता) निर्मित की और उस पर पार्श्व का मायामय शरीर रखा। जब देवगण उसकी तीन प्रदक्षिणायें देकर प्रणाम करके समीप में खड़े थे तभी अग्निकुमारों ने (पार्श्व के) चरणों में प्रणाम करके उनके शीर्ष
120 रइधू : पासणाहचरित; 713 121 कल्पसूत्र 122 तिलीयपण्णती 2:1218 123 रइधू : पास. 7/4 PresxesaxesiseSTATES 20 usdesesxesxsesxesxsxs
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किरीट के आगे जाकर चिता प्रज्वलित कर दी, जिससे आकाश का मार्ग अवरुद्ध हो गया और संसार ने जिनवर (पार्श्व) के मोक्षगमन को जान लिया।124
सम्पूर्ण भुवन को क्षुब्ध करने वाले अनेकतूर्यों के निनादपूर्वक वह इन्द्र उन (पार्श्व) के प्रशंसाकारक भस्म को ग्रहण करके अपने सिर पर रखकर क्षीरसागर (समद्र) को गया।125 यहाँ समाको बहकर इन्द्र स यचा और श्री गणधर को प्रणाम करके अपनी भक्ति के अनुसार अन्तिम श्रेष्ठ कल्याणक (मोक्ष) करके स्वर्ग को चला गया।126 तीर्थर पार्श्व का तीर्थकाल :
पूर्ववर्ती तीर्थकर से लेकर उत्तरवर्ती तीर्थकर के जन्म तक का समय पूर्व तीर्थङ्कर का तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ से तात्पर्य इस बात से है जिसमें एक तीर्थङ्कर के उपदेश का उसी रूप में पालन किया जाता रहा हो। पार्श्वनाथ स्वामी का वह तीर्थ काल दो सौ अठहत्तर वर्ष प्रमाण है।127 तीर्थङ्कर पार्श्व का समय :
जैन शास्त्रों की मान्यतानुसार तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ के 250 वर्ष बीत जाने पर भगवान महावीर का जन्म हुआ था। 28 वीर निर्वाण सम्वत् और ईस्वी सन् में 527 वर्ष का अन्तर है। जैन शास्त्रानुसार अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर की सम्पूर्ण आयु कुछ कम 72 वर्ष की थी।129 अत: 527 . 72 = 599 वर्ष ई. पू. में महावीर का जन्म सिद्ध होता है और यह निर्विवाद भी है। भ. महावीर के जन्म के 250 वर्ष पूर्व अर्थात् 599 + 250 = 849 ई. पू. पार्श्वनाथ का निर्वाण समय है। . भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता :
जैन परम्परा कालचक्र को स्वीकार करती है तथा जैन सिद्धान्तों की नित्यता को भी। इन सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार अपने समय में तीर्थक्षरों ने
124 रइधू : पास.7/4/5.12 125 वही, पत्ता - 131 126 वही 7/5/1-2 127 तिलोयपण्णत्ती 471274 128 पाश्वेशतीर्थसन्ताने पञ्चाशतादिदशराब्दके ।।
तदभ्यन्तरवायुमंहावीरोऽव जातवान् | - उत्तर पुरा 741279 129 द्वासप्ततिसमाः किनिनास्तस्वायुषः स्थितिः । उत्तरपुराण 747280 Businestuskusume 21STASTESTERSXSRestastess
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किया। भगवान पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थङ्कर थे। भ. पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सामान्यतः प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार की है, न केवल जैन साहित्य अपितु बौद्ध साहित्य से भी इसकी पुष्टि होती हैं। भ. पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता के विवेचन से पूर्व हम संक्षिप्त में उनका जीवन वृत्त लिखना आवश्यक समझते हैं, वह इस प्रकार है --
भगवान महावीर के 350 वर्ष पूर्व वाराणसी के राजा अश्वसेन और माता वामादेवी के पुत्र के रूप में काज हुआ। सि वर्ष की आयु तक वे राजकुमारावस्था में अपने पिता के पास रहे, फिर संसार से उदासीन होकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। अनन्तर कठोर तपश्चर्या के बाद केवलज्ञान प्राप्त किया और अपने उपदेशामृत से जनसामान्य को लाभान्वित करते रहे । तप और उपदेश की अवधि सत्तर वर्ष सभी पुराण व ग्रन्थकार स्वीकार करते हैं। सौ वर्ष की आयु पूरी होने पर 777 ईसवी पूर्व में उन्हें निर्वाणपद प्राप्त हुआ। जिस स्थान से उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई, वह सम्मेद शिखर था। सम्मेद शिखर पश्चिम बिहार में अवस्थित है। इस पहाड़ी को अब भी पार्श्वनाथ पर्वत ( पहाड़ी) कहते हैं। पार्श्वनाथ के जीवन में हम देखते हैं कि बुराई के ऊपर अच्छाई निरन्तर प्रतिष्ठापित होती रही। पार्श्वनाथ के साथ कमठ के जीव का पूर्व जन्मों में निरन्तर संघर्ष हुआ, नौवें भाव में वे पार्श्वनाथ हुए। प्रथम भव में मरुभूति और कमठ दो भाई थे। कमठ बड़ा भाई था, जो कि अपने छोटे भाई मरुभूति के प्रति इंष्यां और घृणा से भरा हुआ था। मरुभूति अन्त में तार्थंकर हुआ। दुराचार के फलस्वरूप कमठ को उसके पैतृक घर से निकाल दिया गया। सम्मानहीन तथा अपमानित कमठ ने तप करना प्रारम्भ किया। इस तप का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति न होकर देवल की प्राप्ति करना था ताकि वह अपने भाई से बदला ले सके। उसने सूर्य के प्रखर प्रकाश में खड़े होकर तपस्या करना प्रारम्भ किया, अपने ऊपर वह एक बड़ा पत्थर लिये रहता था । मरुभूति क्षमा याचना के उद्देश्य से नमस्कार करने हेतु जैसे ही कमठ के चरणों में झुका, कमल ने आक्रोश और बदले की भावना से उसके ऊपर पत्थर पटक दिया, जिससे मरुभूति की मृत्यु हो गई। बदले की यह कहानी आगे प्रत्येक जीवन में कमठ की ओर से घटित होती रही तथा इसकी इतिश्री पार्श्वनाथ की क्षमा भावना के साथ हुई। प्रारम्भ में मरुभूति बज्रघोष नामक हाथी हुआ, उसका भाई कमल अजगर हुआ। बज्रघोष हाथी ने पवित्र रुख
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को अपनाया। एक बार उस सर्प ने हाथी के मस्तक पर काट लिया, जिससे वह मर गया। जीवन की श्रेणियाँ और तदनुसार बदले की भावना से पूर्ण संघर्ष चलता रहा। मरुभूति प्रत्येक जन्म में शान्ति और सदगणों को अर्जित करता गया, जबकि कमठ का जीव बदले की भावना के पाप पङ्क में निमग्न होता रहा। इस प्रकार अच्छाई और बुराई का संघर्ष हुआ, अन्त में अच्छाई की विजय हुई। ___पार्श्वनाथ के उपर्युक्त जीवन चरित को ध्यान में रखकर ही उनकी ऐतिहासिकता खोजने का प्रयास किया गया. जिसके फलस्वरूप यह निश्चित है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। सर्वप्रथम डॉ. हर्मन जेकोबी ने भगवान पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक व्यक्ति प्रमाणित किया।130 डॉ. जेकोबी के इस मत की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की। बौद्ध साहित्य को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बुद्ध से पहले एक निश्थ सम्प्रदाय अस्तित्व में था, निम्न बातों से इसकी पुष्टि होती है131 :
अंगुत्तर निकाय में यह उल्लेख मिलता है कि वप्प नाम का एक शाक्य निर्ग्रन्थों का भक्त था। इसी सत्त की अट्ठकथा में यह निर्देशित है कि यह वप्प बंद्ध का चाचा था। इस वत्त से भी भगवान महावीर के पूर्व निन्ध सम्प्रदाय
का अस्तित्व प्रमाणित होता है। ___ 'मज्झिम निकाय' के महा सिंहनादसुत्त132 में बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवन का वर्णन करते हुए तप के वे चार प्रकार बतलाये हैं, जिनका उन्होंने स्वयं सेवन किया था। वे चार तप हैं - तपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता तपस्विता का अर्थ है - नग्न रहना, हाथ में ही भिक्षा- भोजन करना, केश-दाढ़ी के बालों को उखाड़ना, कण्टकाकीर्ण स्थल पर शयन करना। रुक्षता का अर्थ है - शरीर पर मैल धारण करना या स्नान न करना। अपने मैल को न अपने हाथ से परिमार्जित करना और न दूसरे से परिमार्जित कराना। जुगुप्सा का अर्थ है - जल की बूंद तक पर दया करना और प्रविविक्तता का अर्थ है । वनों में अकेले रहना।
130 The Sacered Books of The Eası, Vol. XLV, Introduction, P.21. 1३१ चतुष्कनिपात बग्ग - 5 132 मज्झिम निकाय, महासिंहनादसुन्त, . 48-50, प्रकाशक - महाबोधि समा. सारनाथ Kasrusrussessmastases23 Musisterestaustan
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उपर्युक्त चारों तपों का निग्नन्थ सम्प्रदाय में पालन किया जाता था। भगवान महावीर ने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने निग्रन्थों के लिए भी इनका विधान किया था। अब यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध के दीक्षा लेने से पूर्व महावीर का निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आया था अतः अवश्य ही वह उनके पूर्व भ. पार्श्वनाथ का होगा, जिसके उक्त चार तपों को बुद्ध ने धारण किया था किन्तु बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या में कुछ सार न मानते हुए इन तपों का परित्याग कर दिया था, हो सकता है ऐसा उन्होंने अपने धर्म को निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय से मूलत: पृथक् करने हेतु किया हो।
"उत्तराध्ययन सूत्र' के 23 वें अध्ययन से पार्श्व के शिष्य केशी और महावीर शिष्य गौतम के बीच वार्तालाप का उल्लेख है जिसमें केशी ने गौतम से धर्म के सम्बन्ध में पहला प्रश्न किया, जो इस प्रकार था :...
हे महामुनि! 'चातुर्याम धर्म का उपदेश पार्श्व ने किया और पञ्च-शिक्षा रूप धर्म का उपदेश वर्द्धमान ने किया, एक ही मोक्षरूपी कार्य के लिए प्रवृत्त इन दोनों धर्मों में भेद का कारण क्या है?133
इस कथन से स्पष्ट है कि चातुर्याम धर्म के उपदेष्टा भ. पार्श्व थे, और भगवान महावीर के समय में भी पार्श्वनाथ के अनुयायी (शिष्य) भारी संख्या में विद्यमान थे।
श्वेताम्बरीय जैन आगम ग्रन्थों में "पासावचिज" (पाश्र्थापत्यीय) कहे जाने वाले अनेक व्यक्तियों का उल्लेख है। प्रो. दलसुख मालवणिया ने उनकी संख्या पाँच सौ दस बतलायी है, उनमें से 503 साधु थे।134 टीकाकारों ने "पासावचिज' शब्द को व्याख्या इस प्रकार की है - (क) पाश्वर्वापत्यस्य पार्श्वस्वामि शिष्यस्य अपत्यं शिष्य : पापित्यीय:1135 (ख) पाश्वजिनशिष्या.. णामयं पाश्वपित्यीय:।136 (ग) पार्श्वनाथ शिष्यशिष्य :137 (घ) चातुयामिक साधौ।138
133 चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिाओ।
देसिओ उड्ढमाणेण, पासेण य महामुणी ॥
एकज पवाष्णाणं, विसेसे किं नु कारणं | - उत्तराध्ययनसुन 23/23-24 134 जैन प्र. का उत्थान महावीरा, पृ. 47 135 आचारांग 2,7.4 136 भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) 1.9 137 स्थानाङ्ग 138 भगवती सूत्र 15
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उपर्युक्त व्याख्याओं से पासावचिज शब्द के दो अर्थ निकाले जा सकते
(क) पाश्चापत्यीय भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। (ख) वे चार यामों का पालन करते थे।
आचाराङ्ग 139 में "समणस्य णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावचिजा समणो वासगाया वि होत्था" ऐसा कथन आया है. इससे सिद्ध है कि भ. महावीर के पिता सिद्धार्थ पापित्यीय श्रमणोपासक और माता त्रिशला श्रमणोपासिका थी।
डॉ. विमलचरण लॉ के अनुसार - भगवान पाश्व के धर्म का प्रचार भारत के उत्तरवर्ती क्षत्रियों में था, वैशाली उसका मुख्य केन्द्र था।140 वृजिगण के प्रमुख महाराज चेटक भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे।141 कपिलवस्तु में भी पार्श्व का धर्म फैला हुआ था, वहाँ "न्यग्रोधाराम" में शाक्य निर्ग्रन्थ श्रावक "वप्प'' के साथ बुद्ध का संवाद हुआ था।142 बुद्ध भगवान महावीर के समकालीन थे, इससे सिद्ध है कि भगवान महावीर से पूर्व जैनधर्म के सिद्धान्त स्थिर हो चुके थे। ____ डॉ. चार्ल्स सरपेटियर ने लिखा है कि - हमें इन दो बातों का भी स्मरण रखना चाहिए कि जैन धर्म निश्चितरूपेण महावीर से प्राचीन है, उनके प्रख्यात पूर्वगामी पाच प्राय: निश्चित रूप से एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं एवं परिणामस्वरूप मूल सिद्धान्तों को मुख्य बातें महावीर से बहुत पहले सूत्र रूप धारण कर धुकी होंगी।143
हसवर्थ ने भगवान पार्श्वनाथ को गौतम बुद्ध और महावीर से पूर्ववती पुरुष के रूप में स्वीकार करते हुए लिखा है कि .. "नातपुत्त ( श्री महावीर) के पूर्वगामी उन्हीं की मान्यता वाले अनेक तीर्थङ्करों में उनका
139 आचारांग 1006 140 Kshatriya Clans in Buddhist India, P.82. 141 वेसालीस पुरीय सिरिंपासजिणेससासणसणाहो ।
हेहयकुलसंभूओ चेडगनामानिबोअसि । - उपदेशमाला, श्लोक 2
प्रकाशक . मास्टर 'उमेदचन्द रामचन्द, अहमदाबाद, सन् 1933 142 अंगुत्तर निकाय, चतुष्कनिपात, महावग्ग, वयसुत्त, भाग-2, पृ. 210-213 143 The Uttaradhyayana Sutra. (Uppsala 1922) : Jarl Charpentier, P.HD..
Introduction, P.21.
Resesxesxescesiteshesexes as tesxesesxesrusiastexsies
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(जैनधर्मानुयायियों का) विश्वास है और इनमें से अन्तिम पार्श्व या पार्श्वनाथ के प्रति वे विशेष श्रद्धा व्यक्त करते हैं। उनकी यह मान्यता ठीक भी है, क्योंकि अंतिम व्यक्ति पौराणिक से अधिक है। वह वस्तुत: जैनधर्म के राजवंशी संस्थापक थे जबकि उनके अनुयायी महावीर कई पीढ़ियों से उनसे छोटे थे और उन्हें मात्र सुधारक ही माना जा सकता है। गौतम (बुद्ध) के समय में ही पार्श्व द्वारा स्थापित निग्गन्थ (निर्ग्रन्थ) नाम से प्रसिद्ध धार्मिक संघ एक पूर्व संस्थापित सम्प्रदाय था और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उसने बौद्धधर्म के उत्थान में अनेक बाधायें डाली।144
यूनान में एक नया सम्प्रदाय 600 ई.पू. में पैदा हुआ। जो कहा जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ के आशीर्वाद से बना। वे केवल सफेद वस्त्र धारण करते थे, अहिंसा पर विश्वास करते थे, ब्रह्मचर्य पर विश्वास करते थे, अपरिग्रह पर विश्वास करते थे, मांस भक्षण उन्होंने बन्द कर दिया था। यूनानी नाटककार ने उनके सम्बन्ध में लिखा है . "दे वर विजीटेबिल दे सुड वाथड डाउन इन द रीवर।" वे यूनानी दार्शनिक भारत आये और भारत आकर के यूनानी किंवदन्तियों के अनुसार उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ से साक्षात्कार किया था, साक्षात्कार के बाद वह लौटकर यूनान गये और यूनान जाकर उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ की शिक्षाओं का प्रचार किया।145 । उपर्युक्त विवेचन एवं जैनाजैन दार्शनिक विद्वानों के मतों से स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्व जो कि जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर थे, एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनके सिद्धान्तों का गौतम बुद्ध और भगवान महावीर पर व्यापक प्रभाव था जिसे बाद में उन्होंने कुछ सुधार करके जनहित और देशकाल को ध्यान में रखते हुए प्रचारित एवं प्रसारित किया था" किसी भी व्यक्ति की ऐतिहासिकता परखने की कसौटी उस समय का साहित्य ही होता है और जबकि उस समय का साहित्य लुप्त प्राय हो तो परम्परा ग्रन्थों का अनुसरण किया जाता है,'' इस आधार पर जब हम जैन साहित्य, बौद्ध साहित्य एवं देशी-विदेशी विद्वानों के शोध साहित्य का अध्ययन करते हैं तो हमें भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता।
144 Harmswarth; History of the World, Vol. II. P. 1198. 145 पाश्चज्योति (पाक्षिक) पृ. 5 वर्ष 2 अंक 11 (दि. 1 फरवरी 1987 ई.) में प्रकाशित
महामहिम श्री विश्ववष्वरनाथ पाण्डे, राज्यपाल उड़ोसा का भाषण दि. 5 10-86
(अहिच्छत्रा महोत्सव के अवसर पर) KASTESTOSTEResistastessocestastesesxesrusreSXESIAS
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बौद्ध साहित्य में भगवान पार्श्वनाथ :
दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में निगण्ठनातपुत्त (ज्ञातृपुत्र भगवान महावीर) का परिचय चातुर्याम संवर के उपदेशक के रूप में दिया गया है - निगण्ठ चार (प्रकार के) संवरों से संवृत (आच्छादित, संयत) रहता है। fण्डार मंत्र से केसे संपत रहता है । निगण्ठ जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल के जीव न मर जायें) 2. सभी पापों का वारण करता है, 3. सभी पापों का वारण करने से धुतपाप (पाप रहित) होता है, 4. सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। निगण्ठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निग्रंन्थ, गतात्मा (अनिच्छुक), यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है146
जैकोबी ने कहा है कि नातपुत्त के उपदेशों का यह सन्दर्भ बड़ा अस्पष्ट है147 सामअफलस्त्त में जी चातर्याम संवर कहा गया हैं, ये जैनों की चार विशेषतायें है।148 यथार्थ चातुर्याम संवर, जिसका पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्ध है, पालि आगमों में अन्यत्र उल्लिखित है।
बुद्ध के प्रश्न के उत्तर में असिंबन्धक पुत्त गामिणी ने कहा था कि निर्ग्रन्थ नातपुत्त ने अपने श्रावकों को प्राणातिपात (हिंसा) अदत्तादान (चोरी) मिथ्या कामनायें तथा मृषाभणिति (झूठ बोलना) छोड़ने का उपदेश दिया था।149
अंगुत्तरनिकाय में निगण्ठनातपुत्त ने पाप में गिरने के पाँच मार्ग बतलाए हैं . प्राणातिपात, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, मृषावाद तथा मादक पदार्थों का सेवना150
बे सन्दर्भ न तो सही रूप में और न क्रमिक रूप से लिखे गए हैं. निकाय पानं नाथ और महावीर के व्रतों के विषय में भ्रमित हैं। पार्श्वनाथ की परम्परा में परिग्रह को चौथा पाप बतलाया गया था, जिसमें कि अब्रह्मचर्य सम्मिलित था, का उल्लेख निकायों में नहीं है. जबकि अब्रह्मचर्य, जिसे निगण्ठनापुत्त ने परिग्रह से पृथक् किया था; का उल्लेख यहाँ किया गया है।
146 दीघ निकाय 1 147 जैन सूत्राज भाग 2 ( मेक्रिड बुक ऑफ द इंस्ट) भूमिका. पृ. 20-21 148 संयुत्त निकाय - 4 149 दीर्घ निकाय . 1 150 अंगुत्तर निकाय - ३
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पालि आगमों में निगण्ठनातपुत्र का वयोवृद्ध तार्थिक के रूप में उल्लेख है। ये पार्श्वनाथ की परम्परा को कुछ विशेषताओं से भी परिचित हैं।
जैनों के तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ, जो कि महावीर या निगण्ठनातपुत्र से 250 वर्ष पूर्व बनारस में हुए, राजा अश्वसेन और उनकी रानी वामा से बनारस में जन्मे थे। उन्होंने सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया। सम्मेदशिखर को आजकल पारस नाथ पर्वत कहते हैं।151 जातकों में वाराणसी के ब्रह्मदत्त, उग्गसेन, धनञ्जय, संयम, विरसेन तथा उदय भद राजाओं का वर्णन है152 पार्श्वनाथ उग्रवंश के थे, उग्रवंश का नामकरण उग्गसेन के नाम पर किया गया होगा। विस्ससेन की पहिचान भगवान पार्श्वनाथ के पिता अश्रसेन से की जा सकती है। ब्रह्मदत्त भी जैन राजा था, जिसने अपना सारा जीवन जैनधर्म के लिए समर्पित किया। वप्प (मनोरथपूरणी) जो कि बुद्ध के चाचा थे, पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे।
,पालि साहित्य से जैन धर्म के विभिन्ना सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त होता है। ये सिद्धान्त अधिक प्राचीन न माने जायें, तो भी इनका सम्बन्ध पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमि से है। अंगुतर निकाय में पार्श्वनाथ को पुरिसाजानीय (The distinguished man) के रूप में जाना गया है। 'धर्मोत्तर प्रदीप' में भी पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमि का उल्लेख है। चातुर्यामसंवर जो कि सामञफलसुत्त में निगण्ठनाथपुत्त का कहा गया है, यथार्थ में पार्श्वनाथ का उपदेश है। कुछ निगण्ठ, जिनका पालि साहित्य में निर्देश है, प्रत्यक्ष रूप से पार्श्वनाथ के अन्यायी हैं। उदाहरणार्थ- वप्प153 उपालि154 अभय155, अग्निवेस्सायन सच्यक 156, दोघतपस्सी157. असिबन्धकपुत्त गामिनी158, देवनिक 59,
151 महावंश - 10 152 अंगुत्तर निकाय . 1 . 153 अंगुत्तर निकाय - 2 154 मज्झिम निकाय - 1 155 वही 156 वही 157 वहीं 158 संयुत्त निकाय - 4 159 निक या निख एक हो देव है जो अनेक देवों के साथ बुद्ध के पास जाता है और
निगण्ठनातपुत्त की प्रशंसा में एक गीत गाता है।
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उपतिक्ख150, सीह181, श्रावक हैं, जबकि सच्चा, तोला अववादिका तथा पट चारा162 इत्यादि पार्श्वनाथ की परम्परा की श्राविकायें हैं। बाद में ये निगण्ट नातपुत्त163 के अनुयायी हो गए।
शाक्यों का राजनैतिक रूप से स्वतन्त्र अस्तित्व था। कपिलवस्तु बुद्ध की जन्म भूमि थी, किन्तु शाक्य उनके सिद्धान्तों के अधिक पक्ष में नहीं थे। दूसरी ओर गहाँ जैन शाई काकी सेकसि शा, कमोकि बुद्ध के माता-पिता और उनके आदमी पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे किन्तु बुद्ध और उनके अनुयायियों ने प्रयास किया कि लोग अपना धर्मपरिवर्तन कर लें। महानाम, जो कि सम्भवत: बुद्ध का सम्बन्धी निगण्ठनातपुत्त के धर्म का अनुयायी था, से बुद्ध ने कृच्छ साधना की व्यर्थता का वर्णन करते हुए उसके धर्मपरिवर्तन का प्रयास किया। यथार्थ में वे ऐसा करने में सफल भी हो गए। चूलदुक्खक्खंध सुत्त तथा सेख सुत्त का महानाम के मध्य प्रचार किया गया।
जैन स्रोतों से ज्ञात होता है कि विजय द्वारा आयीकरण किए जाने के पूर्व लङ्का में यक्ष और राक्षस रहते थे। वे मानव थे, उनकी अति विकसित सम्यता थी और वे जैन थे।164 विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि लङ्का की किष्किन्धानगरी के त्रिकुटगिरि पर, एक भव्य जैन मन्दिर था, इसे रावण ने अलौकिक शक्ति प्राप्त करने हेतु बनवाया था। रावण ने अपनी पट्टरानी मन्दोदरी की इच्छा के अनुसार जवाहरातों की एक जैन मूर्ति बनवाई थी। ऐसा कहा जाता है कि रामचंद्र से रावण के हारने पर यह समुद्र में फेंक दी गई। कन्नड प्रदेश के कल्याणनगर के राजा शंकर को यह बात मालूम हुई। उसने जैनों की प्रमुख देवी पद्मावती की सहायता से इस मूर्ति को निकाला।165
ऐसा कहा जाता है कि पार्श्वनाथ की वह मूर्ति, जिसको आज भी श्रीपुर अन्तरिक्ष में पूजा होती है, को माली और सुमाली विद्याधर लङ्का से लाए
160 महानग्ग 162 सेयुतनिकाय - 1 162 जातक - 3 163 मझिम निकाय .. 1 164 हरिवंश पुराण, पझचरित आदि। 165 विविधतीथं कल्प पृ. १३ xxesxesasrussiestastes 29PMSTAsusxesexeSTATEST
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थे 1166 तेजपुर की गुफा में जो पार्श्वनाथ की प्रतिमा है, उसके विषय में भी कहा जाता है कि उसे लङ्का से लाया गया था 1167 'करकण्डुचरिउ' में इस बात का वर्णन है कि कैसे मलय के जैन राजा अमितवेग ने रावण के घनिष्ठ मित्र के रूप में लंकाद्वीप का भ्रमण किया। रावण ने मलय में एक जैन मन्दिर बनवाया था | 168 इस मलय की पहिचान लङ्का के मध्य पर्वतीय देश मलाया से हो सकती है।
आचार्य देवसेन ( 8वीं शती) ने कहा है कि बुद्ध मुनि पिहितास्रव के बड़े विद्वान शिष्य थे। इनका नाम उन्होंने बुद्धकीर्ति रखा था। पिहितास्रव पार्श्वनाथ की परम्प के संघ के मुनि थे। कुछ समय बाद बुद्ध ने कच्चा मांस और मरी हुई मछलियाँ खाना शुरू कर दीं और गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए तथा अपने निजी धर्म का यह कहकर प्रचार किया कि इस प्रकार का भोजन करने में कोई हानि नहीं है । 169
यद्यपि उपर्युक्त तथ्य की किसी बौद्ध ग्रन्थ में स्वीकृति नहीं है, तथापि बुद्ध की 6 वर्ष की तपस्या के विवरण से इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि वे जैन सिद्धान्तों से प्रभावित थे। इस बात की भी सम्भावना है कि बुद्ध का मांसाहार के प्रति दृष्टिकोण तथा मानवीय व्यवहारों पर जैनों का कठोर जहाँ नियन्त्रण आदि ने बुद्ध को एक नया धर्म चलाने हेतु प्रेरित किया हो, कि अत्यधिक आत्मनियंत्रण को व्यर्थ सिद्ध किया गया है।
दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में चातुर्याम संवर का निगण्ठनातपुत्त के उपदेशों के अङ्ग के रूप में जो उल्लेख किया गया है, वहीं सही उल्लेख नहीं है। चातुर्याम संवर पार्श्वनाथ का है, निगण्ठनात पुत्त का नहीं है। पार्श्वनाथ के चार व्रतों का निगठनातपुत्त ने संशोधन किया। उन्होंने चार व्रतों के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का नाम अलग जोड़ा। इस प्रकार निगण्ठनातपुत्त ने पंचयाम धर्म चलाया | 170 बौद्ध लोग इस नवीनीकरण से बेखबर थे। उन्होंने पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर को निमण्टनातपुत्त का समझा। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि कुशील, जिसे परिग्रह से पृथक् किया गया था, जिसे पालि में
166 वहीं 102
167 हरिषेणकृत बृहत्कथाकीश पृ. 200
168 करकण्डुचिरड पृ. 44-69
169 दर्शनसार 69 170 ठाणांग 4/1 (टीका)
కోటి 30 అట్ట్ట్ట్!టోట
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"कासुमिच्छाघरति'' कहा गया है, का चार संवरों में उल्लेख किया गया है। इसका तात्पर्य है कि बौद्ध लोग निगण्ठनातपुत्त ने पार्श्वनाथ के धर्म में जो सुधार किया था, उससे परिचित थे। यथार्थ में कुशील ने परिग्रह का स्थान नहीं लिया था अपितु कुशील को अलग से जोड़ा गया था, जिसे स्पष्टतया बौद्ध नहीं समझ सके।
जैन धर्म में पाँच व्रतों का सन्दर्भ अंगुत्तर निकाय में हैं।171 इसमें निर्देश है कि निगण्ठनातपुत्त ने पाप में पड़ने के पाँच मागं बतलाये हैं :
1. प्राणातिपात, 2, अदत्तादान, 3. अब्रह्मचर्य, 4. मृषावाद, 5. सुरामैरेयमद्यप्रमादस्थान।
यह भी आंशिक सत्य है। पहले चार पाप सही कहे गए हैं, यद्यपि वे जैन क्रम से नहीं हैं। पाँचत्रां परिग्रह है, जिसका उल्लेख किया जाना चाहिए था। जैन नीतिकार के अनुसार -
"सुरामैरेयमद्यग्नमादस्थान'' हिंसा का ही रूप है, अलग श्रेणी नहीं। इस प्रकार इस क्रम में परिग्रह छूट गया है। ये उल्लेख दो निष्कर्षों पर पहुँचाते हैं :1. पार्श्वनाथ की परम्परा में चार व्रत थे। 2. निगण्ठनातपुत्त ने अन्तिम का विभाजन अपरिग्रह और अकुशील के रूप
में किया।
पालि उल्लेखों में दो दोप हैं : 1. व्रतों के नाम जैनों के पारम्परिक क्रम के अनुसार नहीं दिए गए हैं। 2. परिंग्रह, जो कि अन्तिम पाप है, पालि साहित्य में उपेक्षित है। पालि त्रिपिटकों के सम्पादक या तो निगण्ठनातयुत्त के सुधार से परिचित नहीं थे अथवा उन्होंने उसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं समझा।
सारे पालि प्रसंगों में परिग्रह की भूल उल्लेखनीय है। भारतीय नीतिशास्त्र में परिग्रह त्याग का योग जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह एक नया विचार था, जो पहले--पहल पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों में जोड़ा गया। __जैकोबी ने कहा है - बौद्धों ने नालपुस महावीर के सिद्धान्तों का वर्णन करने में भूल की है, सम्भवत: ये महावीर के पूर्ववर्ती पार्श्वके सिद्धान्त थे। यह
171 अंगर निकाय . २
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उल्लेखनीय भूल है : क्योंकि बौद्ध इन शब्दों का प्रयोग निगण्ठों के धर्म के वर्णन के समय नहीं कर सकते थे, यदि उन्हें यह सिद्धान्त पावनाथ के अनुयायियों से सुनने को न मिलते और बुद्ध के समान महावीर द्वारा किए गए सुधारों को निगण्ठ अपना लेते तो बौद्ध (पार्श्वनाथ के उपदेशों का निगण्ठों के धर्म के रूप में) इनका प्रयोग न करते172 :
"The Buddhists, I suppose have made a mistake ascribing to Natputta Mahavirais doctrine wrich probably belonged to this predecessor Parstwa. This is significant mistrike: for the Buddhists could not hulle used the above tern res descriptive of Niyantha cried unless they hard heurd it from follolders of Pershirt, and they used inc:fale Stii: the reformers of Mahavira had alread generally adopted by the Niganthas at tite time of Huddha."
निकायों में सच्चक का इस रूप में वर्णन है कि वह शास्त्रार्थों में लगा रहता है। वह विरोधी विद्वान था, जिसकी सामान्य व्यक्ति अत्यधिक प्रशंसा करते थे।173 उसने सारे छह तीर्थकों के साथ शास्त्रार्थ किया था, जिसमें निगण्ठ नातपत्त महावीर भी सम्मिलित थे। यद्यपि सच्चक निगण्ठ नातपुत्त का सुदृढ़ अनुयायी था। इससे प्रकट है कि वह पाश्वनाथ की परम्परा का अनुयायी था। चूंकि निगण्ठ नातपुत्त जैन धर्म के तीर्थंकर हुए, अत: सन्चक ने उनसे वार्तालाप कर उनका परीक्षण किया होगा, तब उनका धर्म स्वीकार कर लिया होगा।174
एक स्थान पर बुद्ध ने महानाम से कहा था कि उन्होंने राजगृह की ऋषिगिरि काल शिला पर निर्ग्रन्थों को कृच्छू तप करते हुए देखा था। तब उन्होंने उनसे कहा - आप लोग ऐसा क्यों करते हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि निर्ग्रन्थ नातपुत्त सर्वज्ञ हैं और उन्होंने कहा था कि कृच्छु तप के द्वारा समस्त पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं और नए कर्मों का आगमन रुक जाता है। इस मार्ग से वे मुक्ति प्राप्त करेंगे। तब बुद्ध ने उनसे पूछा - क्या आप सब अपना और अपने कमों का भूत और भविष्य जानते हैं? आप सब लोग नहीं जानते हैं कि आपने किस प्रकार के पाप किए हैं? आप नहीं जानते हैं कि मन की
172 जैन एण्ट्रीक्वेरी, भाग. 13, नं. 2, पृ. 2 173 मदिम निकाय 1 174 वहीं 23
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exesxesxestore.४५४४xxsxs अज्ञान अवस्थाओं से आप कैसे छुटकारा पा सकते हैं और ज्ञान की अवस्थाओं का उत्कर्ष कैसे कर सकते हैं। उनसे निषेधात्मक उत्तर प्राप्त कर बुद्ध ने कहा था 175 :
वे निर्ग्रन्थ, जिन्हें बुद्ध ने ऋषिगिरि काल शिला पर कृच्छ्र तप करते हुए देखा था, पूर्व पम्प के पके होना चाहिए पूर्ण जैन परम्परा यह मानती हैं कि जैन तीर्थंकर सर्वज्ञ हुए हैं, इसके अतिरिक्त वे अन्यों की सर्वज्ञता का निषेध करते रहे हैं। 'भगवती सूत्र' में कहा है कि पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायियों ने निगण्ठनातपुत्त को तब तक तीर्थंकर स्वीकार नहीं किया, जब तक वह सिद्ध नहीं हो गया कि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। 176
'मज्झिमनिकाय' में दीघनख का उल्लेख आता है, जो तीन प्रकार के सिद्धान्तों को मानता था 177 :
1. सब्वं मे खमति (मैं सब (विचारों) से सहमत हूँ)
2. सब्बं मे न खमति ( मैं सब ( विचारों) से सहमत नहीं हूँ)
३. एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे न खमति ( में कुछ विचारों से सहमत हूँ और दूसरे विचारों से सहमत नहीं हूँ)
बुद्ध दीधनख के विचारों की विभिन्न प्रकार से आलोचना करते हैं और समस्या के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हैं। दीघनख के विचार स्याद्वाद के भङ्ग: हैं और प्रथम तीन भङ्गों का इस प्रकार प्रतिनिधित्व करते हैं।
सब्बं मे खमति
स्यादस्ति । सब्वं मे न खमति स्यान्नास्ति ।
एकच्चं मे खमति एकच्चं मे न खमति स्वादस्तिनास्ति ।
-
-
समस्या यह विचार करने की हैं कि दोघनख किसी विचारधारा से सम्बन्धित था। मज्झिम निकाय की टीका के अनुसार वह उच्छेदवाद 178 के विचारों का था, जो कि बुद्धघोष की दृष्टि से स्याद्वाद का भाग है। वह संजय के परिव्राजकों के मत का हो सकता है, जो कि पार्श्वनाथ की परम्परा के थे
175 जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिट्रैचर, पृ. 148
176 वही पृ. 150
177 मज्झिम निकाय 178 मज्झिमनिकाय
1
अद्भुकथा
ATLASKA) 33 అట్ట్ట్ట్ట్ట్
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और बाद में नातपुत्त के धर्म में परिवर्तित हो गए थे। अब तक ये बौद्ध नहीं बने थे।179 दोधनख संजय का भान्जा था। अत: यह प्रतीत होता है कि वह जैन धर्मानुयायी था। इस अनुमान की पुष्टि हो सकती है, यदि यह सिद्ध हो जाय कि उसकी मज्झिम निकाय के उपालिसुत्त के “दोघतपस्सी" से एकरूपता हो जाय, जो कि निगण्ठ नात पुत्त का अनुयायी था। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित भगवान पार्श्वनाथ :
ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में दार्शनिक, नैतिक, धार्मिक, , सामाजिक आदि सिद्धान्तों के प्रतिपादन पर विचार-विमर्श करने हेतु वादविवाद आयोजित होते थे। वाद-विवादों की सम्पन्नता हेतु भिक्षु (साधु) अपने शिष्यों के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते थे। "उत्तराध्ययन सूत्र' के 23वें अध्ययन (अध्याय) से इस कथन की पुष्टि होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के 23 अध्ययन में भ. पार्श्वनाथ के शिष्य केशी और भ. महावीर के शिष्य गौतम के संवाद का वर्णन किया गया है। इसी ग्रन्थ के अनुसार केशी और गौतम श्रावस्ती नगर के तिन्दुक नामक उद्यान में मिले। जिज्ञासावश श्रावक तथा दूसरे अन्य लोग दोनों के संवाद को सुनने हेतु एकत्रित हुए। संवाद का अभिप्राय ५. पार्श्व और भ. महावीर इन दोनों परम्पराओं के अनुयायियों को धर्म के मूल सिद्धान्तों के विषय में प्रतिबुद्ध करना था। पार्श्वनाथ चातुयांम धर्म के प्रचारक माने गये हैं। ये चार धर्म हैंअहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह। इन चार व्रतों में भ. महावीर ने एक पाँचवाँ ब्रह्मचर्य भी जोड़ दिया। यह उत्तराध्ययन सूत्र के निम्नलिखित सूत्र से स्पष्ट है -
चाउज्जामो य जो धम्मों, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ बद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।।180
अर्थात् जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है । और यह जो पंच शिक्षात्मक धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है।
179 मज्झिम निकाय टीका 180 उत्तराध्ययन सूत्र 23/12
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(spores)
आचाराङ्ग सूत्र 181 के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का पालन करते थे। यहाँ पर " याम" शब्द महाव्रत के अर्थ में प्रयोग किया गया है। बाद में हम पाते हैं कि " योगदर्शन" में यह शब्द आठ व्रतों की गणना में प्रथम स्थान रखता है। इस प्रकार " यम" शब्द जैन साहित्य से योग दर्शन में प्रविष्ट हुआ है। "याम " शब्द संस्कृत भाषा की यम् धातु से बना है, जिसका अर्थ नियंत्रण या रोक है। अतः हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह पर नियन्त्रण या शेक ही चातुर्याम धर्म
माना गया।
डॉ. जेकोबी का मत है कि पालि चातुर्याम प्राकृत चाउज्जाम ही है तथा बौद्ध परम्परा में यह पार्श्वनाथ की परम्परा से आया। बाद में महावीर ने अपने अनुयायियों के अनैतिक कार्यों के कारण को और जोड़ा आचारांग 182 से भी हमें भ. महावीर के केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद पंचमहाव्रतों के देने की भी पुष्टि होती है।
वृहदूकल्पभाष्य में कहा गया है कि बौद्ध भिक्षुओं ने साध्वियों का अपहरण किया। इस प्रकार के व्यवहारों से हो सकता है पाँचवाँ व्रत ब्रह्मचर्य जोड़ने की आवश्यकता पड़ी हो। केशी तथा गौतम के संवाद के मध्य गौतम ने यह कहा कि प्रथम तीर्थंकर के अनुयायी ऋजु तथा जड़ थे, किन्तु महावीर के अनुयायी वक्र जड़ थे। इसी कारण व्रतों की संख्या में भिन्नता है :
पुरिमा उज्जुजडा उ वक्रजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुना तेण धम्मे दुहा कए ||183
केशी तथा गौतम का यह संवाद स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है कि सिद्धान्तों के विषय में पूरी तरह से विचार-विमर्श होने के बाद पार्श्वनाथ के अनुयायी केशी ने महावीर के 5 व्रतों को अपनाया। इस प्रकार पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य महावीर के शिष्यों के साथ मिले। यह कथन इस प्रकार हुआ है.
-
181
आचारसंग सूत्र 11/16 182 वही 2 15, 10 24
183
उत्तराध्ययन सूत्र 23/26
454545454 35 ४)
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पंचमहब्वयधम्म पडिवजइ भावओ । पुरिमस्स पच्छिमंमी, मग्गे तत्थ सुहावहे || BA
दूसरी शंका यह थी कि पार्श्वनाथ ने अपनी परम्परा के साधुओं को वस्त्र पहनने की अनुमति दी थी, किन्तु महावीर ने इसका निषेध किया था :
अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुसरो । देसिओ बद्धमाणेण पासेण य महामुणी।185 हम अचेलक तथा निर्ग्रन्थ में भेद कर सकते हैं। अचेलक वस्त्रों से रहित को कहते हैं, किन्तु निग्रंथ वह है जो कुछ भी नहीं रखता है। ग्रन्थ शब्द चौदह मार्गणाओं का द्योतक है। इसी के अन्तर्गत वस्त्र धारण करना भी परिगणित नहीं है। निग्रन्थ अचेलक हो, ऐसा आवश्यक नहीं। संवाद के मध्य पुन: नग्नता के विषय में महावीर के शिष्य गौतम का स्पष्ट उत्तर नहीं है। वह कहते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार के बाह्य चित इसलिए रखे गये है कि लोग उन्हें विशेष रूप से पहचान सकें। यह विशेषतायें धार्मिक जीवन की उपयोगिता तथा उनके विशिष्ट चरित्रों पर निर्भर हैं -
पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविह विगप्पणं । जत्तत्धं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं 186
पुनः यह निश्चित किया गया कि बाह्य चिह्न मुक्ति के मार्ग न होकर ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मुक्ति के मार्ग हैं -
अह भवे पन्ना उ मोक्खसब्भूयसाहणे । नाणं च दंसणं चेव चरितं चेव निच्छए 187
इस प्रकार केशी और गौतम का यह संवाद भ, पार्श्वनाथ की धार्मिक शिक्षाओं पर प्रकाश डालता है। जैनधर्म के मौलिक रूप को समझने में यह अधिक महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त भ. पार्श्वनाथ के इन धर्मों का अध्ययन जैन सम्प्रदाय के प्रारम्भिक चित्र को संक्षिप्त रूप में समझने में सहायक है।
184 उत्तराध्यायन सूत्र 23:87 185 वही 23/29 186 वही 23.32 187 वही 2333
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PASSESTATESTAustusrestusesxxsiestaTATUSYESesxesyaxi कल्पसूत्र में वर्णित भगवान पार्श्वनाथ :
श्रुतकेपली भद्रबाहुरॉचत ''कल्पसूत्र ग्रन्थ में वैसे तो मुख्य रूप से भ. महावीर के जीवन चरित का ही वर्णन है, किन्तु भ. महावीर की पूर्व परम्परा में भ. पार्श्वनाथ का भी संक्षिप्त जीवन चरित्र इसमें वर्णित है। वर्णन इस प्रकार है -
भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं मोक्ष ये पाँचों कल्याणक विशाखा नक्षत्र में ही हुए थे, इसलिए वे पंच विशाखा वाले कहलाते थे। भ. पावं का जन्म चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन वाराणसी नगरी के राजा अश्वसेन की रानी वामादेवी के गर्भ से हुआ था। यह जीव प्राणत कल्प से चयकर आया था। भ. पार्श्व जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी थे, वे माता के गर्भ में नौ माह. साढ़े सात रात दिन रहे थे। तीस वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहने के बाद पौष कृष्ण एकादशी के दिन विशाला नामक शिविका में बैठकर देत्रों. मनुष्यों एवं असुरों के साथ जाकर उन्होंने आश्रमपदनामक उद्यान की ओर अशोक वृक्ष के नीचे पंचमुष्ठि केशलोंच किया और एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर तीन सौ पुरुषों के साथ अनगार अवस्था को प्राप्त किया। उन्होंने तप काल के 83 दिनों तक विभिन्न उपसर्गों को सहन करते हए 84 वें दिन चैत्र कृष्णा चतुर्थी को पूर्वाह्न में आंवले (धातकी) के वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान को प्राप्त किया।
भ. पार्श्वनाथ के आठ गणधर थे - 1. शुभ, 2. अजधाप (आर्थधोष). 3. बसिष्ठ, 4. ब्रह्मचारी, 5, सोम, 6. श्रीधर, 7. वीरभद्र तथा 8. यश। आयंदा आदि सोलह हजार श्रमण साधु थे, पुप्पचूला आदि 38 हजार आर्यिकायें र्थी, सुनन्द आदि एक लाख चौंसठ हजार श्रमणोपासक थे, सुनन्दा आदि तीन लाख सत्ताईस हजार श्रमणोपासिकायें थीं। 14 पूर्वधारी, चौदह सौ अवधिज्ञानी एक हजार केवलज्ञानी, ग्यारह सौ वैक्रियक लब्धि वाले, छह प्लौ ऋजुमति ज्ञान वाले थे। भ. पास्त्रं के संघस्थ एक हजार श्रमण और दो हजार आर्यिकायें सिद्ध हुई। साढ़े सात सौ विपुल मतियों को, छह सौ वादियों की, बारह सौ अनुत्तर विमान में जाने वालों की संख्या भगवान पार्श्व के संघ में थी। __ भ. पार्श्वनाथ के समय में चतुर्थ युगपुरुष तक युगान्तकृतभूमि थी अर्थात् चतुर्थ पुरुष तक मुक्ति मार्ग चला था। उनको केवलज्ञान हुए तीन वर्ष व्यतीत LSTAYestestisastest arkestastesesxeSTESTASTARAT
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होने पर किसी साधक ने मुक्ति प्रास की, यह उनके समय की पर्यायान्तकृत भूमि थी।
भ, पार्श्वनाथ तीस वर्ष गृहवास करके 83 रात्रि-दिन छद्मस्थ पर्याय में रह करके कुछ कम सत्तर वर्ष तक केवलीपर्याय में रहकर कल सौ वर्ष अपनी आयु पूर्णकर दुषम-सषम नामक अवसर्पिणी काल के बहत बीत जाने पर श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन सम्मेद शिखर पर्वत से, अपने सहित चौंतीस (34) पुरुषों के साथ मासिक भक्त का अनशन कर पूर्वाह्न के समय ध्यानमुद्रा में मुक्ति को प्राप्त हुए। कल्पसूत्र और पासणाहचरिठ में असमानता :
श्रुतकेचली भद्रबाह रचित "कल्पसूत्र'' और महाकवि रइध द्वारा रचित "पासणाहचरिउ'' में यद्यपि अधिकांश समानतायें भ. पार्श्वनाथ के सन्दर्भ में मिलती हैं, किन्तु कुछ असमानतायें भी हैं, जो इस प्रकार हैं .
'कल्पसूत्र' के अनुसार पार्श्व का जीव प्राणत कल्प से माता वामा देवी के गर्भ में अवतरित हुआ था,188 जबकि 'पासणाहचरिठ' के अनुसार वह वैजय । स्वर्ग से अवतरित हुए थे।189 इसी में आगे इस जीव का चौदहवें स्वर्ग में देव होने का भी उल्लेख है।190 "तत्वार्थ सूत्र के अनुसार चौदहवां स्वर्ग प्राणत ही है।191
"कल्पसूत्र'' के अनुसार घ. पार्श्व का जन्म पौषमास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन सन्धिबेला अर्थात् जब रात्रि का पूर्वभाग समाप्त और पिछला भाग प्रारम्भ होने जा रहा था, हुआ।192 जबकि 'पासणाहचरिउ' के अनुसार . भ. पाश्चं का जन्म पौषमास के कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन हुआ।193 ( यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि जन्म तिथि की भ्रान्ति इस कारण हुई हो क्योंकि जहाँ कल्पसूत्रकार ने जन्म के समय रात्रि का पिछला भाग प्रारम्भ होने जा रहा था. ऐसा मानकर दशमी को स्वीकार किया, वहीं रइधू ने रात्रि के पिछले भाग में ही जन्म होना मानते हुए एकादशी को जन्म तिथि माना हो)
188 कल्पसूत्र 149 189 यू : पासणाहचरिंड 2:53 190 बही, पत्ता 125 191 तत्वार्थसूत्र 4/19 192 कल्पसूत्र 151 193 रइभ्रू, पासाणाहधरिंठ 2.5-11
Resrestastesesxesesxesies 38 asxexessesrusteshesress
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"कल्पसूत्र' में दीक्षा हेतु ले जाने वाली शिविका (पाली) का नाम विशाला बताया है194, जबकि "पासणाहचरिउ" में शिविका का नामोल्लेख नहीं है।195 __"कल्पसूत्र' के अनुसार भ. पार्श्व को दीक्षा हेतु वाराणसी नगरी के मध्य से निकलते हुए आश्रमपद नामक उद्यान की ओर अशोक वृक्ष के नीचे ले जाया गया196, जबकि 'पासणाहचरिउ'' के अनुसार अहिच्छत्रानगर ले जाया गया,197 ऐसा उल्लेख है। __ "कल्पसूत्र के अनुसार भ. पाश्वं ने एक देवदृष्य वस्त्र को लेकर अनगार अवस्था को प्राप्त किया। 98, जबकि "पासणाहचरिउ" में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है।199
"कल्पसूत्र" में दीक्षातिथि पौषकृष्णा एकादशी का उल्लेख है200, जबकि पासणाहचरिठ में मात्र पौषमास की दशमी का उल्लेख है, पक्ष का नहीं?01
"कल्पसूत्र'' में भ. पाश्वं के द्वारा उपसर्ग सहने का तो उख्ख है किन्तु उपसर्गकर्ता के नाम का उल्लेख नहीं202, जबकि "पासणाहचरिउ" में उपसर्गकर्ता का नाम संवरदेव आया है।203
"कल्पसूत्र" के अनुसार भ, पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर का नाम सुंभ है204, जबकि 'पासणाहचरिह'' के अनुसार प्रथम गणधर का नाम संभु (स्वयम्भू) है।205
"कल्पसूत्र'' के अनुसार भ. पार्श्व के आठ गणधर 2205. जबकि "पासणाहचरिड' के अनुसार उनकी संख्या दस थी 207
194 कल्पसूत्र 155 195 रइधू : पाम, 4:1-6 196 कल्पसूत्र 153 197 रइधृ पास. 4/17 198 कल्पसूत्र 153 199 ३५: पास.47 200 करन्पसूत्र 153 201 रइधू : पास. घत्ता 53 202 कल्पसूत्र 154 203 रइधू : पास. 4:7 204 कल्पसूत्र 156 205 रइधू : रास. 4:20..] 206 कल्पसूत्र 156 207 रइधू : पास. 7:26
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350
__"कल्पसूत्र'' के अनुसार. आर्यिका प्रधान पुष्यचूला थी208, जबकि 'पासणाहचरिंउ' के अनुसार उसका नाम प्रभावती था209
"कल्पसूत्र'' के अनुसार , पार्श्वनाथ ने श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन निर्वाण प्राप्त किया210, जबकि 'पासणाहचरिउ' के अनुसार उन्होंने श्रावणशुक्ला सप्तमी के दिन निवाण प्राप्त किया।11
'कल्पसूत्र' और 'पासणाहचरिउ' (रइधू) के आधार पर भ. पार्श्वनाथ के संघ की तुलना : पद का नाम कल्पसत्र
पासणाहचरिउ-३ साधु 76000
1800 पूर्वधर
414 अवधिज्ञानी
1400
1500 केवली
1000
21500 विक्रियाधारी
1100
4500 विपुलपतिधारी
900
(मन:पर्यय) श्रुतज्ञानी वादि
600 आर्यिका 38000
38000 श्रावक 164000
100000 श्राविका 327000
300000 मुक्त स्थान को प्राप्त
1090 करने वाली स्त्रियाँ कुल योग 540200
470504
750
208 कल्पसूत्र 157 209 रइथू : पास, 41205 210 कल्पसूत्र 159 211 रइधू : पास. 7:3-7 212 कल्पसूत्र 157 215 रइधू : पास. 712 RESISesxsiusrustusrestess 40 Sisterestsrusesxesy
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द्वितीय परिच्छेद
पासणाहचरिउ का परिचय
पासाहचरिउ के रचयिता रइधू :
"पासणाहचरित' के रचयिता महाकवि रइधू हैं, यह बात निर्विवाद है। महाकवि रइधू ने अपनी सभी रचनायें अपभ्रंश भाषा में लिखीं। यदि अपभ्रंश साहित्य का सम्यक् प्रकार से निरीक्षण किया जाय तो जिस प्रकार की साहित्यिकता, लालित्य, माधुर्य, शब्द शक्तियों का समावेश, अलंकारों की छटा, छन्दों की विविधता, पात्रों के चरित्र-चित्रण में काल्पनिकता से भी अधिक ऐतिहासिकता एवं चरित्रोत्थान की भावना सरल भाषा शैली का समावेश महाकवि रइधू के साहित्य में मिलता है, उसके आगे अन्य कवि रचनाकर वामन के समान दिखाई देने लगते हैं। वास्तव में सहित्य की प्रचुरता और विषयवैविध्य का जो सागर कवि के साथ जुड़ा हुआ है उसके आगे यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो रइधू ने अन्य सभी कवियों लेखकों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। महाकवि रइधू अपभ्रंश साहित्याकाश में एक ऐसे सूर्यवत् सफल रचनाकार हैं, जिन्होंने श्रमण संस्कृति के पावन सिद्धान्तों रूपी अमृत प्रवाह को अपनी रसीली लेखनी से प्रवाहमान बनाया है। यदि उनकी रचनाओं को देखा जाए तो उनके व्यक्तित्व में हमें दार्शनिक, प्रबन्धकार, आचार शास्ववेत्ता-प्रणेता, सृजेता, राजनीति के ज्ञाता एवं समय के साथ चलते हुए भी समय से ऊपर उठने-उठाने की शक्ति के शुभ लक्षणों का समायोजन मिलता है
महाकवि रइधू के प्रमुख प्रबन्धात्मक आख्यानों में से "पासणाहचरिउ" भी एक ऐसी महान रचना है, जिसमें एक साथ ही राजनीति का चक्र, जैन सिद्धान्तों की गंगा, विषयों की विविधता, भाषा का सौष्ठव, नीतिपरक सूक्तियों का .. आधिक्य, पात्रों में समन्वय, न्याय की अन्याय पर विजय, भोग से त्याग का निदर्शन, समकालीन एवं तत्कालीन नीतियों का नियमन, निरीह प्राणियों के प्रति सहिष्णुता, कला एवं संस्कृति आदि के विभिन्न काव्योचित अपरिहार्य तत्त्वों का समुचित समावेश किया गया है।
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जीवन-परिचय : __यदि प्राचीन तथा मध्यकालीन साहित्य पर दृष्टि डालें तो प्राय: यह पाया जाता है कि उसमें लेखकों ने अपना परिचय या तो बिल्कुल ही नहीं दिया है
और यदि दिया भी है तो वह भी अपूर्ण या क्रमशः न होने के कारण भ्रान्ति ही पैदा करता है। वैसे भी पुराकालीन लेखकों ने आत्म प्रशंसा से दूर हटकर अपने काव्य में वर्णित चरित्र का प्रतिपादन करना ही अपना ध्येय समझा और स्वयं से दूर रहकर उसी की पूर्णता में लगे रहे। कवियों के जीवन चरित के विषय में उनकी यही वृत्ति बाधक बनी है। प्रायः देखा जाता है कि ऐतिहासिक मनीषियों, व्यक्तित्वों के सम्बन्ध में सिक्कों, शिलालेखों, दानपत्रों , ऐतिहासिक गजटों आदि से उल्लेख मिल जाता है। राज्याश्रित कवियों का उल्लेख करके आश्रयदाता राजाओं के जीवन की घटनाओं से परिचय मिल जाता है, लेकिन आत्म प्रशंसा से मुख मोड़े रहने वाले भक्त कवियों के विषय में ऐसा कुछ भी नहीं हैं। 'महाकवि रइधू भी इससे अछूते नहीं रहे और जहाँ उन्होंने इतने विशाल साहित्य
का प्रणयन किया, अपने आश्रयदाताओं के विषय में पीढ़ी-दर-पीढ़ी का उल्लेख किया, वहीं अपने विषय में अधिकांश मौन ही रहे। फिर भी रचनाओं के अन्तक्ष्यि, बाह्यसक्ष्यि और अनुमानों के माध्यम व कवि द्वारा वर्णित अपने आश्रयदाताओं के जीवन परिचय के आधार पर यहाँ क्रमश: कवि के जीवनपरिचय व विषय पर प्रकाश डाला जा रहा है:कवि नाम:
अपभ्रंश साहित्याकाश के जाज्वल्यमान सूर्य महाकवि रइधू के नाम के विषय में भी विद्वानों में मतभेद पाया जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण रइधू साहित्य में "रइधू" के साथ-साथ रइधूठा, रदू,2,रयधु ३, जैसे समानता को प्रकट करने वाले अन्य नाम भी मिलते हैं। इससे यह शंका होने लगती है कि कहीं कवि का "रइधू" यह नाम यथार्थ है, उपनाम है अन्य कोई प्रदत्त उपाधि? रइधू या सिंहसेन :
"रइधू द्वारा रचित कहा जाने वाला साहित्य कहीं सिंहसेन नाम के कवि द्वारा लिखा तो नहीं हैं. यह जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, क्योंकि कुछ
1 सम्मइजिणचरिउ 1/19:11 2 वही 1/12/15, 2:16/15, 318/17, 5138/12,3/17/13, 7/14/19 इत्यादि। ३ पासणाहचरिंउ : रइधू 7:11 sesxesesTXSASTESTS 42 ASTRastaTRASTAsrustery
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काव्यों में रइधू की जगह "सिहंसेन" यह नाम भी मिला है। इस विषय में जैनधर्म के मर्मज्ञ विद्वान् श्रीमान् पं. नाथूराम जी प्रेमी ने "प्राकृतदसलक्षणजयमाला''4 में, पं. मोहनलाल दुलीचन्द देसाई ने "जैन साहित्यनोइतिहास' 5 में, श्री एच. डी. वेलणकर ने "जिनरत्रकोश' में और रइधू साहित्य के जीवन्त अध्येता डॉ. राजाराम जी ने "रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन 7 में महाकवि रइधू का अपरनाम "सिंहसेन" माना है। प्रथम तीन लेखकों ने जहाँ इस बात की पुष्टि में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है, वहीं डॉ. राजाराम जी ने इस विषय में तीन संभावनात्मक तथ्य दिए हैं, जो इस प्रकार हैं :
(क) रइधु एवं सिंहमेन इन कोनों में से दो दनका जन्मनाम अथवा धरुनाम हो सकता है तथा दूसर। साहित्यिक। जन्म नाम "रइधू" होने की अधिक संभावना है। प्रतीत होता है कि "रइधु के अधिकांश परिचित व्यक्ति 'रइधू' नाम से ही अधिक परिचित थे। अत: वही नाम अधिक प्रचलित हो गया। साहित्य क्षेत्र में प्रविष्ट होते ही रइधु ने स्वयं अथवा उसके किसी गुरु ने उनका "सिहंसेन" यह नाम प्रचलित करना चाहा होगा तथा उनके परम हितैषी एवं स्नेही गुरु यशः कीर्ति जैसे भट्टारक ने उन्हें "सिहंसेन" नाम से सम्बोधित भी किया हो, किन्तु कमल सिंह संघपति प्रभृति उनके मित्र उन्हें बालमित्र "रइधूपंडित" आदि कहकर भी पुकारते रहे।
(ख) यह भी सम्भावना की जा सकती है कि महाकवि रइधु भट्टारकों को ज्ञानदान देते रहे हैं और इसी कारण भट्टारक यश कीर्ति ने उनके उपाध्यायत्व को सूचित करने के लिए उनका "सिंहसेन" नाम रच दिया हो।
(ग) महाकवि रइधू प्रतिष्ठाचार्य भी थे, अत: यह भी असम्भव नहीं कि उनके गुरु यश: कीर्ति भट्टारक ने उनके पाण्डित्य एवं विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर तथा प्रतिष्ठाचार्य के अनुकूल श्रुतिमधुर नाम "सिंहसेन'' घोषित
4 "प्राकृत दसलक्षणजयमाला'' (बबई 1923) पृष्ठ 1
जैनसाहित्यनो इतिहास (बम्बई 1933) पृ.520
जिनरत्वकोश (पूना 1944) पृ. 29 7 रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन (वैशाली 1973) पृ. 35 से 39 तक ६ (क) तह पुणू कध्वरयणरयण्पायरु। बालमित्त अम्हहं हायरु ।। सम्मत. 1/14/8
(ख) भो रइधु बुह बहिव-पमोय ।। ससिद्ध जाय तुहू परम मित्तु। तर वयणामित्र पाणण तित्तु।। पुण्णासव. 16/89
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అంటోంట్
किया हो। तथ्य जो भी हों, पर इतना सत्य हैं कि "सिंहसेन" महाकवि रड़धू का अपरनाम ही है।
भ्रम का कारण :
महाकवि "रइधू" को "सिंह" मानने के पीछे भी कुछ बातें रहीं, जो इस प्रकार हैं -
(क) “सम्मइजिणचरिउ " में सिंहसेन नाम मिलता है, लेकिन वह प्रसंग की दृष्टि से उचित नहीं है। प्रसंग इस प्रकार है कि हिसार (हरयाणा) निवासी खेल्हा नामक ब्रह्मचारी ने गोपाचल (वर्तमान) ग्वालियर (म. प्र. ) दुर्ग में तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान की । हाथ ऊँची मूर्ति का निर्माण कराकर भट्टारक गुरु यश कीर्ति का धर्मोपदेश सुनकर श्रावक प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। उसी समय उसकी इच्छा हुई कि महाकवि रइधू उसके लिये एक सुन्दर " सन्मति चरित" लिख दें, किन्तु कवि से परिचय न होने के कारण उसने अपने गुरु यश: से कीर्ति से रइधू से ग्रन्थ लिखा देने हेतु प्रार्थना करता है तब यशःकीर्ति रइथू खेल्हा की इच्छा व्यक्त करते हैं :
जि सहलुकरि भो मुणि पावणएत्थु महाकड़ि णिवसण सुहमण || रक्षू णामें गुणगण धार सो णो लंघइ वयण तुम्हारउ ॥
तं णिसुणिवि गुरुणा गच्छतु गुरुणाईं सिंहसेणि मुणेवि मुणि ।
पुरु संविउ पडिउ सील अखंडिउ भणिठ तेण तं तम्मि खणि 19
उपर्युक्त पद्य में वर्णित " सिंहसेणि" शब्द ही भ्रम का कारण बना। इस विषय में जहाँ डॉ. राजाराम जी ने पूर्व में 10 " रइधू" का ही अपरनाम " सिंहसेन" स्वीकार किया है, वहीं बाद में इसे अस्वीकार करते हुए संधि--भेद भट्टारक का दोष बताते हुए लिखा है कि उक्त प्रसंगों से स्पष्ट है कि खेल्हा, यश कीर्ति एवं रधू यह तीन नाम ही प्रमुख हैं; सिंहसेन नामक किसी चौथे नाम की उसमें कोई स्थिति नहीं है। फिर "गच्छह गुरणाई" का अर्थ सिंहसेणि के साथ उनका सामन्जस्य भी कुछ नहीं बैठता। अतः विचार करने पर यही स्पष्ट होता है कि पाठ के अध्ययन एवं संधि भेद में भ्रम हुआ है। वस्तुतः सम्मइ की
सम्मइजिंग चरिउ : रधू 1/5/8 से 11
10 रधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पू. 37
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kakak Resjeskas
उक्त ( 1/5/10-11 ) पंक्तियों को इस प्रकार पढ़ा जाना चाहिए तंणिसुविवि गुरुणागुरुण ईसि हँसे वि मुणेवि मणि। 11
(ख) " रइधू" की अन्य रचना " मेहेसर चरिउ" में " रइधू" का अपरनाम "सिघियसेणव" मिलता है, जो सिंहसेन का ही रूप है। ग्रन्थ रचना के प्रारम्भ में कवि पूर्ववर्ती आचार्यों को स्मरण करता हुआ भट्टारक यशःकीर्ति को नमस्कार करता है। प्रत्युत्तर में यशः कीर्ति उसे आशीर्वाद देते हुए मन्त्राक्षर देते हैं
- मेहेसर चरिउ, 1/3/9-10
"
"मेहे सरचरिउ ' का अपरनाम आदिपुराण" भी है उक्त ग्रन्थ 'आदिपुराण" इस नाम से नजीबाबाद (उ. प्र.) के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। उसमें लेखक के नाम पर सिंहसेन ही अंकित है, रइधू नहीं। किन्तु पिता का नाम - हरि सिंह दोनों में समान है। लेखक नाम एवं ग्रन्थशीर्षक की विभिन्नता को छोड़कर तथा ग्रन्थप्रशस्ति एवं पुष्पिका में यत्किंचित् हेर-फेर के अतिरिक्त पूरा का पूरा ग्रन्थ वही हैं जो कि रइधू कृत " मेहेसर चरिउ" है। फिर भी आश्चर्य है कि उसमें "सिंहसेन एवं " आदिपुराण" नाम ही उपलब्ध हैं "मेहेसरचरिउ "नहीं।
+1
·
जैन सिद्धान्त भवन आरा स्थित मेहेसरचरिउ" नामक प्रति में, जो कि रोहतक शास्त्र भण्डार में सुरक्षित त्रि. सं. 1606 की प्रति के अनुसार लिखी गई थी, उसमें ‘सिंघियसेणयं" के स्थान पर " रइधू पंडिय" पाठ मिलता है, यथाभो रहधूपंडिय सुसहाए - 1
44
भो सिंघियसेणय सुसहाएँ होसि वियक्खणु मज्ज्ञु पसाएँ । इय भवि तक्खरु दिण्णऊ तेणाराहिउ तं जि अछिण्णउ ॥
-..
14
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उक्त 'आदिपुराण" का प्रतिलिपि काल वि. सं. 1851 वैशाख कृष्ण 10. शुक्रवार, शतभिषा नक्षत्र है तथा उसकी प्रतिलिपि दादुर देश स्थित नजीबगढ़ पर्वत के निकट उत्तराखण्ड में वहाँ के पंचों की ओर से कराई गई थी। यह प्रति अत्यन्त भ्रष्ट एवं अप्रामाणिक है। इसमें उपलब्ध “सिंघियसेणय" पाठ भी नितान्त भ्रामक एवं अप्रामाणिक है | प्रतीत होता है कि किसी सिंहसेन नामक
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11 रइधू ग्रन्थावली, भाग-1, भूमिका पृ.5,
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आचार्य ने स्वयं अथवा उनके किसी शिष्य ने उस (सिंहसेन) नाम को प्रसिद्ध करने के लिए मूल ग्रन्थ एवं ग्नन्थकार के नामों में जबर्दस्ती परिवर्तन किया है।12 भ्रम निवारण : __रइधू साहित्य के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि का नाम रइधू ही था क्योंकि इतने विपुल साहित्य में एक दो स्थानों को छोड़कर कहीं भी भ्रमात्मक स्थिति नहीं है। यदि कवि का "सिंहसेन" अपर नाम होता तो वे कहीं न कहीं अपने काव्य में उसका उल्लेख अवश्य करते।
श्रीमान् पं. जुगल किशोर जी मुख्तार सा. ने "सिंहसेन' को रइधू का बड़ा भाई माना है,13 लेकिन इसकी पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं दिया है, जबकि रधू ने "पउमचरिउ14 में अपने भाईयों के जो नाम दिए हैं उनमें यह नाम कहीं भी नहीं है, अत: स्वत: ही इस मत का निराकरण हो जाता है। रइयू का परिवार :
महाकवि रइधू ब्रुधजनों (विद्वानों) के कुल को आनन्द देने वाले साहू हरिसिंह के पुत्र एवं संघपति देवराज के पौत्र थे। 15 इनकी माता का नाम विजयश्नी था। 16 इन्हीं की पवित्र कोख से कविवर रइधू ने जन्म लिया था। इस प्रकार रइयू के स्वयं उल्लेख करने.से इस विषय में कोई विवाद नहीं है।
रइधू के पिता के तीन पुत्र थे जिसमें रइधू अपने माता-पिता के तृतीय पुत्र थे। इन (रइधू) से बड़े दो भाई थे. जिनके नाम क्रमश: बाहोल एवं माहण सिंह थे। 17 महा कवि रइधू ने अपने विवाह की सूचना तो नहीं दी है किन्तु पत्नी एवं
12 रइधू ग्रन्यावली, भाग 1. भूमिका, पृ.5-6 13 जैन हितैषी (पत्रिका) 13/3 14 पउमचरिंउ 11/17/11. 12 15 र्णदत सिरिहरसिंधु संघाहिए। देवराज सुइपवरगुणाहिउ॥
जसु संताणि कईसु अमच्छरु। रइधू संजायउ गुणकोन्वर |- मेहसरचरित 13:1117-8 (सम्मइजिणचरिंठ 10/28:13, सुक्कोसलचरिउ 1/3:9. सम्मतगुणणिहाणणिकन्द 1:14/14, जसहरचरिउ 4/18/18, पासणाहचरिर 17, वित्तसार 7:141, सिरिवानचरिउ 10:25/19 आदि में भी कहीं पिता का और कहीं पिता तथा पितामह दोनों का
नामोल्लेख मिलता है।) 16 सम्मत्तगणिहायकन्च 1:14:14 17 बाहोलमाहणसिंह बिक र्णदउ।
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पुत्र का उल्लेख अवश्य किया है, जिसके अनुसार पत्नी का नाम सावित्री था, 18 उसी की कोख से उदयराज नामक एक पुत्र हुआ था। 19 रइधू के यहाँ जिस समय उदयराज का जन्म हुआ, उस समय वे"णेमिणाहचरिउ' ग्रन्थ की रचना में संलग्न थे।20 रइधू की जाति :
कविवर रइधू ने माता-पिता के नाम के सदृश ही जाति का भी स्पष्ट उल्लेख किया है। उन्होंने अपने आपको पदमावती पुरवाल जाति के सुवंश रूप आकाश के लिए चन्द्रमा के समान, 21 पद्मावती पुरवाल कुल रूपी कमल के लिए दिवाकर के समान, 22 पद्मावती परवाल-वंश में अग्रणी, 23 पदमावती परवाल वंश का उद्योत, 24 पद्मावती पुरवाल वंश का कुलतिलक, 25 आदि विशेषणों से युक्त कहा है, इससे कवि की जाति पद्मावती पुरवाल ही सुनिश्चित होती है। रइधू किस आम्नाय के थे :
महाकवि रइधू काष्ठासंघ माथुर - गच्छ की पुष्करगणीय शाखा से सम्बद्ध थे।26 निवास स्थान :
कवि या लेखक अपनी कृतियों के माध्यम से सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को अपना बना लेता है क्योंकि काव्य व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बल्कि समष्टि के लिए होते हैं, अतः कभी-कभी किसी कवि को एक स्थान विशेष की परिधि में बाँधना भी सम्भव नहीं होता या वह स्वयं भी एक स्थान विशेष से बँधना नहीं चाहता। रइधू के ऊपर भी उक्त कथन लागू होता है, क्योंकि उन्होंने भी अपने
इह रइधू कइ तोवउ वि धर। ।। पउमचरिंठ 12/27:11-12 1B मेहेसरचरिउ 13:873 19 पुण्णासत्र. 73/13:7, वित्तसार 7/141, जसहरचरित 4/18/17 इत्यादि 20 उदयराज्ञ - जण जि रइबर। सिरि अरिट्टणेमिह जिणचरिंज।
अरिट्ठणेभि. 14/27/12 2] पुण्णासव. 13/13/6-7 22 सम्मइ 10128:12 23 पउमचरिङ 1:417 24 जसहरग्टि 4116 25 सिरिंबालम्हि 20:25:18 26 (क) तीर्थकर महावीर, और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड 4, पृ. 199
(ख) रइध साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ. 4]
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निवास स्थान का कोई निश्चित उल्लेख नहीं किया है। फिर भी कुछ अन्तक्ष्यि एवं बहिसक्ष्यि ऐसे मिले हैं, जिनसे उनके निवास स्थान के बारे में निर्णय किया जा सकता है। रइधू ने अपने काव्यों में अनेक स्थानों के वर्णन किए, किन्तु गोपाचल27 (ग्वालियर) का जिस तरह वर्णन किया है, वह बिना निकटता के कदापि सम्भव नहीं दिखता। साथ ही अपनी कृतियों के प्रशस्ति खण्डों में जो न्यूनाधिक सूचना भी हैं, उनके आधार पर भी उनका निवास स्थान गोपाचल ही ठरहता हैं। इसके अतिरिक्त भी रइधू कवि होने के साथ-साथ प्रतिष्ठाचार्य भी थे, 'सम्मतगुणणिहाणकव्य" में आये विभिन्न कथनों से इसकी पुष्टि होती है।30 रइधु ने अपने समकालीन प्रतिष्ठित तोमर -वंशी राजाओं, भट्टारकों एवं गोपाचल की प्रकृति सम्पदा, मन्दिरों, दुर्गों आदि का जैसा याथा-तथ्य वर्णन किया है उससे तथा गोपाचल दुर्ग में स्थापित भ, आदिनाथ स्वामी की विशालकाय (57 फूट) मूर्ति के पंच कल्याणक प्रतिष्ठा कारक आचार्य स्वयं होने31 से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि उनको जन्मस्थली और कर्मस्थली गोपाचल (वर्तमान ग्वालियर) ही थी। रइधू द्वारा सृजित साहित्य : ___ महाकवि रइधू कृत रचनायें कितनी है, इसका स्पष्ट उल्लेख किसी एक स्थान पर नहीं मिलता, फिर भी विविभन्न स्रोतों से जो उनकी रचनाओं के सम्बन्ध में उल्लेख मिला है, वह इस प्रकार है :1. मेहेसरचरिउ (अपरनाम आदिपुराण एवं मेघेश्वरचरित) 2. णेमिणाहचरिउ (अपरनाम रिट्ठणेमिचरित एवं हरिवंशपुराण) 3. पासणाहचरिउ (पार्श्वनाथचरित) 4. सम्मइजिणचरिउ (सन्मतिजिनचरित) 5. तिसबिमहापुरिस चरिउ (अपरनाम महापुराण)
. _ _. _ - - - - - . 27 वर्तमान ग्वालियर (म. प्र.) भारत 26 द्रष्टव्य पास.. 113, जीवंधर. 1.2 धत्ता आदि 29 (क) गोवगिर दुग्गमि णिवसंत बहुसुहेण तहिं। सप्मइ. 1/3/9
(ख) पास. 1/2/15-16
(ग) जोत्रंधरचारउ 1/2 एवं 1:31-2 30 द्र. सम्मत्तगुणणिहाणकन्च 1/8. 113. 1/14 एवं 1115 31 Journal of Asiatic society, p,404.A
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6 बलहद्दचरिंठ (बलभद्रचरित) 7 सिरिवालचारेउ । श्रीपालचारत अपरनाम सिद्धचकमाहप्प ) 8 पज्जुण्णचरिउ (प्रद्युमचरित) १ वित्तासार (वृत्तसार) 10 दशलक्खणजयमाल (दशलक्षण जयमाला) 11 रत्नत्रयी 12 षड्धार्मोपदेशरत्नमाला (अपरनाम उचएसरयणमाल) 13 विसयत्तचरिउ (भविष्यदत्तचरित) 14 करकंडचरिउ 15 अप्पसंबोहकध्व (आत्मसंबोध काव्य) 16 पुग्णासव कहा (पुण्यात्रव कथा) 17 सम्मसगुणणहाणकव्व। 18 कारणगुणसोउसी (षोडशकारण जयमाल) 19 बारह भावना 20 संबोहपंचामिका (संबोध पंचासिका) 2। घण्णकुमार चरिउ (धन्यकुमारचरित) 22 सिद्धन्तसार (सिद्धान्तार्थ) 23 वृहत्सिद्धचपूजा (संस्कृत) 24 सम्मत्तभावय (सम्यक्त्व भावा) 25 जसहरचरिउ (यशोधरचरित) 26 जीणधरवरिउ (अपरनाम जीमंधरचरित) 27 कोमइकहापबंधु (अपरनाम सम्मत्तक उमुह अथवा सावयचरिउ) 28 सुक्कोसल चरिउ (सुकौशलचरित) 29 सुदंसणचरिउ (सुदर्शनचरित) 30 अणथमिउकहा32 __उपर्युक्त साहित्य सृजन की प्रतिभा कवि ने कहाँ से जुटा पायीं होगी, इस विषय में सन्देह भी हो सकता है, किन्तु कवि रइधू ने स्वयं इस शंका का निवारण करते हुए लिखा है कि वे एक दिन जब रात्रि में चिन्तितावस्था में शयन
32 रइधू गहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, (पृ. 46 से 54) पर आधारित।
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कर रहे थे, तभी साक्षात् सरस्वती ने प्रकट होकर दर्शन दिए और काव्य सृजन की प्रेरणा दी
सिविर्णतरे दिट्ठ सुयदेवि सुपसण्ण ।
आहासए तुज्झ हउं जाए सुपसण्ण ॥ परिहरहिं मणचित करि भव्बु णिसु कन्नु । खलयणहं मा डरहि भउ हरिउ मइ सव्व ॥ तो देखिवयणेण पडिउवि साणंदु ।
तदक्खणेण सचणाउउ ट्ठिउ जि गय-तंदु ।।33 अर्थात् प्रसन्न मन से युक्त होकर सरस्वती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। मन की सम्पूर्ण चिन्ताओं को छोड़कर, हे भव्य ! तुम निरन्तर काव्य रचना करो। तुम्हें दुर्जनों से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि भय सम्पूर्ण बुद्धि का हरण कर लेता है। कवि कहता है कि इस प्रकार के प्रेरणामयी सरस्वती के वचनों से प्रतिबुद्ध होकर मैं आनन्दित हो उठा। उसी समय मैं नद्रा टूट जाने से शय्या से उठ पड़ा।
इस प्रकार कवि रइधू ने सरस्वती की कृपा से साहित्य जगत में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। काव्य सृजन में भट्टारक यश:कीर्ति, खेऊ साहू, कमलसिंह संघवी जैसे तत्कालीन श्रावकगण भी रइधृ को प्रोत्साहित करते रहे, जिससे उन्हें अपनी कवित्व प्रतिभाको कुशलता से मूर्त रूप देने में सफलता मिली। "पासणाहचरिउ' का रचना काल :
"पासणाहचरिउ'' की रचना कवि ने खेऊ साहू के समय में की थी। खेऊ साहू राजा डोंगरेन्द्र (अपरनाम दूंगर सिंह, जो कि गोपचल के राजा थे) के समकालीन थे, इस बात की पुष्टि ''पासणाहचरिउ" से होती है। 34 राजा इंगर सिंह का राज्यकाल वि. सं. 1482 से 1510-. 11 है 35 अतः खेऊ साहू को इसी समय के बीच होना चहिए।
रइधू कृत "सुक्कोसलचरिउ'' में उसका रचना समाप्ति काल वि. वं. 1496 उदिखित है। 36 इस रचना में कवि ने अपनी पूर्व रचित 'रिवणेमिचरिउ', एवं
३३ द्रष्टव्य- सम्मइ0 1/4/2-4 34 पास. 1:4 एवं 115 35 रइधृ.प्रन्थावली, भूमिका भाग, पृ. 17 36 सुकोसलचरिउ 4:23/1-3
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'बलहद्दचरिउ' नामक दा रचनाओं के साथ ''पासणाचार उ' का भी उल्लेख किया है। 37 इससे यह सिद्ध होता है कि "पासणाहचरिउ" की रचना वि. सं. 1498 के पूर्व हुई थी।
"पासणाहचरित" की एक सचित्र प्रति मिली है, जो रूपनगर (दिल्ली) के श्वेताम्बर जैन शास्त्र भण्डार में संगृहीत है। इस प्रति का प्रतिलिपिकाल वि. सं. 1496 है। यह प्रति कवि के जीवनकाल की है। 3B
रइधू का रचना- काल वि. सं. 1457 से 1530 का माना गया है।39 अतः हम ठोस प्रमाणों के अभाव में यह मान सकते हैं कि "पासणाहचरिउ" का रचना-काल वि. सं. 1490 से 1495 के बीच का समय रहा होगा। "पासणाहचरिउ" का कथासार सधि-1:
प्रथम सन्धि के प्रारम्भ में महाकवि रइधृ ने मंगलाचरण के रूप में श्री पाश्वप्रभु को नमस्कार करते हुए उनके चरित वर्णन करने की सूचना दी है। अनन्तर वर्तमान चौबीस तीर्थङ्कारों की विशेषताओं सहित स्तुति, भूत एवं भविष्यकालीन तीर्थङ्करों का सारण-वन्दना, गौतम-गणधर की वन्दना, भट्टारक सहस्त्रकीर्ति, भट्टारक गुणकीर्ति, भट्टारक यश कीर्ति तथा श्री अशः कीर्ति के प्रमुख शिष्य श्री खेमचन्द्र को प्रणाम किया गया है। अनन्तर रचनास्थल गोपालचल नगर का वर्णन किया गया है। वह नगर इन्द्रपुरी के समान धनथान्यादि से युक्त था, मानो सर्वश्रेष्ठ नगरों का वह गुरु ही था। वहीं का तोमर वंशी वैभव से युक्त प्रसिद्ध शासक डोंगरेन्द्र (डूंगर सिंह) था। उसकी चन्दादे नाम की पट्टरानी थी, उसके एक पुत्र हुआ, जो कीर्तिसिंह के नाम से प्रसिद्ध था। उन्हीं के राज्य में एक वणिक् श्री प्रद्युम्न साहृ हुए, जो व्यसन त्यागी और जैन धर्म में प्रगाढ़ आस्था रखता था। उसके यहाँ उसी के गुणानुरूप श्री खेम सिंह साहू नाम का पुत्र था। उस खेमसिंह की धनवती नाम की पत्नी थी, उसके उदर से चार पुत्र उत्पन्न हुए. जिनके नाम-सहसराज, प्रभुराज, देवसिंह तथा होलिवम्म थे।
37 सुकोसल चरिउ, 1135.7 38 द्र. अनुसन्धान पात्रिका( जनवरी-मार्च सन् 1973) पृ. 50-57 में "महाकवि रइधू कृत
पासपाहचरिठ' की सचित्र प्रति : एक मुल्यांकन शीर्षक से प्रकाशित डॉ. राजाराम जैन
का लेख। 39 रइधू ग्रन्थावली, भूमिका भाग. पृ. 19
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इस प्रकार खेऊ साहू की वंशावली का वर्णन कर हुए कवि ने अपने साथ खेऊ साहू के साथ धार्मिक वार्तालाप के बीच उसके द्वारा " श्री पार्श्वनाथचरित " लिखने के आग्रह को स्वीकार किया। अब यहाँ से मूल कथा प्रारम्भ होती है, जो इस प्रकार है :
इसी जम्बूद्वीप में सुमेरुपर्वत के दक्षिण में काशी नामक सुखकर देश हैं, उसमें देवों के लिए प्रिय वाराणसी नाम की नगरी है। उस वाराणसी नगरी में अश्वसेन नामक राजा राज्य करता था, उसकी वामा देवी नाम की प्रिय पट्टरानी थी जो अत्यन्त सुन्दर एवं सुख को देने वाली थी। राजा उस रानी के साथ भोग करता हुआ सुखपूर्वक रहता था।
द्वितीय सन्धि :
स्वर्ग में सुरेश्वर का शासन कम्पायमान हुआ, तब उसने अपने अवधिज्ञान से उसका कारण जानकर कुबेर से कहा कि " हे कुबेर यक्ष ! इसी भरत क्षेत्र के काशी देश की वाराणसी नगरी में राजा अश्वसेन के घर पार्श्वप्रभु जन्म लेंगे, अतः तुम वहाँ जाकर महान शोभा करो। " इस प्रकार सुरेश्वर की आज्ञा से यक्ष ने वाराणसी आकर नगर की शोभा की ओर श्रेष्ठ स्वर्ण तथा रत्नों की वर्षा की। सर्वत्र आनन्द छा गया। इन्द्र के आदेश से श्री, ह्री धृति, कीर्ति आदि प्रमुख देवियाँ वामादेवी की सेवा सुश्रूषा हेतु आ गयीं। इन्द्राणी ने वामादेवी के पास पहुँचकर स्तुति करते हुए कहा कि हे देवि! तुम्हारी कोख सुधन्य है, जो तीनों लोकों के विजेता स्वामी की माता बनने वाली हो। इस प्रकार स्तुति करती हुई वहीं वामादेवी की सेवा में निवास करने लगीं। इस प्रकार देवांगनाओं से सेवित वह वामादेवी उत्तम पलंग पर लेटी हुई प्रगाढ़ निद्रा के वशीभूत हुई।
तदनन्तर उसने पश्चिम रात्रि में सुखद फल देने वाले सोलह स्वप्न देखे ! प्रातः शय्या से उठकर रानी श्रृंगार कर अपने पति अश्वसेन से उन स्वप्नों का फल जानने गई। रानी ने राजा को प्रणाम कर रात्रि में जो स्वप्न देखे थे उन्हें यथावत् कहा। राजा ने उन स्वप्नों का अर्थ बताते हुए कहा कि हे देवि ! तुम त्रिलोकजयी तीर्थंकर पुत्र की माता बनोगी। यह सुनकर रानी अत्यन्त हर्षित हुई और उस रात्रि अपने स्वामी के साथ श्रेष्ठ सुखों का भोग किया। भवभ्रमण का विनाश करने वाली सोलह भावनायें भाकर, तीर्थङ्कर गोत्र को बाँधकर वैजयन्त स्वर्ग में जो देव हुआ था, वह बत्तीस सागर की आयु भोगकर वामादेवी के गर्भ में आया। वह दिन वैशाख कृष्ण द्वितीया का था। देवों ने आकर गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाया। यक्षेन्द्र ने रत्नवर्षा की।
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इस प्रकार जब गर्भ नौ मास का पूर्ण हो गया तब वामादेवी का मुख पीत वर्ण का हो गया जो गर्भ के यश के प्रकाश के सदृश था। पौयमास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन शुभनज द्र.. हुआ जब सुरपति ने भगवान का जन्म हुआ जानकर सात पैर आगे बढ़कर जिनस्तुति की, फिर अपने ऐरावत हाथी को लेकर मन्दर पर्वत (सुमेरु पर्वत) पहुँचा। अन्य देवगणों से साथ क्षणभर में ही इन्द्र वाराणसी आ गया। वाराणसी नगरी की तीन प्रदक्षिणा करके वे सब राजा अश्वसेन के महल में आये। इन्द्र के आदेश से इन्द्राणी ने प्रसूतिगृह में जाकर जिनेन्द्र को देखा और माता सहित जिनेन्द्र को प्रणाम करने के बाद माँ (वामा) के लिए एक मायामयी बालक देकर परमेश्वर को उठाकर वहाँ से चल पड़ी और उस बालक को अपने प्रियतम को दिया। इन्द्र ने भी नमस्कार कर अनन्त सुलक्षणों से लक्षित शरीर वाले उस सुन्दर मुख वाले बालक को ले लिया। दोनों भुजाओं से जब इन्द्र ने उसे गोद में उठाया तो ईशान सुरेन्द्र ने उन पर छत्र तान दिया। मस्तक पर विराजमान कर इन्द्र उसी क्षण आकाश मार्ग से चला। सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र भगवान् के ऊपर चँवर डुलाने लगे। अन्य चतुर्निकाय के देव भी भक्तिपूर्वक यथाशक्ति राग को प्रकाशित कर रहे थे। जिन भगवान के रूप को देखकर भी जब इन्द्र तृप्त नहीं हुआ तब उसने सहस्र नेत्र धारण कर लिये और उन नेत्रों से जब उसने नाथ को निहारा तब उसका कर्ममल प्रक्षालित हो गया और उसने सोचा कि "आज मेरा यह जन्म सफल हो गया।" ___इन्द्र ने अपने परिवार के साथ सुमेरुपर्वत पर जाकर एक उच्च सिंहासन पर भगवान जिनेन्द्र को प्रतिष्ठापित किया। देवगणों ने हाथों हाथ क्षीर सागर से भरे हुए स्वर्ण कलशों को लाना प्रारम्भ किया, तब 1008 लक्षणों से युक्त उन शिशु भगवान का 1008 कलशों से अभिषेक किया। अभिषेक एवं गन्धोदक वन्दन के उपरान्त इन्द्र ने अष्ट द्रव्य से भक्तिभावपूर्वक जिनेन्द्र की पूजा की। पूजोपरान्त इन्द्र ने प्रभु के कानों का छेदन संस्कार करके कुण्डल युगल से मण्डित किया। अन्य अंगों में भी मणिजटित आभूषण पहनाये। अनन्तर "श्री पार्श्वनाथ" यह नाम रखकर वाराणसी आ गये। - जब वह इन्द्र नगर में पहुँचा तब इन्द्राणी ने जिनेन्द्र को अपने हाथों में ले लिया और वामादेवी को वह पुत्र समर्पित कर दिया तथा प्रणाम करके कहा . हे वामा माता ! सज्जनों को सुख देने वाले पुत्र के अपहरण का किसी भी प्रकार का
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दुख मत मानिए, सम्पूर्ण जिनेश्वरों के लिये यही रीति है कि उन्हें अभिषिक्त करा के माता के गृह में लाया जाता है। सुरों एवं असुरों द्वारा सेवित "श्री पार्श्वनाथ" नामक इन भगवान को आप लीजिए!'' इस प्रकार कहकर एवं जिन भगवान की माता को प्रणाम कर इन्द्राणी इन्द्र के पास आ गई। राजा अश्वसेन के लिए भी इन्द्र ने दैदीप्तमान रत्त्राभूषण एवं पवित्र वस्त्र प्रदान किए। अनन्तर नृप द्वारा आदेश पाकर इन्द्र स्वर्ग चला गया तथा जिनेन्द्र देव भी अपने पितृ गृह में निवास करने लगे। पार्श्वजिन के अंगरक्षक देव तथा अप्सरायें उनका पालन-पोषण करने लगीं। इस प्रकार भगवान हिन्डोले में बढ़ने लगे। उनका पवित्र शरीर दश अतिशय से युक्त तथा तीन प्रकार के ज्ञान से अलंकृत था। इस प्रकार पार्श्व जिन विविध क्रीड़ाओं को करते हुए क्रमश: यौवन को प्राप्त हुए। अब उन की अवस्था तीस वर्ष और काया नौ हाथ प्रमाण थी। सन्धि -3 :
जब राजा अश्वसेन सभामण्डल में विराजमान थे तभी कुशस्थल नरेश अर्वकीर्ति के दूत ने आकर कहा कि आपके श्वसुर जो दीक्षित हो गये थे ऐसे शक्रवर्मा को यवननरेन्द्र ने मारकर उनके पुत्र अर्क कीति' से अपनी पुत्री देने को कहा है। यह वृत्तान्त सुनकर राजा अश्वसेन अपने श्वसुर की मृत्यु को जानकर शोकाभिभूत हो गये। तब मंत्री के द्वारा सांत्वना दिए जाने पर राजा अश्वसेन ने युद्ध की तैयारी करने को कहा। राजा का आदेश सुनते हो समस्त योद्धा और सैन्य समूह तैयार हो गया। जब राजा अश्वसेन अपनी सेना के साथ प्रयाण करने लगे तब यह जानकर पाश्वनाथ ने पिता के पास आकर कहा कि मेरे जैसे वज्र हृदय वाले पुत्र के रहते हुए आपको युद्ध में जाने की क्या आवश्यकता है? यह सुनकर अश्वसेन ने पहले तो मना किया किन्तु पार्श्वप्रभु के बार-बार आग्रह करने पर वे उन्हें युद्ध में भेजने हेतु तैयार हो गए। __युद्ध क्षेत्र में कालयवन नरेन्द्र और राजा अर्ककीर्ति में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ द्वारा अर्कीर्ति की सहायता करने से कालयवन भाग गया और अर्ककीर्ति विजयी हुए।
तीर्थङ्कर पाश्वं के प्रताप को जानकर अर्ककीर्ति ने उन्हें प्रणाम किया और उनके गुणों की प्रशंसा करता हुआ उन्हें अपने नगर कुशस्थल ले गया। नगर में पार्श्व के पहुँचने पर नगर वासियों द्वारा उनका भव्य स्वागत किया गया और
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अर्ककीर्ति ने वस्त्राभूषण भेंट किए और अपनी कन्या प्रभावती से विवाह करने हेतु प्रार्थना की। पार्श्वप्रभु ने इसकी स्वीकृति दे दी।
'कुशस्थल में निवास करते हुए दूसरे दिन पावं ने नागरिकों को वन में जाते हुए देखकर अपने मामा अर्ककोति से इसका कारण पूछा। तब अर्ककीर्ति द्वारा यह बताए जाने पर कि तापसों का एक संघ वन में रहकर कठिन पञ्चाग्नि तप करता है, उन्हीं की वन्दना हेतु ये लोग जा रहे हैं। तब दूसरे दिन पार्श्वप्रभु जी अपने मामा अर्ककीर्ति एवं अन्य सेवकों के साथ वहाँ गए। वहाँ उन्होंने एक तापस को देखा. जो पञ्चाग्नि तप कर रहा था, लोग उसकी वन्दना आदि कर रहे थे। यह देखकर पार्श्व ने कहा कि जो स्वयं ही संसार के दखों को नष्ट नहीं कर सकता उसको भक्ति बयां करते हो? यह सुनकर (कमट नामक) तापस अत्यधिक कुद्ध हुआ और बोला कि हे नर श्रेष्ठ ! अप्रिय क्यों बोलते हो? कमठ की वात सुनकर पार्श्व ने पूछा कि बताओ, तुम्हारा गुरु मरकर कहाँ उत्पन्न हुआ है? तब कमठ ने कहा कि इसे प्रत्यक्ष कौन जान सकता है? तुम ज्ञान में बड़े दक्ष दिखाई दे रहे हो, अत: तुम्ही बताओ। तब पाश्वं ने जलती हुई लकड़ी की
ओर इशारा करके कहा कि वह गुरु मरकर वृक्ष को कोटर में दपीला साँप हुआ है, क्या जलते हुए को नहीं देखते? वृक्ष फाड़कर तू प्रत्यक्ष ही देख ले। तब कमठ ने उस काष्ठ को फाड़ा तो उसमें अर्द्धदग्ध सर्पयुगल को सिर धुनते हुए पाया। तब लोगों ने तापस की हँसी उड़ाई । तब वह भारी लज्जित हो कुद्ध हो गया। पार्श्व ने भी दयाई चित्त हो उस समयुगल के कान में पवित्र मंत्र सुनाया। उसे सुनकर वह सपंयुगल अपना शरीर त्यागकर भवनवासी देव हो गया। उस युगल में से काला साँप तो धरणेन्द्र हुआ और दूसरा साँप वहीं पद्मावती देवी हुई। तापस भी मन में क्रोध धारणकर तत्क्षण मरकर संवर नामक ज्योतिषो देव हुआ।
सर्पयुगल को प्राणरहित देखकर पार्श्वजिन "संसार में जीवों के लिए मृत्यु से त्राण नहीं है। ऐसा जानकर वैराग्योन्मुख हो अनित्य, अशरण, संसार, एक, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, निर्जरा, धर्म, लोक, बोधिदुर्लभ आदि बारह भावनाओं का चिन्तवन करने लगे।
जब जिनेश्वर पार्श्व यह सोच ही रहे थे कि मैं संसार के दुखों को छोड़कर व्रत भार को ग्रहण करूँगा। तभी पञ्चम स्वर्ग में निवास करने वाले देवों ने आकर
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तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी वैराग्य भावना की अनुमोदना की और उन्हें वहीं तीर्थों के जलं से अभिषेक कराकर वस्त्राभूषणों से अलंकृत किया। सन्धि -4:
'देवों के द्वारा निर्मित पालकी में विराजमान होकर पार्श्व ने वन में जाकर केशलोंच करके पौषमास की दशमी के दिन जिन दीक्षा धारण कर ली। उनके साथ तीन सौ राजाओं ने भी मुनि दीक्षा धारण की। आठ उपवास के अनन्तर हस्तिनापुर के वणिक् श्रेष्ठ वरदत्त के यहाँ मुनि पार्श्व ने आहार ग्रहण किया, तभी देवों द्वारा पंचाश्चर्य किए गए। अनन्तर पार्श्व ने आहार ग्रहण किया, सभी देवों द्वारा पंचाश्चर्य किए गए। अनन्तर पार्श्व वन में जा कर 'पश्चर्या में लीन हो गये। ___ इधर रविकीर्ति पार्श्व के वैराग्य धारण कर लेने से व्याकुल होने लगे तथा प्रभावती भी शोक विह्वल हुई और अन्त में-"हाय नाथ, तुम्हारा कोई दोष नहीं", पूर्वकृत कर्मों पर ही मुझे रोष आ रहा है। जो स्वामी की गति है, वही मेरे लिए भी योग्य है।" ऐसा सोचकर जिन व्रत को ग्रहण कर लिया।
राजा अर्ककीर्ति ने वाराणसी जाकर अश्वसेनको पार्श्व के वैराग्यका इतिवत सुनाया। यह सब सुनकर अश्वसेन पत्री सहित अत्यधिक पुत्र-प्रेम के कारण दुखी हुआ और अन्त में मंत्री के द्वारा प्रतिबोधित होकर शान्ति को प्राप्त हुआ।
घोर तपश्चरण करते हुए जब पार्श्व पर्यडकासन पर बैठकर कर्म ऋण का शोषण कर रहे थे, तभी आकाश में अपनी भार्या के साथ विचरण करते हुए कमठ के जीव संवरदेव ने अपने विमान को रुका हुआ देखकर, उसका कारण पाश्चं को पाया। पूर्व जन्म का बैर जिसे ज्ञात हो गया है ऐसे कमट ने उन पाव पर भंयकर जलवष्टि की किन्तु योगी जिनेन्द्र रंच मात्र भी विचलित नहीं हुए। इधर जब संवरदेव पार्श्व पर विक्रिया ऋद्धि के बल से घोर उपसर्ग कर रहा था तभी सुरेश्वर (धरणेन्द्र) का आसन कम्पायमान हुआ। ध्यान से जानकर वह अपनी प्रिया (पद्मावती) से बोला-'हे प्रिये, जिसकी कृपा से सुरपद प्राप्त हुआ, जिसने वह परमाक्षर मंत्र दिया था, उसी श्री पार्श्वप्रभु के ऊपर पृथ्वी तल पर अत्यन्त दुखकारी घोर उपसर्ग हो रहा है:" ऐसा कहकर अविलम्ब जहाँ पार्श्वप्रभु विराजमान थे, वहाँ जाकर स्तुति कर उपसर्ग निवारक कमलासन का निर्माण कर उस पर पाचप्रभु को विराजमान किया और सात फणों को मण्डलाकार कर स्थित कर दिया। इस प्रकार फणीश्वर जब पार्श्व के शरीर की रक्षा कर रहा था, उस समय पद्मावती अपने प्रिय में आसक्त मन वहीं स्थित थी। इर प्रकार यल किए जाने पर संवरदेव के सभी उपसर्ग निरस्त हो गए। HTASKASHeresxesesexes 56 mesesxesxeSTSxsxesxxy
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उपसर्ग निवारित होने पर गुणस्थानों का क्रमिक विकास कर शेष कर्म प्रकृतियों का उच्छेद कर चैत्रमास के पवित्र कृष्णपक्ष चतुर्थी के दिन केवल ज्ञान प्राप्त किया, जिससे उनके ज्ञान में समस्त लोक और अलोक स्पष्ट दिखाई देने लगे। पार्श्व की केवल्य प्राप्ति को जानकर इन्द्र ने आकर उनकी स्तुति की और कुबेर को आदेश दिया कि "प्रभु पार्श्व के लिए यथोचित सभाङगण (समवशरण ) तैयार करो। यह सब देकर भयभीत सा कमठ भी वहाँ से भाग
गया।
कुबेर ने चारों दिशाओं में ध्वजा पताकाओं से युक्त मणिवेदियों तथा मान स्तम्भ से युक्त, दुर्नय का भञ्ज, मिथ्यात्व का नाशक चन्द्रविमान के समान वर्तुलाकार समवसरण का निर्माण किया। उसी समवसरण के बीचों बीच गन्धुकुटी में अष्टप्रातिहार्यों से युक्त भगवान विराजमान थे। समवसरण बारह कोठों से युक्त था जिनमें क्रमश: प्रथम में मुनि एवं गणधर द्वितीय में कल्पवासी देवों की सुन्दर अप्परायें, तृतीय में व्रतधारी महिलायें चतुर्थ में ज्योतिषी देवों की स्त्रियों, पञ्चम में व्यन्तर देवों की नारियाँ, कष्ठ में नागनारियां, सम में भवनवासी देव, अष्टम में मधुर वाणी से युक्त किन्नरगण एव नवम् में चन्द्र एवं सूर्य नामक ज्योतिषी गण, दशम में शुभ मन वाले ज्योतिषी देव, ग्यारहवें में राजागण और बारहवें कोठे में शुभदृष्टि से युक्त तिर्यञ्च स्थित थे, समवरण के चारों ओर 400 यूति प्रमाण क्षेत्र में सुभिक्ष था।
आकाश में स्थिर जिन भगवान के चार घातिया कर्मों के घात के कारण दस अतिशय प्रकट हुए और देवों के द्वारा भी चौदह अतिशय किए गए।
समवसरण में सर्वप्रथम तो सौधर्म का आगमन हुआ, उसकी जिन स्तुति के बाद राजा स्वयम्भू भी सेना सहित आया और गुणानुवाद के अनन्तर अत्यन्त संवेग के कारण उसने तपभार ( मुनिपद) धारण किया और ज्ञान का धारक प्रथम गणधर हुआ। प्रभावती भी श्रेष्ठ (प्रमुख) आर्यिका बनी।
शक्र के भय से कमठ नाम का वह देव भी अपना सिर झुकाकर जिनेन्द्रदेव की शरण में आया और बोला "नित्य, निरंजन तथा सभी जीवों का हित करने वाले हे पार्श्व जिन, मेरी रक्षा कीजिए। हे देव! मुझ पापी ने चिरकाल तक जो कुछ किया है, वह अत्यन्त घना अज्ञानान्धकार मेरे विनय भाव से और आपके प्रसाद से मिथ्या होवे ""
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सन्धि -5:
केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी के स्वामी धरणेन्द्र द्वारा नमस्कृत श्री पार्श्व जिन का समवसरण पृथ्वीमण्डल पर विचरण करने लगा। सर्वप्रथम वे कन्नौज नगरी पहुँचे। वहाँ के वनपाल ने यह समाचार अपने राजा अर्ककीर्ति को सुनाया जिसे सुनते ही अर्ककीर्ति ने शीघ्र ही उस दिशा में सात पग जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करके पुनः सिंहासन पर बैठ गया। उसने वनपाल के लिए प्रचुर पुरस्कार दिया और अपने परिजनों सहित श्री पार्थ प्रभु के पास गया और तीन प्रदक्षिणा देकर, प्रणाम कर अपने कोठे में बैंठ गया। फिर उसने भगवान से श्रावक धर्म पूछा। क्षणभर में जिनवाणी निर्गत होने लगी। गणधर ने उसे अपने विमल मन से धारण किया और राजा से कहा कि. है नरेश ! मनोवाजित सुखों को प्रदान करने वाले 'सागार धर्म' का श्रवण करो।
मिथ्यात्व भावना का त्यागकर अष्टाङगों से विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारणकर उसका मन में ध्यान करो, जिससे कि लोक ओर परलोक में सुख प्राप्त कर सको। जिन शासन में संवेग एवं निर्वेद. निन्दा तथा आत्मगर्दा उपशम तथा बहुभक्ति, वात्सल्य एवं अनुकम्पा आदि गुणों से सम्यक्त्व होता है। अरहन्त ही देव हैं, अन्य कोई नहीं, वह अठारह दोषों से मुक्त, निष्काम और इन्द्रियरूपी गज-समूह का दलन करने वाले के लिए सिंह के समान हैं। जो परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ साधु हैं उनको प्रणाम करो। धन्य दशलक्षणधर्म का पालन करो। सम्यक्त्व से सुर-नर सम्पदादि का सुखभोग करके फिर शिव पद (मोक्ष) की प्रासि होती है।
सभी जीवों कि लिए मैत्री का विधान किया गया है अत: किसी भी जीव की हिंसा मत करो। मध, मद्य और मांस को दूर से ही त्याग देना चाहिए, जिससे दया का भाव बढ़े। पाँच उदुम्बर फलों तथा कन्दमूल के भक्षण का त्याग करो। विवेकशील व्यक्ति को ऐसा वचन बोलना चाहिए जिसमें पाप ( असत्य) की अल्प भी सम्भावना न हो जो व्यक्ति मन, वचन, काय से घोर-कृल्प को छोड़ देता है, वह सुख को प्राप्त करता है। व्रत की रक्षा के लिए अपनी पत्नी में ही राग करें व अन्य सब पर नारियों की ओर से अपनी कुदृष्टि को रोकें। धनधान्य, स्वर्ण, गृह, दासी-दास, ताम्बूल, विलेपन एवं उत्तम सुवास; इनके प्रति लोभ की भावना का त्याग कर प्रमाण कर लेना चाहिए और निज चेतन स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए।
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दुखों का क्षय करने वाले ये पञ्चाणुव्रत कहे गये हैं। पुनः तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत सुनो, जो कि शाश्वत सुख प्रदान करने वाले हैं। दिशाओंविदिशाओं का प्रत्याख्यान, मन का निरोध एवं प्रतिदिन प्रात:काल में नियम ग्रहण करना। पाप बंध के कारण भूत कार्यों से विरक्ति, हिंसक उपकरणों का न देना और न लेना। अपने मन को स्थिर करके भोगों और उपभोगों की संख्या सीमित करना क्योंकि इनसे संवर बढ़ता है और संसार रूपी वृक्ष जल जाता है।
देश की सीमा का निधारण करना, मन को स्थिर करके आत्म ध्यान रूप सामायिक करना, आरम्भादि हिंसा का त्याग कर प्रोषधोपवास करना, सन्पात्रों को आहार देने रूप अतिथिसंविभाग व्रत का पालन; ये चार शिक्षाव्रत कहे गये
हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। अनछूना जल न तो स्वयं पीना चाहिए और न दूसरों को पिलाना चाहिये क्योंकि दो घड़ी वाले जल में सम्मूर्छन जीव होते हैं। जुआ, मांसाहार सुसेवन, वेश्या, शिकार, गोरी और कुशील; ये सात व्यसन छोड़ देने चाहिए, क्योंकि इनको करने वाला इस लोक और परलोक में निन्दा तथा पाप का भागी होता है।
इस प्रकार श्रावक के व्रतों को सुनकर तथा त्रियोग विशुद्धि करके राजा अर्ककीर्ति ने सम्यक्त्यव प्राप्त किया। उसने ज्ञानसम्पन्न गुरु को प्रणाम किया और कमठ को निकट ही बैठा देखकर पूछा कि "इस दुष्ट पापी ने किस कारण से पार्श्वप्रभु पर उपसर्ग किया? भव्यजनों को बोधित करने के लिए सूर्य के समान हे गणधर उसका कारण मुझसे कहिये ! "अर्ककीर्ति के इस प्रश्न को सुनकर गणधर ने जिन भगवान के मुख से निर्गत वाणी सुनकर उसके सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए कहा कि- प्रथम जिनेन्द्र द्वारा कथित सर्वाकाश अनन्तानन्त रूप में प्रकाशित है। उसके मध्य में तीन लोक हैं, जो असंख्य प्रदेशों से विशिष्ट हैं, अकृत्रिम हैं, स्वतः सिद्ध हैं प्रदेशों से विशिष्ट हैं, अकृत्रिम हैं, स्वतः सिद्ध हैं और प्रसिद्ध हैं, न कोई उसका हरण कर सकता है, न धारण और न निर्माण । घनवातत्रलय, तनुवातन्त्रलय एवं घनोदधिवातवलय पर आधारित हैं। सारा लोक जीवाजीवों से भरा है। उन सभी का पिण्ड जिन भगवान ने बीस-बीस हजार योजन प्रमाण ऊपर ऊपर कहा है। ऊर्ध्वं प्रदेश में क्रमशः हीन-हीन हैं तथा लोक के शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमशः दो कोस, एक कोस एवं 1575 धनुष प्रमाण हैं। तीनों ऊर्ध्व प्रदेशों में यह पिण्ड विशेष रूप से sssssss అsssss
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जानकर प्रकाशित किया गया। यह लोक चादह राजू प्रमाण ऊँचा है और इसका क्षेत्रफल 343 धनराज है। उसी के मध्य में बसनाड़ी है, वह सर्वत्र त्रस जीवों से भरी हुई है। दुखनाशक जिन भगवान ने उसके बाहर के क्षेत्र को पाँच प्रकार के स्थानों से भरा हुण कड़ा है। गागान्तिक केवलि एवं उपपाद समुद्घात करते समय इन तीनों लोकों में उनका गमन सनाड़ी के बाहर भी अविरुद्ध है, ऐसा जिनागम से सिद्ध है। लोक के मूलभाग में उसका प्रमाण पूर्व से पश्चिम में सात राजू कहा गया है और फिर मध्यलोक में एक राजू, ऊर्ध्व लोक में ऊपर जाकर पाँच राजू और पुन: एक राजू विभक्त है और दक्षिण उत्तर दिशा में लोक का आयाम सर्वत्र निरन्तर सात राजू जानना चाहिए। दस, सालह, बाईस, अट्ठाईस, चौंतीस, चालीस एवं छियालीस रज्जू अर्थात् 196 रज्जू प्रमाण सात नरक पृथिवियों का घनफल जानना चाहिए। इस प्रकार सातों नरकों का प्रमाण एक सौ छियानवे राजू है। एक सौ सैंतालीस राज ऊर्ध्वलोक का प्रमाण जानना चाहिए। इस प्रकार गणना करके ये 345 रज्जू कहे गये हैं।
उपर्युक्त त्रैलोक्य का स्वरूप बताने के बाद घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिया, मघवा एवं माधवी नरकों का वर्णन करते हुए उन नारकियों की आयु, वेदना एवं मृत्यु के बाद होने वाली गत्तियों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
नरक वर्णन के बाद भवनवासी देवों के भेद, शरीर, आयु और देवियों के प्रमाण, व्यन्तर देवों के भेद, भ्रमण स्थान एवं शरीर प्रमाण, ज्योतिष्क देवों का वर्णन, स्वर्ग कल्पों का वर्णन, सौधर्म तथा ईशान स्वर्ग के विमानों की संख्या, सनत्कुमारादि स्वर्गी की विमान संख्या एवं आयु प्रमाण तथा अन्य देवों की आयु का प्रमाण एवं उनके सुख, उनमें विशेषता भेद आदि का सविस्तार वर्णन किया गया है।
मध्यलोक एक रजू प्रमाण विस्तार वाला द्वीप एवं सागरों से युक्त है, जो कि असंख्यात हैं। मध्य लोक के बीचों-बीच द्वीपों में प्रधान तथा उनके राजा के समान जम्बू द्वीप है। वह एक लाख योजन विशाल प्रमाण वाला है यद्यपि वह आकार में सबसे लघु है परन्तु गुणों में ज्येष्ठ है। मेरुपर्वत की दक्षिणी दिशा में भरत क्षेत्र है उसके मध्य में विजयार्द्धपर्वत है। उस पर्वत के शिखर पर नौ पूर्णभद्र नामक कूट हैं। गंगा, सिन्धु आदि नदियों से भरत क्षेत्र के छह खण्ड किये गये हैं। आर्यखण्ड में हिमवान-महाहिमवन्त नामक कुलाचल हैं। गंगा, सिंधु आदि नदियाँ पद्महद से निकली हैं और सभी समुद्र में गिरती हैं। हिमवान्
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पर्वत की उत्तर दिशा में हेमवत पर्वत है वहाँ के मनुष्यों की आयु एक पल्य एवं शरीर का प्रमाण एक गव्यूति है, वह भोगभूमि जघन्य होने पर भी श्रेष्ट सुखों की खान मानी गई है।
महाहिमवन्त पर्वत, हरि वर्ष, क्षेत्र, निषष्धपर्वत, पूर्व एव अपर विदेह, रम्यक् हैरण्यवत् तथा ऐरावत क्षेत्र, लवणोदधि, धातकीखण्ड कालोदधि समुद्र, पुष्करार्द्ध द्वीप, मानुषोत्तर पर्वत आदि स्थानों का भी विशेष वर्णन किया गया है। सभी द्वीपों में सूर्य चन्द्रमा आदि की संख्या एवं उनकी स्थिति आदि के बारे में बतलाने के बाद कहा गया है कि ढाई द्वीप के बाहर भी अन्धकार का नाश करने वाले चन्द्र, सूर्य एवं नक्षत्र घटाकार रूप में हाथी के समान विचरण करते हुए वहाँ तक स्थित हैं, जहाँ तक कि स्वयंभूरमण समुद्र पार होता है।
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सन्धि - 6 :
जम्बूद्वीप के सुरम्यनामक देश में पोदनपुर नाम का प्रमुख नगर है, जिसमें सूर्य के समान तेजस्वी अरविन्द नाम का राजा रहता था । उस राजा का विश्वभूति नामक नीतिश्रेष्ठ मंत्री था। उसकी अनुन्धरी नाम की शुद्ध शीलवती भार्या श्री उसके कमठ और मरुभूति नामक दो पुत्र थे जो क्रमशः कुबुद्धि और सुबुद्धि से युक्त थे। उस कमठ की वरुणा नाम की भार्या थी, जो अनेक सुखों की खान और मधुरभाषिणी थी परन्तु मरुभूति की पत्नी वसुन्धरी कुटिल चितवाली एवं चंचल यौवन के मद से मत्त रहती थी। एक दिन कमठ ने अनुजवधू वसुन्धरी को देखा और उसमें आसक्त हो गया। वह भ्रष्ट स्त्री भी उसमें आसक्त हो गई और समय पाकर कमठ ने उसका शीलभंग कर दिया।
उपर्युक्त वृत्त जब राजा को ज्ञात हुआ तब राजा अत्यधिक कुपित हुआ । उसने मभूति से कहा कि " तुम्हारा भाई कुशील है। उसे मैं नगर से निकालता हूँ ।" तब मरुभूति ने कहा " हे नरेन्द्र ! तुम्हें किसी पापी ने झूठ कह दिया है, वह माननीय नहीं हैं, अयुक्त है।" इस प्रकार मरुभूति के भाई के प्रति स्नेहसिक्त वचन सुनकर राजा ने उसका उल्लघंन नहीं किया किन्तु दूसरे दिन राजसेवकों द्वारा राजा से यह कहे जाने पर कि "हमने कमठ को सुरा आरुढ़ देखा है "राजा अत्यन्त रुष्ट हुआ और उसने कमठ को अत्यधिक अनादरित कर नगर से बाहर निकाल दिया।
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निष्कासित होने पर कमठ वन में पहुँचा, वहाँ उसने शैव तापसों के समूह को देखा । तत्र कमठ ने उन तपस्वियों के स्वामी को प्रणाम किया और पूछे जाने 161 25 బోట
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पर अपने को निर्दोष बताते हुए दीक्षा संस्कार करने की प्रार्थना की। अनन्तर तापसव्रत को प्राप्त कर वह पाखण्डी साधु बन गया और तप करता हुआ वन में रहने लगा। __ इधर कमठ के लघु भाई मरुभूति भ्रातृ-विद्रोह के कारण अत्यधिक शोकाभिभूत हुआ और एक दिन राजा से कहा कि आप आज्ञा करें तो मैं कमठ से क्षमायाचना कर लें क्योंकि उसे व्यर्थ ही दण्डित किया गया है। राजा के द्वारा रोके जाने पर भी मरुभूति क्षमा माँगने वन में पहुंचा और जन्न वह उसके चरणों में सिर रखकर क्षमा माँग रहा था तभी उस कमठ ने उसे सिर पर शिला के आघात से मार डाला।
आर्तभाव से मरकर मरुभूति सल्लकी वन में वज्रघोष नामक गजेन्द्र (हाथी) हुआ। वरुणा नाम की जो कमठ की पहल थीं, वह मरकर वहीं हथिनी हुई। वह उस हाथी के साथ भोग विलास में रत रहती थी। जब यह हाथी वन में मदोन्मत्त व रति सुख में मस्त हो रहा था, उसी समय पोदनपुर में राजा अरविन्द ने मनोहर जलवुक्त मेघों को देखकर सोचा कि- 'मैं इसी मपटल के समान आकार का पृथ्वी तल पर संसार दुख का नाश करने वाला एक जिनगृह (जिनमन्दिर) बनवाऊँगा।'' इस प्रकार सोच कर वह कल्पनालोक में विचरण कर रहा था तभी उसने पुनः आकाश को देखा तो वहाँ मेष पटल को नहीं पाया। शुद्ध आकाश को देखकर राजा ने विरागपूर्वक अपने मन में सोचा कि- "जिस प्रकार घने बादलों का आगमन क्षणभर में नष्ट हो गया, उसी प्रकार से संसार का स्वरूप ही वैसा कहा गया है।'' यह सोचकर वह अत्यधिक वैराग्यचित्त हो अपने पुत्र को राज्य समर्पित कर मुनि हो गया और उसी सल्लकी वन में कायोत्सर्ग में स्थित हो आत्म स्वरूप का ध्यान करने लगा। ___ राजा अरविन्द मुनि बन जब तपस्या कर रहे थे तभी उस वन में वणिक्श्नेष्ठ बड़े भारी सार्थ के साथ वहाँ सके। जब वे भोजन कर रहे थे तभी वह हाथी वन जीवों को कम्पायमान करता हुआ वहाँ आया। उस हाथी के भय से वे वणिक भी भागकर मनि की शरण में आ गये तब वह हाथी भी मुनि के पास आया। आतापन योग से स्थित उन मनिराज को क्रोध वश जब वह मारने लगा तभी पूर्व भव का स्मरण हो जाने के कारण वह पृथ्वी पर सिर झुकाकर खड़ा हो गया। उसी समय मुनिराज का योग समास हुआ और वे बहुज्ञानी मुनि उस गजश्रेष्ठ से बोले- हे मरुभुति ! मेरे द्वारा बार-बार रोके जाने पर भी तुम रुके नहीं। दुष्ट कमठ Puspashrescusesesesxesxesiseesexestesexesnes s
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द्वारा किए गए शिला के आघात के आर्तभाव से मरकर तेरा वही जीव यह हाथी हुआ है तथा मैं पोदनपुर का राजा अरविन्द था वह तप धारण कर वन में स्थित हो गया हूँ।
हे गजश्रेष्ठ ! अब तुम किसी को दुखी मत करना, क्योंकि हिंसा से नरक में दुख प्राप्त होता है, जिससे जीव संसार-समुद्र में बता हैं और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। हिंसा से पुरुष कुत्ता एवं दुर्गन्धयुक्त होता है। हिंसा से व्यक्ति पङग, बहिरा एवं अन्धा होता है। हिंसा से व्यक्ति तुरन्त ही दीदर्शनीय हो जाता है। जो हिंसा करता हैं अथवा जो तिलमात्र भी मांस भक्षण करता है वह नाश को प्रास होता है। हे श्रेष्ठ गजेन्द्र ! तुम हिंसा छोड़ दो, अपने को दुर्गति में मत ढकेलो। निमल सम्यग्दर्शन से युक्त पवित्र श्रावक व्रत ले लो। अपने दुष्कृत का यह प्रतिफल देखो कि ब्राह्मण भी मरकर कलि के समान काला हाथी हुआ।
इस आसना भव्य गज ने मुनिराज के सदुपदेश को सुन उन्हीं के चरणों में प्रणाम कर व्रत ग्रहण किये। उसके बाद संसार रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्य के समान भुनिवर विहार करगये और व्रती गजराज भी वन में भ्रमण करने लगा। वह दूसरों के द्वारा तोड़े हुए वृक्षों के पत्तों को खाता हुआ श्रावक व्रत की रक्षा स्थिर भाव से करता था। वह जल को भी मदरहित भाव से जल में प्रविष्ट होकर पीता था, पंचेन्द्रिय जीव को विराधना नहीं करता था। वह मार्ग में पिपीलिका आदि कीड़ों को धीरे-धीरे देखता हुआ चलता था। वीतराग मुनि के वचनों का ध्यान करता था। कभी भी आतं या रौद्र भाव मन में नहीं लाता था। अहर्निश वनगुल्म्म में रहता, जब चलता तो गजसमूह के पीछे-पीछे चलता। वह धैर्यवान् विरस आहार लेने एवं नित्य परीषह सहने से कृशकाय हो गया। किसी अन्य दिन जब वह जल पीने के लिए सरोवर में घुसा तो कृशकाय होने से वहीं फँस गया।
इधर तापस कमठ भी रौद्रध्यान के कारण मरकर वहीं कुक्कुट नाम की सर्प योनि में धवलवर्ण का तथा साक्षात् हलाहल के समान दुष्ट सर्प हो गया। जिस स्थान पर वह हाथी फंस गया था वह सर्प वहाँ आया, वह ऐसे लगा मानो गजेन्द्र के लिए क्षयकारी काल ही आ गया हो। अतीत के बैर का जिसे भान हो गया है, ऐसे उस सर्प ने उस हाथी को डंस लिया, किन्तु वह किसी भी प्रकार दुःखित न हो रम्य जीव दया - धर्म से मन का संवरण करके और अनशन विधि ग्रहण करके मरकर सहस्रार-कल्प में उत्पन्न हुआ और देव योनि में श्रेष्ठ सुखों PASReshasexesKasxesxesiresses kesxesesxesesxesyeshesness
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का सेवन करने लगा। मणिमय कुण्डल युगल और मुकुट का धारी वह प्रबल श्रेष्ठ देव अप्सरागणों को क्षुब्ध करने वाला हुआ। सोलहसागर की दीर्घ आयु को क्रीड़ापूर्वक भोगकर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में जहाँ लोकों में श्रेष्ठ नगरी शोभायमान है, वहाँ जयश्री के स्थान स्वरूप अशनिगल (विधुम् विपक्ष श्रेष्ठ विधाधर राजा के यहाँ उसकी तड़ितवेगा नाम की पत्नी के गर्भ में वह देव आया और जन्म लेकर अशनिवेग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहाँ राज्यभोग भोगकर निवेद को प्राप्त हो उसने समाधिगुप्त नाम के श्रेष्ठ मुनि के समीप तप भार धारण कर लिया।
. क्रोध, मान, माया एवं मद को शोषित करते हुए शील युक्त हो मोह का दहन करते हुए जब वह ऋषि हिमगिरि की गुफा में नासाग्रदृष्टि करके कायोत्सर्ग में स्थित था, तभी कुक्कुट नामक जो विषधर धूमप्रभा नरक में अत्यन्त दुख भोगकर इसी गिरिंगुफा में अजगर हुआ था उसने उन मुनि को खा लिया। उस अजगर के द्वारा निगला जाकर वह ऋषि श्रेष्ठ मरकर अच्युत स्वर्ग में आठ ऋद्धियों का स्वामी एवं जय लक्ष्मी का धारी सुन्दर देव हुआ और वहाँ बाईस सागर पर्यन्त सुख भोगता हुआ वह देव इसी द्वीप के ऊपर विदेह स्थित पद्म नामक देश में आशापुरी नाम की नगरी में वज्रपीड़ नामक राजा की विजय नाम की रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ और पूर्वकृत पुण्य के उदय से वज्रनाभ नाम का सुप्रसिद्ध चक्रेश्वर हुआ। उसका छियानवे हजार रानियों का अन्तःपुर था। एकछत्र पृथ्वी को भोगकर उसने फिर उसे बूढ़ी दासी के समान त्याग दिया और क्षेमकर स्वामी को प्रणाम करके एक हजार राजाओं के साथ तप ग्रहण कर पर्वत पर स्थित हो सर्व हितकारी तप करने लगा।
अजगर (कमठ का जीव) मरकर छठवें नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ बाईस सागर पर्यन्त दुःख भोगकर पुन: संसार में क्लेश सहकर उसी वन में आकर शवर भील (कुरंग नाम वाला) हो गया।
कुरंग नामक उस दुष्ट शबर ने वहाँ महामुनि को ध्यान मग्न देखा। वह पापी उन्हें देखकर क्रोधित हो उठा और अपने पूर्व भव के वैर का स्मरण कर उसने उन साधु को बाण से बेध दिया, जिससे उनका शरीर जर्जरित हो गया, तथापि मुनीश्वर विचलित नहीं हुए और समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर भव-व्याधि का क्षयकर वे क्षणमात्र में ही प्रैवेयक में उत्पन्न हो, श्रेष्ठ सुखों के स्थान स्वरूप विमान में प्रसन्न मन वाले अहमिन्द्र हो गये। उस विमान में सत्ताईस सागर पर्यन्त
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आयु तक स्त्री रहित सुखों का आस्वादन कर शोक, रोग एवं आतङ्क विहीन हो, परमात्मरस की भावना में लीन रहते हुए सरस अतीन्द्रिय सुखों का भोगकर मन में सम्यग्दर्शन की भावना करके जम्बूद्वीप के कौशल देश की अयोध्यापुरी में पर्वत के समान बज्रबाहनामक नरेश की प्रभंकरी नामक पगरानी के गर्भ में आकर आनन्द नामक अत्यन्त रूपवान पुत्र के रूप में जन्म लिया। ___ जन्म से निडर व तेजस्वी वह आनन्द नाम का शुद्ध हृदय नरेश्वर किसी दिन जिन मन्दिर गया, वहाँ नाना मणियों से जटित स्वर्ण कलशों से जिन प्रतिमाओं का अभिषेक किया, पूजा की और नमस्कार कर बैठकर गया। तभी वहाँ एक मुनिवर पधारे। तब माया रहित सन्तुष्ट राजा ने मुनि के चरण कमलों में नमस्कार किया और पृथ्वी पर सिर लगाकर गर्व छोड़कर चिरकृत अशुभ कर्मों का विध्वंश किया। नमस्कारोपरान्त राजा ने मुनिराज से पूछा कि-"पाषाण प्रतिमा के अर्चन एवं न्हवन से क्या पुण्य होता है? यह प्रश्न सुनकर मुनिराज ने कहा क्रि-जो व्यक्ति जिनवर को भावपूर्वक मन में मानता है, वह व्यक्ति शाश्वत सुख (मोक्ष) को पा लेता है और जो पाषाण प्रतिमा मानकर उसकी निन्दा करता है और उसे भग्न करता है वह मरकर नरक में जाता है, बहुत दुखों को भोगता है और वह पापी वैतरणी में 'डबता है।" __ हे राजन्! यद्यपि जिन प्रतिमा अचेतन है तथापि उसे वेदन शून्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रूप से परिणाम (भाव) ही पुण्य और पाप के कारण होते हैं। जिस प्रकार वज्रभित्ति पर कन्दुक पटकने पर उसके सम्मुख वह फट जाती है, उसी प्रकार दुख-सुखकारक निन्दा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रहार से यद्यपि प्रतिमा भङ्ग नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं। उनमें से धार्मिक कर्मों को स्वर्ग का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान का अहर्निश चिन्तन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश ध्यान करो। यह सुनकर राजा ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया और उसी वचन को अपने मन में भाया।
मुनिराज को प्रणाम करके राजा अपने भवन में आया और फिर सूर्यमण्डलाकार जिन भवन का निर्माण कराया और वहाँ वह अत्यन्त उत्साह से उनका नित्यदर्शन कर तथा तीन प्रदक्षिणायें देकर उनका ध्यान करता था। इसी प्रकार अन्य अनेक विधियों का आश्रय लेता हुआ वह वहाँ अमुनि अर्थात गृहस्थ होते हुए भी मौनाश्रित अर्थात् मुनि के समान शोभायमान होता था। उस Sxsasxesesxesasrusesi 5 Pustashasxesyasrusrussess
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राजा ने अन्य किसी दिन संसार की असारता को जानकर सागर गुप्त मुनि के पास मुनि दीक्षा ले ली और गिरि-कन्दराओं, मृगों अर्थान सिंह आदि वन्य जीवों के भय को छोड़कर वहीं स्थित हो बाह्याभ्यन्तर तप एवं रलय का ध्यान करते हुए सोलह भावनाओं को आराधना करने लगे। जब वे महामुनि खदिरवन में मृतकासन से कार्यात्मग मुद्रा में स्थित थे तभी वह जो मगमारक भील था तथा जिसने तप में श्रेष्ठ मुनीन्द्र को बींधा था और फिर मरकर वह वहाँ से तमतमा नामक नरक में गया था, वहीं जीव वहाँ पर्याप्त दुख सहन कर पुनः निकला और उसी वन में सिंह योनि में उत्पन्ना हुआ, जहाँ मुनि निरन्तर ध्यान में मग्न थे। उसने उन मुनिराज को देखकर तथा दुनींतिपूर्ण वैर का स्मरण कर वेगपूर्वक उन्हें खा डाला।
क्षमागुण के धारक वे मुनि चौदहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। देवों के द्वारा वन्दित एवं अनिन्द्य वह देव नाना प्रकार के भोग-विलासों को बीसरसागर की आयु तक . भोगता रहा। बीस पखवारों में श्वास छोड़ता था जिसे सेवा-शुश्रूषा की भावना से सुरनारियाँ झेलती थीं। उसने बीस सहा वर्ष आयु को भोगा और अहर्निश भोगों से अपने मन को रजित करता रहा। वह सिंह (कमठ का जीव) भी मरकर धूमप्रभा नामक नरक में उत्पन्न हुआ और दुख भोगता रहा।
हे रविकीर्ति नरेश्वर ! तुम इसे भली भाँति जानो तथा मिथ्यात्व और कषाय से मोहित मत होओ। काल सीमा को समाप्त कर वह देव भरत क्षेत्र की काशी नामक नगरी के राजा अश्वमेन की रानी वामा देवी के यहाँ गर्भ में आकर प्रभु पार्श्वनाथ नाम के जिनेश्वर रूप में जन्म लिया।
धूमप्रभा से निकलकर वह (कमठ का जीव) तीन क्रोध के वशीभूत कमठ नामक शापस हुआ और फिर वह पंचाग्नि तप का क्लेश सहकर तथा शरीर छोड़कर संवर नामक देव हुआ। आकाश मार्ग से जाते हुए एक दिन उसने तप तपते हुए ध्यान स्थित स्वामी पार्श्वनाथ जिनेन्द्र को देखा और पूर्वभव का वेर जानकर उसने महान आपत्तिकारक उपसर्ग किया इस कारण अपना आसन कम्पित होने से शेषनाग (धरणेन्द्र) वहाँ आया और उसने उपसर्ग का निवारण किया। हे नरेश ! यही वैर का कारण 'जानो।
__ यह वृत्त सुनकर उस रविकीर्ति नरेश ने विमल सम्यक्त्व ग्रहण करके पार्श्व जिनेश के चरणों में प्रणाम किया फिर अपने नगर को लौटकर जिनभक्त हो गृहस्थ के व्रतों का पालन करने लगा। उस रविकीर्ति ने सारे महीतल को जिनायतनों से अलंकृत किया। इस प्रकार वह अखण्डराज्य करने लगा FessMETASTESTESTestess so Usesterestseesrustess,
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___ अनेक सुखों को प्रदान करने वाले, जिन धर्म रूपी रसायन का जिसने नरभव में सेवन नहीं किया वह दुर्लभ रत्न के समान नर जन्म को हार जाता है और शुभगति को दूर कर देता है। सन्धि -7:
श्री पार्श्व जिनेश देवों एवं मनुष्यों से परिचरित होकर विहार करने लगे और संसार से पार उतराने वाली वे अपनी वाणी से भव्यजनों का शासन करते हुए धर्म का प्रकाश करने लगे। वै लोक पूज्य देवाधिदेव सभी के मन के संशयों के मिटाने वाले थे।
किन्हीं ने घर का मोह छोड़कर तथा सभी प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाले महाव्रत तथा किन्हीं ने अणुव्रत धारण कर लिये। अश्वसेन ने मुनि और वामादेवी ने आर्यिका पद धारण किया।
पार्श्व के तीर्थ में दस गणधर हुए, जिन्होंने श्रेष्ठ जिनवाणी का उद्धार किया। उन पार्श्व के चार सौ चतुर्दशपर्यों के धारी एवं अठारह सौ शिष्य कहे गये हैं। पन्द्रह सौ अवधिज्ञान के धारक मुनि, उनसे तिगने विकिया ऋद्धि के धारक और उनसे भी तिगुने वहाँ प्रधान केवली थे। एक हजार नन्चे स्त्रीमुक्त स्थान को प्राप्त करने वाले, नौ सौ मनः पर्ययज्ञानधारी मुनीन्द्र, इन्द्रों द्वारा स्तुत्य आठ सौ वागेश्वर, अड़तीस हजार आर्थिकायें, एक लाख व्रती, श्रावक एवं श्राविकाओं की संख्या तीन लाख थी असंख्यात देव स्वामी पर्व की सेवा कर रहे थे। वहाँ तिर्यञ्चों का कोई प्रमाण ही न था। वे जिनवर भाषित पदार्थों को सुन रहे थे। । ___चतुर्विध संघ के साथ विहार करते हुए वे पार्थ जिनेन्द्र "सम्मेद शिखर" पहुँचे। उस पर्वत की चोटी पर मन और वचन को अवरुद्ध करके काययोग से जिन भगवान ने शीघ्र ही दप-कपाटक-समुद्घात किया। इस प्रकार चार समयों में पार्श्व ने दण्ड, कपाट, प्रतर एवं लोक पूर्ण समुद्घात करके समस्त संसार को पार कर लिया। वेदनीय, नाम एवं गोत्र; इन तीन अघातिया कर्मों को आयुकर्म के समान कर लिया और ध्यान में इस प्रकार स्थित हुए कि जिससे कर्म कट जावें। आत्म प्रदेशों का संवरण करके वे जिनवर तीसरे शुक्ल-ध्यान में स्थित हो गये,। जिसमें उन्होंने अघातिया कर्मों की शेष बहत्तर प्रकृतियों का क्षय किया। तेरहवें गुणस्थान में ही स्थित रहते हुए फिर अयोग केवलि गुणस्थान में स्थित हो गये, वहाँ पाँच्च लघु अक्षरों के उच्चारण काल जितनी स्थिति करके कर्मों की शेष अन्तिम तेरह प्रकृतियों का क्षय किया, इस प्रकार इन पचाप्ली PastessesmaushSTATESTShors rusheshasKasesesxey
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LATESTASTERSTATISesesiressesreyeseSTAN प्रकृतियों का उच्छेद कर पार्श्व प्रभु ने श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन कमों को पूर्ण रूप से ध्वस्त करके निर्बाध रूप से ऊर्ध्वगमन किया।
इस प्रकार कलिमलरहित जिनवर ने शिवपट (मोक्ष) प्राप्त किया और वे सिद्ध, बुद्ध एवं शुद्ध अरूपी शरीर के धारक हुए। अष्टगुणों से समृद्ध चैतन्य सिद्ध होकर उन्होंने शाश्वत सुखरूपी धन प्राप्त कर लिया। वहाँ उनकी अरूपी देह अन्तिम लौकिक देह से आकार में किञ्चित कन (कम) तथा तेजोमय अवस्था में स्थित हो गई। उस सिद्भशिला पर तनुवातवलय के अन्तिम भाग में चौरासी लाख सिर भिड़े हुए हैं। वे सिद्ध अनन्त गुणों के ईश्वर होते है। पाचप्रभु ने शुद्ध आत्म स्वभाव रूप, त्रियोग रहिन निरंजन एवं दोषरहित निर्वाण पद प्राप्त किया। उनके साथ अन्य छत्तीस मुनि भी सुखपूर्वक अजर-अमर होकर स्थित हो गये।
जिनवर का निर्वाण जानकर अनिन्द्य इन्द्र सुरवृन्द सहित आया। उस वीर ने विक्रियाऋद्धि से मायामय धीर शरीर बनाया और उसे सिंहासन पर विराजमान किया। पुनः अष्ट प्रकार से पूजा की जो सभी के हृदयों को अति मनोज्ञ लगी। गोशीर्ष प्रमुख देवदार, श्रीखण्ड और नाना प्रकार के काष्ठ मिलाकर उसने शय्या (चिता) निर्मित की ओर उस पर तत्काल ही पार्श्व जिनेन्द्र का वह मायामयी शरीर रखा। जब देवगण उसकी तीन प्रदक्षिणायें कर प्रणाम करके समीप में खड़े थे, तभी अग्नि कुमारों ने पार्थ के चरणों में प्रणाम करके उनके शीर्ष-किरीट के आगे जाकर चिता प्रज्ज्वलित कर दी, जिससे आकाश का मार्ग अवरुद्ध हो गया और जग है जिनवर के "मोक्षगमन" को जान लिया।
सम्पूर्ण भुवन को क्षुब्ध करने वाले अनेक सूर्यों के निनादपूर्वक यह शक्र उस प्रशंसाकारक भस्म को ग्रहण करके अपने सिर पर रखकर क्षीरसमुद्र को गया। वहाँ भस्म को क्षेपणकर इन्द्र वापिस आया और श्रीगणधर को प्रणाम करके अपनी भक्ति के अनुसार अन्तिम श्रेष्ठ कल्याणक करके स्वर्ग को चला गया।
श्री स्वयम्भू गणधर भरतक्षेत्र में धर्म-अधर्म की युक्ति प्रकाशित करके मोक्ष को प्राप्त हुआ तथा जो परमज्ञानी अन्य मुनीश्वर थे, उनमें से कोई तो अपने तप के प्रभाव से शाश्वतपुरी को गये और कोई अहमिन्द्र हो गये। प्रभावती कान्ता भी शुद्ध चित्त होकर अपने शरीर को त्यागकर अच्युत स्वर्ग में गयौं। वामादेवी भी वहीं पर उत्तम देव हुईं। वहाँ से चयकर दोनों देव उसी क्रम से शिवपद को पायेंगे।
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अनन्तर कवि रधू द्वारा ग्रन्थ प्रणयन सम्बन्धो त्रुटियां के लिए क्षमा याचना करते हुए आश्रयदाता खेळ साहू का पारिवारिक परिचय जाति - गोत्र एवं पिछली पीढ़ियों का वर्णन किया गया। उसके बाद आश्रयदाता खेऊ साहू ने कविवर रइधू का विनयपूर्वक सुरीत्या सम्मान किया। इसके बाद निम्न भरत वाक्य के साथ ग्रन्थ पूर्ण हुआ
"पार्श्व प्रभु की कृपा से तृष्णा 'को दूर 'करने वाली अविरल जल धाराओं से मेदिनी नित्य तृप्त होवे | पृथ्वी मण्डल पर कलिमल के दुख क्षीण होवें और घरघर में मंगल गीत गाये जायें। सम्पूर्ण देश उपद्रवों से रहित रहे नरेश प्रजा का पालन करता हुआ आनन्दित रहे। जिन शासन फलेफूले, निर्दोष मुनिगण विषय वासना- से दूर रहकर आनन्दित रहें। जो श्रावककण जीव- अजीव आदि पदार्थों का श्रवण करते हैं, वे पाप रहित होकर आनन्द से रहें। सभी जन जिनेन्द्र के चरण कमलों में नतमस्तक रहें।"
कथावस्तु का मूलस्त्रोत :
1. तिलोयपण्णत्ती :
"इतिहासोद्भवं वृत्तं अन्यद्वा सज्जनाश्रयम्" उपर्युक्त पक्तियाँ महाकाव्य की सुस्पष्ट परिभाषा बताने वाले 15 वीं शताब्दी के प्रमुख कत्रि विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में कही हैं, जिनका तात्पर्य है कि महाकाव्य की कथावस्तु किसी ऐतिहासिक कथानक पर आधारित या सज्जनाश्रित होना चाहिए 40 इस सन्दर्भ में किसी भी महा काव्य ( चरितकाव्य) के स्रोत का विचार करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। यहाँ भी हमें महाकवि रहनु विरचित "पासणाहचरिउ" के स्त्रोत के सन्दर्भ में विचार करना है
"पासणाहचरिङ" के प्रमुख नायक तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के चरित के कुछ प्रमुख अंश हमें सर्वप्रथम आचार्य यतिनृषभ द्वारा प्राकृत भाषा में निबद्ध "तिलोयपण्णत्ती" (त्रिलोक प्रज्ञप्ति) में दृष्टिगोचर होते हैं। करणानुयोग का प्रमुख ग्रन्थ होने के कारण जहाँ लोकालोक विभाग, बुगपरिवर्तन और चतुर्गति आदि का प्रतिपादन किया गया है, वहीं दिगम्बर जैन आगम के श्रुतांग से सम्बन्ध रखने के कारण इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का भी संक्षिप्त वर्णन किया
40 साहित्यदर्पण: विश्वनाथ 318
అట్ట్ట్ట్ట్ట్) అజోజో టోటో టోటోట్
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गया है। इन्हीं शलाका पुरुषों के अन्तर्गत तीर्थंकर भी आते हैं, अतः तीर्थकर पार्श्वनाथ के माता-पिता, जन्मस्थान, केवलान, लोप. प्रासानिका विवेचन भी 'तिलोयपण्णत्ती' में हुआ है। 'तिलोयपण्णत्ती' पर आधारित तीर्थंकर पार्श्व नाथ के चरित का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार :
तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्राणत कल्प (14वें स्वर्ग) से चपंकर पार्श्वनाथ के भव में अवतीर्ण हुए।41 इनका जन्म वाराणसी नगरी में पिता हयसेन (अश्वसेन) और माता वर्मिला (वामा) से पौषकृष्णा एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में हुआ था।42 इनके वंश का नाम उग्र वंश था।43 तीर्थकर पार्श्वनाथ बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के 84650 वर्ष बाद और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के 278 वर्ष पहले उत्पन्न हुए थे44 तीर्थंकर पाश्वनाथ की आयु 100 (सौ) वर्ष प्रमाण थी।45 इनका कुमार काल तीस वर्ष श्रा।46 इनके शरीर की ऊँचाई 9 हाथ प्रमाण थी
और शरीर हरित वर्ण का था? इन्होंने राज्य नहीं किया 48 इनका चिह्न सर्प था। 49 इन्हें अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के कारण वैराग्य उत्पन्न हुआ50 उन्होंने अपने जन्मस्थान वाराणसी में ही दीक्षा धारण की।51 इन्होंने जिन दीक्षा माघ शुक्ला एकादशी के दिन पूवास में विशाखा नक्षत्र में षष्ठ भक्त के साथ अश्वस्थ वन में धारण की 52 इस प्रकार इन्होंने कुमार काल में ही तप को ग्रहण कर लिया था।53 चार माह तक इनका छदमस्थ काल रहा अर्थात् चार माह तक इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ।54 इसके बाद चैत्र कृष्णा चतुर्थी के पूर्वाह्न काल में विशाखा नक्षत्र में सक्कपुर (शक्रपुर) नामक नगर में इन्हें केवलज्ञान उत्पत्रा
47 तिलोयपण्णत्ती : आ. यतिवृषभ, नउत्थो महाधियारो. गाथा--522 42 वही 548 43 वही 550 44 वही 576577 45 वही 582 46 वही 584 47 वही 587-588 48 वही 603 49 वही 605 50 वही 607 51 यही 643 52 वहीं 666 53 वहीं 670 54 वही 678
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हुआ।55 केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर नियमानुसार सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने विक्रिया ऋद्धि के द्वारा समवशरण की रचना कर दी। समवशरण का क्षेत्रफल बहुत विशाल था।56 मातंग नाम का यक्ष और पद्मा नाम की यक्षिणां तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समीप रहते थे। पार्श्वनाथ का केवलि काल 69 वर्ष 8 माह हैं। अर्थात् ये 69 वर्ष 8 माह तक केवलज्ञानी रहे। इनके इस गणधर थे, जिनमें प्रथम गणधर का नाम स्वयम था।59 तीर्थकर पार्श्वनाथ के संध में 16000 ऋषि थे।60 इनके सात गण थे, जिनमें 350 पूर्वधर, 10900 शिक्षक, 1400 अवधिज्ञानी मुनि, 1000 केवलज्ञानी, 1000 विक्रिया ऋद्धि के धारक, 750 विपुलमति अवधि ज्ञानी और 600 वादी थे।61 इनके तीर्थ में 38000 आयिंकायें थीं। इन आर्यिकाओं में सुलोका या सुलोचना प्रमुख थी2
तीर्थंकर पार्श्वनाथ श्रावणमास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रदोषकाल में अपने जन्मनक्षत्र (विशाखा) के रहते 36 मनियों के साथ सम्मेद-शिखर63 से निर्वाण को प्राप्त हुए थे।64 इनके 8800 शिंष्य अनुन्तर विमानों में गए। 6200 शिष्यों ने सिद्धपद को प्राप्त किया तथा 1000 शिष्यों ने सौधर्म आदि इन्द्र पदों को प्राप्त किया।65 इनका तीर्थकाल 278 वर्ष प्रमाण रहा।
उपर्युक्त तिलोयपण्णत्ती के विवेचन से स्पष्ट है कि इसमें भ. पार्श्वनाथ के जीवन की स्थूल बातों का ही समावेश मिलता है किन्तु उनके जीवन को प्रमुख घटनाओं का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। प्रमुख घटनाओं का उल्लेख न होने के कारण उनकी जीवनचर्या को समझने में भी कठिनाई हो सकती है और यदि रइधू कृत 'पासप्णाह चरिउ' के कथानक का स्रोत इसे मान लें तो फिर रइधू द्वारा
55 वही 700 56 तिलोयपण्णत्तो 717-890 57 वही 935-939 58 वही 960 59 वहीं 963-966 60 वही 1097 61 वही 1158 1159 62 बही 1175-1180 63 वर्तमान में भारत देश के बिहार प्रदेशान्तर्गत "पारसनाहिल" के नाम से प्रसिद्ध पर्वत
64 वहीं 1207 65 वही 1217, 1228, 1237 66 वही 1274
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वर्णित सम्पूर्ण घटनायें उन की काल्पनिकता को ही दर्शायेंगी। अतः इसे पूर्ण रूप से "पासणाह चरिठ" का स्रोत नहीं माना जा सकता।
2- उत्तरपुराण87
उत्तरपुराण संस्कृत क्षण में गुम्फित आ. गुणभद्र की श्रेष्ठ कृति है। इसकी रचना उन्होंने अपने गुरु आचार्य जिनसेन के स्वर्गस्थ होने पर की थी। आचार्य जिनसेन ने तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित का वर्णन करने के लिए 'महापुराण' (आदिपुराण ) की रचना प्रारम्भ की थी किन्तु वे इसके 42 पर्व ही लिख पाये थे कि उनकी मृत्यु हो गई, अतः अपूर्ण पुराण की पूर्ति उन्हीं के शिष्य गुणभद्र ने की और 'आदिपुराण' में 5 पर्व और जोड़कर 47 पर्वों में केवल आदिनाथ और भरत चक्रवर्ती का चरित पूर्ण किया। इसके बाद 'उत्तरपुराण' की रचना की, जिसमें शेष इकसठ (61) शलाकापुरुषों का वर्णन किया। वर्णन आधिक्य न होते हुए भी कोई भी ऐतिहासिक घटना न छूटे, इसका पूर्ण ध्यान रखा गया है। 'उत्तरपुराण' के 73 वें पर्व में वर्णित तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरित का विभिन्न पश्चाद्वर्ती पार्श्वचरित कर्ताओं ने आश्रय लिया है। रइधू द्वारा लिखित "पासणाहचरिउ " का स्त्रोत भी यही है। कथावस्तु के आधार पर इसकी पुष्टि होती है। उत्तरपुराण में वर्णित पार्श्वनाथ सम्बन्धी कथानक इस प्रकार है
जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में सुरम्य नामक देशान्तर्गत पोदनपुर नामक नगर है। उस नगर में सुप्रसिद्ध अरविन्द नाम का राजा राज्य करता था। पोदनपुर नगर में विश्वभूति नामक ब्राह्मण अपनी अनुन्धरी नामक ब्राह्मणी (पत्नी) के साथ रहता था उन दोनों के कमठ और मरुभूति नामक दो पुत्र थे, जो विष ओर अमृत के समान थे। कमठ की स्त्री का नाम वरुणा तथा मरुभूति की पत्नी का नाम वसुन्धरी था। ये दोनों कमल और मरुभूति राजा के मंत्री थे। नीच तथा दुराचारी कमठ ने वसुन्धरी के निमित्त सदाचारी मरुभूति को मार डाला।
मरुभूति मरकर मलयदेश के कुब्जक नामक सल्लकी के बड़े भारी वन में वज्रघोष नामक हाथी हुआ। वरुणा मरकर उसी वन में उसकी प्रिया हथिनी हुई। किसी एक समय राजा अरविन्द ने विरक्त हो संयम (मुनि पद) धारण कर संघ सहित वन्दनार्थ सम्मेद शिखर की ओर प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचे और सामायिक का समय होने पर प्रतिमायोग धारण कर
67 पं. डॉ. पन्ना लाल साहित्यचार्य के सम्पादकत्व में सन् 1954 ई. में भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित
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विराजमान हो गए। वह मदोन्मत्त हाथी उन्हें देखकर मारने के लिए उद्यत हुआ, परन्तु उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न देखकर उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो गया। उसने मुनिराज से धर्म का स्वरूप अच्छी तरह जानकर प्रोषधोपवास आदि श्रावक के व्रत ग्रहण किये। व्रताचरण करते हुए एक बार जब वह पानी पीने वेगवती नदी के दह में गया तो वहीं कृशकाब होने से कीचड़ में फंस गया। दुराचारी कमठ का जीव वहीं मरकर कुक्कुट नामक सर्प हुआ था। उसने पूर्वजन्म के बैंर के वशीभूत हो उस हाथी (वज्रघोष) को काट खाया, जिससे वह मरकर सहस्त्रा स्वर्ग में सोलह सागर की आयु वाला देव हुआ।
सहस्रा स्वर्ग में सुख- भोग भोगने के बाद आयु के अन्त में वहाँ से चयकर जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र के पुष्कलावती देश के विजयाई पर्वत पर विद्यमान त्रिलोकोत्तम नामक नगर में वहाँ के राजा विद्युद्गति और रानी विद्युन्माला के यहाँ रश्मिवेग नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। यौवन के अन्त में रश्मिवेग ने समाधिगप्ति मनि से दीक्षा धारण कर ली। किसी एक दिन वह मुनि जब हिमालय की गुफा में तः तीन थे, तभ, जिस फुझुट साने चघोष हाथी को काटा था, वही पापी धूमप्रभा नरक के दुःख भोग कर निकला और वहीं पर अजगर हुआ। उस अजगर ने मुनि रश्मिवेग को निगल लिया जिससे मरकर वह अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में बाईस सागर की आयु वाला देव
स्वर्ग में आयु की समाप्ति पर वह पुण्यात्मा (मरुभूति का जीव) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में पद्म देश के अश्वपुर नामक नगर में राजा अनन्तवीर्य
और रानी विजया के यहाँ बज्रनाभि नामक पुत्र के रूप में उत्पत्र हुआ। चक्रवती की विभूति से युक्त होने पर भी एक दिन क्षेमंकर महाराज से धर्म श्रवण कर संयम धारण कर लिया। इधर कमठ का जीव भी अजगर की पर्याय से छठे नरक में जाकर वहाँ बाईस सागर का दुःख भोगने के बाद कुरंग नामक भील हआ। मनि वेश में बज्रनाभि जब तप कर रहे थे तभी कमठ के जीव उस कुरंग भील ने उन्हें बाण से प्रहार कर मार डाला। वहाँ से मृत्यु के बाद वे मुनि मध्यम ग्रैवेयक के मध्यम विमान में अहमिन्द्र हुए।
सत्ताईस सागर की आयु तक दिव्य भोग भोगने के बाद वह अहमिन्द्र (मरुभूति का जीव) जम्बूद्वीपस्थ कौशलदेश के अयोध्या नगर में काश्यप गोत्री Msrussiastesterestesterstusxesxesexessses
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PassettesTSTASSISTARASTARASTASTESTARAT इक्ष्वाकुवंशी राजा बज्रबाहु और रानी प्रभकरी के आनन्द नाम का प्रिय पुत्र हुआ, जो बड़ा होने पर महावैभव का धारक मण्डलेश्वर राजा हुआ। एक बार बसन्त ऋतु की अष्टान्हिकाओं में राजा आनन्द ने विपुलमति नामक मुनि महाराज से धर्मश्रवण किया। किसी एक दिन आनन्द ने अपने सिर में सफेद बाल देखा, देखकर वे विरक्त हो गये और उन्होंने अपने पुत्र को राज्य भार सौंपकर तपोव्रत धारण कर लिया। वे क्षीर वन में तपस्या कर रहे थे कि वहीं पर कमठ का जीव भी भील की पर्याय से नरक में जाकर, वहाँ के दुख भोग कर सिंह हुआ था, उसने मुनि का गला पकड़कर उन्हें मार डाला। मुनिवर मृत्यु के उपरान्त अच्युत स्वर्ग के प्राणत विमान में इन्द्र हुए। वहाँ पर उनकी आयु बीस सागर की थी।
प्राणत विमान में अपनी आयु पूर्ण कर उस जीव जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्रस्थ काशी देश के बनारस नामक नगर में काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन की महारानो ब्राझी के यहाँ शुभमुहूर्त में पौषकृष्णा एकादशी के दिन पुत्र रूप में जन्म लिया। इन्द्रों ने आकर सुमेरुपर्वत पर उनके जन्म कल्याणक की पूजा की तथा बालक का नाम 'पार्श्व' रखा। बालक पार्श्व क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होने लगा। 16 वर्ष की अवस्था में पार्श्वकुमार सेना के साथ क्रीडार्थ वन को गये। वन में उनकी माता के पिता (नाना) महीपाल देश के राजा महीपाल अपनी पत्नी के वियोग से दु:खी होकर पंचाग्नि तप कर रहे थे। पार्श्व कुमार को बिना नमस्कारादि किये खड़ा देखकर अत्यन्त कुपित हुए। वे बुझती अग्नि में लकड़ी डालने के लिए लकड़ी काटने ही वाले थे कि कुमार पार्श्व ने "इसमें जीव हैं, इसे मत काटो" कहकर रोका, परन्तु घमण्ड के कारण उसने नहीं माना और लकड़ी काट दी, जिससे उस लकड़ी के साथ उसमें रहने वाले नाग-नागिनी युगल कट गये। पार्श्व कुमार ने उस तपस्वी को पञ्चाग्नि-तप जन्य हिंसा को समझाया किन्तु पूर्व वैर का संस्कार होने अथवा अपने पक्ष के प्रति अनुराग के कारण उसने एक न सुनी। क्रोधयुक्त हो मरने पर वह महीपाल कृत तपस्या के प्रभाव से शम्बर नामक ज्योतिषी देव हुआ। वे नाग-नागिनी भी पार्श्व के उपदेश से शान्ति भाव को प्राप्त हो, मरने पर धरणेन्द्र और पद्मावती नामक नाग जाति के देव हुए।
तीस वर्ष की अवस्था में भगवान पार्श्वनाथ के पास अयोध्यानरेश जयसेन का दूत आया। उसने अयोध्या की विभूति के वर्णन के प्रसंग में भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया, जिसे सुनकर पार्श्व को वैराग्य हो गया। वे लोकान्तिक देवों से सम्बोधित हो विमला नामक पालकी पर सवार हो अश्व वन
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पहुँचे और पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रातःकाल तीन सौ राजाओं के साथ पंचमुष्टि केशलोंच करके जिन दीक्षा ग्रहण की। अनन्तर गुमखेट नगर के राजा धन्य ने उन्हें आहार देकर अपने को धन्य किया।
भगवान पाश्चं ने चार माह छमस्थ अवस्था के व्यतीत किए। तदुपरान्त जब वे सात दिन का योग लेकर धर्म ध्यान में लीन थे, उसी समय कमल का जीव शम्बर आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था। अकस्मात् उसका विमान रुक गया। पूर्वजन्म के वैर को जानकर उसने पार्श्व के ऊपर भयंकर गर्जना के साथ महावृष्टि करना प्रारम्भ की। छोटे-मोटे पहाड़ तक लाकर उनके समीप गिराये; इस प्रकार उस दुर्बुद्धि ने सात दिन तक उपसर्ग किए। अवधिज्ञान से धरणेन्द्र
और पदमावती शम्बर द्वारा किये गये उपसर्ग को जानकर पृथ्वीतल से बाहर निकले। धरणेन्द्र ने अपनी फणाओं के ऊपर पार्श्वनाथ को उठा लिया तथा पदमावतो वनभय छत्र तानकर खड़ी हो गईं। मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने से कमट कृत उपसर्ग शान्त हो गया। चैत्रकृष्णा त्रयोदशी को पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी समय देवों ने आकर केवलज्ञान को पूजा की। केवल ज्ञान की प्राप्ति देखकर शम्बर देव भी कालला पाकर शान्त हो गया
और उसने सम्यग्दर्शन सम्बन्धी विशुद्धता प्राप्त कर ली। यह देख उस वन में रहने वाले अन्य सात सौ तपस्विों ने भी मिथ्यादर्शन छोड़कर तप, संयम आदि को धारण किया। सभी सम्यग्दृष्टि होकर पाचप्रभु के चरणों में नमस्कार करने लगे। केवलज्ञान प्राप्ति के 69 वर्ष 7 माह तक बिल्हार करने के बाद आय के एक माह शेष रह जाने पर पार्श्वप्रभु 36 मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर विराजमान हो गये और वहीं से निर्वाण को प्राप्त किया। निर्वाण प्राप्ति को जानकर इन्द्रों ने आकर उनका निर्वाण कल्याणक मनाया।
इस प्रकार उत्तरपुराण में भ. पार्श्वनाथ सम्बन्धी कथा निबद्ध की गई है। मरुभूति एवं कमठ ने जो भव धारण किए उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:1. मरुभूति
कमठ 2. बनधोष हाथी
2.
कुक्कुट सर्प 3. सहस्रार स्वर्ग में देव
धूमप्रभा नरक में नारकी 4. रश्मिवेग
अजगर 5. अच्युत स्वर्ग में देव
5. छठवें नरक में नारकी 6. बज्रनाभिचक्रवर्ती
6. कुरंग नामक भील 7. मध्यम गैत्रेयक में अहमिन्द्र 7. नारकी
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8.
9.
10.
राजा आनन्द
8.
अच्युत स्वर्ग के प्राणत विमान में इन्द्र 9.
पार्श्वनाथ
10.
11.
कथावस्तु में रधू द्वारा किए गए परिवर्तन एवं परिवर्धन
ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन चरित को वर्णित करते समय रचनाकार उसी मूल कथा, चाहे वह सज्जनाश्रित हो, किंवदन्ती रूप हो या ऐतिहासिक, रूप में निबद्ध करने का प्रयत्न करता है, फिर भी कथानक में आ रही विसंगतियों या नायक के दबते चरित्र को उजागर एवं गरिमायुक्त दिखाने के लिए वह अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा एवं बुद्धि चातुर्य का सहारा लेकर कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन कथा में करता है और यही राजा है कि इससे मूल कथा का स्वरूप भी यथावत् बना रहे। महाकवि रहधू ने भी "पासणाहचरिठ" का मूल कथानक तो यद्यपि उत्तरपुराण से ही लिया है किन्तु कहीं-कहीं कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन कथानक को सुगम बनाने के लिए किए हैं, जो इस प्रकार हैं:
1- " उत्तरपुराण" में भ. पार्श्वनाथ के पिता एवं बनारस के राजा का नाम विश्वसेन 69 बताया गया है, जबकि 'पासणाहचरिउ " में आससेन (अवश्सेन) 70 बताया गया है।
सिंह
नारकी
महीपाल राजा
शम्बर नामक देव
68 जातः प्राङ मरुभूतिरन्विभपतिर्देवः सहस्त्रारजोविधेो ऽच्युतकल्पजः क्षितिभृतां श्री वज्रनाभिः पतिः । देवो मध्यममध्यमे नृपगुणौरानन्दमाऽऽ नतं देवेन्द्रो हतघातिसंहतिजरवत्वस्मन्स पार्श्वेश्वरः ॥ कमठ: कुक्कुटसर्पः पञ्चमधू जोऽहिरभवदध नरके । व्याधोऽद्योगः सिंहो नरकी नरपोऽनु शम्बरी दिविज : 1 उत्तरपुराण 73/169 170
2- " उत्सरपुराण" में पार्श्वनाथ की माता का नाम ब्राह्मी 71 और "पासणाहचरिउ " में वामा 72 बताया गया है।
69 उत्तरपुराण 73/75 70 पा रइधू 1/10 71 उत्तरपुराण 73/75 72 पारइश्रू 1/10
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'उत्तरपुराण' में पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण अयोध्या नरेश जयसेन के दृत द्वारा कहे गए भ. ऋषभदेव के वृत्त को माना गया है, 73 किन्तु 'पासणाहचरित' में वैराग्य का कारण तापस द्वारा काटी गई लकड़ी में से निकले अर्द्धदग्ध नाग नागिनी के प्रसंग को माना गया है। 4 जबकि 'उत्तरपुराण' में यह घटना पार्श्वनाथ के सोलह वर्ष की अवस्था की बतायी गई है। 75 महापुरुषों के लिये वैराग्य हेतु तुच्छ कारण भी सबल ही होते हैं, फिर संसार की ऐसी बिडम्बना (नाग नागिनी का मरण) देखकर पार्श्व का तीस वर्ष तक घर में रहना उचित प्रतीत नहीं होता अतः रइधू ने यहाँ कथा नायक पार्श्वनाथ के चरित्र को दोषमुक्त दिखाने के लिए घटना तीस वर्ष में दिखाकर और तज्जन्य वैराग्य हुआ बताकर घटना का औचित्य बढ़ाया है। 4- 'उत्तरपुराण' में भगवान पार्श्व का आहार गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा के द्वारा दिया गया बताया हैं 76 जबकि पासणाहचरिंड में हस्तिनापुर के वणिक् श्रेष्ठ वरदत्त के यहाँ बताया गया है। 77
5. 'पासणाहचरिउ' में पार्श्व द्वारा अर्ककीर्ति की कन्या प्रभावती के साथ विवाह हेतु स्वीकृति दी गई है 78 ( विवाह का उल्लेख नहीं) किन्तु उत्तरपुराण में इस तरह की कोई घटना वर्णित नहीं है।
6- उत्तरपुराण में विश्वभूति को पोदनपुर नगर निवासी वेद शास्त्र को जानने त्राला ब्राह्मण बताया गया है. 79 किन्तु पासणाहवरिउ में उसे राजा अरविन्द का मंत्री बताया गया है। 80 ( उत्तरपुराण में मंत्री नहीं बताया गया है)
7
'उत्तरपुराण" में मरुभूति की मृत्यु की घटना का संकेत "नीच तथा दुराचारी कमठ ने वसुन्धरी के निमित्त सदाचारी, सज्जनों के प्रिय मरुभूति को मार डाला 81 कहकर किया गया है, जबकि "पासणाहचरिउ " में उक्त
"
73 उत्तरपुराण 73/120-130
74 र53: पास. 3/12
75 उत्तरपुराण 73/95-103
76 उत्तर पुराण 73/132 133 77 रइधूः पास 4/3 78 वहीं 3/11
79 उत्तरपुराण 73/8
80 रधूः पास 6/2
81
उत्तरपुराण 73/11
772
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घटना की सिद्धि के लिए कमठ द्वारा वसुन्धरी से दुराचार, किसी व्यक्ति (गुसचर) के द्वारा कमठ के दुराचार की सूचना राजा को प्रास होना, घटना की सत्यता सिद्ध होने पर राजा द्वारा कमठ को राज्य से निकालना, कमठ का वन में जाना और अन्त में क्षमा माँगने गए मरुभूति .पर कमठ के शिला प्रहार से मृत्युः इस प्रकार मरुभूति की मत्यु की घटना का विस्तृत विवरण
दिया है।82 8-. 'पासणाहचरिउ' में कमठ द्वारा वसुन्धरी के शील भंग का उल्लेख किया है।
83 किन्तु 'उत्तरपुराण' इस विषय में मौन है।84 9- 'पासणाहचरिउ' में राजा अरविन्द के वैराग्य का कारण घने बादलों का
क्षणभर में विलीन हो जाना बताया गया है, जबकि उत्तरपुराण में कोई कारण नहीं बताया गया है।
इस प्रकार दोनों कथा वस्तुओं में अन्तर होते हुए भी मूल कथा के दोनों निकट ही हैं, जहाँ उत्तरपुराणकार का मन्तव्य कथा को संक्षिप्त में ही व्यक्त करना था, वहीं रइधू का मन्तव्य कथा को विस्तृत करके नायक को चारित्रिक विशेषताओं से युक्त कर दिखना था, इसीलिए उसने नायक को युद्धादि के लिए सन्नह दिखाकर वीरोचित शौर्य, पराक्रम आदि गुणों को भी प्रकटाने का प्रयास किया। परिवर्तन एवं परिवर्धन यदि कवि नहीं करता तो भ, पार्श्व विषयक कथा, कथा ही रह जाती; उसे महाकाव्य का स्वरूप नहीं मिल पाता।
82 रइः पास.6/3-0 83 रइधू: पास. 6/3, पंक्ति । 84 वही 6/10 85 वही 73/14 HSASTERasheesesxesexsi 78 SXSXASWASTESASRAustery
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तृतीय परिच्छेद पासणाहचरिउ की भाषा-शैली
महाकवि रइधू ने अपने विचारों और भावों को अभिव्यक्त करने लिए जिस भाषा-शैली को अपनाया है, वह पण्डितों की अपेक्षा संस्कृत श्रोताओं के लिए है। इनकी शैली सुभग और मनोरम वैदर्भी शैली कह सकते हैं। वर्णन सरल और प्रासादिक हैं। भाषा को अलंकारों के आडम्बर से चित्रविचित्र बनाने का प्रयास कहीं नहीं दिखलाई पड़ता है। वाक्य प्रायः छोटे-छोटे हैं। वाक्य विन्यास में भी आयास नहीं है। संक्षेप में इनकी शैली में स्पष्टता, रस की सम्यक् अभिव्यक्ति, शब्द विन्यास की चारुता तथा कल्पना का अभाव है। अनिश्चित, जटिल और लम्बे वाक्यों का प्रयोग नहीं है। विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही भाव की पुनरुक्ति एवं अनावश्यक शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। अर्थ की स्पष्टता है। पाण्डित्यप्रदशनि की जानबूझकर चेष्टा नहीं की गई है। विचार सुसम्बद्ध हैं। शब्द
और वाक्य नसे तुले हैं। उपदेश या धर्मतत्त्व के निरूपण के समय भाषा सरल, स्वच्छ और प्रभावोत्यादक होती है। उदारणार्थ जीव के एकत्व का वर्णन करते हुए कवि कहता है
एक्कु वि इंदु होइ उपज्जइ। एकु वि रउरव- णरइ णिमजइ । एक्कु वि तिरियजोणि दुहतत्तउ एकु वि मणुउ होइ मयमत्तउ । एक्कु जि णहयरु जलयरु थलयरु एक्कु जि सीहु सरहु वणि अजयरु । एक्छ जि राऊ रंकु सु हदुहघरु बंभणु सुद एक्कु वणिवरु वरु । एक्कु वि कम्मु सुहासुहु मुंजइ एक्कु वि भवि अप्पाणउ रंजइ । एक्कु वि कत्ता भुत्ता उत्तउ एक्कु वि हिंडइ मोहासत्तउ । असहायउ एक्कलठ अप्पउ कोइ ण तहु सहेज्जुहयदप्पउ । 3/17
यह जीव अकेला ही इन्द्र बनकर जन्म लेता है और अकेला ही रौरव नरक में जा पड़ता है। अकेला ही दुःखों से तप्त तिर्यञ्चगति में जन्म लेता है और अकेला ही मदमत्त मनुष्य होता है। अकेला ही वह नभचर, जलचर या थलचर बनता है और अकेला ही बन में सिंह और शरभ होता है। वह अकेला ही सुखी
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अथवा दुखी, राजा या रंक, अकेला ही ब्राह्मण, शूद्र अथवा वणिक श्रेष्ठ बनता है। अकेला ही शुभाशुभ कर्मों को भोगता है, तो अकेला ही संसार में अपने को अनुजित करता है। यह जीव स्वयं ही कर्मों का कर्ता एवं उनका भोक्ता कहा गया है। मोहासक्त होकर अकेला ही घूमता भटकता रहता है। दर्परहित आत्मा बिल्कुल असहाय और अकेला होता है, कोई भी उसका सहायक नहीं होता।
उपर्युक्त पद्य में आगत एक (अकेला) पद सर्वत्र व्याप्त होकर जीव के एकत्व का बोध कराता है।
जहाँ परस्पर वातालाप का अवसर आता है, वहाँ छोटे-छोटे वाक्यों में भाषा सशक्त हो जाती है। सरलता और स्वच्छता के रहने पर भी वाक्यों में तीक्ष्णता वर्तमान है। यथा
तहिँ रमइ जाम सुरणर गणितु ता तवसि एक पुणु तेण दिङ् । पंचग्गि-ताव-तावियठ गत्तु गउरी- पिययमि अणरत्तचित्तु। तरु एक्कु सुक्छ ज डहिउ पासि गउ पासु जिणेस तुहु सयासि । अण्णाण जणहिं पणविजमाण पेक्खेप्पिणु जंपइ तासु णाणु । किं मिच्छाइट्ठिहु करइ भत्ति जो णवि फेडइ संसार-अत्ति । तं सुणि कोविउ कमठक्खु दुट्ठु भो णरवर किंजंपहि अणिछु । किं अण्णाणत्तणु अम्ह जाउ कि परु णिंदहि तुहुँ गरुउ राउ । तं सुणि तिलोयवइणा पउत्तु तुव गुरु मरेवि कहि कत्थ पतु । तं वयण सुणिवि आरत्त चक्खु पडिजंपइ को जाणइ पयक्षु। अह पुणु दीसहि गाणेण दक्खु जइ जाणहि ता तुहु एत्थ अक्नु । ता णाहु भणइ इहु हु सदप्पु तरु कोट्टर तुव गुरु मरिवि सप्पु । किं डज्झमाणु णउ णियहि मुक्ख तरु फाडिवि जोवहि भो पयक्ख । तं णिसुणिवि ता आरटु घिट्छु जो हुंतउ महु गुरु गुणगरिछ। किह उरउ जाउ तणु तवेण खीणु पंचग्गिसहणि जो णिरु पवीणु । 3/12 ।
सुरनरप्रिय पाचं जब वहाँ रमण कर रहे थे तो उन्होंने (वहाँ) एक तापस को देखा, जिसका गांव पश्चाग्नि तप से तप्त था और चित्त शङकर में अनुरक्त था और जो एक सूखे वृक्ष को अपने पास में जला रहा था। पाश्वजिनेश्वर उसके समीप गए। अज्ञानी जनों द्वारा नमस्कृत उस तापस को देखकर सम्यग्ज्ञानी पार्श्वजिन बोले जो स्वयं ही संसार के दु:ख को नष्ट नहीं कर सकता, उस मिथ्यादृष्टि की भक्ति क्यों करते हो? यह सुनकर कमठ नामक दुष्ट तापस कुद्ध RASWASICSXSIXSXSXesxesdesi ao kesxesiaSISXSResesiess
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हो उठा (और बोला)-हे नरश्रेष्ठ, अप्रिय क्यों बोलते हो? हमारी क्या अज्ञानता हो गई? बड़े मात्सर्यपूर्वक आप परनिन्दा क्यों कर रहे हैं? कमठ की बात सुनकर त्रिलोकपति ने पूछा- बताओ, तुम्हारा गुरु मरकर कहाँ उत्पन्न हुआ है? पार्श्व के वचन सुनकर तथा आरक्त नेत्र होकर वह कमठ प्रत्युत्तर में बोला-इस बात को प्रत्यक्ष कौन जान सकता है? तुम ज्ञान में बड़े दक्ष दिखाई दे रहे हो। यदि तुम जानते हो तो इस बात को बताओ। यह सुनकर पार्श्वनाथ बोले "तुम्हारा यह गुरु मरकर वृक्ष की कोटर में दीला सर्प हुआ है। अरे मूर्ख! क्या जलते हुए को नहीं देख रहा है? वृक्ष फाड़कर तृ उसे प्रत्यक्ष देख लें।' इस वचन को सुनकर वह दुष्ठ कमठ चिल्लाया- "मेरे जो महान् गुरु थे तथा जो तपस्या के कारण क्षीणदेह थे और जो पञ्चाग्नि के ताप सहन करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे सर्प कैसे हो सकते हैं? । ___ रइयू दृश्यों को न्योरेवार उपस्थित करते हैं। ब्योरों को मूर्त रूप देने में और उनका साङ्गोपाङ्ग चित्र खड़ा कर देने में वे सिद्धहस्त हैं। गुरु सर्प कैसे हो सकते हैं? यह शङका होते ही
ता तिरखकुठारें कोहिएण कठु वियारिउ तेणणरु । अद्ध अधु तहँ उरयजुउ दिट्ठ तत्थ धुणंतु सिरु ।। 3/37 (घत्ता)
उस क्रोधित कमठ ने तीक्ष्णा कुठार से उस काष्ठ को बीचों बीच से फाड़ दिया और उसमें अपने अर्द्धदग्ध सर्पयुगल को अपना सिर धुनते हुए देखा। नाद सौन्दर्य दृष्टि की से कवि जहाँ युद्ध का वर्णन करता है, वहाँ कठोर ध्वनियों का व्यवहार करता है उन ध्वनियों के श्रवण से ही युद्ध का दृश्य उपस्थित हो जाता है। श्रृङ्गारिक वर्णन के प्रसङ्ग में शब्दों का प्रयोग मधुर हो जाता है। रइधू की भाषा :
उत्तरकालीन अपभ्रंश का जो रूप रइधु के काव्य में दृष्टिगोचर होता है, उसके सम्यक् विवेचन से यह तथ्य स्पष्टतः सामने आता है कि आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं के प्रारम्भिक रूप का विकास जिस भाषा-रूप से हुआ, उससे वह कितना निकट है। इस दृष्टि से अपभ्रंश धारा में रइधू का स्थान अद्धितीय है।
अपभ्रंश का हिन्दी से क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्र पर विचार प्रकट करते हुए महा पण्डित राहुल जी ने "हिन्दी काव्यश्वारा" की भूमिका में लिखा है- इसस
TesrustressesTastusher ResTESxesxesxesesxeses
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भाषा को अपभ्रंश कहते हैं, शायद इससे आप समझने लगे होंगे कि तब तो यह हिन्दी से जरूर अलग होगी लेकिन नाम पर न जाए, इसका दूसरा नाम' 'देसी'' भाषा भी है। अपभ्रंश इसे इसलिए कहते हैं कि इसमें संस्कृत शब्दों के रूप भ्रष्ट नहीं, अपभ्रष्ट-बहुत ही भ्रष्ट हैं, इसलिए संस्कृत पण्डितों को ये जाति-- भ्रष्ट शब्द बुरे लगते होंगे लेकिन शब्दों का रूप बदलते- बदलते नया रूप लेना, अपभ्रष्ट होना- दूषण नहीं भूषण है, इससे शब्दों के उच्चारण में ही नहीं, अर्थ में भी अधिा कोला , अधिक लता आती है। "माता" संस्कृत शब्द है, उसके मातु, माई, मावो तक पहुंच जाना अधिक मधुर बनने के लिए हैं। खेद है, यहाँ भी कितने ही नीम हकीमों ने शुद्ध संस्कृत माता को ही नहीं लिया बल्कि उसमें जी लगाकर ''माता जी" बना उसके ऐतिहासिक माधुर्य को ही नष्ट कर डाला। अस्तु यह निश्चित है कि अपभ्रंश होना दूषण नहीं भूषण था।
महाकवि रइधू की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है। कवि की रचनाओं में राजस्थानी, ब्रजभाषा, बुन्देली एवम् बघेली के भी अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनके द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' की परिनिष्ठित अपभ्रंश का व्याकरण सम्बन्धी विश्लेषण इस प्रकार है: पासणाहचरिठ में भाषा सम्बन्धी विशेषतायें स्वर सम्बन्धी विशेषतायें :
अ, आ इ ई, ठ, ऊ, ए, ओ आदि स्वर सामान्यतया प्राप्त होते हैं। ऐ के स्थान पर अइ का प्रयोग मिलता हैऐरावत = अइरावा. 2/6 वैर
घर 3/1 वैक्रियक = वईकिरड 5/16 कैरव = कइरन 1/5
स्वरों में प्रायः ऋ का लोप हो गया है। अधिकांशत: इसके स्थान पर अ, रि, इ. ई, अरु रूप विकसित हो गए हैं : ऋ = अ - पृथिवी = पहुई 1/4
.. धर्मामृत = धम्मामय 1/1 .. रि - ऋषीसु . रिसीसु 1/2
- ऋषीश : . रिसीस 1/2 + इ . श्रृंगार - सिंगार బ్రకద్రుడు 82 టు టు లడ్డు
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________________
- नृपति = णिवई = ई - दृश्यते = दिसइ
= रु . भ्रातृ : भायरु दीर्घ अन्त्य स्वर कहीं-कहीं ह्रस्व हो गया है। प्रदक्षिणा = पयाहिण 5/34 पद्धड़िया = पद्धडिय 7/6 वेश्या - वेस 5/5 भ्राता = भाउ 6/8 परदारा - परदार 58 प्रचला ___. पयल 4/12 परदेशी = परिएसि 4/2 वज्रसूची .. पत्रिसूइ 2/13 प्रतिदिशा :- पडिदि...22
: भज्ज 6/2 कहीं-कहीं ह्रस्व स्वर दीर्घ हो गया है: अवन्ति = अवंती 2/1,3/1
दीप्त = दित्तु 5/21 स्वर समीकरण -
युगल = जुअलु 7/5 च्युत = चुडे 4/17 सूत्र = सुत्तु 7/8
निकृष्ट = णिकिट्ठ 6/4 स्वर लोप - आदि स्वर लोप -
अरण्य ... रण 3/5 अनन्त
णंत अलंकृत = लंकित मध्य स्वर लोप .
बर्वर = बब्बर 5/6 वामादेवी = वम्मएवि 1/10
वामा = वम्मा 5/21 स्वरागम -
पवित्र पवित्तउ6/2 निर्मल = णिमल्लु 2/11
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________________
आठ - अट्ठ 5/20 आत्म = अप्पर 1/3 अपवर्ग = अपवग्गठ 5/18
निकृष्ट = णिकिट्ठ 6/4 व्यंजन सम्बन्धी विशेषतायें -
श, ष के स्थान पर स हो जाता हैशोभित = सोहिय 1/10 निशाकर = णिसायर 1/10 शक्तया = सत्तिए 1.9 शिव .. सिव शास्त्रार्थ = सत्थत्थ 1/3 यश
जस 1/4 दोष
दोसु 414 रोष
सेसु 4/4 विषय = बिसय 4/5 स के स्थान पर क्वचित ह दृष्टिगोचर होता है
दसयोजन = दहजोयण 5/27
दसलक्षण दहलक्खणु 5/3 त के स्थान पर क्वचित् ह दृष्टिगोचर होता है-'
भरत = .भरह 1/1
भारत : भारह 1/9 प के स्थान पर व होता है
पाप ____ = . पाव उपवास = उवासु
5/7 उपरि : उवरि 4/15 दीप - दीव 2/13
रूप - रूव 5/5 व्यञ्जन लोप के बाद य-श्रुति का आगम
पोसित .. पोसिय 1/1
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________________
विगत - विपाय 1/1 पुष्पदन्त ... पुष्फयंतु 1/1 तीर्थंकर = तित्थयरु 11 शीतल - सीयलु 1 पद = पय / धर्मामृत = धम्मामय 1/। सकल = मयल 11
लोक = लोय 1/1 ण के स्थान पर ण मिलता ही है, पर न के स्थान पर भी ण मिलता है। सभी स्थितियों में यह प्रवृत्ति हैआद्य ...
निवारण = णिवारणु 1/1 नाथ = पाहु 111
निज . णिइ 1/1 मध्य- जिनेन्द्र = जिणिंदु 1/1
अर्णत 1/1 अनुक्रमेण = अणुक्कमेण 1/2 अन्यत्व - अणत्तु 3/17 अन्य
अण्ण 2/2 अन्त्य- पुनः . पुणु 1/1 ज्ञान
णाण 1/1 जिन = जिण 1/1 प्रधानी = पहाणी 11 ध्वनि : झुणी 1/2
येन = जेण 1/2 महाप्राण ध्वनियों में से केवल महाप्राणत्व का रह जानाभ-ह अभिनन्दन - अहिणंदणु 1/1
'पदमप्रभ = पउमप्पह 1/1 विभाति = विहाई 1/3 लाभ = लाह 1/4
अनन्त
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________________
ध-ह
बोहि पहाण :ोहि
1/2 13
बोधि प्रधान = जो विविध = धम्माधम्म = दु:खित
विविह
धम्माहम्म 11 दुहिय
ख-ह
मुख
मुह
3/22
घ-ह दीर्घायुष्य - दीहाउसु 3/23 लघु
लहु 5/12 य के स्थान पर ज पाया जाता है
वासुपूज्य = वासुपुन्जु 11 यान
जाणु
जुवलें 5/23 यत्र
जस्थ 4/14 यथा
जेहउ 6/13 यदि
जह 3/12 यतिवर
जइवरु यति
जई
1/2 यक्ष ___= जक्ख 774 . कहीं-कहीं य के स्थान पर व पाया जाता है.
__ आयु = आव 5/26 ज के स्थान में य पाया जाता है ___ध्वजपंक्ति
धयपति रजनी = रयणि तेज
तेय 275 र को कहीं-कहीं ल होता है चरण
चलण सामान्यतया र को र ही होता हैं। जैसे
- पुराउ614
51
पुरात्
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________________
-
पुराणु पुरिसोत्तमु
7/6 7/1
पुराण
पुरुषोत्तम घोषीकरण की प्रवृत्ति
पटह जटित कटिसूत्र
पडह
जडिद
=
कडिसुत्त
2/6 2:11 2/14 4:15 415
घट . छ ज्यों का त्यों रहता है
छना
छण्णा
4:8 2/5
छत्त
517
5/19
छिद्र
4/8 5/9 56
5/10
63
छदम छल = छन छिन्ा = छिण्ण
छिद्द छुरिका
छुरिय छन्द .. छंद ड के स्थान पर ल होता है
क्रीडा कील त के स्थान पर कहीं ल होता है
विद्युत = विजुल
विकृत = विट्टलु ष को कहीं-कहीं छ होता है
षट्खण्ड = छक्खंड षट्कर्म
छक्कम्म षट्चरण = छचरण षष्ठ
छट्ठ षष्टमे = छट्ठमि षट्नवति । छण्णव
6/10
3/19
5/18
6/2 4/15 S/16 5/17 6/15
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________________
षट्त्रिंशत् - छत्तीस 1/4 षड्द्रव्य = छह द्रव्य 2/24 षटरस = छहरस4/7
षट्चत्वारिंशत् = छायालीस 4/18 घ के स्थान पर कहीं-कहीं ह मिलता है
= पाहण 4/11 पाषाण = पाहाण618 आदि मयुक्त वजन में रादि दुर्गा लालन य र ल ल हो तो उसका लोप हो जाता
पाषाण
All
पेरिय
दीव
ज्योतिषीगण = जोइसगण 2/8, 2/6,4/16 व्यवहार - वावारु
519 क्रीडा
कील 6/3 प्रेक्ष्य
पेक्ख 6/12 प्रेमानुरक्त = पेमाणरत्तु 4/3 प्रेरित
217 प्रेषित पेसिड 3/1 स्वयम्भू = सयंभु 5/34,7/1 द्वीप
5/20 दो भिन्न ध्वनियों के स्थान पर तीसरी ध्वनि का प्रयोग मिलता हैरथ = ठ स्थान = ठाण 1/1
स्थित = ठिय स्क .. ख स्कंध = खंध स्म = फ स्पर्श = फंस स्फन्द = फंद 4/17
फुडु 6/3 स्त = थ स्तुत्य = थुणिवि एक गुच्छ के स्थान पर सर्वथा दूसरे गुच्छ का प्रयोग मिलता है
घ्न = ग्घ विघ्न - विग्घ
स्पष्ट
1/1
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________________
NET
= प्फ पुष्प
पुष्फ 1/1 विस्फुरित - विप्फुरिय 1/4
ट अरिष्टनेमि रिटनेमि 1/1 गरिष्ट
गरिट 1/5
1/1 ब्ध - द्ध लब्ध
लद्ध उरस्थल
उरत्थल 1/4 ल
पण दत्त = दिपण 1/4 हस्ति
1/4 जन्म
जम्म क्त = क मुक्त। __.. मुक्छु 11 स्वरागम या स्वरभक्ति के कारण गुच्छ टूट जाते हैं
- सिरि क्ष के स्थान पर निम्नलिखित लोग होते हैं..
अक्षि = अच्छि /11
लक्ष्मीकोन . लच्छीकोसु 7/8 क्षय . खउ
7/3 क्षपिता; :- खविया 713
खेत क्ष - स्तु दीक्षा = दिक्ख 7/2
भिक्षा - भिक्ख शिक्षा - सिक्ख
चक्षु = चक्खु 1/1 व्यञ्जन समीकरण - चर्चित
चच्चिय चेलनी
चेलणि 'चन्द्रप्रभ
चंदप्पहु 1/1 चर्म
3/19 चिन्मय
चिम्मच 6/20 चक्र
चक्क
5/32
1/1
112
67
1/6
PASSSSResxexxsastesesentsresesxissesResIES
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________________
व्यञ्जन लोग .. आदि व्यञ्जन लोप -
स्कन्ध
=
खंध
स्तम्भ
खंभ
4/13 5/19
थंभ ऊरिय
1/4
स्तम्भ
पूरित मध्य व्यञ्जन लोप -
आशातुर - आशापुरी - योगिनीपुर - ज्योतिषीगण =
S/8
6/15
आसाउर आसाउरि जोइणिपुर जोइसगण पएस अउलिय
2/8
प्रदेश
3/20
1/6
अउन्व
4/12
6/19
आसिठ उड्डावा भरिउ चरित
6/9 111 1/1
अतुलित
अपूर्व = अन्त्य व्यञ्जन का लोप -
आश्रय उड्डावित - भरित चरित देव राजीमति दुर्गति रूप पति __= सरस्वती णिकेत विवेक _ -
1/1
राइप दुग्गइ रुउ पइ सरसई णिकेउ विवेउ
1:10 1/15
117 17
17
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________________
भण्फ
4/19
अक्षर विपर्यय
अहम् = अम्ह 42 उष्ण
उण्ह
5/19 वाष्प भ्रष्ट
4/5 उपधा (अन्तिम अक्षर से पूर्व अक्षर) की सुरक्षा
अति - अइ3/19 अतिक्रमित = अइकमिउ 2/8 अतिशय - अइसंय 4/17
अतुलित = अउलिय 16 आदि प के स्थान पर कहीं-कहीं फ हो जाता है -
पुष्पित - फुल्लिय 37 व्य के स्थान पर व्व अथवा ब्बु हो जाता है
भव्य . भव्व भव्य = भब्यु
5/5 द्रव्य = दव्व। 2/1 रइधू के पासणाहचरिउ में प्रयुक्त शब्दों के कुछ उदाहरण, जिनसे मिलतेजुलते शब्द आज भी प्रचलित हैं
भरिक = भरे धुकु खेत्त
खेत सिक्ख = सीख
1/2 हट्ट = हाट सिंगार सिंगार धि8 = ढीठ हत्थि
हाथी पलंग
पलङ्ग उठ्ठिय
उठकर
1:1
-
चूक
1/1
1/1
1/3
115
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________________
2/7
217
217
2/8
चल्लिर तिष्णि वार नाई राय चालीस छत्तीस बावीस घर पीढ भग्ग लग्गु
चले तीन वार नाई (बन्देलखण्डी) राय (राजा) चालीस छत्तीस बाईस घर पीढा भागना लगना
2/9
2/9
2/10
2/11
3/2
खुर
3/3 3/6
खुर
3/9
जित्तर ढाल
2/12
पोट्टलु
जितना ढालना पोटली पास अथाह
3/19
पामि
3/26
अथाहु
4/1
बुज्झ
अट्ठ
थलु
छुट्ट चडाविय चट्टह = अट्ठावीस = अभिठ - उस्सार = कट्ठ कड़ाहि को -
आठ
4/7 थल
4/8 छूटना
5/19 चढाया
4/11 चौटना
6/9 अट्ठाईस
5/14 भिड़ना
1/3 उसार (बुन्देलखण्डी)
3/25 कड़ाही
5/19 कौन, को (बुन्देलखण्डी)
काठ
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________________
4/1
अच्छी
6/2
डाल डाल
1/4 खंभ खम्भा
4/13 चठत्थी = चौथी
4/16,5/25 दुरिय = दूरी
5/6 छुव छूना
5/5 ढोत्र = ढोना
5/17 टकर टकार
6/5 डर = डर
419 'पासणाहचरिउ' में कुछ शब्दों के प्रयोग के उदाहरण जो हिन्दी में प्रचलित नहीं हैंअच्छउ
3/4 उवढप्प अत्यन्त अभिमानी चरड लुटेरा
1/3 जलणिवाण = जलकुण्ड
2/12 हुक्का आरुढ़ हुए
4/13 ढुक्कर
प्रविष्ट झंप - आच्छादित करना
जलना पासणाहचरिउ की लकार बहुला प्रवृत्ति के कुछ उदारण भरित
भरिंठ चरित
चरिङ जिनेन्द्र जिणिदु सत्पक्ष
क्ष-पक्खु पद्मप्रभ = पउमप्पह अङ्ग
1/1 लीन लोणु
1/1 सज्ज मुक्त = मुक्कु
1/1
झिज
1/1
अंगु
सुज्जु
1/1
Kashrestesxesastusxesxesxesf93 dasxxxsesxesyasyaskass
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________________
1/1 1/1
पहा
नाथ
1/1
4/2
4/12
निधान . - णिहाणु प्रधान : पहाणु णाहु
1/1 महत्
= महंतु कान्त
कंतु तृतीया विभक्ति के एकवचन में ए का प्रयोग पाया जाता है और कहीं-कहीं ए एवं एण प्रत्यय भी उपलब्ध होते हैंपरमार्थेन = परमत्थें
3/18 तेन = उपसर्गेण = उवसग्नें अनुक्रमेण ___ = अणुक्कमेण
4/15 यक्षेन .: जवखें
4/16 आदेशेन = आएसँ
4/16 तृतीया विभक्ति के बहुवचन में एकार तथा हिं प्रत्यय का आदेश प्राप्त होता है दानः = दागवहि
4/7 स्तम्भैः . थंभेहिँ उकारान्त शब्द में पंचमी के बहुवचन में हुं प्रत्यय का प्रयोग किया गया है
गुरुभ्यः .. गुरुहुं ___2/a अकारान्त शब्दों से पर में आने वाले षष्ठी के बहुवचन के रूपों में सु और हैं रे दो प्रत्यय पाए जाते हैंतावहं = तापासानाम्
3/21 कासु = केषां पूर्वकालिक क्रिया या सम्बन्धसूचक कृदन्त के लिए संस्कृत में क्त्वा और ल्यप् प्रत्यय होते हैं। रइधू ने उनके स्थान पर ई, इउ, इवि, अवि, एप्पि, एप्पिणु, एविणु और एवि प्रत्ययों को प्रयोग किया है। जैसे
लभ् = लह+इ = लहि 26 चल = चल+इठ = चलिउ 26 कोश = कोसाइउ : कोसिउ 2/6
4/15
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________________
..
का
18
पेच्छ•इवि • पेच्छिवि 2/3 समार। इवि - समारिवि 213 जा+इत्रि = जाइवि 2/3
जो इवि - जोइवि 2/8 प्रेक्ष . पिकरव+इनि = पिक्विवि 217
कर+एप्पि = करेणि 2/10 कर एप्पिणु - करेप्पिणु 7/10
द एपिणु - देप्पिणु पुलकित्तो
भूत्वा = पुलएप्पिणु 1/7 जाण-इवि = जाणिवि
थुवा एत्रि .. थुवेत्रि श्रृंगार कृत्वा सिंगारिवि
213 प्रेक्ष्य - पिविश्ववि
2/8 दत्चा देवि
27 संप्रेक्ष्य = संपेच्छिवि 2/8 समारिवि 2.3 नमस्कृल्य = णमसिड
3/1 अलंकार योजना आचार्य दण्डी ने काव्य-शब्दार्थ की शोभा करने वाला अलङ्कार माना है। वामन ने यह कार्य गुण का कहा है और अतिशय शोभा करने वाला धर्म ही अलङकार बताया है। आनन्दवर्द्धन ने अलङ्कार को अंग-शब्दार्थ के आश्रित माना है और उन्हें कटक, कुण्डल आदि के समान शब्दार्थ रूप शरीर का शोभाजनक कार्य कहा है। आनन्द वर्द्धन ने अलङ्कार लक्षण में अलंकार का रस के साथ कोई सम्बन्ध निर्दिष्ट नहीं किया। यह कार्य मम्मट4 और विश्वनाथ ने किया है। इनके मत से अलंकार शब्दार्थ की शोभा द्वारा परम्परा सम्बन्ध से रस का प्रायः उपकार करते हैं। अपने अलङ्कार लक्षणों में इन्होंने अलंकार को
1 काव्यशोगाकरान् धानलङ्कारान् प्रचक्षते || काव्यादेश 219 2 तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । काव्यादर्श 3/172
अमाश्रितास्वलकारा: मन्दव्या कटकादिवत् ॥ म्वन्यालोक 26 4 उपकुवन्ति तं सन्तयेऽद्वारेण जातुवित् ।। काव्यप्रकाश 8167 5 रसादीनुपकुर्वन्नोऽलंकारासोऽङगदादिवत् ।। साहित्यदर्पण 10/1
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________________
शब्दार्थ का उस प्रकार अनित्यधर्म माना है, जिस प्रकार कटक, कुण्डल आदि शरीर के अनित्य धर्म हैं। इसी प्रकार जगन्नाथ ने भी अलंकारों को काव्य की
आत्मा, व्यंग्य को रमणीयता प्रयोजक धर्म मानकर ध्वनिवादियों का ही समर्थन किया है अतएव किसी कृति में अलंकारों का रहना आवश्यक सा है। 'पासणाहचरिउ' में अलंकारों को टा इरा में दृष्टिगार होती है.. . पासणाहचरिउ में रहधू की उत्प्रेक्षायें :
उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना करने को उत्प्रेक्षा कहा जाता है। 'पासणाहचरित' में महाकवि रइधू ने प्रचुर मात्रा में उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग किया है। नीचे उनकी उत्प्रेक्षायें दृष्टव्य हैं
स्वर्ण रेखा नदी समुद्र की ओर जाती हई ऐसी प्रतीत होती है, मानो सवर्ण की रेखा हो और मानो वह तोमर राजा के पुण्य से ही वहाँ आयी है।।
डोंगरेन्द्र का पुत्र तेजस्विता में मानो प्रत्यक्ष सूर्य था मानो पृथ्वी पर यश का नवीन अंकुर ही उत्पन्न हुआ था अथवा जय श्री ने अपना भाई ही प्रकट कर दिया हो।10
खेमसिंह साहू ऋषियों को दान देने में मानो दान (मदजल) से युक्त गन्धहस्ति के समान था।11
खेमसिंह की धनवरती नामक प्रणयिनी नररत्नों की उत्पत्ति के लिए मानो खान स्वरूप थी।12
काशी नामक देश ऐसा प्रतीत होता था मानो पृथ्वी रूपी युवती का सुख पूर्वक पोषण करने वाला वर ही हो।13
वामादेवी के नूपुरों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि उसके चरणों में धारण किए हुए नुपूर इस प्रकार रुणझण किया करते थे, मानो वे उसके आज्ञापालक किंकर ही हों।14।
6 डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री; हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशोलन पृ.
308
7 सोवग्णरेह णं उबहि जाग्य णं तोमरणित्र पुगणेण आय। 1:3 8 तेय गलु णं पच्चक्नु भाणु। 115 9 ण णवइ जसंकुरु पुहमि जात। 1.5 10 णं जयसिरोए पयडियठ भाउ। 115 11 रिसि दाणवंतु गंधहत्थिा 1.5 12 णररयणहँ [ उप्पत्ति खाणि 16 13 कासी णाम देसु तहिं सुहबरु। ग भहिजुवइहिं सुहयोषसवरु॥ 1:9 14 रणरणंति णेकर णं किंकर 1/10
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________________
अश्वसेन राजा ऐसा था मानो जयलक्ष्मी ने नवीन वर ही धारण कर लिया हो।15 मानो पृथ्वी पर धर्म ही अवतीर्ण हो गया हो।16
वामादेवी के मुखमण्डल को लोग इस प्रकार देखते थे, मानो भूली हुई (किसी) मणि को खोज रहे हों।17
कोई-कोई शची क्षीरसागर से जल लाकर वामादेवी का स्नान कराती थी, मानो वर्षाकाल दुग्ध की वर्षा कर रहा हो।18 __जब गर्भ नौ मास का पूर्ण हो गया, तब उस (वामादेवी) का मुख इस प्रकार पीतवर्ण का हो गया, मानो उस गर्भ के यश का प्रकाश ही हो। (पाच) जिनेन्द्र का जन्म हुआ मानो संसार में चिन्तामणि ( नामक रन ) ही उत्पन्न हुआ हो अथवा यश का पुञ्ज ही प्रकट होकर स्थित हुआ हो या मानो पूर्व दिशा में सूर्य ही उदित हुआ हो अथवा चाँदनी रात्रि में चन्द्रमा उदित हुआ हो अथवा मानो कुरु भूमि में कल्पवृक्ष का अङ्कुर ही उत्पन्न हुआ हो। उसी प्रकार इस शुभमति वामा के गर्भ से जिन भगवान उत्पन्न हुए।19 जिननाथ के उत्पन्न होने पर समस्त लोक भक्ति भाव से आनन्दित हो उठा मानो तिमिर नाशक सूर्य के दर्शन से कमलाकर ही खिल उठा हो।20
यहाँ उत्प्रेक्षाओं की झड़ी दृष्टव्य हैं
क्षीरोदधि से भरे हुए घट ऐसे प्रतीत होते थे मानो आकाश में चन्द्र और सूर्य ही परिभ्रमण कर रहे हों।
15 णं जयलच्छिए णवत्र धरियउ॥ 1:10 16 णं महिवीढि धम्मु अवयरिंउ॥ 1/10 17 जणु जोबइ पुणु पुणु मणि भुला।। 1/10 18 सु खीरसमुदहि केइ वि जाहि।
ण्हवावहिं आणिवि तोउ विसुद्धा घणागमु वरिसइ णाई सुदुद्ध । 2/2
णवपासि हूव पुण्णु गबिभ तासु। मुहु पंडुरु णं तहु जसपयासु || 215 19 चिंतामणि णं उप्पण्णु लोइ। णं जसह पुंजु थिउ पयडु होइ।
णं सहसकिरणु सुरवरदिसाई णं ससहरु पुणु चंदिणि णिसाइँ । __ णं सुरतरअंकुरु कुरुमहीए। तिम जिणवर जायठ सुहमहोए।। 2/5 20 जिणणाहहु जाएं पडियराएँ सयलु लोउ आणदिउ।
दिवसेसहु दसणि तिमिविहंसणिणे कमलायर गदियउ॥ 216 21 खीरोहिं पयपूरेण पूर। पंपरिभमंति णहि चंद सूर।। 2/12
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________________
___ शनसन ने जिननाय की चन्दन पे चर्चा ( पूजा) की मानो भविष्य में होने वाले तीव्र ताप से अपने को दूर कर रहा होP2
इन्द्र ने पुष्पमाला लेकर वीतराग भगवान के पादमूल में स्थापित कर दिया। भानों कामदेव के बाण से ही भगवान के चरणों की पूजा की हो। निर्मल शालि बीजों की छोटी-छोटी ढेरियाँ लगा दी गयीं, मानो आकाश में सुन्दर धार्मिक नक्षत्र ही स्थिर हो गए हों। सूर्यकान्ति के समान दीस स्वर्णभाजन में चित्त को सुख देने वाला, धूमरहित शुद्धदीपक सजाकर इन्द्र दुन्दुभि के साथ अनुरागपूर्वक नृत्य करने लगा, मानो वह भी सहस्र भुजाओं से उन भगवान की पूजा कर रहा हो। धूपबत्ती से निकलने वाली ध्रुप आकाश में ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानो वह जीव लोक के लिए मोक्ष का मार्ग दिखा रहा हो। प्रचुरगन्ध से धूप खेई, यह ऐसी शोभायमान हुई, जैसे मानो भयातुर होकर जिन भगवान से पापराशि भाग रही हो।23
इन्द्र ने जिनेन्द्र को कुण्डल युगल मण्डित किया, मानो सूर्य एवं चन्द्रमा ही वहाँ जाकर शरण में बैठ गए हों24
जिनवर उत्तम देवों एवं मनुष्यों के साथ सभा के मध्य में विराजमान थे, उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो त्रिदशेश्वर ही (वहाँ) स्थित हों25
चन्द्रमख नामक शस्त्र के द्वारा उसम धवल वर्ण के छत्र काट दिए गए, उससे ऐसा लगने लगा, मानो रणभूमि में कमल ही खिल उटे हों26 फहराती हुई ध्वजायें काट दी गयीं उससे ऐसा प्रतीत होता था, मानो पृथ्वी पर असत्तियों के वस्त्र ही पड़े हों। ____ दौड़ते हुए किसी (भट) को छाती में बींध दिया गया, मानो स्वामी के दान का फल ही सफल हो गया हो। शक्ति नामक अस्त्र के प्रहार से कोई-कोई भट (ऐसा) काट दिया गया, मानो भस्म शरीर से ही वह अपना जीवन धारण कर रहा हो27
22 चंदणेणगाह-पाय सकराऊ चच्चए। णं भविस्स तिब्ब ताउ बद्धराउ बंचए। 2013 23 पासणाहचरिङ 2:13 24 कुखलजुबलें मंडयउ संपि। णं रवि ससि सरण पट्ट गपि। 2:14 25 सुरणरवर सहियउ भुवाहिं महियउ ण महि थिउ तियसेसरु ।। 2/15 26 ससिगह खंडिय वरपुंडरीया णं रणहि फुल्लिय पुंडरीय।
केयावलि खेडिय फरहरति असईव वसा भूमिहि सहति।। 317 27 को विधावंतु संमुहर करि विद्धक णांई सामिस्स दाणस्स फलु सिद्ध! | 3/8
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WILILAIAIAIALTAANDAMANANAAMIAIS
धरणेन्द्र ने पार्श्व को आसन पर विराजमान किया। पुन: पुनः उसने अत्यधिक विनय प्रकट की। अपने शरीर के ऊपर उन्हें चढ़ाया और बैरी का गर्व चूर किया। फणस्थित मणि के प्रकाश से अन्धकार को विदीर्ण किया, मानो पुण्य का वैसा क्रम हो नटशाला में सघन छायादार उपवन थे, मानो सुमेरु पर्वत को छोड़कर अमरवन ही वहाँ उपस्थित हो गया है। 29
राजा ने कमठ के सिर पर बेलें बँधवा दीं। वे उसके अङ्ग में कैसे शोभायमान हुई मानो अपयश रूपी वृक्ष ने विचित्र फल दिया हो 30
कमठ ने हाथी के मद से सिक्त उस वन को देखा मानो वह कमठ के पाप से लिप्स गया हो 31
कमठ को देखकर कहीं सिंह गरजते थे, मानो वे भी उस परदारगमन करने चाले के विरुद्ध थे। कहों घाणियाँ अपने बिलों में घुस रहीं थीं मानो वे उसका मुखदर्शन ही नहीं करना चाहती थीं। कहीं-कहीं भार समूह रुणझुण -रुणझुण कर रहे थे। वे ऐसे काले थे, मानो काले गुणों (दुर्गुणों) की (ब्याज) स्तुति कर रहे हों 32
प्रभंकरी रानी के आनन्द नाम का अत्यन्त रूपवान् पुत्र हुआ मानो चन्द्रमा में से कलकरहित प्रतिचन्द्र उत्पन्न होकर वहीं महीतल पर अवतरित हो गया हो 33 उत्प्रेक्षा प्रयोग में रइधू का वर्णन कौशल
:
उत्प्रेक्षाओं के प्रयोग में महाकवि रइधू के उपमान बड़े मार्मिक हैं। इससे कवि की मार्मिक कल्पना और वर्णन कौशल का पता लगता है। स्वर्ण रेखा नदी की कवि स्वर्ण रेखा के रूप में सम्भावना करता है जिस प्रकार स्वर्ण रेखा सभी
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सत्ति घाण भडु को पुणु छिष्णउ णाइँ पियजीउ धारेइ नगु भिण्णउ ! 3/8
28 तर्हि आणि पाहु णिवेसियड पु गुण बहु विणउ पर्याासिकः । यिकाहु उवरि चडावियठ बइरिहु मडफड वारिथउ ।
उज्जोएँ दलितमु णं पुण्हु करेठ तं जि कमु 4/11
29 जहिं कप्पतरुवरहं ठक्वणु सु सच्छाउ णं अमरवणु मेरु चइकण तहि आउ। 4:15 30 मुंडाविर ते वि सीसु तासु गं उभ्पाडित विहि केसपासु ।
घायल उत्तमग ते सहहिं केम पुणु तासु अंगि। 6/5
31 तं वणु जोय गयभए सितु । णं कपठहु पावें तं पलित्तु । 6/6 32 पासगाहचरित्र 6/6
33 ताहिं गब्धि अहिमिंदु वि हूव । सो आगंदु णामु सुसरूबउ । चदं णं पचिंदु त्रिजाया गय कलंकु णं महिवाल आयउ ।। 6.17
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को आकर्षित करती है, उसी प्रकार स्वर्णरेखा नदी भी अपनी मनोहारिता के कारण सभी को आकर्षित करती होगी। इस प्रकार की मनोहर नदी का आगमन मानो तोमर राजा के पुण्य से ही हुआ था।
डोंगरेन्द्र के पुत्र के लिए रइधू ने सूर्य, यशाङकुर और जयश्री के भाई रूप उपमानों का प्रयोग किया है। सूर्य अपने तेज के लिए सुप्रसिद्ध है, उसी प्रकार डोंगरेन्द्र का पुत्र भी तेजस्वी था। जिस प्रकार छोटा अङ्कर बढ़कर आगे विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार डोंगरेन्द्र के पुत्र के यश के बढ़ने की भी उत्तरोत्तर सम्भावः। श्री। जिस प्रकार बहन का अपने भाई के प्रति अगाध स्नेह होता है उसी प्रकार जयश्री मानो डोंगेन्द्र को अपना भाई मानती
जिस प्रकार हाथी से सदा मदजल झरता है, उसी प्रकार खेमसिंह साहू सदैव दान किया करते थे।
जिस प्रकार रत्नों की खान से सुन्दर-सुन्दर रस्त्र प्राप्त होते रहते हैं, उसी प्रकार खेमसिंह की धनवती नामक प्रणयिनी नररत्नों की मानो खान थी।
जिस प्रकार किसी युवती का वर सुखपूर्वक उसका पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार काशो नामक देश पृथ्वी रूपी युवती का मानो पालन-पोषण करता
था।
जिस प्रकार किंकर स्वामी की आज्ञा का निरन्तर अनुवर्तन करते हैं, उसी प्रकार वामादेवी के चरणों में धारण किए हुए नूपुर भी मानो आज्ञापालक किंकरों के समान झण-झण शब्द करते थे।
अश्वसेन राजा की विभूति देखकर कवि कहता है कि वह ऐसा था, मानो जयलक्ष्मी ने नवीन वर ही धारण कर लिया हो। उसकी प्रचुर धार्मिक क्रियाओं को देखकर कवि कल्पना करता है कि मानो पृथ्वी पर धर्म ही अवतीर्ण हो गया
जिस प्रकार मणि सभी को प्रिय होती है, वह यदि खो जाये तो लोग उस के गुणों के प्रति और भी अधिक आकर्षित होते हैं, उसी प्रकार वामादेवी के मुखमण्डल को लोग उसी प्रकार देखते थे, मानो भूली हुई मणि को खोज रहे
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वर्षाकाल में पानी की फुहार अच्छी लगती है, पानी के स्थान पर दूध हो तो उसके सौन्दर्य का कहना ही क्या। वामादेवी के ऊपर पड़ता हुआ क्षीरसागर का जल ऐसा सुशोभित होता था मानो दुग्ध की वर्षा कर रहा हो।
प्रकाश की पीली-पीली रेखायें सभी को मनोहारी लगती हैं। जब गर्भ नो मास का पूर्ण हो गया, तब वामादेवी का पीत मुख वैसा ही सुशोभित हो रहा था. मानो उस गर्भ के यश का पकान दी हो।
जिनेन्द्र भगवान के जन्म के उपमानों की कवि ने झड़ी लगा दी है। चिन्ता मणि रत्न की यह विशेषता होती है कि उसके सामने जिस भी वस्तु का चिन्तन किया जाय, वह वस्तु सामने आ उपस्थित होती है इसी प्रकार लोगों के लिए पार्श्व का जन्म मानो चिन्तामणि रत्न की उत्पत्ति था। सभी अपने-अपने यश की अधिकाधिक वृद्धि की कामना करते हैं। यदि सारा यश किसी व्यक्ति में एकत्रित हो जाय तो उससे अधिक सौभाग्यशाली और कौन होगा? पार्श्व की उत्पत्ति संसार के लिए वैसी ही थी जैसे यश का पुंज ही एक स्थान पर एकत्रित हो गया हो। चाँदनी रात्रि में पूर्णचन्द्रमा का उदय सभी को जिस प्रकार सुखदायी होता है, उसी प्रकार भगवान पार्श्व की उत्पत्ति सभी को सुखदायी थी। कुरुभूमि में उत्पन्न कल्पवृक्ष से सभी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं। पार्श्व के अवतरण से संसारी जीवों की बहुत बड़ी कामनापूर्ण हो गयी अत: उनकी उत्पत्ति ऐसी थी मानो कल्पवृक्ष का अङ्कुर ही उत्पन्न हो गया हो। __जिस प्रकार कमलों का आकर सरोवर सूर्य के उदय होते ही खिल जाता है। उसी प्रकार जिननाथ के अवतरण से सभी व्यक्ति प्रफुल्लित हो उठे।
आकाश में सूर्य और चन्द्रमा का परिभ्रमण शोभादायक होता हैं। इसी प्रकार क्षीरसागर से भरे हुए कलश भी शोभादायक होकर चन्द्र और सूर्य के परिभ्रमण का स्मरण दिला रहे थे।
चन्दन सभी के सन्ताप को हरता है। शक्रराज ने जिनराज की चन्दन से चर्चा (पूजा) की मानो भविष्य में होने वाली तीव्रताप से अपने को दूर किया। ____ कामदेव का अस्त्र पुष्पवाण कहलाता है। इन्द्र ने पुष्पमाला लेकर भगवान के पादमूल में स्थापित की। मानो वह कामदेव के वाण से ही भगवान के चरणों की पूजा कर रहा था।
जिस प्रकार एकत्रित हुई नक्षत्र राजि सुशोभित होती है, उसी प्रकार निर्मल शालि बीजों की देरियाँ सुशोभित हो रही थीं।
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सूर्य और चन्द्रमा की एकत्र उपस्थिति मनोहर लगती है जब जिनेन्द्र को इन्द्र ने कुण्डल युगल से मण्डित किया तो मानो सूर्य एवं चन्द्रमा हो वहाँ जाकर शरण में बैठ गए थे। ___जिस प्रकार अपने परिकर के साथ इन्द्र सभाभवन में सुशोभित होता है, उसी प्रकार उत्सम देवों और मनुष्यों के मध्य सभा में जिनवर सुशोभित हो रहे
थे। ____ पापी कमठ का कवि ने इस प्रकार वर्णन किया है, मानो सर्वत्र उसे धिक्कारा गया हो। वन में प्रविष्ट कमठ हाथी के मद से सिक्त वन को देखता है, मानो वह कमठ के पाप से लिप्त हो गया है। उसे देखकर सिंह गर्जना करते हैं, मानो वे भी उसके परस्त्रीगमन के विरोधी हैं। घोणियाँ उसे देखकर अपने बिलों में प्रवेश करने लगती हैं, मानो वे भी उसका मुखदर्शन नहीं करना चाहतीं। यथार्थ में बुरे व्यक्ति को लोग देखना भी पसन्द नहीं करते हैं। वहाँ के काले भ्रमर शब्द कर रहे थे मानो उसके दुर्गुणों की निन्दा ही कर रहे थे।
प्रभंकरी रानी से उत्पन्न पुत्र का वर्णन करता दुआ कवि कहता है कि मानो चन्द्रमा में से कलङ्करहित प्रतिचन्द्र हो उत्पन्न हुआ है।
इस प्रकार सर्वत्र कवि की कल्पनायें बड़ी मामिक बन पड़ी हैं। उपमा प्रयोग
स्पष्ट रूप से वैचित्र्य जनक साम्य को उपमा कहते हैं।
पासणाहचरिउ में रइथू का उपम प्रयोग दृष्टव्य है। कुछ उपमायें नीचे दी जा रही हैं :
उस (स्वर्ण रेखा) नदी से वह गोपाचल उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार भार्या से कोई दक्ष पति सुशोभित होता है।34। ___ गोपाचल में कुल रूपी श्री के लिए राजहंस के समान, गुण रूपी रनों के लिए सागर के समान, खल कुल के लिए प्रलयकाल के समान, गोरक्षण विधि के लिए नवीन वृषभ के समान, पर्वतान्त के शत्रुनुपति रूपी गजों के दलन करने के लिए सिंह के समान तथा कुबेर के समान प्रचुर धन का धनी डोंगरेन्द्र नाम से सुप्रसिद्ध (एक) राजा हुआ 35
34 ताइ वि सोहि गोपायलक्खु गं भज समाणउँ णाहु दक्खु। 1/3 35 पासणाहचरित 14 Kesrespesasrespesesxe 102 desesxeshasexesxesxesy
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नेमसिंह की गति में हंसिनी के समान, वाणी में कोयल के समान, सौभाग्य एवं रूप सौन्दर्य में चेलना के समान अथवा राम के साथ श्रेष्ठ सीता के समान धनवती नाम की प्रणयिनी थी 36
माँ के उदर से जिनेश्वर किस प्रकार निकले ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार मेघपटल से दिनकर 37
पाण्डुक शिला पर एक एक महाय॑ सिंहासन था, जो मुनि मन के समान अत्यन्त निर्मल था|38
पार्श्व जिन दशलक्षण धर्म के भेदों के समान हिन्दोले में बढ़ने लगे।
कुशस्थल नगर में कामदेव के समान सुन्दर शक्रवर्मा नामक राजा (निवास करता) था10
(युद्ध के समय) किन्हीं ने अञ्जन पर्वत के समान कान्तिवाले मदोन्मत्त हाथी को मार गिराया तो किसी ने सागर की चञ्चल तरंग के समान घोड़े को सुभट सहित मार गिराया
राजा अकीर्ति की सेना उसी गकार जप्त हो गयी जिस प्रकार (वेदगान) में स्वरभंग होने से कोई ब्राह्मण यति भ्रष्ट हो जाते हैं।12
जिस प्रकार विषयरूपी भुजङग से दष्ट होकर कुमुनि पतित हो जाता है और जैसे रवि के तेज से तम का भार नष्ट हो जाता है अथवा जिस प्रकार सम्यग्दर्शन से दुर्गति रूप दु:ख अथवा तप के प्रभाव से कामदेव भग्न हो जाता हैं और जिस प्रकार आत्मदर्शन से कर्मसमूह ही नष्ट हो जाता हैं, उसी प्रकार वह दुष्ट (कारावन) भी युद्धभूमि छोड़कर भाग गया43
36 गथ इंसणीव कलयंठि वाणि।
सोहग्गरूव चेल्लणि व्व दिट्ठ सिरिरामहु जिहँ पुणु सीय सिढ़। 116 37 वरह यासर जिणेसु केम जलहर पडलाइदिणेसु तेभ। 215 38 पुणु एक्केरकपीदि सिंघासणु। अइणिम्मलु अणग्घु णं मुणिमणु ।। 2/11 39 हिंदोलयाम्म वढेइ देठ। दहलक्खणधम्महो णाई भेल। 2/15 10 गयरु कुसत्थलु णाय सुहयरु समया राण रूवे सरु।। 3/1 41 केहि मि पाडिय मयमत्तदंति। अंजण महिहरसम जाह कत्ति।
के वि सह सुहडें बरतुरंगु। र्खदिउ णं चल--सायर तरगुं। 37 42 तेण रविकांत रायस्म बल लट्ठ गाइँ सर भिण्णु बंभजई भट्ठ।। 38 43 कुमुणि व विसय भुवर्गे द । ण रवितेएं तमभर मदछ
गं सहसा दुगा दु तच पहा | भग्गल पागरुहु।
णं अप्पाईराणि कामहँ गणु तिं सो दुट्ट णळु डिवि रणु। 3.3 Keshestsresheesesses 10s kestastestersness
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आयु अञ्जली के जल के समान ढलती जाती है। धन एवं सुख इन्द्रधनुष के समान अस्थिर (अथवा) जुए के धन के समान क्षणभर में दूसरे के हो जाते हैं। सन्ध्याकालीन बादलों के रंग के समान राम एवं रुचियाँ भी क्षणिक हैं, कहाँ कि इन्द्रिय सुख व्यभिचारिणियों के समान दूसरे का हो जाता है। स्त्रीभोग तारागण के समान तरल है और जहाँ भाग्य जलधर के समान चपल हैं। नत्र यौवन नदी के पूर के समान क्षीण हो जाने वाला है। इन्द्रियसुख बिजली के समान चंचलहँ। राज्य भोग भी जीर्णपत्र के समान किसी के लिए शाश्वत नहीं होता
यह जीव यमराज के द्वारा उसी प्रकार कवलित कर लिया जाता है, जिस प्रकार मृगशावक सिंह के द्वारा ले जाया जाता है।45
जिस प्रकार सरोवर में जल नालियों के द्वारा आता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में (इन्द्रिय रूपी आस्रव द्वारा) कर्ममल आता है।16
आकाश भ्रमर, काजल, ताल और तमालवर्ण के मेयों से उसी प्रकार आच्छादित हो गया, जिस प्रकार कुपुत्र अपने अपयश से+7
दुर्जनों की कलह के समान उस (संवर देव) ने कहीं भी मर्यादा नहीं रखी48
मुख में लपलपाती हुई जिलासमूह कुशिष्य के मन के समान अत्यन्त चंचल हो रही थी।
दुः शील कमठ ने अपने लत्रुभ्राता की रूप में श्रेष्ठ स्त्री को इस प्रकार देखा, जैसे कोई गजेन्द्र सुन्दर हथिनी को50
44 अंजलि जलु च आउसु ढलए।
महवाधणु व्व धणु सुह अथिरु। जूवाधणु व वखणि होइ परु। संझानणरंगु व रायरुइा इंदिय सुह परु, जहिं असइमइ. कंतारइ तारायण तरला। जलहर उणाई जहिं विहि चवला। णवजोव्वणु णइपूर व वरसइ। लावण्णु वण्णु दिणि-दिणि ल्हसई। इंदियसुहु तड़ि-तरलत्तणाठा अवसाणि सरीरु ण अप्पणउ।
भारुवय जरपत्तुवसरिसु। तह रज्जु भोउ सासर ण कसु। 3/14 45 जीउ तह वि काले कलिज्जइ। हरिणहु डिंभु व सीहें णिज्जइ।13/15 46 'जह सरवरि जलु णालिहिं धाबइ। जीवप्पएसहि तिह मलु आवइ॥ 3/20 47 अलिकज्जल ताल तमाल वण्णु। दुघत्तु व मेहे गयणु छण्णु।। 418 48 दुजणकलहु व कत्थ वि ण माठ। 4:8 49 ललललिय बलिय मुहिं रसणुगणु। अइचंचलु पाइँ कुसीसमणु।। 4/11 50 अवलोइय लहुभायरहु णारि। करिणीव ऊरि र्दै रुबसारि। 63
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वह कमठ भी रौद्र ध्यान के कारण मरकर कुक्कुट नाम की सर्पयोनि में धवल वर्ण का तथा साक्षात् हालाहल के समान दृष्ट सर्प हुआ)51
सर्प ने हार्थी को कैसा देखा जैसे ध्यान में स्थित ऋषीश्वर हो 52
उसकी विजया नाम की अतिवल्लभा प्रिया थी, जो हाव-भाव एवं विभ्रमों की जलवाहिनी के समान थी531
उस (वज्र पीड़ राजा) ने एकच्छत्र मेदिनी को भोगा और फिर उसे बूढ़ी दासी के समान शीघ्र ही त्याग दिया।54
राजा रविकीर्ति कुल रूपी कुमुदों के विकास के लिए चन्द्रमा के समान था55। रूपक प्रयोग :
जहाँ उपमान और उपमेय में अभद होता है, वहीं रूपक अलङ्कार होता है।56 रइधू ने 'पासणाहचरिउ' में अनेक स्थानों पर रूपक का प्रयोग किया है। कुछ दृष्टान्त प्रस्तुत हैं
अयरवाल कुल कमल अग्रवाल कुल रूपी कमल 1/5 परियण कहरव वण-परिजनों रूपी कमलवन । भवपण - संसार रूपी समद्र। आयमत्थसायरो - आगम रूपी अर्थ के सागर तोमर कुल श्री = तोमर कुल रूपी लक्ष्मी सम्मत्तरयण - सम्यक्त्वव रूपी रन कव्वरसायणु .. काव्य रूपी रसायन महि जुबइ- पृथ्वी रूपी युवती कुल गिह सर - कुल गृह रूपी सरोवर विसयभुयंग = विषय रूपी भुजङ्ग
3/9 दुग्गइँ दुह = दुर्गति रूप दुःख
1/5
1/2
1/2
1/4
17
1/8
119
2/2
3/9
51 सो कमठु वि तावसु रुद्दशाणवसु मरिवि जाउ तहिं सप्पु खलु। .
कुकुडणामालउँ वाणे एक्लउ पयडु णाई हालाहलु।। 6/12 52 सप्पे हस्थि णिहालिड केहउ। झाणे थक्कु रिसीसरु जेहछ। 6/13 53 तहु बल्लह विजया सीमंतिणि हावभावविभमजलवाहिणि। 6/15 54 एयच्छतें मेह णितिं भुत्ती। जरदासि व पुणु सिग्घ चत्ती: 6/15 55 णियकुल कुमुववियासणचंदें। 6/22 56 सद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः।
xesesexesteresmastasi 105 ktsresthesesxeshamestey
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4/19
518
6/10
इंदियभुवंग - इन्द्रिय रूपी भुदङ्ग
4/6 जणम पयोहि - जन्म रूपी समुद्र भवतर = पव रूपी वृक्ष
5/6 भत्रवण = संसार रूपीवन भव्चकंज = 'भव्यजन रूपी कमल
5/13 तवलचित्र : तप रूपी लक्ष्मी
6/8 तवसिरि = तप रूप लक्ष्मी कुलकुमुव = कुल सभी कुमुद
6/22 जिणधम्मरसायण - जिनधर्म रूपी रसायन
6/22 कवि के उपमान सार्थक हैं, जिस प्रकार कमल सबको आवार्षित करने वाला और सर्वत्र अपनी सुगन्धि फैलाने वाला होता है, उसी प्रकार कुल पुत्र सबको आकर्षित करने गला और अपनी यश रूप सुगन्धि को सब जगह फैलाने वाला होता है। प्रद्युमा साहू ऐसे ही कुलपुत्र थे। कवि ने उन्हें अग्रवाल कुल कगन कहा है।
जिस प्रकार समुद्र से डबी हुई वस्तु का उद्धार होना बहुत कठिन है। इसी प्रकार ससार से निकलना भी बड़ा कठिन है। अत: कवि ने संसार को समुद्र कहा है।
जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, उसी प्रकार आगम भी गम्भीर होता है। ऐसे आगम के अर्थ को धारण करने वाले भट्टारक यशः कीर्ति को कवि ने आगम रूपी अथं का सागर कहा है।
जिस प्रकार लोक में रत्न श्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व भी श्रेष्ठ होता है। अत: कवि ने सम्यक्त्व को रत्न कहा है।
जिस प्रकार रसायन का सेवन करने से अपूर्व लाभ होता है, उसी प्रकार काव्य का सेवन करने से अपूर्व लाभ होता है, अतः कवि ने काव्य को रसायन कहा है। जिन धर्म भी इसी प्रकार का रसायन है।
जिस प्रकार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कोई युवती मनोहर लाती है, उसी प्रकार शस्यश्यामला पृथ्वी भी मनोहरी है अत: रइधू ने पृथ्वी की उपमा युवती से दी है। ___जिस प्रकार काला नाग यदि काट खाए तो प्राण धारण करना कठिन होता है, इसी प्रकार विषयभोग का परिणाम भी दुःखदायी होता है। अत: रइy ने विषयों को भुजङ्ग कहा है।
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प्राणी इन्द्रियों के द्वारा ही विषय सेवन करता है, जिसका कि फल दुःख रूप है। अतः इन्द्रियों को भी भुजारा कहना सार्थक है।
जिस प्रकार समुद्र को पार करना कठिन हैं, उसी प्रकार जन्म की परम्परा का पार करना भी कठिन है। अत: जन्म को समुद्र कहा है।
जिस प्रकार वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष, यह परम्परा सतत चलती रहती हैं, उसी प्रकार संसार भी वृक्ष है, जिसका फल कर्मबन्धन है।
जिस प्रकार कोई महावन में प्रवेश कर अनेक कठिनाईयों का साना करता है, उसी प्रकार संसार भी सुहावना है जिसमें अनेक प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ता है।
जिस प्रकार लक्ष्मी की प्राप्ति लोक में सुखद मानी जाती है, उसी प्रकार तपधारण भी सुखद है अतः तप को लक्ष्मी कहा गया है।
अनुप्रास प्रयोग
स्वर की विषमता होने पर जो शब्द साम्य होता है उसे अनुप्रास करते हैं। 57 अपभ्रंश भाषा की यह विशेषता है कि बिना किसी आवास के अनुप्रास का सृजन ही जाता है। इसी के अनुरूप 'पासणाहचरिउ' में पद पद पर अनुप्राम दर्शन होते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :
के
जो अरवाल-कुल- कमल भाणु
मिच्छत्त-वसण--वासण विरत्तु जिणसत्थणिगंथ पायभत्तु । उद्धरिउ उव्विहसंघभारु, आयरिउ वि सावयचरिउ - चारु । दुहियणदुहणासणु बुहकुलसासणु जिणसासणु रदधुरधरणु । जिण समयामय-रस- तित्त-चित्तु सिरिहोलिवम्मु णामे पवित्तु । अण्णाहं दिणि आयमसत्थ दत्थु सम्मत्तरयणलंकियसमत्थु । गउ जिणहरि खेउँ साहु · साहु |
रइधू पंडिय पडियविवेउ ।
ता जिण अच्चण- पसरिय-भुवेण । जंपिउ हरसिंघ संघवी सुवेण इँ सुइत्तणिपुणु बद्ध गाहू पणविवि अणुराए पासवाहु
1/7
57 अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । xxxx2525 107
1/5
1/6
XXXX35)
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यमक योग :
यदि अर्थ हो तो पृथक्-पृथक् अर्थ वाले (अन्यथा निरर्थक) स्वर-व्यन्जन समुदाय की उसी क्रम से आवृत्ति को यमक अलङ्कार कहते हैं।58 'पासणाहचरिउ' में भी यमक का प्रयोग हुआ है उदाहरणार्थ
सिद्धस्थभाव भावियमणेग 117-- मनोरथ सिद्धि की भावना से भक्ति मत से यहाँ भाव भाव की आवृत्ति हुई है। पहला भात्र सार्थक और दूसरा भावित का अङ्ग होने से निरर्थक है।
बालत्तणि असइँ अभक्खु, भक्खु 1/8 यहाँ भक्खु की पुनरावृत्ति हुई है। अंतिम भक्खु सार्थक और पहला निरर्थक
जहिं गहवइ-सुय-सुयगणु वारइ ।। 1/9 यहाँ पहले सुय का अर्थ पुत्री (सता) और दूसरे सुय (शुक्र) का अर्थ तोता
उपर्युक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त कवि ने स्वभावोक्ति, अर्थान्तरन्यास काव्यलिङ्ग, समासोक्ति एवं अतिशयोक्ति के प्रयोग विशेष रूप से किए हैं। रस योजना : __ 'पासणाहचरिउ' का अङ्गीरस शान्त है, पर श्रृङ्गार, वीर और रौद्र तथा वीभत्स रसों का भी सम्यक् परिपाक हुआ है। वीर रस के उदाहरण रूप . कालयवन नरेन्द्र एवं राजा अर्ककीर्ति के युद्ध को लिया जा सकता है :
आयड्डियाइँ खम्गइँ सुतिक्ख णं जमेण जीह दसिय पथक्ख । वरपहरणु लेइ ण कोवि धीरु मण्णेप्पिणु गरुवउ मारु वीरु । चंडासिहिँ खंडिय गयहँ जूह खंडति परोप्परु सबल जूह । कासु वि गउ कासु वितुरउ भिण्णु केणावि कासु तुहु सीसु छिपणु । केहि मि पाडिय मयमतदंति अंजण महिहरसम जाह कति । केण वि सहु सुहडें वरतुरंगु खंडिउ णं चल-सायर तरंगु । ससिणह खंडिय वरपुंडरीय णं रणमहि फुलिय पुंडरीय । केयावलि खंडिय फरहरति असईव वसा भूमिहि सहति ।
58 सत्यर्थे पृथगार्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतिः।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते।।
psysxsxsxsxsidesesxesi 108 dsesxesexestosteres,
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पक्कल पाइक्क मुयंति हक्क विणिण वि बल जोह मुर्यति थक्क । जुझंत, विण्णि वि साहणाई दलु चलिउ ताम तहि अरियणाहैं । 317
अत्यन्त तीक्षण तलवारें खींच ली गयीं, मानों यमराज प्रत्यक्ष ही जीभ दिखा रहा हो। वीर पार्श्वजिनेन्द्र को भयानक काल के समान मानकर कोई भी योद्धा शरण धारण नहीं कर पाया । प्रधाड़ों के हार, मयूथ अभिड़ा कर दिए गए। (दोनों और के) बलशाली योद्धा परम्पर में एक दूसरे को खण्डित करने लगे। किसी का हाथी, तो किसी का घोड़ा विदीर्ण हो गया। किसी के द्वारा किसी का शीर्ष ही छिन्न-भिन्न हो गया। किन्हीं ने अञ्जन पर्वत के समान कान्ति वाले मदोन्मत्त हाथी को मार गिराया तो किसी ने सागर की चञ्चल तरङ्ग के समान धोड़े को सुभट सहित मार गिराया। चन्द्रनन नामक शस्त्र के द्वारा उत्तम धवल वर्ण के छत्र काट दिये गये। उससे ऐसा लगने लगा, मानो रणभूमि में कमल ही खिल उठे हों। फहराती हुई ध्वजायें काट दी गईं। उससे ऐसा प्रतीत होता था। (मानो) पृथ्वी पर असतियों के वस्त्र ही पड़े हों। समर्थ पदातिगण आह्वान करते थे (और) दोनों ओर की सेनाओं के योद्धागण थक कर मरते थे। दोनों ओर की सेनाओं के युद्ध करते-करते शत्रुओं का दल भाग गया।
नरक की विविध वेदनाओं के वर्णन के प्रसङ्ग में वीभत्स रस का परिपाक हुआ है :
अण्णोण्ण वि णिहर्णति परोप्परु सुहु ण लहंति तत्थ णिमिसंतरु 1 संडासहिँ उब्बेबि वि दुहगुहिँ गालिवि लोहु खिवहि णारइ मुहिँ । गलिवि जाइ पुणु मिलइ खणंतरि जिम सूयय लव होहि णिरंतरि । णारयविंदहिँ पुणु संदाणिउँ खेत्तविसें वइरु विणायउं । धगधगंतु इंगालसमाणउँ आयस थंभालिंगण ठाणउं । देवाविवि पुणु जंपहि रे खल परतियआलिंगिय पइँ चिरु छल । अणेक वि स मलितरु लाइविा तणु णिहसंति सीसुतणु साहिवि । तच्छाउ वि जइ कहमदि छुट्टइ। तिब्ब तिसाइउ सोणिउ घुट्टइ । पुणु घणघाएँ सिरि ताड़िजइ तत्त कडाहि तेल्लि सो खिज्जइ।। कुंभी पाय समुभव दुक्खइँ पुणु फरसग्गिणिदाह असुक्खई। 5/19
नारकी परस्पर में एक दूसरे का हनन करते हैं और वहाँ निमिष भर के लिए भी उन्हें सुख प्राप्त नहीं होता। संडासी से नारकियों के मुँह फाड़कर उनमें PESASRestushasReseses 109 KMSResesxesexesterest
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'लोहा गलाकर भर देते हैं, उनसे शरीर गल जाता है, किन्तु फिर क्षणमात्र में उसी प्रकार मिल जाता है, जिस प्रकार पारे के बिन्दु निरन्तर संघटित हो जाते हैं। क्षेत्र की विशेषता के कारण ई * को ज. नाक उदों के द्वारा उनका दमन किया जाता है उनको धगधगाते हुए अङ्गारों के समान लोह स्तम्भों का आलिङ्गन कराकर वे कहते हैं कि- रे दुष्ट. तूने पूर्वकाल में छल से परस्त्री का आलिंगन किया था। अन्य दूसरे शामलि वृक्ष लाकर तृण अथवा वृक्ष डालियों के समान शरीर एवं सिर तहस-नहस कर डालते है। यदि वहाँ से वह किसी प्रकार छूट भी जाता है तो वह तीव्र प्यास से घुटने लगता है। फिर उनके सिर पर हथौड़ों के प्रहार से आघात करते है और उन्हें तस तेल के कड़ाहों में डाल देते हैं। वहाँ उन्हें कुम्भीचाक में पकाए जाने के समान जलन के दुख होते हैं और फिर स्पशनि दाह के।
मद्यपान करने वाले व्यक्ति को कारणिक अवस्था का चित्रण करते हुए महाकवि रइधू कहते हैं :
मजपाणेण मत्ती भर्म तो जरो लजणिमुक्क कोरइ अकजंतरो। णारिंगल बाहँ घल्लेवि बोल्लावाए माय बहिणी ति जपेह जं भावए । भज पेच्छेवि वंदेइ माए ति सा घुम्ममाणो चलंतो वलंतो रसा : मग मझम्मि लोट्टेइ उत्ताणउ को वि ढुक्केइ आसणगुणो माणउ । मुत्तए साणु वत्तम्मि रंधे तुरं मण्ण्णए तं पि सोवण्ण रस णिब्भरं । देहि देही ति जपेई मज्ज इम मित्त कल्पण पीऊसपाणोवमं । सीसु सव्वाहै पावेइ जपंतर गायमाणो चि हिंडेइ कपंत। 5/10
मद्यपान से उन्मत व्यक्ति भटकता फिरता है। लज्जा छोड़कर वह नीच कार्य करने लगता है। स्त्री के गले में बाँहं डालकर उसे बुलाता है और माता अथवा बहिन (आदि) जो मन में आता है। वही कहकर पुकारता है और भोगता है। भार्या को देखकर "मां" इस प्रकार कहकर (उसे) प्रणाम करता है। सुरा रसपान के कारण चक्कर काटता हुआ लड़खड़ाकर चलता एवं बल खाता हुआ वह मार्ग के मध्य में ऊपर मुख किए हुए लेट जाता है। कोई भी सम्मान के साथ उसके पास नहीं दूंवत्तः। श्वान उसके मुँह में शीघ्र ही पेशाब कर देता है, किन्तु वह उसको भी श्रेष्ठ सुवर्णरस समझ होता है और हे मित्र! कल्याणकारी अमृतपान के समान यह मदिरा (मुझे) और दो, और दो, इस प्रकार कहता है।
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(आगल) बोलता हुआ वह सभी के लिए अपना माथा झुकाता है एवं यदा कदा गाता हुआ भी लड़खड़ाता हुआ घूमता फिरता है।
कमठ द्वारा भयङ्कर जल वर्षा के प्रसङ्ग में भयानक रस की सृष्टि की गयी है.
लड़यडइ-तड़क्कड़ असणिचंड गज्जइ घडहडइ चलेड भंड। भहरकुलाइ किय खंड खंड गयज्जिय भजिय रडियसंड । अलिकजल-ताल-तमाल वण्णु दुप्पुत्तु व मेहँ गयणु छण्णु । मयउल भय तट्ठ पगढ़ खिण्ण जलधारहिं पक्खिहिँ पक्ख छिपण । सरि -सरु दरि महियलु थलु असेसु पूरिउजलेण अणु गिरवसेसु । तहि मग्गा मग्गुण मुणइ कोइ ||
4/8. आकाश में प्रचण्ड वज्र तड़तड़ाने, गरजने, घड़बड़ाने और दर्पपूर्वक चलने लगा। तड़क-भड़क करते हुए उसने सभी पर्वत समूहों को खण्ड-खण्ड कर डाला। हाथियों को गुर्राहट से मदोन्मत्त साँड़ चीत्कार कर भागने लगे। आकाश भ्रमर, काजल, ताल और तमालवणं के मेघों से उसी प्रकार आच्छादित हो गया, जिस प्रकार कुपुत्र अपने अपयश से। मृगकुल भय से त्रस्त होकर भाग पड़े और दु:खी हो गए। जलधाराओं से पक्षियों के पंख छिन्न-भिन्न हो गए। नदी, सरोवर, गुफायें, पृथ्वीमण्डस एवं वनप्रान्त सभी जल से प्रपूरित हो गए। वहाँ मागं एवं कुमार्ग का किसी को ज्ञान नहीं रहा।
कवि ने रौद्र रस का सुन्दर निरूपण किया है। राजा अरविन्द कमठ के दुराचार से खिन्न होकर क्रोधातुर हो जाता है और उसे नाना प्रकार के दुर्वचनों से तिरस्कृत करता है
अणिो ण इट्ठो पुरे एह धिट्ठो पमुत्तो खलो पाक्यम्मो णिकिट्ठो । तुमं लज्जयारो कुलायार भट्ठो पुराउ सुणिस्सारयामीति भट्ठो! 6/4
नगर में इस अनिष्टकारी, धृष्ट, प्रमत्त, दुष्ट, पापकर्मी एवं निकृष्ट कमठ का होना इष्ट नहीं हैं। वह तुम्हारे लिए लज्जाकारी एवं कुलाचार से भ्रष्ट है, उस भ्रष्ट को मैं नगर से निकलता हूँ।
सौन्दर्य का चित्रण करते समय कवि की श्रृंगारिक भावना की अभिव्यक्ति होती हैं। राजा अश्वसेन को पटरानी वामादेवी के सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ कवि कहता है : PMSASAMSKSXxxaslustess) 11165sesrusassastestry
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तहु तिय वम्मएवि सुवल्लह रयणणिही विव सव्वहैं दुलह । पाणि-पाय-तल-रत्त-सुहंकर रणरणति णेउर णं किंकर । णिव-मंति व गुंफहि गुंफत्तणु जंघजुवलु णं खल मित्तत्तणु । पिहुल-णियंचं वि कडियलु झीणउ णं सिहिणहु भरेण हुठ खीणउ । भुयजुयमाणं मालसमाणउँ णं जिणवर-पय अंचणठाणउं । मुहमंडलु ससि मंडल तुला जणु जोवइ पुणु पुणुमणि भुल्लउ । सीस चिहुर कुसमहँ भरसोहिय गंध लुद्ध छप्पय संमोहिय || 1/10
उस (राजा अश्वसेन) की रत्ननिधि के समान सभी को दुर्लभ एवं अत्यन्त प्रिय वामादेवी नामकी पट्टरानी थी, जिसकी हथेलियाँ और चरणतल रक्तवर्ण वाले और सुखकारी थे, मानों (वे उसके) आज्ञापालक किंकर ही हों। उसकी गुल्फों की गूढ़ता नृप के मंत्री के समान गूढ़ थीं, उसकी दोनों जाधे खल की मैत्री के समान संम्पृक्त थीं. नितम्बविशाल एवं कटिभाग क्षीण था, मानो जिनवर के चरणों के पूजा को स्थान ही हों। उसका मुखमण्डल चन्द्रमण्डल के समान था, जिसे लोग बार-बार इस प्रकार देखते थे, मानो भूली हुई (किसी) मणि को खोज रहे हों। कुसुमों के भार से शोभित उसका केशपाश गन्ध के लोभी मौरों को मोहित कर रहा था।
जहा न दुःख रहता है न सुख, न ढेष और न राग, समस्त जीवों में समभाव वालावह शान्त रस माना गया है। शान्तरस का रसराजत्व इसलिए सिद्ध है कि मानव जीवन की समस्त कृतियों का उद्गम शान्ति से ही होता है शान्ति का अनन्त भण्डार आत्मा है। जब आत्मा देह आदि परपदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगती है, तभी शान्तरस की उत्पत्ति होती है। यह वह विशुद्ध ज्ञान और आत्मानन्द की दशा है, जहाँ काव्यानन्द और ब्रह्मानन्द दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जैन कवियों की काव्य रचना का उद्देश्य मनुष्यमात्र में वैराग्य उत्पन्न कर चमोत्कृष्ट सुख-शान्ति की ओर ले जाना रहा है, जिनमें वे सफल हुए हैं60 महाकवि रइधू के 'पासणाहचरिउ' में निवेद भावों को जागृत करने वाले कई स्थल मिलते हैं, जहाँ शान्त रस का प्रभावी परिपाक बन पड़ा है:
59 यत्र न सुर्खन दु:खं द्वेषो नापि मत्सरः।
सम:सर्वभूतेषु स शान्तः प्रथितो रसः। भरतमुनि 60 जैन विद्या (खण्ड-2) डॉ. प्रेमचन्द रावका का लेख पृ.66
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पुग्गलसहाउ पूरइ गलए अंजलिजलु व्व आउसु ढलए । महवाधणु व्व धणु सुहु अधिरु जूवाघणु व्व खणि होइ परु । संझाधणरंगु व रायरुइ इंदियसुहु परु जहिं असइमइ । कंतारइ तारायण नाला मलहरलगाई जति मिहिला । णवजोव्वणु णइपूरु व वरसइ लावण्णु वण्णु दिणि दिणि ल्हसइ । इंदिय सुणु तडि-तरलत्तणउ अवसाणि सरोरु ण अप्पणउ । भारुवहय-जरपत्तुव-सरिसु तह रज्जु-भोउ सासउ ण कसु। 3/14
पुद्गल का स्वभाव है कि वह बढ़ता और घटता रहता है। आयु अंजलि के जल के समान ढलती जाती है। धन एवं सुख इन्द्रधनुष के समान अस्थिर हैं। अथवा वे जुए के धन के समान क्षण भर में दूसरे के हो जाते हैं। सन्ध्याकालीन बादलों के रंग के समान राग एवं रुचियाँ भी क्षणिक हैं जहाँ कि इन्द्रियसुख व्यभिचारिणियों के समान दूसरे का हो जाता है। स्त्री भोग तारागण के समान सरल हैं और जहाँ भाग्य जलधर के समान चंचल हैं। नवयौवन (बरसाती) नदी के पूर के समान क्षीण हो जाने वाला है। सौन्दर्य और वर्ण प्रतिदिन हीयमान हैं। इन्द्रियसुख बिजली के समान चंचल हैं। अवसान के समय शरीर भी अपना नहीं रहता। राज्यभोग भारोपहत जीर्णपत्र के समान किसी के लिए शाश्वत नहीं होता! पासणाहचरिउ की छन्द-योजना : ___ पासणाहचरिउ में अधिकांश पद्धडिया छन्द का प्रयोग किया गया है। पद्धडिया छन्द के अतिरिक्त इसमें घत्ता, अडिल्ल, द्विपदी, रड्डा, भुजङ्ग प्रयात चन्द्रानन, सर्गिणी तथा संसग्गि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पद्धडिया (पउझडिया):
प्रत्येक चरण के अन्त में जगण की रचना कर चार स्थान पर चतुमात्रिक गण की रचना करो, इस पञ्झटिका छन्द में चारों चरण समान होते हैं तथा 64 मात्रा होती हैं। (इसे सुनकर) चन्द्रमा प्रस्रवित होता है।61 जैसे
पुणु रिसहणाहु पणाविवि जिणिदु भवतम णिपणासणि जो दिणिंदु । सिरि अजिउ वि दोस कसाय हारि संभउ वि जयत्तय सोखकारि ॥
पासणाहूचरिठ 1/1
61 चठमा करह गपा चारि ठाइँ, ठवि अन्त पओहर पाई पाई।
चठसट्ठि मत्त पज्झरइ इंदु,
समा धारि पाअ पझडिय छंदु॥ प्राकृत पेंगलम् 1.125 KesKaisrustusxisisters 113MSUSTASTESXASIXSEXSI
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प्रत्येक चरण में सोलह मात्रा हों, दोनों स्थानों पर चरणों में यमक हो। इसमें कहीं जगण ( पयोधर) का प्रयोग न किया जाये। चरण के अन्त में सुप्रिय दो लघु द्विमात्रिक हों। इसे अडिल्ला छन्द कहते हैं;32 जैसे..
आयण थिरु मणु धारेपिणु । संकप्यु वियप्यु (वि) छंडेष्यिणु || जिउ सेणियहु गणे0 भासिर । मण संदेह सल्लु णिण्णासिङ ।।
पासणाहचरिठ 1/9 पत्ता :
इसमें बासठ मात्रायें होती हैं। पिंगल कवि ने इसे उत्कृष्ट कहा है। दोनों चरणों में चतुमात्रिक सात गण तथा अन्त में तीन-तीन लघु रखना चाहिए 63 जैसे
इय साहुहु क्यणे वियसिय वयण पंडिएण हरिसेप्पिणु ।
तें कन्वरसायणु, सुहसयदायणु पारद्धठ मणु देपिणु || पासणाहचरिड 18 द्विपदी :
प्रथम चरण के आरम्भ में जहाँ इन्द्र (षट्कलगण) हो, उसके बाद दो धनुर्धर (चतुष्कल) हो तथा फिर दो पदाति (चतुष्कल) स्थापित करो, अन्त में मधुकर चरण (षटकल) दो। इसे द्विपदी कहते हैं।64 मुख में (सर्वप्रथम) घटकल की स्थापना कर पाँच चतुष्कलों की स्थापना करो। अन्त में एक गुरु देकर उसे द्विपदी कहना चाहिए।65 जैसे
भो धणय जक्ख अवहारि दक्खा इह भरहवासि कासीणिवासि । वाणारसीहिँ जण मण हरीहिँ अससेण गेहि णं सरय. मेहि
62 सोलह मत्ता पाउ अडिलह वेवि जमक्का भेउ अलिहा
हो ण पओहर किं पि अडिल्लह, अन्त सुपिअ भग छंदुःअडिएका प्राकृत पेंगलम् 1:127 63 पिंगल कह दिदउछंद उक्रिट्ठ पत्त मत्तवासति करि।
___ च३ मत सत्त गण दि पाअ तिगिण तिगि लहु अंत धरि। वही 199 64 आइग इंदु जत्थ हो पढमहि जिज्जइ तिणि धणह।
तह पाइकजुअल परिसंठवहु विविचिन सुन्दर।। 1/152 ।। प्राकृत पेंगलम 65 छक्कल मुह संवावि कइ चलु पंच ठवेहु।
अंतहि एकह हार दइ दोअइ छंद कहेहु।। प्राकृत मंगलम् 1/754
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-पास.2/11
सिरिपासणाहु होहीइ वाहुतहिँ जाहि सिग्घ सोहामहंग्य करि अप्पसत्ति जिणणाहभत्तिा अरु मणिणिहाउ वरसहि सराउ तहु सुणिवि वाय पणवेवि पाय। सहि घणउ आउ पडियसहाउ किय णयरसोह जण-मण-णिरोह। पुणु वरसुवण्णु वरसेइ धण्णु सुहि सयण विंद पूरिय अणिंद। णउ दव्वहींय तहँ के वि हीण गउ रोय-दुक्खु णठ पुणु दुभिक्छ। धगकंचणड्ढ सव्व जि वियड्ढ ।
इह अट्ठमत्त दुवई पउत्त । भुजंगप्रयात : ___ जहाँ ध्वज (आदि लघु विकल, 15) तथा चामर, (गुरु), इस प्रकार चार गण, प्रत्येक चरण में स्थापित किए जाय (अर्थात् जहाँ चार यगण 155 हों), पिंगल ने इसे समस्त छन्दों का सार कहा है तथा यह वैसे ही गले में स्थापित किया जाता है, जैसे- हार इस शुद्ध देह वाले छंद को भुजंगप्रयात कहा जाता है। इसके प्रत्येक चरण में 20 मात्रा होती हैं.66
भुजंगप्रयात 155 155 155 155-12 वर्ण, 20 मात्रा
(भुजंगप्रयात छंद में) चार अहिगण (यगण) प्रसिद्ध हैं, (इस छन्द के) सोलह चरणों में ( अर्थात् चार छन्दों में मिलाकर) सब कुल बीस अधिक तीन सौ (तीन सौ बीस) मात्रायें होती हैं। ऐसा पिंगल कहते हैं। जैसे -
तया पुस जुत्तं पउत्तं पवित्तं पणासंति विग्घ्र तुमं णाम मित्तं । परं कारणं अज्ज बालत्तभावो सईणाह चित्तस्स मंदिण्ण रावो । ण दिट्ठो सि संगाम रंगो भयंगो कयंतुन्च पाक्यारु दूसियंगो । ण पेसेमि ते कारणेणं तुम भो पमाणेहि इत्थच्छड भोगलंभो । सुणेऊण रायस्स वाया जिणेदो पयंपेइ संसारवल्लीगंइदो । अहो ताय बालाणलो किं ण रण्णं डहेऊण संकीरए भप्फवणं | मइंदस्स डिभो गइंदाहँ बिदं ण किं भंजए रणि पत्तं मइंधं ।
66 घओ धामरो रुअओ सेस सारो.
हाए कंठए मुद्धए जत्थ हारो। चउच्छंद किज्जे तहा सुखदेहं, भुजंगाप पर बीस रहे। प्राकृत पैंगलम् 2/124 अहिंगण चारं प्रसिद्धा सोलह चरणेण पिंगलो भणइ।
तीणि सयावा बीसग्गल मत्तासंखय समग्गाड़।। वहीं 2:125 Fastestastesesystesxesxesi 115 Xsesxesastushasresiress
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तहाहं पि गंतूण पेच्छेमि जुद्धं विभंजेमि सत्तु जसासाहि लुझे। पभणेवि सो राउ पुत्तस्स उत्तंइतिणा तं पयंपेइ भिग्ण गत्नं । रवेकिनिमामस्स:अक्खंडरनं करेऊण आवेहु भो पुत्त सज्जं । जिणेऊण कालज्जओ माणसत्तो भुयंगप्पयावो ठवेवीह मत्तो ।
(पासणाहचरिउ 3/5) सुमौक्तिकदाम :
जहाँ चार पयोधर (जगण) प्रसिद्ध हों, (प्रत्येक चरण में) तीन और तेरह (अर्थात 3 + 13 = 16) मात्रा हों वह काम) या सुमकिनद. है। यहाँ आदि में या अन्त में हार (गुरु) नहीं दिया जाता। यहाँ (सोलह चरणों में) दो सौ अधिक छप्पन (200 + 56 = 256) मात्रा होती हैं 67 जैसे
णिरंतर दिति जहाच्छ्यभोय, जि दुलह चुच्चहि एत्थ जि लोइ। गया छाइयास जि एण विहीए, पुणोणहिँ वासरि जाय दिहीए ।
पासणाहचरिउ 212 पासणाहचरिठ में रइडा68 नामक पद्धडी छंद, सर्गिणी,59 संसग्गि70 और चन्द्राननः छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। अति प्राकृत तत्व की भूमिका : .
रइधु के पासणाहचरिउ' में अतिप्राकृत तत्व का सुन्दर सन्निवेश हुआ है। तीर्थकर के गर्भ में आने के कारण इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। उसने अपने ज्ञान बल से वामा के गर्भ में तीर्थंकर को आया जानकर देवाङ्गनाओं को भेजा। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने मन को आकृष्ट करने वाली वाराणसी नगर की शोभा की। फिर उसने श्रेष्ठ स्वर्ग और धन की वर्षा की। इन्द्र के विशेष आदेश से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति आदि प्रमुख देवियाँ यहाँ आगीं, जहाँ जिनवर की जननी
67 पओहर चारि पसिह ताम,
सि तेरह मत्तह मोसिअदाम! ण पुचहि हार म दिजइ अंत,
बिह सअ अग्गल छामण मत्ता। प्राकृत पेंगलम् 2/133 68 पासणाहचरिउ 2:3 69 वहीं 4.7 70 वही 5/10 71 वहीं 3/8
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सुखपूर्वक निवास करती थी|72 देवियों में से कोई तो वामा देवी का सुन्दरसुन्दर पदार्थों से उबटन करती थीं, कोई कोई क्षीरसागर जाती थी और वहाँ से विशुद्ध जल लाकर उसे स्नान कराती थीं। कोई-कोई सुन्दर निर्मल वस्त्र प्रदान करती थीं तो कोई प्रशस्त आभरण पहनाती थीं। कोई सिर के केशपाशों को मालती पुष्प की माला से सँवारती थी। कोई-कोई कपोलों पर सुन्दर चित्र लिखती थी तो कोई सुन्दर गीतों से उसका चित्त मोहित करती थी। कोई अपने हाथ से दर्पण दिखाती थी तो कोई पार्श्व में स्थित होकर सन्दर चंवरहराती थी। कोई अमृत-रसायन से युक्त भोजन समर्पित करती थी तो कोई नित्य नए आश्चर्य प्रकट करती थी। वे निरन्तर ऐसे भोग प्रदान करती थीं, जिन्हें इस लोक में दुर्लभ कहा जाता है। इस विधि से छ: म्गह व्यतीत हो गए।73
जब पार्श्व प्रभु का जन्म हुआ इन्द्रादि देवों ने नाना प्रकार के उत्सव मनाए। इन्द्र के ऐरावत हाथी के प्रत्येक मुख में सुशोभित दन्तमुसल था। प्रत्येक दाँत पर एक-एक सरोवर था। प्रत्येक सरोवर में नौकायें चल रही थीं। प्रत्येक सरोवर में पच्चीस-पच्चीस कमल थे। एक-एक कमल पर सवा..सवा सौ श्रीगृह थे। श्रेष्ठ कान्तिपूर्ण एवं विकामिन एक-एक काल में 138 पत्ते । म त्ते पर अप्सरायें नृत्य कर रही थीं। उन पत्तों पर चढ़कर इन्द्र भी गमन कर रहा था।4
शचि प्रसूति गृह में आकर माँ के पास एक मायामय बालक रखकर परमेश्वर को उठाकर चल पड़ी। शचि ने वह बालक इन्द्र को अर्पित किया। ईशान इन्द्र ने बालक पर छत्र तान दिया। पाण्डक शिला पर ले जाकर देवों ने अभिषेक कार्य सम्पन्न किया।76
सुरगणों की पंक्तियों ने क्षीरोदधि के सागरकूट की ओर प्रयाण किया। वहाँ विक्रियाऋद्धि करके देवगण आकाश मार्ग में स्थित होकर अभिषेक घटों को एक दूसरे को अर्पित करने लगे। देवगण मल को नष्ट करने वाले उन घड़ों को हाथों हाथ लेकर इन्द्र के हाथों में दे रहे थे और इन्द्र पुनः मन्त्र के पवित्र उत्तमरत्नों के समान दैदीप्यमान उन कुम्भों को जिननाथ के शीर्ष पर ढाल रहा
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72 पासणाहचरिउ 2/1 73 वही 2/2 74 वही 216 75 वही 27 76 वहीं 2:12 askesixsiashastasixsss 117 RASHISesTesrusastess
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था। इन्द्र ने दीर्घबाहुनाथ का मर्दन किया और इन्द्राणी ने उबटना7, पुनः शुद्धोदक से स्नान कराकर उन लोगों ने गन्धोदक की वन्दना की। श्रेष्ठ वस्त्र से शरीर पोंछा एवम् मेरु के समान धीर भगवान को दूसरे आर न पर स्थापित किया। पुनः इन्द्र ने अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा की|79 ___इन्द्र ने जिनेन्द्र को कुण्डलयुगल से मण्डित किया। बहुमूल्य रत्नमुकुट एवं देवदूष्य तथा प्रशस्त स्वर्ण निर्मित तथा मणिजटित केयूर, कड़े, कटिसूत्र , श्रृंखला, हार एवं सिर पर तीन विशाल छत्र धारण किए। श्री पार्श्वनाथ' नाम रखकर वह वाराणसी की ओर चला। भगवान को इन्द्राणी ने माता को सौंपा। अश्वसेन के लिए इन्द्र ने दैदीप्यमान रत्नाभूषण एवं पवित्र वस्त्र प्रदान किये 80
जब भगवान को वैराग्य हुआ तब पञ्चम स्वर्ग में निवास करने वाले देवेन्द्र वाराणसी आए और भगवान की स्तुति की, तीर्थों के जल से उनका अभिषेक किया और वस्त्राभूषणों से अलंकृत किया। शक्र ने मणियों से जटित एवं सुवर्ण निर्मित एक यान निर्मित किया। उस पर चढ़कर 'पार्श्व' अहिच्छानगर गए और वन में पहुँचकर दीक्षा ली।82 उन्होंने अपने मस्तक के केशों का लुंचन किया। जिन्हें इन्द्र ने क्षीरसागर में विसर्जित कर दिया।
जब पार्श्वनाथ तप कर रहेथे तो कमठ नामक एक देश जो अपनी भार्या सहित आकाशमार्ग से जा रहा था, अचानक विमान रुकने पर वहाँ आया और विमान के रुकने का कारण पार्थ को ही समझकर उन पर भयंकर उपसर्ग प्रारम्भ कर दिया। उसी समय असुरेश्वर का आसन कम्पायमान हुआ। जब उसे पार्श्वप्रभु पर उपस्थित उपसर्ग का ज्ञान हुआ तो उसके निवारण के लिए वह वहाँ आया और कमलासन की रचना कर उस पर पार्श्वप्रभु को विराजमान कर दिया। पदमावती ने उनके सिर पर छत्र तान दिया। पावप्रभु अपनी तपस्या से च्युत नहीं हुए। उन्हें कैवल्य की उपलब्धि हो गयी 83
77 पासणाहचरित 2:12 78 वहीं 2:12 79 सहो 2:13 80 वहीं 2/14 8] वहीं 326 82 वही 1 83 वही चौथी सन्धि
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इन्द्र केवलज्ञान महोत्सव मनाने आया।84 इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने सभाङ्गण (समवशरण) की रचना की। जब भगवान का
विमान भी इसपने परिकर सहित निर्वाणस्थल पर आया और उसने विक्रियाऋद्धि से मायामय शरीर बनाकर उसे सिंहासन पर विराजमान कर आष्ट प्रकार से पूजा की और नाना प्रकारके काष्ठों से चिता तैयार कर उस मायामयी शरीर को उस पर रखकर चिता प्रज्ज्वलित को
भस्म को क्षीरसागर में बहाकर वह वापिस स्वर्ग चला गया। इस प्रकार 'पासणाहचरिङ' में अतिप्राकृत तत्त्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।
84 पासणाहचरिंउ 4/14
5 बही 714 36 वहीं 715
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चतुर्थ परिच्छेद पासणाहचरिउ : एक महाकाव्य
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महाकाव्य की सबसे अधिक स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा 15 वीं शताब्दी में 'विश्वनाथ' ने अपने ग्रन्थ 'साहित्य दर्पण' में दी है। तदनुसार पद्यबन्ध के प्रकारों में जो सर्ग-बन्धात्मक काव्य प्रकार है, वह महाकाव्य कहलाता है। (चरितवर्णन की दृष्टि से) इस सर्गबन्धरूप महाकाव्य में एक ही नायक का चरित चित्रित किया जाता है। यह नायक कोई देव विशेष या प्रख्यातवंश का राजा होता है। यह धीरोदात्त नायक के गुणों से युक्त होता है।
सर्गबद्धो महाकाव्यं तत्रैको नायक : सुरः । सवंश; क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः ।। एकवंशभवा भूपा: कुलजा बहवोऽपि वा । श्रृंगारकीरशान्तानामेकोऽङ्गीरस इष्यते ।। अङ्गाःन सर्वेऽपि रसाः सवें नाटकसन्धयः । इतिहासोद्भवं वनमन्या सज्जनाश्रयम् । चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युस्तेष्वेकं च फलं भवेत् ।। आदौ नमस्क्रियाशीवां वस्तुनिर्देश एव वा । क्वचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुण कीर्तनम् ।। एकवृत्तमय : पद्यैर अवसानेऽऽन्य वृत्तके: । नातिस्वल्पा नातिदीघां सर्गा अष्टाधिका ६ ।। नानावृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन दृश्यते । सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत् ।। सन्ध्यासूर्वेन्दुरजनी प्रदोषध्वान्त वाससः । प्रातमध्याह्न मृगयाशैलतुवनसागरा: ॥ संभोगविप्रलम्भां च मुनिस्वर्गपुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्र पुत्रोदयादयः ।। वर्णनीया यथाभोगं साङ्गोपाङ्गा अमी इह । कवेत्तस्य वा नाना नायकस्येतरस्य वा ॥ तामास्य सर्गोपादेव कथया मर्गनाम तु । सान्ध्यङ्गानि यथालाभमत्र विधेयानि || अवसासोऽन्यवृत्तकैः इति बहुवचनमविवक्षितम् । साङ्गोपाङ्गा इति अलकेलिपधुपानादयः ॥
विश्वनाथ; साहित्यदर्पण 315-32
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किसी-किसी महाकाव्य में एक राजवंश में उत्पन्न अनेक कुलीन राजाओं की भी चरित्र चर्चा दिखाई देती है। ( रसाभिव्यंजन की दृष्टि से ) श्रृंगार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस प्रधान होता है। इन तीनों रसों में से जो रस भी प्रधान रखा जाय, उसकी अपेक्षा अन्य सभी रस अप्रधान रूप से अभिव्यक्त किए जा सकते हैं। ( संस्थान रचना की दृष्टि से) नाटक की सभी सन्धियाँ महाकाव्य में आवश्यक मानी गई हैं। ( इतिवृत्त योजना की दृष्टि से ) कोई भी ऐतिहासिक अथवा किसी महापुरुष के जीवन से सम्बद्ध कोई लोकप्रियवृत्त यहाँ वर्णित होता है। (उपयोगिता की दृष्टि से ) महाकाव्य में धर्म, अर्थ, और मोक्षरूप पुरुषार्थ चतुष्टय का काव्यात्मक निरूपण होता है, किन्तु उत्कृष्ट फल के रूप में किसी एक का ही सर्वतोभद्र निबन्ध युक्तियुक्त माना जाता है। महाकाव्य का आरम्भ मङ्गलात्मक होता है। यह मङ्गल नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक या वस्तुनिर्देशात्मक होता है। किसी-किसी महाकाव्य में खलनिन्दा और सज्जनप्रशंसा भी उपनिबद्ध होती है। इसमें न बहुत छोटे और न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द होता है, किन्तु सर्ग का अन्तिम पद्य भिन्न छन्द का होता है। कहीं कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं। सर्व के अन्त में अगली कथा को सूचना होनी चाहिए। इसमें सन्ध्या, सूर्य, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार दिन प्रात:काल मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संयोग, वियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, विवाह, यात्रा, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासम्भव साङ्गोपाङ्ग वर्णन होना चाहिए। इसका नाम कवि के नाम से या चरित्र के नाम से अथवा चरित्रनायक के नाम से होना चाहिए। सर्ग का नाम वर्णनीय कथा के आधार पर लिखा जाता है। संधि के अङ्ग यहाँ यथासम्भव रखने चाहिए। जलक्रीड़ा, मधुपानादि साङ्गोपाङ्ग होना चाहिए।
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महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षण न्यूनाधिक रूप में पासणाहचरिउ में घटित होते हैं। इसे सन्धियों में विभक्त किया गया है। सन्धि को ही सर्व का पर्याय मानना चाहिए। सन्धियों का विभाजन कडवकों में किया गया है तथा कडवक का कलेवर पंक्तियों से बना है। प्रत्येक सन्धि का नाम वर्णनीय विषय के आधार पर रखा गया है। काव्य के प्रारम्भ में कवि ने चौबीस तीर्थंकरों, सरस्वती एवं गौतम गणधर की स्तुति कर भट्टारक सहस्रकीर्ति, यश: कीर्ति एवं श्री खेमचन्द साहू का स्मरण किया है। इसके बाद कवि ने गोपाचल
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नगर का वर्णन कर गोपाचल नरेश तोमरवंशी राजा दूंगरसिंह एवं उनकी वंश परम्परा का परिचय दिया है। अनन्तर कवि रइधू के आश्रयदाता साहू खेम सिंह अग्रवाल का परिचय है। खेऊ साहू द्वारा ग्रन्थ के भार को धारण कर लेने की प्रतिज्ञा के अनन्तर काव्य को प्रारम्भ किया गया है। काव्य का प्रारम्भ तीर्थकर पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए कथानक का भी निर्देश (आहासमितहु चरिउ) कर दिया है, अत: वस्तु निर्देशात्मक मंगलाचरण भी
___ ग्रन्थ की प्रामाणिकता हेतु रइधू कहते हैं कि जिस प्रकार गणधर ने मन के सन्देह रूपी शल्य को दूर करने वाला यह चरित श्रेणिक को सुनाया था, उसी प्रकार में भी अपनी शक्ति के अनुसार पापनाशक इस ( पार्श्व चरित) को कहता हूँ।
"पासणाहचरिउ' के नायक देवाधिदेव भगवान श्री पार्श्वनाथ हैं। ये प्रख्यात वंश के क्षत्रिय राजकुमार हैं। इसमें धीरोदात्त नायक के त्याग, सहिष्णुता, उदारता, सहानुभूति, बन्धुत्व, करुणा इत्यादि सभी 7'. 'वद्यमान
ग्रन्थ का प्रख रस गान्त है परन्तु श्रृंगार (संयोग और लोग), वीर, करुण, भयानक. रौद्र इत्यादि अन्य रसों की व्यञ्जना अप्रधान ..प में हुई है।
भ. पार्श्वनाथ के 'लोकप्रिय जीवन को आधार बनाकर इस काव्य (पासणाहचरि.) का सृजन किया गया है। इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय का वर्णन किया गया है, किन्तु अन्तिम ध्येय मोक्ष पुरुषार्थ निरूपित है। महाकाव्य का प्रारम्भ मङ्गलात्मक है। यह मङ्गल नमस्कारात्मक है। "पासणाहचरिउ" कहने का प्रारम्भ में ही कथन किया गया है। इसमें कमठ जैसे खल की निन्दा और पार्श्वनाथ जैसे सज्जन की प्रशंसा भी की गयी है। ग्रन्थ में सात सन्धियाँ हैं। सन्धियाँ न अधिक छोटी हैं और न अधिक बड़ी
समस्त काव्य में अडिल्ल, द्विपदी मौत्तिय दाम, रइडा, चन्द्रानन, धत्ता, भुजङ्गप्रयात, संसग्गि, सर्गिणी आदि विविध छन्दों का समुचित प्रयोग किया गया है। इस काव्य में अलंकारों का बड़ा ही सुन्दर प्रयोग हुआ है। अनुप्रास का प्रयोग पदे-पदे किया गया है, साथ ही यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, स्वभावोक्ति , अतिशयोक्ति आदि समाविष्ट अलंकारों की छटा भी काव्य को
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अलंकृत करती है। इसमें सूर्य, रात्रि, दिन, पर्वत, वन, संयोग-वियोग, मुनि, स्वर्ग, नरक, नदी, सरोवर. सुद्ध, यज्ञ, मन्त्र, पुत्र, यात्रा, ऋतु और अभ्युदय आदि के सुन्दर चित्रण में भी कवि की लेखनी सराबोर रही है। प्रकृति वर्णन भी कवि के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है।
ग्रन्थ का नाम "पासणाहचरिउ चरित्र नायक श्री पाश्वनाथ के नाम पर रखा गया है, जिससे वर्णित कथ्य का संकेत मिल जाता है। सूक्त पाक्या का समावेश ी काव्य की अपनी विशेषता है। 'काव्य के अन्त में मङ्गल कामना किए जाने से यह मंगलांकित अन्त वाला महाकाव्य है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि "पासणाहचरिउ" गें न्यूनाधिक महाकाव्य के लक्षण भली-भाँति घटित होते हैं। अतएव इन स्त्र आधारों पर उसकी गणना महाकाव्यों के अन्तर्गत की जाती है। नगर-वर्णन गोपाचलः :
महाकवि रइधू ने "पासणाहचरिउ" में गोपाचल नगर का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। वर्तमान में मध्य प्रदेशान्तर्गत ग्वालियर जिला ही उस समय का गोपाचल था। कवि ने गोपाचल नगर को पृथ्वीमण्डल में प्रधान, समेरुपर्वत के समान विशाल, देवताओं के मन में भी आश्चर्य उत्पन्न करने वाला, भवन शिखरों से मण्डित तथा पृथ्वीमण्डल के श्रेष्ठ पण्डित के समान माना है। गोषाचल नगर उस समय अत्यन्त वैभव से युक्त था। वहाँ के कलापूर्ण भवन, मन्दिर, जनावृत सड़कें, सोने-चाँदी, हीरे, जवाहत और मोतियों से भरे हुए बाजार और दानशालायें सभी आगन्तुकों को मोहित करती थीं। सभी मनुष्य धर्म एवं साहित्य की सेवा में रत रहते थे। वहाँ पर निरन्तर अर्चना, पूजा एवं दान से सुशोभित निर्मल बुद्धि से युक्त श्रेष्ठ मनुष्य निवास करते थे।4 जो सप्त व्यसनों तथा भय से रहित थे। वहाँ की स्त्रियाँ
2 भारतवर्ष के मध्यप्रदेशान्तर्गत ग्वालियर जनपद 3 पासणाहचरिट : इधू 14 4 रइधू, पासणाहचरित 1/4 5 वहीं 1/4
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सोने के कड़ों से विशेष रूप से मण्डित, सभी प्रकार के श्रृंगारों से युक्त, सौभाग्य की निधान, जैन धर्म एवं शील गुण से युक्त मानपूर्वक श्रेष्ठ लीलायें किया करती थीं धन-धान्य से युक्त होने के कारण वहाँ लुटेरे, कपटी, चोर, दुष्ट, दुर्जन, क्षुद्र, दुष्ट, पिशु, ढीठ, दुःखी एवं अनाथ जन दिखाई भी नहीं देते थे। कवि ने गोपाचल को श्रेष्ठ नगरों का गुरु मानते हुए कहा है कि :
सुहलच्छिजसायरु णं रयणायर बुहुयण जुउ णं इंदठरु ।। सन्थस्थहिं सोहिउ जणमणु मोहिउ ण वरणयरहपहु गुरु ।।
अर्थात् गोपाचल नगर सुख, समृद्धि एवं यश के लिये रत्नाकर के समान आकर था, बुधजनों के समूहों से युक्त वह नगर मानो इन्द्रपुरी ही था। शास्त्रार्थों से सुशोभित तथा जनमन को आकर्षित करने वाले सर्वश्रेष्ठ नगरों का मानो वह गुरु ही था।
नगर श्रेष्ठ गोपाचल की चरण रज के स्पर्श से पवित्र मानने वाली सुवर्ण रेखा नदी के चमत्कार को कवि ने बड़ी ही सरस शैली में चित्रित किया है :
सोवण्णरेह णं उवहिं जाय। णं तोमरणिव पुण्णेणआय ।। ताइ वि सोहिउ गोपायलक्खु । णं भज्जसमाण उणाहु दक्खु
वहाँ (गोपाचल) के बाजार नगर के मध्य में स्थित थे। बाजारों में सोनाचाँदी, हीरा-मोती, वस्त्र, बर्तन, खाद्य पदार्थ आदि सभी मिला करते थे। वहाँ के धरातल पान के रंग में रंगे हए रहते थे।10 कवि के इस कथन से उस समय बहुतायत से पान खाने के शौक का पता चलता है। हस्तिनापुर :
"पासणाह चरिठ" में भ. पार्श्वनाथ को वणिक श्रेष्ठ वरदत्त के द्वारस हस्तिनापुर में आहारदान दिए जाने का उल्लेख आया है। 2 आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने 52 आर्य देशों की स्थापना की थी, उनमें कुरुजाङ्गल देश भी था। इस प्रदेश की राजधानी का नाम गजपुर था। सम्भवत: इस प्रदेश
6 वहीं 1/4 7 वही 1/4 8 वही 113 १ वही 1/3 10 "तंबोल-रंग रंगिय-धरग्ग", राधू पासणाह. 1/3 11 वहीं 4/३ 12 वही 43
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के गंगा तटवर्ती जंगलों में हाथियों का बाहुल्य होने के कारण यह गजपुर कहलाने लगा। पश्चात् कुरु वंश में हस्तिन् नाम का एक प्रतापी राजा हुआ। उसके नाम पर इसका नाम हस्तिनापुर हो गया। प्राचीन साहित्य में इसी हस्तिनापुर के अनेक नाम आते हैं, यथा - गजपुर14, गजसाह्वयपुर15, नागपुर18, आसन्दीवन, ब्रह्मस्थल17, कुंजरपुरराछ, हस्तिनापुर आदि।
प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम यहीं पर ही राजा सोमप्रभ और श्रेयांश के हाथों से इक्षुरस का आहार ग्रहण किया था।19
हस्तिनापुर सोलहवें, सत्रहवें एवं अट्ठारहवें तीर्थकर शान्ति, कुन्थु और अरहनाथ के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक की भूमि रही है।20 यहाँ गंगा नामक पवित्र नदी पवाहित होती है। भ, मलिनाश स्वामी का समवसरण हस्तिनापुर आया था। इस नगर में श्री विष्णु कुमार मुनि ने बलि द्वारा हवन के लिए एकत्र सात सौ मुनियों की रक्षा की थी। सनत कुमार, महापद्म, सुभीम और परशुराम का जन्म इसी नगर में हुआ था। इस महानगर में शान्ति, कुन्थु, अरह और मल्लिनाथ के मनोहर चैत्यालय थे।21 रक्षाबन्धन, अक्षय तृतीया जैसे मंगल पर्वो का जन्मदाता यह हस्तिनापुर अपनी पवित्रता के कारण आज भी पूजनीय हैं। काशी :
महाकवि रइधू ने "पासणाह चरिंउ" में काशी नगर का संक्षेप में वर्णन किया है। भ, पार्श्वनाथ को जन्मस्थली होने के कारण काशी का काव्य में महत्त्व होना निर्विवाद है। कवि ने काशी को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ मानते हुए कहा है कि :
13 द्रष्टव्य भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (प्रथम भाग) पृ 22 14 पउमचरिङ : विमलसरि, 95734 15 श्रीमद्भागवत् 1/1:48 16 पठमचरित 6/71, 29/10 17 वही 20/180 18 वही 95/34 19 पाचरित 4/7-22 20 डॉ. रमेश चन्द जैन पावनतीर्थ हस्तिनापुर, पृ. 12 21 डॉ. रमेश चन्द्र जैन : पावनतीर्थ हस्तिनापुर पृ. 13-14 22 वर्तमान भारतवर्ष के उत्तरप्रदेशान्तर्गत वाराणसी जनपद
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BARAKAMBA assistente assesses "तहिँ जणमणहारी सुरह पियारी ... वाणास - धरी यासए । रयणेहिँ पमंडिय इरि-अखंडिय-गेहहिँ णं सग्गल हसए । '23
अर्थात् उस काशी देश में जनमनोहारी तथा देवों के लिए प्रिय वाराणसी नाम की नगरी स्थित है, जो रत्नों से अलंकृत तथा वैरियों द्वारा अखण्डित है, जो अपने भवनों की शोभा से मानो स्वर्ग का उपह। । करती है। कवि ने काशी की भौगोलिक स्थिति को ही मानो सामने रख हुए कहा है कि - इसी जम्बूद्वीप में सुमेरुपर्वत के दक्षिण में लक्ष्मी के घर के समान भारतवर्ष में काशी नामक सुखकर देश हैं, जो मानो पृथ्वी रूपी युवती का सुखपूर्वक पोषण करने वाला वर ही हो24 वहाँ के मनुष्य दयालु एवं स्त्रियाँ अत्यधिक रूप राशि से युक्त हुआ करती थीं। वहाँ सर्वत्र सुख व्याप्त था। वहाँ का राजा न्याय और सद्गुणों में विश्वास रखता था 25 पोदनपुरा : ___कवि रइधू ने "पासणाहचरिउ" की 6त्री सन्धि में इसका उल्लेख किया है। पोदनपुर सुरम्य देश का प्रधान नगर था। पोदनपुर नगर की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है कि - वहाँ के मनुष्य विनम्र , व्रतों को 'मानने वाले, शान्त प्रकृति वाले27 हुआ करते थे। वहाँ हिमवन्त कट के समान ऊँचे-ऊँचे भवन हैं।28 उस नगर में उपवन, सरिता, सरोवरों की अधिकता थी। वहाँ के राजा शत्रुओं को परास्त करने वाले एवं यशस्वी थे। स्त्रियाँ शीलवती29 एवं मधुरभाषिणी30 हुआ करती थीं। दुराचारी एवं व्यभिचारी व्यक्तियों को नगर से निकाल दिया जाता था। तत्कालीन राजा अरविन्द द्वारा कमठ को नगर से निकाला जाना, इसी बात की पुष्टि करता
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- .- --...- 23 पास. पत्ता 24 पास. 119 25 वहीं धत्ता - 126 26 पास. 61:10 27 पास,6.1 28 वही 61 29 वही 61 30 वही 6.3 31 वहीं 6/३
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कन्नौज : ___ हर्ष की राजधानी के रूप में प्राचीन काल से ही यह नगरी प्रसिद्ध रही है। सम्राट हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर चक्रवर्तित्व स्थापित किया था। कन्नौज में ही संस्कृत के प्रसिद्ध कवि बाणभट्ट ने कादम्बरी और हर्षचरित जैसे महनीय ग्रन्थों की रचना की थी।34
कन्नौज बहुत दिनों तक संस्कृत कवियों का आश्रय दाता रहा है। अत: संस्कृत काव्य के प्रणयन में जितना महत्त्व उज्जयिनी का है, उतना ही कन्नौज का भी।35
अयोध्या :
प्राचीन अयोध्या नगरी कौशल-देश में थी। अयोध्या नगरी धन-धान्य से युक्त थी। प्रजा धर्मपरायण थी। वहाँ विशाल भव्य अनेक जैन मन्दिर थे। उस समय मन्दिरों में भगवान की मूर्ति की स्थापना करवाना पुण्य कार्य माना जाता था। वह नगरी अन्य शत्रुओं के द्वारा दुर्लंघ्य थी और स्वयं अनेक योद्धाओं से भरी हुई थी, इसीलिए लोग उसे अयोध्या ( जिससे कोई युद्ध नहीं कर सके) कहते थे। उसका दूसरा नाम विनीता भी था और वह आर्यखण्ड के मध्य में स्थित थी, इसलिए उस की नाभि के समान शोभायमान हो रही थी 97
अहिच्छत्रा नगर :
अहिच्छत्रा उत्तर पञ्चाल की राजधानी थी। भागीरथी नदी उत्तर एवम् दक्षिण पञ्चाल के मध्य विभाजक रेखा थी। वैदिक ग्रन्थों में पञ्चाल देश का पूर्वी एवम् पश्चिमी पञ्चाल के रूप में वर्णन किया गया है। इसका समर्थन पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में किया है। दिव्यावदान के अनुसार उत्तर पञ्चाल की राजधानी हस्तिनापुर थी किन्तु कुम्भकारजातक में कम्पिल्लपुर को
32 वहीं 5/115 33 मेहता : प्राचीन भारत - (वाराणसी 1933) पृ. 246 34 वही पृ. 247 35 रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिंशोलन, पृ. 512 36 पास.6/17 37 महापुराण, पवं 34, श्लोक 70 38 पासणाहचरिउ 4/1
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इसकी राजधानी बतलाया गया है। ऐसा कहा जाता है कि साधिक चार मास की आत्मशोधनार्थ की गयी तपः साधना के मध्य तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ कुर जनपद की महानगरी हस्तिनापुर पहुँचे। वहाँ पारणा करके गङ्गा के किनारे-किनारे बिहार करते हुए वह भीमाटवी नामक वन में योग धारण. कर कार्यात्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ हो गए। इस अवस्था में वहाँ उन पर शंवर (अपर नाम मेघमाली पूर्वजन्म का कमठ) नामक दुष्ट असुर ने भीषण उपसर्ग किए। नागराज धरणेन्द्र और उनकी पत्नी पद्मावती ने उक्त विविध भयङ्कर उपसों का निवारण करने का यथाशक्य प्रयत्र किया। नागराज ( अहि ) ने भगवान के सिर के ऊपर अपने सहस्रफणों का वितान या छत्र बना दिया। स्वयं योगिराज पाच तो शुद्धात्म स्वरूप में लीन थे। उफ उपसर्गों का उन्हें कोई ज्ञान नहीं था। उन्हें तभी केवलज्ञान को प्राप्ति हो गयी, वह अहंन्त जिनेन्द्र बन गए। धन के बाहर आस पास के क्षेत्रों के निवासी लोगों की अपार भीड़ वहाँ एकत्रित हो गयी। भगवान की अचना-वन्दना स्तुतिगान हुआ। उनको समवसरण सभा जुट गई और लोग उनके सर्व कल्याणकारी दिव्य उपदेश सुनकर कृतार्थ हुए। इस पुनीत स्थन से नाति दूर भीमाटवी वन के बाहर उत्तर पञ्चाल। जनपद की राजधानी पंचालपुरी अपर नाम परिचक्रा एवं शेखावती विस्थत थी। इस अभूतपूर्व घटना के कारण वह स्थान ही नहीं, वह नगरी भी छत्रावत्नी या अहिच्छन्ना के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुई।३४
अन्य नगर :
'पासणाहरिङ' में कुशस्थल40, आशापुरी41 आदि नगरों का भी उल्लेख मिलता है। प्रकृति चित्रण : ___ भारतवर्ष प्राकृतिक सुपमा का विशान आगार माना जाता है। इस देश का दूसरा पर्याय ही प्रकृति है। प्रकृति अनन्तकाल से मानव की सहचरी के रूप में प्रतिष्ठित है। सृष्टि के प्रथम पुरुप के जन्म से लेकर आज तक जन्मे
39 डॉ. रमेशचन्द जैन : आ जा की रामप्पदा पृ. 14, अनेकान्त वर्ष 39 कि. 4
अब दिम. 1986) डा. अयोनिप्रसाद जी का अहिच्छन्ना सम्बन्धी लेखा 40 पासपाहवार 3:1 41 वहीं 6.15
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सभी व्यक्तियों की क्रीड़ास्थली प्रकृति हो रही है। मानव की सभी आकांक्षाओं की पूर्ति प्रकृति के द्वारा ही होती है। वस्तुतः प्रकृति और मानव का सम्बन्ध शाश्वत होने के साथ ही साथ सत्य भी है। प्रकृति और मानव का घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण मानव द्वारा रचित काव्य भी उससे अछूता नहीं रहा और यही कारण है कि सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य प्रकृति के सुन्दर वर्णनों से भरा हुआ है। ____ अपभ्रंश काव्य में वर्णित प्रकृति के अनन्त रूप पूर्णतया सार्थक और सोद्देश्य हैं। काव्य में सरसत्ता का संचार करने के लिए कवियों ने प्रकृति को माध्यम बनाया और काव्य में प्रकृति की अनिवार्यता को माना।
"काव्य प्रकृति का घर है और प्रकृति काव्य का प्राण है", इस उक्ति को मान्यता देने नाने कवियों ने प्रकृति को ना दी। कुछ कालिगों ने तो प्रकृति का मानवीयकरण ही कर दिया, जैसे – महाकवि कालिदास ने अपने "मेघदूत" में यक्ष का अपनी प्रिया को सन्देश मेघ से कहलाने की चेष्टा की।
भारतीय और पाश्चात्य महाकाव्यकारों ने काव्य में प्रकृति की अनिवार्यता को माना। सातवीं शताब्दी के प्रख्यात संस्कृत कवि दण्डी ने महाकाव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए उसमें समुद्र, पर्वत, चन्द्रोदय, सूर्योदय, सूर्यास्त , रात्रि आदि का अङ्कन आवश्यक बताया है।42 ___ महाकवि रइधू ने अपनी कृति "पासणाहचरिउ" में भ. पार्श्वनाथ के जीवन चरित को प्रकृति के सुरम्य वातावरण में ही गुम्फित किया है। महाकाव्य में जगह-जगह हमें पृथ्वी, पर्वत, नदी, आकाश जीव-जन्तु, पशुपक्षी आदि के अनेक वर्णन मिलते हैं :
महाकवि रइधू ने काशी नगरी का वर्णन करते हुए उस नगर की प्रकृति के रूप में ही मानो परिवर्तित कर दिया हो "इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में लक्ष्मी के घर के समान भारतवर्ष में काशी नामक देश है, जो मानो पृथ्वी रूपी युवती का सुखपूर्वक पोषण करने वाला वर ही हो। जहाँ शुभ्र वर्ण वाले गौसमूह धान्यकण चरा करते हैं। वहाँ कोई भी उनके लिए (गायों के लिए) तृण नहीं काटता। जहाँ कोई कृषक कन्या (तो) शुकसमूह
42 काव्यादर्श 1/16 RESSISISISesexms 129xsessmesteresTSIAS
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को भगाती है, किन्तु वह शुक समूह अपने कलरव में ही मानो उसी की प्रतिध्वनि को धारण करता है।''43
वामा देवी की केश सज्जा एवं सौन्दर्य प्रसाधन में भी प्रकृति ने अंलकार का कार्य किया है - कोई : सखी) व (थाम्) के सिर के केरापान को द्विरेफ या भ्रमर की आवाजसहित मालती पुष्प की माला से रसाल मस्तक प्रदेश को संवारती थी।44 __ "पासणाहचरिउ" की द्वितीय सन्धि में वामा देवी को स्वप्नदर्शन के बहाने कवि के द्वारा मानो सम्पूर्ण प्रकृति-सुषमा का ही निरीक्षण करवाया गया हो - सर्वप्रथम (उस वामा देवी ने) सुगन्धित कर्णों से युक्त, चन्द्र किरणों के समान स्वच्छ चार धवल दाँतों वाले एवं प्रचण्ड गर्जन करने वाले गजेन्द्र को देखा। ढिक्कार छोड़ते हुए विशाल कन्धों वाले तथा सैकड़ों प्रकार के सुख देने वाले वृषभ (बैल) को देखा। फिर अपने नाखून वाले पंजों को ऊपर उठाये हुए घुमंची के समान वरुण नेत्र वाले एवं मृगों के प्राण हरण करने वाले मृगेन्द्र को देखा। तत्पश्चात् जगवल्लभा लक्ष्मी को अपने समीप देखा तथा भ्रमरों से युक्त श्रेष्ठ पुष्पमाला को देखा। तदनन्तर अमृत को धारण करने वाला परिपूर्ण कलाकर, अन्धकार के भार का नाश करने वाला सूर्य, सरोवर में क्रीड़ा करते हुए मौनयुगल तथा आकाश में पल्लव शोभित घटयुगल को देखा और भी विमलजल से युक्त कमलाकर, जलचर समूहों से चपल रत्नाकर, रत्नमय सिंहासन एवं आता हुआ एक विमान देखा। बहुत शोभा सम्पन्न नागालय, आश्चर्यचकित करने वाला रनपुंज, निर्धूम एवं सीधी शिखा वाली अनि देखी45
कवि ने मन्दर पर्वत की सुषमा का वर्णन करते हुए प्रकृति के साकार रूप को प्रत्यक्ष कर दिया है - "जो अपनी धवलिमा में चन्द्रमा के समान था, अलिवृन्दों के गुंजन से भरा था और गृद्ध पंक्ति रूपी अनेक घण्टों से मुखर था। वह पर्वत सहस्र योजन प्रमाण तथा कन्दरारूपी सौ मुखों से युक्त था। प्रत्येक मुख में सुशोभित दन्तमुसल था। प्रत्येक दाँत पर एक-एक सरोवर
43 पास. 119 44 वही 212 45 पास. 2/3 PUSSxxxesesesexests 130 CResseusesxesm
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था और प्रत्येक सरोवर में नौकायें चल रही थीं। पुन: प्रत्येक सरोवर में पच्चीस-पच्चीस पुरैन (कमल) थे। एक-एक पुरैन पर सवा-सवा सौ श्रीगृह थे। श्रेष्ठ कान्तिपूर्ण एवं विकसित एक-एक कमल में 108 - 108 पत्ते थे46
भगवान पार्श्वनाथ की पूजा-सामग्री हेतु भी कवि ने प्रकृति प्रदत्त द्रव्यों, पुष्पों आदि का सहारा लिया - शक्रराज ने भक्ति भावपूर्वक जिननाथ की चन्दन से पूजा की। जल, गन्ध, अक्षत, पुष्य, भक्ष्य (नैवेद्य), दीप, धूप, फल - इन आठ द्रव्यों से भगवान की पूजा की गई। प्रमदवन में जाकर राय चम्पा और मालती (पुष्प) लाकर शची ने भव्यमाला ग्रथित कोला
कवि ने "पासणाहयरिउ" में तापसियों का भोजन प्रकृत्ति प्रदत्त फलों का ही बताया है- "वे तापस पञ्चाग्रि तपों के व्रती हैं। वे केवल फल, कन्द एवं मूल का भक्षण करते हैं।
चतुर्थ सन्धि में कवि ने वर्षा ऋत में होने वाली भयंकर जल तो का बड़ा ही मनोहारी वास्तविक चित्रण किया है - "आकाश में प्रचण्ड वज्र तड़तड़ाने, गरजने, घड़घड़ाने और दर्पपूर्वक चलने लगा। तड़क भड़क करते हुए उसने सभी पर्वत समूहों को खण्ड-खण्ड कर दिया। हाथियों की गुर्राहट से मदोन्यत्त साँड़ चीत्कार कर भागने लगे। आकाश काले भ्रमर, ताल और तमाल वर्ण के मेघों से आच्छादित हो गया - मृगकुल भय से त्रस्त होकर भाग पड़े और दुखी हो गये, जल धाराओं से पक्षियों के पंख छिन्न-भिन्न हो गये। नदी, सरोवर, गुफायें, पृथ्वीमण्डल एवं वनप्रान्त, सभी जल से प्रपूरित हो गये
केवलज्ञान प्रासि के उपरान्त भगवान को जो दश अतिशय हुए उनमें भी प्रकृति सह मागी रही . "वन पत्रों एवं पुष्पों से पूर्ण होने के कारण पृथ्वी हरित् वर्ण से आच्छादित दिखाई देने लगी। योजन प्रमाण क्षेत्र में पृथ्वी तृण एवं काँटों से रहित दर्पण के समान स्वच्छ दिखाई देने लगी। 150
46 वही 26 47 वही 2/13 48 वहीं 3/17 49 पास. 418 50 वहीं 4/17
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तत्कालीन विशाल नगर प्रकृति से पूर्णतया परिवृत थे। पोदनपुर नगर का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है कि - "जहाँ वृषण ढिक्कारते हुए धूमते हैं
और गायों के साथ धान्य चरा करते हैं। जहाँ पर घना दूध देने वाली मैसें हैं, जहाँ पर फलों एवं फूलों से युक्त श्रेष्ठ उद्यान हैं जहाँ पुंड्र (गनों) के खेत रस बहाते रहते हैं जहाँ के उपवन फलों से झुक ये हैं।''51 ___ कमठ जिस वन में तपस्या हेतु पहुँचा, उस वन का वर्णन करते हुए कवि कहता है - "उद्विग्न चित्त वह (कमठ) गिरि, कन्दरा एवं घने वृक्षों से युक्त मृग-कणों से सुशोभित, क्रुद्ध सिंहों से युक्त खेचरों एवं देवों के लिए सुखदायक वन में पहुँचा -
उज्वेइय चितइ सो वणि पत्तउ - गिरिकंदरभूरुहधणऊँ ।
मिययणसोहिल्लल हरि, कोहिलउखेयर- सुरहँ सुहावणउँ 152 प्राकृतिक सम्पदा :
प्राकृतिक सम्पदायें किसी भी देश का प्रगति का मूलभूत कारण होती हैं। प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन कर आर्थिक जीवन को सुदृढ़ किया जा सकता है। जन-जीवन का स्वस्थ होना भी प्रकृति पर ही निर्भर करता है। "पासणाहचरिंउ" में रइधू ने भी इस सम्पदा को समाहित किया है, जो निम्न प्रकार है : वन:
"पासणाहचरिठ" में निम्नलिखित वनों के नाम आये हैं :
भद्रशाल वन, नन्दन वन, सोमनस वन, पाण्डव वन53 और सल्लको वन541 पर्वत :
"पासणाहचरित" में निम्रलिखित पर्वतों के नाम आये हैं :
51 पास. 6.1 52 बही, घत्ता 110 53 पास, 219 54 बही 6/9
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मन्दर पर्वत,55 मेरु पर्वत,56 विजयाध पर्वत,57 हिमवान् पर्वत,58 महाहिमवन्त पर्वत,59 निषध पर्वत,60 मानुषोत्तर पर्वत,61 अञ्जनगिरि,52 हिमगिरि,65 सम्मेदशिखर,64 हरिवर्ष,65 रुक्मि,86 शिखरिणी,67 तथा नील68 आदि। सागर:
क्षीरोदधि (2112), लवणोदधि (5/33) कालोदधि (5133) इत्यादि सागरों के नाम 'पासणाहचरिउ' में वर्णित हैं। नदियाँ :
"पासणाहचरित' में निम्नलिखित नदियों के नाम आये हैं :
स्वर्ण रेखा,69 गंगा,70 सिन्धु,71 रोहित,72 रोहितास्या,73 हरित्,74 हरिकान्ता,75 सीता,76 तथा सीतोदारा आदि।
55 पास, 26.219 56 वही 29, 5/31 57 वहीं 5/27 58 वही 5/29 59 वहीं 5/30 60 वहीं 5/31 61 वहीं 5/33 62 वही 69 63 वही 6/14 64 वही 7/2 65 वहीं 5/30 66 वही 5/32 67 वही 5/32 68 वही 5/32 69 वही 1/3 70 वही 5/27 71 वहीं 5/27 72 वही 5/27,5/29 73 वही 5/29 74 वही 5/31 75 वही 5/31 76 वही 5/31 77 वहीं 5/32 esxesTRESISTAssess 133kSXxxsesastestester
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सरोवर :
केमरि (5/32), महापुंडरीक (5/32) तिगिञ्छ (5/31), पद्म (5/28), महापद्म (5/31), पुण्डरीक (5/28) इत्यादि। जीव-जन्तु :
"पासणाहचरिउ" में निम्नलिखित जीव जन्तुओं का वर्णन मिलता है : ।
गौ (गाय) (1/4, 119), वृषभाबैल (1/4, 2/3, 214, 6/1), गज (1/4, 2/3, 2/4), सिंह (1/4, 2/3), हंसिणी (1/6), कोयल (116), शुक (179) मृग (हरिण) (2/3, 4/8, 5/11), हय (घोड़ा 3/3), भुजंग (सर्प 214, 3/13), भ्रमर (213), मीन (2/3), संड (साँड़ 4/8), मार्जार, कुत्ता, नकुल, गिद्ध (516), मकड़ी, मच्छर, मक्खी (5/8), शूकर, सांभर (5/11), श्वान (कुत्ता 5/10), मत्स्य (मछली 5/18), महिष (भैंस 6/1), खर (गधा) (6/5), हंस (619) तथा शबर (6/16) आदि। वनस्पतियाँ :
"पासणाहचारठ'' में निभलिखित वनस्पतियाँ वर्णित हैं :
शालि (2/16), कमल (1/6), मालती (2/2), चन्दन (2/13), रायचम्या (2/13), शाल्मलिवृक्ष (5/19), तमाल, ताल (619) आदि।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि कवि रइधू को प्रकृति का अच्छा ज्ञान था और यही कारण है कि "पासणाहचरिउ" के अधिकांश प्रसंग प्रकृति से अपना सामीप्य बनाए रहे। संवाद-सौष्ठव :
किसी भी काव्य की सुन्दरता उस काव्य के संवादों में निहित होती है। जिस प्रकार किसी के भावों को जानने के लिए भावाभिव्यक्ति आवश्यक होती है और वह भावाभिव्यक्ति वाचनिक रूप में हो तभी उसे जाना जा सकता है। किसी अज्ञात लेखक ने कहा है कि - "यदि किसी व्यक्ति या महात्मा के चारित्रिक गुणों की टोह लेनी हो तो यह आवश्यक है कि उसके साथ संवाद स्थापित किया जाय।" वास्तव में यह बात सत्य ही है क्योंकि बाह्य-- आकृति, वस्त्राभूषण आदि किसी व्यक्ति की विपन्नता या सम्पन्नता को
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ही प्रकट कर सकते हैं उसके मनोभावों को व्यक्त करने में सहायक नहीं हो सकते। उसके मनोभावों की जानकारी तो संवाद अथवा कथोपकथन से ही मिल सकती है।
महाकवि रइधू की रचनाओं की एक प्रमुख विशेषता उनके संवादों की उत्कृष्टता रही है, जिसके लिये वे प्रसिद्ध भी हैं। म, पार्श्वनाथ से सम्बन्धित जितने भी चरित काव्य आज सामने हैं उनमें संवादों की दृष्टि से सर्वाधिक सफल महाकवि रइधू कृत "पासणाहचरिउ" ही है। महाकवि रइधू के संवाद सम्बन्धित पात्रों के क्रियाकलाप व चारित्रिक गुणों जैसे - कर्मठता, त्याग, उदारता, दया, स्नेह, वात्सल्य आदि प्रवृत्तियों को उजागर करने में पूर्णतया सक्षम हैं। "पासणार पारे " के कु टि संवाद कार , (1) काशी नरेश अश्वसेन और अकंकीर्ति के दूत का संवाद :
काशी नरेश अश्वसेन की सभा में कुशस्थल नरेश राजा अर्क कीर्ति का दूत आता है78 और वह अपने आने के अभिप्राय को तुरन्त प्रकट न कर, उसे भावनात्मक रूप देते हुए सर्वप्रथम अर्ककीर्ति के पिता शक्रवर्मा की संसार से विरक्ति और दीक्षा ग्रहण का सुखदायक समाचार सुनाता है79 और फिर तुरन्त ही अर्ककीर्ति को यवन नरेश द्वारा दी गयी धमकी और अनीति यक्त शतों के विषय में बताता है80 तो जिससे प्रथम आनन्द का संचार हुआ था वहीं अश्वसेन क्रोधाभिभूत भी हो जाते हैं।81 इस प्रसंग को दूत इतने सशक्त रूप में प्रस्तुत करता है कि अश्वसेन रणक्षेत्र में ससैन्य जाने के लिए तैयार हो जाते हैं|2
प्रस्तुत संवाद से हमें पता चलता है कि रइधू को मानवीय सम्बन्धों की अत्यन्त जानकारी थी और यही कारण है कि वे अर्ककीर्ति के अपमान को अश्वसेन का अपमान जतलाने में समर्थ होते हैं तथा कथानायक को भी अपना पराक्रम दिखाने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
78 पास. 3/1 79 वहीं 3/1/4-14 80 वही 3/2 81 वही 3/3/11-12 82 वही 3/2/1-10
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कुशस्थल नरेश की सहायतार्थ युद्ध में जाने के लिए तैयार अपने पिता से विनम्रतापूर्वक निवेदन करते हुए पार्श्व का यह संवाद पिता-पुत्र की भूमिका को कितना न्यायसंगत बनाता है -
ताया भणमि महु गिहि होतें, तहु किं गच्छहि पविहिय संतें । कालजमणु रणमुहि उस्सारमि, जयसिरि अणुराएँ करि धारमि || महु सुवेण अच्छे भो णिव समरि गमणु जुज्जह किंव १३
-
अर्थात् हे तात् । आप ही कहें कि मुझ जैसे वज्र हृदय वाले पुत्र के घर में रहते हुए भी आप युद्ध में क्यों जा रहे हैं? मैं कालयवन को रणभूमि से उखाड़ फेकूँगा और जयश्री को अनुरागपूर्वक अपने हाथों में ग्रहणं करूँगा । मुझ जैसे पुत्र के रहते हुए हे राजन्! आप का युद्ध में जाना क्या योग्य ( उचित ) है ?84
युवराज पार्श्व के उक्त वचन सुनकर पिता अश्वसेन ने कहा कि
" हे पुत्र, तुम्हारी प्रवृत्तियाँ उचित ही हैं। तुम्हारा नाम मात्र ही विघ्नों को नष्ट कर देता है। है आर्य, दूसरों के लिए तुम अभी सरल स्वभाव वाले बालक ही हो। देवेन्द्र के चित्त के लिए आनन्ददायक मात्र हो। तुमने यमराज के समान पापकारी एवं दूषित संग्राम के भयानक रंग को अभी नहीं देखा है। हे पुत्र, इसी कारण से तुम्हें अभी युद्ध में नहीं भेजूँगा । ' 85
पिता के उक्त वचनों को सुनकर पार्श्व ने पुनः उत्तर दिया
" हे तात् ! क्या अग्नि की एक चिनगारी समस्त वन को जलाकर भस्म नहीं कर देती? क्या मृगेन्द्र शावक जंगल में मदान्ध गजेन्द्र समूह को पाकर उसे मार नहीं डालता? उसी प्रकार मैं भी जाकर युद्ध में देखता हूँ और यशआशा के लोभी शत्रु को नष्ट कर डालता हूँ। 86
उपर्युक्त संवाद के माध्यम से रइधू ने नायक के चरित्र को वीरोचित गुणों से भर दिया है। साथ ही इस जनभावना व भारतीय रीति की पुष्टि की है कि वीर युवा पुत्र को अपने पिता के प्रत्येक कार्य में अग्रगामी बनना चाहिए।
83 पास 3/4/10--12 84 वही 3/4/10-12
85 वही 3/5 / 2-5
86 पास 3/5/6-10
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उक्त संवाद की मौलिकता पर टिप्पणी करते हुए रइधू साहित्य के प्रमुख अध्येता डॉ. राजाराम जी ने लिखा है कि -
पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर हैं। तीर्थंकरों में शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरह नाथ, जो कि तीर्थंकर होने के साथ-साथ चक्रवर्ती भी हैं87 जिन्होंने शान्ति और सुव्यवस्था के हेतु आतताईयों का दुर्दमन कर अहिंसा-संस्कृति का प्रसार किया है। महाकवि रइधू के मस्तिष्क में तीर्थंकर चक्रवर्ती का प्रत्यय (Conception) था। फलत: वे अपने नायक को भी तीर्थंकर चक्रवर्ती के रूप में देखना चाहते थे। अतः हमास अनुमान है कि उन्होंने पार्श्वनाथ के युद्ध में जाने की यह कल्पना कर नायक को एक नया ही रूप प्रदान किया हैं। जहाँ तक अन्य पार्श्वनाथ चरित्रों के अध्ययन का प्रश्न है, वहाँ तक हम यह कह सकते हैं कि कवि की यह कल्पना लगभग मौलिक है। अतः महाकाव्य का कवि पौराणिक महाकाव्य के लिखते समय भी अपने नायक को आरम्भ से ही देवत्व के वातावरण में खत्रित करना नहीं चाहता। आदर्श मानवीय गुणों का आविर्भाव कर ऐसे चरित्र का रसायन तैयार करता है जिससे मानवता अजर-अमर हो जाती है। महाकवि रइधू ने भी पौराणिक इस चरित काव्य में नायक पार्श्वनाथ को आरम्भ से ही तीर्थंकर या देवत्व की चहारदीवारी से नहीं घेरा है। अतः इस संवाद में जहाँ पिता-पुत्र के वात्सल्य की संयमित धारा प्रवाहित हो रही है, वहाँ नायक के चरित का वीर्य और पौरुष भी झाँकता हुआ दिखाई पड़ रहा | अतएव यह संवाद मर्मस्पर्शी एवं रसोत्कर्षक है 188
पार्श्वनाथ और तापस का संवाद :
कुशस्थल को शत्रुओं से रिक्त कराकर और अर्ककीर्ति से शत्रु यवननरेन्द्र को पराजित कर जब पार्श्वनाथ कुशस्थल में ही रह जाते हैं, तब एक दिन पार्श्व अपने मामा अर्ककीर्ति के साथ वन में तापस संघ के दर्शनार्थ जाते हैं, और वहाँ एक तापस को पञ्चाग्रि तप करते हुए देखते हैं। कुछ अज्ञानी जनों द्वारा नमस्कृत उस तापस को देखकर सम्यक् ज्ञानी पार्श्व जिन बोले - "जो स्वयं ही संसार के दुःख को नष्ट नहीं कर सकता, उस मिथ्यादृष्टि की भक्ति
87 तिलोयपण्णत्ती 4:121
88 डॉ. राजाराम जैन : रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ. 158
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क्यों करते हो?" यह सुनकर कमठ नामक दुष्ट तापस क्रुद्ध हो उठा और बोला - __ "हे नरश्रेष्ठ, अप्रिय क्यों बोलते हैं, हमारी क्या अज्ञानता हो गई? बड़े मात्सर्यपूर्वक आप परनिन्दा क्यों कर रहे हैं?"
उक्त तापस कमठ ही था, उसको बार सुनकर गाध में सन्नी अज्ञानता को दूर करने के उद्देश्य से पूछा -
"बताओ, तुम्हारा गुरु मरकर कहाँ उत्पन्न हुआ है?" पार्श्व के वचन सुनकर आरक्त नेत्र होकर वह कमठ प्रत्युत्तर में बोला - "इस बात को प्रत्यक्ष कौन जान सकता है? तुम ज्ञान में बड़े दक्ष दिखाई दे रहे हो। यदि तुम जानते हो तो इस बात को बताओ।"
यह सुनकर पार्श्वनाथ बोले .
"तुम्हारा यह गुरु मरकर वृक्ष की कोटर में दपीला सर्प हुआ है। अरे मूर्ख, क्या जलते हुए को नहीं देख रहा है? वृक्ष फाड़कर तू उसे प्रत्यक्ष देख ले।"
उपर्युक्त वचन को सुनकर वह धृष्ट चिल्लाया -
"मेरे जो महान गुरु थे तथा जो तपस्या के कारण क्षीणकाय थे और जो पञ्चाग्नि के ताप-सहन करने में अत्यन्त प्रवीण थे, वे सर्प कैसे हो सकते हैं?" ऐसा कहकर उसने तीक्ष्ण कुठार से उस काष्ठ को बीचों बीच से फाड़ दिया और उसमें उसने अर्धदग्ध सर्पयुगल को अपना सिर धुनते हुए देखा।89
उपर्युक्त संवाद के माध्यम में रइधू ने पार्श्व को व्यावहारिक धरातल पर लाते हुए अनुचित क्रिया काण्ड का विरोध करते हुए दिखाया है। शायद रचनाकार का यह आशय रहा हो कि "बुराई को जानते हुए भी विरोध न करना पाप करने के समान ही है।'' अस्तु विरोध करके नायक के पुण्यशील व्यक्तित्व को ही लेखक ने उजागर किया है। अश्वसेन और मंत्री का संवाद :
पार्श्व नाग-नागिनी का आकस्मिक मरण देख द्रवीभूत हो वैराग्य को प्राप्त हुए। यह जानकर पिता अश्वसेन जब पुत्र-विरह से दुखी हो, खिन्न चित्त हो -- - - 89 पास. 3:12
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कहने लगे कि - "हाय पुत्र, तेरे बिना मेरे सुखद मनोरथ कौन पूरे करेगा हाय, मेरे हाथों का रत्न कहाँ गिर गया? हाय, उस गुणगरिष्ठ को मैंने क्यों युद्ध में भेजा? हाय वज्रपाणि, तुमने बड़ा अयुक्त किया। हे अर्ककीर्ति, तुम मेरे पुत्र को वन में क्यों ले गये थे?"
इस प्रकार जब राजा अश्वसेन अति शोक से मोहित हो गया, तब निर्मलमति मन्त्री ने कहा -
"हे देव, पुत्र का शोक छोड़ो क्योंकि वह दुःखों का कारण व रोगोत्पादक है। संयोग का नियम से वियोग होता है, ऐसा जानिए। इस प्रकार समझकर विद्वजन शोक छोड़ देते हैं और फिर आपका पुत्र तो त्रिलोक जयी तेईसवाँ तीर्थकर है, जिसने पवित्र रत्नत्रय को जान लिया, वह विषयों में आसक्त होकर कैसे रह सकता है?''90
"जो तीनों लोकों का पितामह है तथा जो सुरखेचरों के लिए अत्यन्त पूज्य है, वह विषय भोगों में आसक्ति क्यों कर सकेगा? जिसने रामपूर्वक मुक्तिवधू का वरण किया है, उसके लिये शोक नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसके गुणों का स्मरण करना चाहिए।''91
उपर्युक्त संवाद से निम्न तथ्य सामने आते हैं : (क) पुत्र का वियोग असह्य होता है। (ख) संसार की असारता का जिसे ज्ञान हो जाता है वह वैराग्य धारण
करना अपना कर्तव्य समझता है। (ग) मोक्षमार्ग पर चलने वालों के लिए शोक नहीं बल्कि उनके गुणों का
स्मरण करना चाहिए। आनन्द और मुनि का संवाद : __यह संवाद राजकुमार आनन्द और एक मुनिराज के बीच हुआ है। संवाद जहाँ दार्शनिक विषय से सम्बन्ध रखता है वहीं रस वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ आगम मान्यता की भी पुष्टि करता है। राजकुमार आनन्द ने मुनिराज से पूछा - __ "पाषाण प्रतिमा के अर्चन एवं न्हवन से क्या पुण्य होता है?"
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यह सुनकर मुनिराज ने उत्तर दिया -
"हे राजन्, यद्यपि जिन-प्रतिमा अचेतन है तथापि उसे वेदन शून्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रूप से परिणाम या भाव ही पुण्य और पाप का कारण होता है। जिस प्रकार वज्रभित्ति पर कन्दुक पटकने पर उसके सम्मुख वह फट जाती है उसी प्रकार सुख-दुखकारक निन्दा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रहार से यद्यपि प्रतिमा भङ्ग नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं। उनमें से धार्मिक कर्मों को स्वर्ग का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान का चिन्तन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश ध्यान करो।92 __उपर्युक्त संवाद के माध्यम से रइधू ने मूर्ति-पूजा के औचित्य को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका यह प्रसंग "भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभ:'"93 के समान ही है।
महाकवि रइधू 15-16वों सदी के कवि है और यह समय पार्मिक उथल-पुथल का समय था, मृति भंजक अपनी मनमानी कर रहे थे, ऐसे समय में यह आवश्यक था कि मूर्ति-पूजा का भरपूर समर्थन किया जाता। मेरी दृष्टि में रइधू ने यह प्रसंग इसी समर्थन में जोड़ा होगा।
इस प्रकार रइधू ने अनेक संवादों के माध्यम से अपनी बात को सरलसरस बनाने का प्रयास किया है जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। चरित काव्यों की श्रृंखला में "पासणाहचरिउ' का इसीलिए महत्त्व है क्योंकि इसके संवाद प्रासंगिक एवं मनोहारी हैं। भावाभिव्यञ्जना:
प्रबन्ध काव्य का एक प्रमुख तत्व भावाभिव्यञ्जना होता है। महाकवि रइधू ने भी अपने इस चरित काव्य को पौराणिक कथानक पर आधारित होते हुए भी भाव सरिता में अवगाहन कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भावों को अभिव्यजित करने में उनकी यह सफलता या चातुर्य ही माना जाना चाहिए कि चरित्र-चित्रण, घटना- वर्णन, परिस्थिति संयोजन आदि के वर्णन करते समय भी काव्य के भाव तत्त्व को तमाच्छन्न होने से उन्होंने रोके रखा
92 रइधू : पास. 6:18 १३ सागारधर्भामृत 2.65 RasiestushasuruSResusTes140dsusaisasuTSusta
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हैं। जैन धर्म में द्रव्य गुण और पर्याय की प्रधानता के साथ ही दुखों का मूल कषाय और वैर को माना है, क्योंकि यह अनन्त संसार का कारण होता है। "पासणाहचरिउ" में दो शक्तियों का प्रबल द्वन्द्व ही काव्य की आत्मा है, जिसके दो रूप हैं एक हिंसात्मक और दूसरा अहिंसात्मक। दोनों के नायक बने हैं क्रमश: कमठ और मरुभूति। वैर की परम्परा प्राणी को अनेक जन्म जन्मान्तरों तक भ्रमण कराती है और वैर ही कर्मबन्ध में सहायक बनता है। वैर यदि प्राचीन हो तो इसका फल भव-भवान्तरों तक भोगना पड़ता है और हर समय अहिंसा की ही विजय होती है।
महाकवि रइधू ने पार्श्वनाथ के नौ भवों द्वारा अहिंसा और आत्मसाधना का उत्कृष्ट पक्ष प्रस्तुत किया है जिसका उद्देश्य यह भी माना जा सकता है कि रइधू ने जिन धर्म और अन्य धर्म या सम्यक्त्व और मिथ्यात्व तथा सदाचार और दुराचार की समग्र झाँकी प्रस्तुत की है। सदाचरण और दुराचरण का संघर्ष ही प्रस्तुत काव्य का सत्रांधिक उदात्त-तत्त्व है और इसी के समग्र चित्रण करने के लिए कवि ने पार्श्वनाथ के चरित का आश्रय लिया है। भावाभिव्यञ्जना के समावेश की ऐसी पराकाष्ठा इस काव्य में ही देखने को मिलती है जो कि आन्तरिक भावों के प्रस्फुटन और अन्त:सत्य के उद्घाटन में सहायक हई है।
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पञ्चम परिच्छेद सामाजिक जीवन
परिवार
परिवार सामाजिक जीवन की रीढ़ है। परिवार में पति और पत्नी के अतिरिक्त माता पिता, भ्राता-भगिनी, पुत्र-पुत्री आदि रहते हैं।
सामान्यतया परिवार के सदस्यों के पारिवारिक सम्बन्ध अच्छे होते थे। परिवार का स्वामी वयोवृद्ध सदस्य या पिता होता था। पिता की कीर्ति का बहुत ध्यान रखा जाता था। जब पिता अश्वसेन यवन नरेन्द्र से युद्ध करने के लिए जाने लगे तो पुत्र पार्श्व ने उनसे कहा- हे तात ! आप ही कहें मुझ जैसे वन हृदय वाले पुत्र के घर में रहते हुए आप (युद्ध में) क्यों जा रहे हैं (मैं अकेला ही) कालयवन को रणभूमि से उखाड़ फेकूँगा और जय श्री को अनुरागपूर्वक अपने हाथों में ग्रहण करूँगा। मुझ जैसे पुत्र के रहते हुए हे राजन् ! आपका युद्ध में जाना क्या योग्य है? भाई का भाई के प्रति अनूठे प्रेम का उदाहरण मरुभूति के चरित्र में मिलता है। जब राजा अरविन्द ने नगर के लोगों से यह सुना कि मरुभूति का भाई कमठ अपने भाई की पत्नी से व्यभिचार करता है। तब वह मन में कुपित होता है और मरुभूति से कहता है कि "नगर में इस अनिष्ट कारी, धृष्ट, प्रमत्त, दुष्ट, पापकर्मी एवं निकृष्ट कमठ का होना इष्ट नहीं है। वह तुम्हारे लिए लज्जाकारी एवं कुलाचारसे भ्रष्ट है, उस भ्रष्ट को मैं नगर से निकालता हैं। राजा की बात सुनकर वाक्पटु, मरुभूति अदौनभाव से बोला "तीनों लोकों में श्रेष्ठ नीति के विचारक हे राजराजेश्वर, भट्टारक, आपने यह क्या कहा है? कमठ कुलाचार का पालक एवं सद्वेदों के अर्थ के स्वाध्याय में नित्य प्रवीण है। वह निन्ध परदारा को कैसे चाह सकता है? वह मेरा अनिन्ध ज्येष्ठ भाई है, तुम्हें किसी पापी ने झूठ ही कह दिया है। हे नरेन्द्र ! वह माननीय नहीं है, (सर्वथा) अयुक्त है। __राजा अरविन्द को समझाकर जब मरुभूति सुख से रह रहा था, तभी किसी अन्य दिन जब वह घर में ही था, तब एक व्यक्ति ने उससे कहा-"तुम्हारा भाई
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तुम्हारी गृहिणी में अनुरक्त है। मेरा कहा हुआ वह वचन (तुम) अपने हृदय में मानो। यह सुनकर सत्यसन्धायक वह मरुभूति बोला-क्या 'माई कमठ ऐसा कर्म कर सकता है? भाई के ऐसे दोष कहकर दुष्टजन बान्धवों के स्नेहभाव में फूट डाल देते हैं।
जब राजा ने कमट को कुकर्मी मानकर निकाल दिया तो मरुभूति ने लज्जित होकर ताम्बूल एवं विलेपन छोड़ दिए। दिन रात (वह) अन्यमनस्क रहने (और सोचने) लगा। बान्धव के बिना मन्त्रीपन से क्या ऐसा विचारकर वह राजा के मना करने पर भी भाई से क्षमा याचना करने हेतु गया। पञ्चाग्नि तपस्या से तप्त शरीर वाले भाई को नमस्कार किया और बोला-"तपोलक्ष्मी के धारी हे बन्धुवर, तुम मुझे क्षमा करो, क्षमा करें, मैं तो अविनीत हूँ।" यह कहकर उसके चरणों पर अपना सिर रखकर जब तक वह विनयपूर्वक बोल ही रहा था कि छली कम: शिला के भावात से मर लि. को मार डाला इस प्रकार भ्रातृप्रेम के बदले मरुभूति को अपने प्राण गँवाने पड़े। भाई के प्रति भाई की क्रूरता का उदाहरण कमठ के चरित्र में प्राप्त होता है नारी की स्थिति :
'पासणाहचरिउ' में सुलक्षणा और कुलक्षणा दोनों प्रकार की नारियों का उल्लेख है। अच्छी नारी पत्ति के मन के पोषण करने में सावधान, 5 प्रेम से निबद्ध देह वाली, शील की आगार स्वरूपा, देवगंगा की गति के समान प्रकटित लीलाओं वाली, परिवार की पोषक, शुद्ध शील युक्त, नररत्नों की उत्पत्ति के लिए मानो खानस्वरूप, गति में हंसिनी के समान, वाणी में कोयल के समान, सौभाग्य एवं रूप सौन्दर्य में चेलना के समान अथवा राम के साथ सीता के समान, सुखों की खानि, मधुरभाषिणी, हाव-भाव एवं विभ्रमों की जलवाहिनीठ तथा कामदेव के लिए रति के समान अत्यन्त बुद्धि-मती होती हैं।
3 पासणाहचरिउ 6.5 4 वही 6/8 5 वही 115 6 वहीं 1/6 7 वही 6/3 8 वही 6/15 9 चही 7/9
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कुलक्षणा स्त्री कुटिल चित्त वाली, चञ्चल यौवन के मद से सर्वत्र मत्त, नरक-पृथ्वी के समान अनेक दु:खों की खानि, कुल को मलिन करने वाली, दुष्टा तथा अपयश की योनि होती है।
'पासणाहचरिउ' में सपुत्र एवं कुपुत्र दोनों के लक्षण प्राप्त होते हैं। सुपुत्र प्रसन्न घटेन, नसीधावनिक्षणों में युतीयसको अन्तित राहसी, सहस्रों को अकेन्ना जोतने वाला, विज्ञान में कुशल, जिनेन्द्र द्वारा भाषित सूत्रों को जानने वाला, राज्य कार्य एवं व्यापार कार्य में कुशल, गम्भीर, यशस्वी, बहुगुणज्ञ, प्रभावान, ऋषि एवं देवभक्त, गृहस्थी का भार धारण करने में धुरन्धर, कमल के ममान (सौम्य मुख, देवोपम, सभी का निन्य श्रेष्ठ उपकार करने वाला, क्ल को प्रकाशित करने वाला, निखिल विद्या विलास को प्राप्त, जिन सिद्धान्त रूपो अमृत रस ये तृप्त 11 पिता के हाथों का रन.12 बुद्धि में बृहस्पति के समान अथवा धन कुबेर, पृथ्वी पर माना माक्षर होकर ही आया हुआ, पवित्र चित्त वाला . सुन्दर शरीर वाला. मेरु पर्वत के समान निर्मल एवं लोगों द्वारा नमस्कृत,13 दिशाओं का श्रृंगार, याचक जनों के मन की निर्धनता को दूर करने वाला, गुणों का सागर तथा चन्द्रमा के समान सौम्य होता है।14
कुपुत्र अपने अपयश से आच्छादित होता है।15 वह कलुषित मन वाला, दुर्नयकारी, काले नाग के समान कुटिल चालों वाला, कुत्सित कानों वाला अथवा कुत्सित शास्त्रों का ज्ञाता, परछिद्रान्वेषी तथा अत्यन्त अभिमानी16 होता
भोजनपान :
'पासणाहचरिंउ' में प्रिय वास से सुवासित, ताजे लक्ष लक्ष पक्वान्न स्वनिर्मित स्वक पात्रों से सजाकर रखे जाने का उल्लेख हुआ है।17 यहाँ निर्मल
10 पासणाचरिउ 3 1] वही 16 17 वही 45 13 वा 62 14 वहीं 79 15 वी 48 | वही 62 17 वाटी 213
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शालि बीजों की छोटी-छोटी ढेरियाँ लगाने का भी उल्लेख है। मांसाहार की यहाँ निन्दा की गई हैं। कहा गया है कि जीवों को मारने से वसा, रुधिर, मैदा एवं अस्थिमिश्रित मांस की उत्पत्ति होती है। जो पापी व्यक्ति निर्दोष तिर्यञ्च का वधकर मन में रागपूर्वक उसके मांस का भक्षण करता है, वह मनष्य के रूप में प्रत्यक्ष यम कहा जाता है। ऐसा जानकर तथा उसकी निकृष्ट स्थिति सुनकर मांसभक्षण को छोड़ देना चाहिए।19 भोजन दिन में ही करना चाहिए तथा अनछना पानी नहीं पीना चाहिए।20
मद्यपान गर्हित माना गया है। मद्यपान करने वाले नरक में जाते हैं।1 मद्यपान की गणना सप्तव्यसनों में की गई है 2 मद्यपान से उन्मत्त व्यक्ति भटकता फिरता है। लज्जा छोड़कर वह नीच कार्य करने लगता है, कोई भी उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। मदिरापायी अनर्गल प्रलाप करता हुआ घूमता है।23 बीमारी :
रइधू ने 'पासणाहचरिउ ' में पित्तदाह24 नामक बीमारी का उल्लेख किया है। लोगों की यह बीमारी बालक पाव के प्रभाव से भङ्ग हो गयी। विद्यायें :
'पासणाहचरिउ' में आगमशास्त्र25 तथा वेद 26का उल्लेख हुआ है। आगमशास्त्र से यहाँ तात्पर्य जिनवाणी से है और वेद के अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुवेंद, सामवेद तथा अर्थववेद आते हैं। वेदों में स्वरगान का विशेष महत्व है। तृतीय सन्धि नें कहा गया है कि राजकुमार पार्श्व के प्रभाव से अर्ककीर्ति की सेना उसी प्रकार त्रस्त हो गई, जिस प्रकार वेदगान में स्वरभग्न होने से कोई ब्राह्मण यति भ्रष्ट हो जाता है।27 विद्याध्ययन करने वाले सुशिष्य का मन यञ्चल
18 पामणाहचरित. 2:13 19 वहीं 5/9 20 वही 5/8 21 वही 3/24 22 वहीं 5/8 23 वही 5/10 24 वहीं 2/13 25 यही 1/7 26 वहीं 67 27 वहीं 3/8 PASxesrushesnessessies145 Resrustestswersruster
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नहीं होना चाहिए। धरणेन्द्र के विषय में कहा गया है कि उसके मुख में लपलपाती हुई जिल्ह्वा समूह कुशिष्य के मन के समान अत्यन्त चञ्चल हो रही 2f128
विद्याध्ययन हेतु विशाल सङ्घ शालायें29 हुआ करती थीं, जहाँ भव्यजन गोष्ठियाँ करते थे।
वाणी में मागधी वाणी की प्रशंसा की गयी है। जिनेन्द्र भगवान की मागधी वाणी सर्वत्र जीवों में प्रेम उत्पन्न करने वाली एवं आशा को पूर्ण करने वाली होती थी 30
शकुन :
ऐसी आकस्मिक घटना को, जिसे भावी शुभाशुभ का द्योतक समझा जाता हैं, शकुन कहते हैं अथवा भावी शुभ या अशुभ फल की द्योतक किसी घटना, अद्भुत दृश्य या संयोग को शकुन कहते हैं । सूचक संकेत एवं भावी घटना में कार्य कारण नहीं होता । शकुन वस्तुतः ऐसा संकेत है जो कारणान्तर से उत्पन्न होने वाले कार्य की सूचना मात्र देता है, स्वयं उस भावी घटना का कारण नहीं होता है। 31 वराहमिहिर के अनुसार शकुन जन्मान्तर में कृत कर्म के भावी फल की सूचना देता है | 32 'पासणाहचरिउ' में वामा देवी के 16 स्वप्न तथा उनके फलों का वर्णन है। ये स्वप्न उसने पश्चिम रात्रि में देखे थे। सर्वप्रथम उसने सुगन्धित कर्णो से युक्त, चन्द्रकिरण के समान स्वच्छ चार धवल दाँतों वाले एवं प्रचण्ड गर्जन करने वाले गजेन्द्र को देखा, फिर ढिक्कार छोड़ते हुए, विशाल कन्धों वाले तथा सैकड़ों प्रकार के सुख देने वाले वृषभ को देखा। (पुनः) अपने नाखून वाले पंजों को ऊपर उठाए हुए, घुमंची के समान अरुण नेत्र वाले एवं मृगों के प्राणों का हरण करने वाले एक मृगेन्द्र को देखा। (तत्पश्चात् ) जगवल्लभा लक्ष्मी को अपने समीप देखा तथा भ्रमरों से शुक्त श्रेष्ठ पुष्पमाला को देखा । तदनन्तर अमृत को धारण करने वाला परिपूर्ण कलाकर, तिमिर के भार
28 पासणाहचरित 4:11
29 नही 4/15
30 वही 4/16
31 डॉ. रमेशचन्द जैन : पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति अस्य जन्मान्तर कृतं कर्म पुंसां शुभाशुभम्।
32 यत् तस्य शकुन पार्क निवेदयति गच्छताम् ॥
वराहमिहिर : वृहत्संहिता, पृ. 500 अध्याय 86/5
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का नाशक भास्कर, सरोवर में क्रीड़ा करते हुए मीन युगल तथा आकाश में पल्लवशोभित घट युगल को देखा। और भी, विमल जल से युक्त कमलाकर, जलवर समूहों से चपल रत्नाकर, स्त्रमय सिंहासन एवं आता हुआ शक्र विमान देखा । बहुशोभासम्पत्र नागालय, आश्चर्यचकित करने वाला रत्न पुञ्ज, निर्धूम एवं सीधी शिखा वाली अग्नि देखी
पूछने पर राजा अश्वसेन ने उपर्युक्त स्वप्नों का फल इस प्रकार कहा- तुम्हारा पुत्र सन्त होगा, जो भव रूपी भुजङ्ग के विष के लिए गारुड़िक मन्त्र के समान होगा।
1. हाथी के स्वप्रदर्शन का यह फल है कि वह गुरुओं का गुरु एवं ज्ञान का सागर होगा ।
2. वृषभ के देखने का फल यह है कि वह अतुलित बल एवं शक्ति का घर होगा ।
3. सिंह के दर्शन के फलस्वरूप तह (यौन) काल में भी शील के भार का निर्वाहक एवं दूसरों के साथ संसार को पार उतारने वाला होगा। 4. लक्ष्मी के दर्शन से वह समवसरण में निवास करेगा।
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5. युगल पुष्पमाला के दर्शन से वह श्रेष्ठ यशरूपी प्रकाश से 6. चन्द्र दर्शन से वह समस्त कलाओं का स्वामी होगा। भास्करदर्शन से वह लोकालोक को प्रकाशित करेगा ।
7.
8. मीन युगल के दर्शन से वह तप-विलास में क्रीड़ा करेगा।
9. घट युगल के दर्शन से वह नवनिधि रूपी लक्ष्मी का निवासस्थल बनेगा।
10. कमलाकर के दर्शन से वह शिव सुख का स्थान होगा।
11. रत्नाकर दर्शन से वह सर्वप्रधान होगा।
12. स्वर्णसन के दर्शन से वह त्रैलोक्य का स्वामी बनेगा।
होगा।
13. इन्द्र विमान के दर्शन से वह इन्द्र द्वारा सेवित होगा।
14. नागालय के दर्शन के फलस्वरूप ( वह ऐसा महान होगा कि ) इन्द्र भी उसे प्रणाम करेगा।
15. रत्न पुज के दर्शन से वह मोक्षलक्ष्मी से रमण करेगा।
33 प्रासणाहचरित 2/3
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16. अग्रिशिखा के दर्शन से वह नाथ अत्यन्त घने कर्म रूपी ईंधन को विशेष रूप से जलायेगा 34
वर्ण
:
गोपाचल नगर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वहाँ उत्तम चतुर्वर्ण के लोग पुण्य से प्रकाशित दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरण करते रहते हैं 35 चतुर्वर्ण से तात्पर्य यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण से है।
विभिन्न जातियाँ एवं वर्ग :
'पासणाहचरिङ ' में विभिन्न जातियों या वर्गों के नाम आए हैं। ये जातियाँ एवं वर्ग निम्नलिखित हैं :
1. वणिक् 36 - गोपाचल वर्णन के प्रसङ्ग में कहा गया है कि वहाँ वणिक् श्रेष्ठ पदार्थों का व्यापार करते हैं।
ब्राह्मण :
एकत्वानुप्रेक्ष्य के प्रसङ्ग में कहा गया है कि जीव अकेला ही ब्राह्मण, शूद्र अथवा वणिक् बनता है | 37 पद्मचरित में ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले को ब्राह्मण कहा है 38
39
शूद्र :
जो नीच कार्य करते थे तथा शास्त्र से दूर भागते थे, उन्हें शूद्र संज्ञा प्राप्त हुई । शूद्रों के प्रेष्य आदि अनेक भेद थे 40
चरड 41 - लुटेरे ।
कुसुमाल 42 - चोर |
34 नही 214
35 पासणाहचरिठ 1/3 36 वही 1/3
37 वही 3/17
38 ब्राह्मणों ब्रह्मचर्यंत, पद्मचरित 6 / 209
39 पास 3:17
40 शूद्रसुंपती भेद्रो आषिभिरिस्तव यशचरित 3/258
41 पास, 1/3 42 वही 1/3
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म्लेच्छ (मिच्छ):
गोपाचल नरेश डूंगर सिंह के विषय में कहा गया है कि वह म्लेच्छ वंश को दहा देने वाला था।43 भारतक्षेत्र की स्थिति के सन्दर्भ में कहा गया है कि सरोवरों एव गुफागों को पूर्ण करने वाली गदामाद लिन्च परियों द्वारा भरत क्षेत्र के छह खण्ड किए गए हैं। उनमें से दक्षिण भरत के तीन खण्डों में से मध्य का खण्ड आर्यखण्ड है और शेष पाँच खण्डों में भयानक म्लेच्छों का निवास है। जिन भगवान का धर्म वहाँ नहीं जाना जाता है।+4 नट:
नट तरह तरह का वेष धारण कर45 विचित्र प्रकार की चेष्टायें करते थे।6 'पद्मचरित' में कहा गया है कि संसारी प्राणियों की अनेक जन्म धारण करने के कारण नट के समान विचित्र चेष्टायें होती हैं।17 'पासणाहचरिउ' में कहा गया है कि समवसण में नर पटु-पटह के शब्द के अनुसार आश्चर्यकारक नृत्य कर रहे थे। वहाँ एक नटशाला भी थी48 पण्डित49 :
जिसकी सदसद्विवेकिनी बुद्धि हो वह पण्डित है। संधपति (संघवी):50 ___ प्रचीनकाल में व्यापार अथवा तीर्थ यात्रादि के लिए संघ बनाकर जाया करते थे। इन संघों का एक मुखिया होता था, जिसे संघपति कहते थे। उसी संघपति का अपभ्रंश रूप संघवी, संग, सिंघई तथा सिंधी आज भी मिलता है। गोपालक :
गायों की रक्षा करने वाले।
43 पास. 1/4 44 वही 5/27 45 पद्मचरित 12/310 46 वही 85/92 47 वही 85/92 48 पास. 4/15 49 बही 115 50 वही 1/7 51 वहीं 1/9
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poleste सूणार52 (कसाई) :
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'पासणाहचरिउ' में कहा गया है कि जिस प्रकार बकरा अस्थि, वासा, अजश्रृङ्गादि वीभत्स पदार्थों से भयानक सूजार (कसाई) के घर में चिल्ला हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जीव भी मृत्यु को प्राप्त होता है।
शबर :
जो जंगल में रहते थे और शिकार आदि किया करते थे, उन्हें शबर कहा जाता था। 'पद्मचरित' के 32 में पर्व में इनका शर्वरी नदी के किनारे रहने का उल्लेख मिलता है |54
धीवर :
सरोवर में जाल डालकर जीविकोपार्जन करने वाली जाति । सुरम्य देश के पोदनपुर नगर की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वहाँ धीवर भी सरोवर में जाल नहीं डालते 155
आभूषण :
सोवण चूड (सोने के कड़े) : 'पासाणाहचरिउ' में गोपाचल नगर की सोने के कड़े से मण्डित नारियों का कथन है |56
डर (नूपुर) : नूपुर सादे या मणिजटित और मधुर झंकार करने वाले घुंघुरुओं से युक्त होते थे। इन्हें जल्दी से पहनाया उतारा जा सकता था 57 वामादेवी के चरणों में धारण किए हुए नूपुर इस प्रकार शब्द किया करते थे, मानो वे उसके आज्ञापालक किंकर ही हों 158
केडर (केयूर) : बाँहों में भुजबन्द ( अंगद या केयूर) पहनने की परम्परा स्त्री और पुरुष दोनों में थी । 'पासणाहचरिठ' में इन्द्र द्वारा बालक पार्श्व को माणिक्य केयूर धारण कराने का उल्लेख हुआ है। 59
52 पास. 3/18
53 वही 6/16
54 पद्मचरित 32/29
55 पास 6/1
56 वहीं 1/3
57 शान्तिकुमार नानूराम व्यास: रामायणकालीन संस्कृति पृ. 61
58 पास 1 10 59 वही 2/14
150 (253)
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कटक (कडय): पद्म चरित' से ज्ञात होता है कि कड़े की आभा से किरणें निकला करती थीं, जिनसे हाथों की हथेलियाँ आच्छादित हो जाती थी 'पासणाहचरिउ' में मणिक्य कडय का उल्लेख है।
कड़िसुन : (कटिसूत्र) कटिबन्धन को कठिसूत्र कहते हैं। मेखला : मणियों की दानेदार करधनी।
हारश्न : इन्द्र ने शिशु या को जो आभूषण पहिनाए, उनमें कण्ठहार में था। हार प्रायः रत्रों या मणियों से गूथें जाते थे। रामायण में हारों को चन्द्ररश्मिय। की सी कान्ति वाला बतलाया गया है।65.
मुकुट (मउड): 'पासणाहचरिउ' की द्वितीय सन्धि में रन्नमुकुट का उल्लेख हुआ है। वस्त्र:
देवदूष्य (देवंग वत्थ) : इन्द्र द्वारा शिशु पार्श्वको देवंग वत्थ (देवदूष्य) धारण कराया गया था67. . .
प्रसाधन : वामादेवी का शचियों द्वारा प्रसाधन उस समय के प्रसाधन के विषय में कुछ प्रकाश डालता है। कोई शची तो वामादेवी का सुन्दर-सुन्दर पदार्थों से उबटन करती थी, कोई-कोई शची क्षीर सागर जाती थी और वहाँ से विशुद्ध जल लाकर उसे स्नान कराती थी। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो वर्षाकाल दुग्ध की वर्षा कर रहा हो। कोई-कोई सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्र प्रदान करती थी तो कोई साक्षात् आभरण पहनाती थी। कोई सिर के केशपाशों को द्विरेफ या भ्रमर की आवाज सहित मालती पुष्प की माला से रसाल मस्तक प्रदेश को संवारती थी कोई-कोई कपोलों पर सुन्दर चित्र लिखती थी तो कोई
60 पद्म 33/131 61 पास. 2/14 62 वही 2/14 63 चही 2/14 64 बहो 2/14 65 शान्तिकुमार नानृराम व्याम्म : रामायणकालीन संस्कृति प.60 66 पास. 2/14 67 पास. 2/14
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(अपने) हाथ से दर्पण दिखाती थी। कोई पावं में स्थित होकर सुन्दर चैंबर दुराती थी।68 कलायें :
पासणाहचरिउ में गीत, नृत्य, वादित्र और मूर्तिकला का उल्लेख प्रास होता है।
गीतकला : द्वितीय सन्धि में कहा गया है कि कोई शची सुन्दर गीतों से वामादेवी के लित्त को मोहित करती थी 6ि9
नृत्यकला : जिनाभिषेक विधि के समय इन्द्र ने सूर्यकान्ति के समान दीप्स स्वर्णभाजन में चित्त को सुख देने वाला, धूमरहित शुद्ध दीपक सजाकर दुन्दुभि के साथ नृत्य किया, मानो वह सहस्र भुजाओं से उन भगवान की पूजा कर रहा हो।70
वाद्यकला :
पटही 1.. पार्श्व प्रभु के समवतरण में नटपटु पटह के शब्द के अनुसार आश्चर्यजनक नृत्य कर रहे थे।/2 पटह आवनूस की लकड़ी से बनाया जाता था। उसकी लम्बाई 211 हाथ की है। मध्य में घेरे का नाप 60 अङ्गुल है। दायें मुख का व्यास 11 अंगुल है। बायें मुख का व्यास 10 अङ्गुल है। दाहिनी ओर लोहे का पट्टा होता है। बायीं ओर लताओं का पट्टा लगाना पड़ता है। उसमें चारअङ्गुल दूर लोहनिर्मित तीसरा पट्टा लगता है। दोनों और मृत बछड़े के चमड़े से मढ़ाया जाता है। बायीं ओर के चमड़े के घेरे में सात छिद्र बनाकर उनमें पतली रस्सी से सोने, चांदी आदि से बनाए हुए चार अङ्गुल लम्बे सात कलशों को ढीला बांधा जाता है। दाहिनी ओर से उन्हें फिर उस चमड़े से बाँध दिया जाता है। इसे कोण नामक साधन या हाथ से बजाते हैं। इसी तरह का पटह कुछ छोटा रहे तो उसे देशी पटल या अड्डात्रुज कहते हैं।/3
68 पासणाहचरिठ 2:2 69 वही 212 70 वही 2/13 71 वही 2/6 72 वही 4/15 73 डॉ. रमेशचन्द्र जैन : पद्मारत में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति, पृ. 155
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दुन्दुभि74 : जिनाभिषेक के समय देवों द्वारा दुन्दुभि बाजों का बजना जैन साहित्य में प्रसिद्ध है। दुन्दुभि की ध्वनि मधुर और उच्च होती थी। यह एक मुँह वाला चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य है और डण्डे से पीट पीटकर इसका वादन किया जाता है। मङ्गल और विजय के अवसर पर इस वाद्य का विशेष प्रयोग होता था दुन्दुभि को मधुर और कटु दोनों ही प्रकार के वाद्यों में ग्रहण किया जाता है। 75 ____ कसाल76 : घनवाद्यों में कंसाल या कास्यताल का सर्वप्रथम उल्लेख किया जाता है। इनका जोड़ा होता है। ये छह अगुल व्यास के गोल काँसे के बने हुए बीच में से दो अगुल गहरे होते हैं। मध्य में छेद होता है, जिसमें एक डोरी द्वारा वे जुड़े रहते हैं और दोनों हाथों से पकड़कर बजाए जाते हैं। इसकी ध्वनि बहुत देर तक गूंजती हैं।
तूर78 : तूयं या तूर प्राचीन का है। इरको गगन, सुषित पाटों में हैं। समान में इसे तुरही कहते हैं। तुरही के अनेक रूप हैं। यह दो हाथ से लेकर चार हाथ तक की होती है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने कहा है कि तुर्य की अपेक्षा तर कुछ कठोर वान है, यद्यपि दोनों एकार्थक प्रतीत होते हैं।79 'पासणाहचरिउ' के अनुसार पार्श्वनाथ के वनगमन के पूर्व लाखों तूर बज उठे थे,80 इससे स्पर है कि यह एक मृदङ्ग वाद्य है। क्रीडायें: ___ 'पासणाहचरिंउ' में गेंद, गम्मत,81 हिन्दोला,82 द्यूतक्रीड़ा तथा शिकार का वर्णन है। द्यूतक्रीडा तथा शिकार की यहाँ निन्दा की गई है। तृतीय सन्धि में कहा गया है कि धन एवं सुख इन्द्रधनुष के समान अस्थिर हैं। वे जुए के धन के
74 पासणाहचरिउ 2/12,4/1 75 डॉ. नेमिचन्द शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत पृ. 318 76 पासागाहचरिउ 2/12 77 संगीतराज 3:314:6 16 78 पासणाहचरिंउ 4/1 79 आदिपुराण में प्रतिपादित भारत,पू. 320 80 पास. 41 81 झिंव-गेंदो-पमुहाई लील, वही 2/15 82 वहीं 2:15
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समान क्षणभर मे दुसरे के हो जाते हैं।83 पञ्चम सन्धि में कहा गया है कि धृष्ट, पापिष्ठ एवं दर्पिष्ट बृतान्ध मनुष्य जन्म भर भी विशिष्ट कर्मों का अनुमरण नहीं करता। वह गुणहीन जुआरी व्यक्ति घर का द्रव्य चुराकर ले जाता है और उस सबको हारकर भयत्रस्त होकर भटकता रहता है। पली, पुत्र और बहिन उसका विश्वास नहीं करती, सभी लोग उसे देखकर उसका उपहास करते हैं। उसके लिए न घर होता है और न गृहिणी, न भूख, न प्यास और न निद्रा और वह लोगों के घरों में छिद्र हूँढ़ता रहता है।84 ___ शिकार खेलना ( पारद्ध) भी अनर्थी एवं दःख का कारण हैं। अत: निर्दोष प्राणियों को नहीं मारना चाहिए। बेचारे शकर, साँभर एनं हिरण अपने शरीर की रक्षा करते हुए वन में घूमते रहते हैं। दाँतों के अगभाग में तृण दबाए एवं भय से काँपते गये शर्वत. ही सरकार सरकारों में रहा करते हैं। जो पापी उन्हें पकड़कर मन्ताप देता है, वह अनन्तः दुःखों को प्राप्त करता है। जो कुत्तों के उच्छिष्ट का भक्षण करता है, नरक में गिरते हुए उसे कौन बचा सकता है? जो जीव दुर्लभ गुण को जानता है, सो निग्य एवं हितकारी रत्नत्रय का ध्यान करता हैं। जो अपने शरीर की वेदना को जानता है, वह अन्य के प्राणों का विध्वंस नहीं करता।
सदबुद्धि वाला व्यक्ति तिर्यञ्चों को भी अपने बच्चों के समान मानता है, उनकी रक्षा करता है और वध नहीं करता। वह व्यक्ति कहीं भय नहीं देखता। पृथ्वी एवं स्वर्गभवनों में वह देवियों का भोग करता हुआ ज्ञान का धारी बनता है।85 आर्थिक जीवन :
'पासणाहरिड' में समन्नत आर्थिक जीवन की झाँकी प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ गांपाचल में पाण्डुर एवं सुवर्ण वर्ण वाली अनेक पताकाओं से युक्त जिन मन्दिर, तारण तथा अट्टालिकाओं से सुशोभित हयं, चारों ओर बाजार, चौक, दुकानों में विविध प्रकार की सानियाँ, कसौटियों पर भौम्यखण्ड, स्वर्ण रेखा नदो एवं सप्तव्यसनों से गहत लोगों का सद्भाव था। उसमें श्री मान और
83 पासाहचर3:14 84 वहीं 579 85 बहो 5:11
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घीमान दोनों रहते थे। सुख, समृद्धि एवं यश के लिए वह रत्नाकर के समान आकर था, बुध जनों के समूह के लिए वह इन्द्रपुरी था तथा जनमन को आकर्षित करने वाले सर्वश्रेष्ठ नगरों का वह गुरु था।86 उसका राजा डॉगरेन्द्र कुबेर के समान प्रचुर धन का धनी था।87 काशी देश के वर्णन के प्रसङ्गम में कहा गया है कि वह लक्ष्मी के घर के समान था। वहाँ शुभ्र वर्ण वाले गोसमूह धान्यकण चरा करते थे।88 सुरम्य देश में विपुल आराम वाले ग्राम बसे थे। वह वृषभ ढिक्कराते हुए घूमते थे और गायों के साथ धान्य चरते थे। वहाँ घना दूध दें वाली भैसें भी थीं, फल और फूलों से युक्त उद्यान थे, पुंड के खेत रस के बहाते थे, उपवन फलों से झुके थे तथा अतिशोतल जल से पृरित परिता औ सरोवर व्रतों को पालने वाले शान्त प्रकृति वाले व्यक्तियों के समान थे।
86 पासणाचा? 3 113 87 वहीं 11 8: नहीं । H9 वही 6]
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पष्ठ परिच्छेद पासणाहचरिउ में वर्णित राजनैतिक व्यवस्था
साहित्य समाज का दर्पप हो ।। है। किसी भी उम्र के समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जानकारी का स्रोत तत्कालीन साहित्य ही होता है। मनुष्य ने अपने आरम्भिक समय से लेकर आज तक किसी न किसी रूप में राजसत्तात्मक शासन को ही अपनाया है। चाहे वह भारतीय लोकतंत्र हो या अमेरिका की अध्यक्षात्मक प्रणाली। फ्रांसीसी विचारक बोसे के अनुसार- "राजतंत्र प्राचीनतम, सबसे अधिक प्रचलित, सर्वोत्तम तथा सबसे अधिक स्वाभाविक शासन का प्रकार है।" महाकवि रइधू ने अपनी कृति "पासणाहचरिउ" में भगवान् पार्श्वनाथ के पौराणिक कथानक के वर्णन को ही मुख्य लक्ष्य रखा है, फिर भी प्रसगंवश उसमें तत्कालीन राजतंत्र और शासन व्यवस्था का विवेचन भी आ गया है जिसमें तत्कालीन राजनीति का एक लघु एवं महत्वपूर्ण चित्र उपस्थित होता है। संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैं .. राजा (नृप):
राजा (राजन्) शब्द का शाब्दिक अर्थ शासक होता है। लेटिन में राजा के लिए रेक्स (Rex ) शब्द का प्रयोग हुआ है, जो इसी अर्थ का द्योतक है किन्तु भारतीय परम्परा में राजा की एक विशिष्ट व्याख्या की गई है। हरिवंश पुराण में राजा की स्पष्ट और सर्वाङ्गीण परिभाषा इस प्रकार की गई हैं "उसे (राजा को) मनुष्यों की रक्षा करने के कारण नप, पृथ्वी की रक्षा करने के कारण भूप और प्रजा को अनुरञ्जित करने के कारण राजा कहते हैं।''2 महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा राजा शब्द की व्याख्या करने का निवेदन किए जाने पर भीष्म उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि "समस्त प्रजा को प्रसन्न करने के कारण उसे राजा कहते हैं।''3 महाकवि कालिदास ने रघुवंश में रघु का वर्णन
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राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त, लेखक-पुखराज जैन, पृ. 261 नपस्तवं रक्षणान्नृणां भूपो रक्षणतो भुवः ।
त्वमेव जगतो राजा, राजन् प्रकृतिरञ्जनात् ॥ ___ महाभारत, शान्तिपर्व 59:125
हरिवंश पुराण 19:16
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करते हुए कहा है कि-रघु ने प्रजा का रंजन करके अपना राजा नाम सार्थक किया। इससे शासक को राजा कहने का प्रयोजन स्पष्ट होता है। अतः "राजा" शब्द की निष्पति "राज+कनिम्" को अपेक्षा "र+कनिन्" भारतीय परिवेश में अधिक सटीक है। बौद्धों के पालि साहित्य में भी राजा की यही सैद्धान्तिक न्याख्या गालब्ध होती है 5 दानीपसिंह अनुमार राजा द्वारा समस्त पृथ्वी एक नगर के समान रक्षित होने पर राजन्वती (श्रेष्ठ राजा वाली) और रत्नसू (रलों की खान) हो जाती है। राजा जन्म को छोड़कर सब बातों में प्रजा का माता पिता है, उसके सुख और दुःख प्रजा के आधीन हैं। राजा दण्डयोग्य व्यक्तियों को दण्डविधान और अदण्डयोग्य व्यक्तियों को सम्मानपूर्वक प्रजाओं को भलीप्रकार शत्रुओं के हाथ से रक्षा करके पालन करता है तो प्रजागण भी धन-धान्यादि के द्वारा राजा की सम्पत्ति को बढ़ाता है। बढ़ाना और रक्षा करना, इनमें रक्षा करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि शत्रुओं के हाथ से प्रजा की रक्षा न करने से राजा का मंगल नहीं होता। आचार्य सोमदेव के अनुसार जो धर्मात्मा, कुलाचार व कुलीनता के कारण विशुद्ध प्रतापी, नैतिक दुष्टों से कुपित व शिष्टों से अनुरक्त होने में स्वतंत्र और आत्मगौरवयुक्त तथा सम्पत्तिशाली हो, उसे स्वामी (राजा) कहते हैं ___'पासणाहचरिउ' के अध्ययन से पता चलता है कि राजा अश्वसेन ऐसा ही राजा था, जो अपनी प्रजा का सदैव ध्यान रखता था, जो अपने कुलरूपी कमलों . के लिए दिनकर के समान तथा लावण्य और गम्भीरता में परिपूर्ण आवर्त (शारीरिक चेष्टा विशेष) से मण्डित शरीर वाला था, जिसने रणक्षेत्र में पराक्रमी शत्रुजनों का विग्रह किया था और जो ऐसा था, मानो पृथ्वी पर धर्म ही अवतीर्ण हो गया हो अथवा जय लक्ष्मी ने मानो नवीन वर ही धारण कर लिया हो। 10
तथैव मोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् || रघुवंश 4:12 "धम्मेन परे रंजतीति खो वासेठ राजा, राजा त्वेव ततियं अखरं" उपनिब्बतं । दीघनिकाय (पालि) पथिकवग्ग अग्गज्ञसुत्त 3/21. .73 छत्रचूड़ामणि 11/2 वही 11/4 प्रजा संरक्षति नपः सा वर्द्धयति पार्थिवम् । वर्द्धनाद्रक्षणं श्रेयस्तदभावे सदप्यसत् ।। कामन्दकोयनीतिसार 1/12 नीतिवाक्यामृत 17:13 रइभ्रू : पासगावरिंउ 1/10
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राजा अरविन्द भी गुणों का सागर एवं सूर्य समान तेजस्वी, शत्रुसमूह को सन्त्रस्त करने वाला था।11 जिसके भय से शत्रुजन जंगलों में निवास करते थे, जिसने सेवक जनों की आशाओं को पूर्ण किया था, जिसके यश ने आठों दिशामुखों को धवलि किया था, जो जय श्री का निवास था, अत्यन्त प्रचुर कोश का स्वामी था और जिसने अपराधियों को दण्ड से खण्डित कर दिया था।12 ___जैन आगमों में सापेक्ष और निरपेक्ष दो तरह के राजाओं का उल्लेख हुआ है। सापेक्ष राजा अपने जीवनकाल में ही पुत्र को राज्यभार सौंप देते थे, जिससे राज्य में गृहयुद्ध की सम्भावना न रहे। निरपेक्ष राजा अपने जीवित रहते किसी को भी राज्य का उत्तराधिकारी नहीं बनाते थे।13
'पासाहपरिउ' सना उमारे सोध रामओं का ही वर्णन किया गया है। राजा अरविन्द ने दिगम्बरी दीक्षा (तपोभार) धारण करने से पूर्व ही राज्य का भार अपने पुत्र को सौंप दिया था।14 राजा के गुण : ___ 'पासणहचरिउ' के अनुसार राजा को गुणवान् अन्याय और न्याय के शासन में प्रवीण, पंचांगमंत्र के नीतिशास्त्र में प्रवीण, शत्रुराजाओं को सन्त्रस्त करने वाला, शूरवीर, अद्वितीय सौन्दर्य से युक्त, विशाल शरीर एवं अतुलित बलशाली, सप्ताङ्ग राज्य के भारवहन करने में समर्थ, दानवीर, साहसी, छत्तीस प्रकार के शस्त्रास्त्र चलाने में निपुण, कुबेर के समान प्रचुर कोश का धनी, यशस्वी15, समुद्र के समान गम्भीर16, प्रजापाल, परिजनों का स्नेह पूर्वक पालन पोषण करने वाला17 होना चाहिए।
'पासणाहचरिउ' में वर्णित राजा इन्हीं गुणों से युक्त हैं।
11 12 १३ 14 15 16 17
पास,6/6 वही 6/2 निशोथसूत्र, सूत्र 71, गाथा 3363 की चुी, पृ. 198 रइधू : पास. 6/10 रइधु : पास. 1/4 वही 1/10 वही 31
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राजा का उत्तराधिकारी :
राजा का उत्तराधिकारी वंशानुगत ही होता था। प्रायः राजा के पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाता था। आदिपुराण से ज्ञात होता है कि यद्यपि सामान्यत: ज्येष्ठ पुत्र राज्य का अधिकारी होता था। किन्तु मनुष्यों के अनुराग
और उत्साह को देखकर राजा छोटे पुत्र को भी राजपट्ट बाँध देता था। यदि पुत्र बहुत छोटा हो तो राजा उसे राज सिंहासन पर बैठाकर राज्य की सब व्यवस्था सुयोग्य मंत्रियों के हाथ सौंप देता था।19 राज्य का अधिकारी बनाते समय योग्यता को प्रमुखता दी जाती थी, ऐसा 'वराङगचरित '20 से पता चलता है। 'पासणाहचरिउ' में भी राजा शक्रवा21 और राजा अरविन्द22 आदि राजाओं के उत्तराधिकारी उन्हीं के पुत्र ही हुए हैं, ऐसा उल्लिखित है। प्राय: राजा वृद्धावस्था या संन्यास से पूर्व अपने पुत्र को ही राज्य भार सौंप दिया करते थे। राज्य के भाग: ___ महाकवि रइधू ने पासणाहचरिउ' में राजा दूंगर सिंह को "सप्ताङ्ग राज्य" के भारवहन करते लिए अपने कन्धे समर्पित करने वाला कहा है।23 इससे राज्य के सात अङ्ग होने की पुष्टि होती है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में स्वामी (राजा), अमात्य, जनपद. दुर्ग, कोश, दण्ड (सेना) और मित्र, ये सात राज्य के अङ्ग कहे गये है।24 महाभारत के शान्ति पर्व में राज्य के ससाङ्ग स्वरूप को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है- आत्मा, अमात्य, कोश, दण्ड, मित्र, जनपद
और पुर; ये सात राज्य के अङग हैं 25 इसमें राजा को राज्य की आत्मा मानते हुए राजा के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुस्मृति2 6 विष्णुधर्मसूत्र27, शक्रनीतिसार2B आदि में भी राज्य के सात अंग ही माने गये हैं।
18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28
आदिपुराण 5/207 वही 8/254 वराङगचरित 2/16 रइधू : पास. 3/1 वहीं 6/10 वहीं 1/4 कौटिल्य अर्थशास्त्र / महाभारत, शान्तिपर्व 5964-65 मनुस्मृति 3294 विष्णु धर्मसूत्र 3/25 शुक्रनीतिसार 161
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'कामन्दकीय नीतिसार' में कहा गया है कि राज्य के सात अंगों में से एक अंग के भी विकल होने से राज्य में गड़बड़ होती है, इस कारण राजा को परीक्षापूर्वक इसकी सम्पूर्णता रखनी चाहिए।29 मन्त्री :
राजतंत्र में राज्यकार्य के सफल संचालन के लिए राजा मन्त्रियों की नियुक्ति किया करते थे। मंत्री भी वंशानुगत ही होते थे किन्तु दुराचारी मंत्रीपुत्र को मंत्री नहीं बनाया जाता था। शुक्रनीति में कहा गया है कि राजा चाहे समस्त विद्याओं में लितना ही दक्ष क्यों न हों फिर भी उसे बिना मंत्रियों की सहायता के राज्य के किसी भी विषय पर विचार नहीं करना चाहिए। रइधू ने राज्य परिषद् के व्यक्तियों का निरूपण करते हुए "पञ्चाङ्ग मन्त्र''1 का उल्लेख किया है। 'कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार कार्यारम्भ करने का उपाय, पुरुष तथा द्रव्य सम्पत्ति, देश-काल का विभाग, विघ्न प्रतीकार एवं कार्यसिद्धि; ये पाँच "पञ्चाङ्गमन्त्र" कहे जाते हैं।12 पञ्चाङ्ग मंत्र का विवेचन : 1. कार्य आरम्भ करने का उपाय : __ अपने राष्ट्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिए उसमें खाई, परकोटा और दुर्ग आदि के निर्माण करने के साधनों पर विचार करना और दूसरे देश में शत्रुभूत राजा के यहाँ सन्धि व विग्रह आदि के उद्देश्य से गुप्तचर व दूत भेजना आदि कार्यों के साधनों पर विचार करना मंत्र का प्रथम अङ्ग है। 2. पुरुष तथा द्रव्य सम्पत्ति : __"यह पुरुष अमुक कार्य करने में निपुण है", यह जानकर उस कार्य में निपुण करना तथा द्रव्य सम्पत्ति-इतने धन से अमुक कार्य सिद्ध होगा। यह क्रमश: पुरुष सम्पत् तथा द्रव्यसम्पत् नाम का दूसरा मंत्र का अङ्ग है।
29 30
कामन्दकीयनौतिसार 412 सर्वविद्यासु कुशलो नृपो हापि सुमंत्रवित् । मंत्रिभिस्तु बिना मत्रं नेकोऽयं चिन्तयेत् क्वचित् ॥ शुक्रनीति 2:2 पास. 1/4 कर्मणायारम्भीपाय: पुरुषद्रव्यसम्पद देश-काल विभागः । विनिपात प्रतीकार : कार्यसिद्धिरिति पन्चाङ्गमन्त्रः ॥ कौटिल्य अर्थशास्त्र 1:10/14
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3. देश और काल :
अमुक कार्य करने में अमुक देश या अमुक काल अनुकुल एवं अमुक देश और काल प्रतिकूल है, इसका विचार करना मंत्र का तीसरा अंग है। 4. विघ्न प्रतीकार :
आयी हुई विपत्ति के विनाश का उपाय चिन्तन करना। जैसे-अपने दुर्ग आदि पर आने वाले अथवा आए हुए विनों का प्रतीकार करना, यह मंत्र का विध्र प्रतीकार नाम का चौथा अङ्ग है। 5. कार्य सिद्धि :
उन्नाति, अवनति और समवस्था; यह तीन प्रकार की कार्य सिद्धि है। जिन सामादि उपायों से विजिगीषु (जीतने का इच्छुक) राजा अपनी उन्नति, शत्रु की अवनति या दोनों की समवस्था प्राप्त हो, यह कार्य सिद्धि नाम का पाँचवाँ अङा है।
देखा जाए तो मंत्री वहीं सफल हो सकता है जो राज्य के अभ्युदय एवं सुरक्षा के हेतु समयोचित परामर्श (मन्त्रणा) देने की क्षमता रखता है। मंत्री के गुण :
महाकवि रइधू ने पासणाहचरिठ में मंत्री के गुणों पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए कहा है कि मंत्री को विविध प्रकार के शास्त्र एवं अर्थों का रत्नाकर (ज्ञाता), कलाकार के समान विविध कलाओं से परिपूर्ण, मति से विशाल. कुल एवं जाति में विशुद्ध, दूसरों के हृदयों के विकारों को जानने वाला, सुप्रसिद्ध, अपने स्वामी के कार्यारम्भ में सम्मान प्राप्त, अपने कुल रूपी कमलों के लिए दिवाकर के समान34 और षट्कर्मों में अनुरक्त 35 आदि गुणों से युक्त होना चाहिए।
सोमदेव के अनुसार राजा का प्रधानमंत्री द्विज, स्वदेशवासी, सदाचारी कुलीन, व्यसनों से रहित, स्वामिभक्त, नीतिज्ञ, 'युद्ध-विद्या विशारद और निष्कपट होना चाहिए|36 'महाभारत' के अनुसार जो काम, क्रोध, लोभ और
33 द्र. डॉ. एम. एल. शर्मा : नोतिन्वाक्यामृत में राजनीति, पृ. 97 34 पास. 3.1 35 वहीं 62 36 सोमदेव : नोतिवाक्यामृत 10/5 RESISXSrestenerusteres1612skestastusreshSYSIS
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भय आदि विकारों से ग्रसित होने पर भी धर्म का त्याग न करे, ऐसे मंत्री होना चाहिए 37 कायर और मूर्ख पुरुष को मंत्री पद के अयोग्य मानते हुए सोमदेव ने लिखा है कि- " जिस प्रकार बछड़े को भारी बोझा ढोने के कार्य में लगाने से कोई लाभ नहीं, उसी प्रकार कायर पुरुष को युद्ध के लिए एवं मूर्ख को शास्त्रार्थ के लिए प्रेरित करने से कोई लाभ नहीं हो सकता | 38
राजा और मंत्री के बीच सम्बन्ध :
राजा और मंत्री किसी भी राज्य को चलाने में रथ के दो पहियों की तरह कार्य करते हैं। दोनों में सन्तुलन और सामञ्जस्य होना अत्यन्त आवश्यक होता हैं। राजगण प्रत्येक कार्य की सम्पन्नता से पूर्व मन्त्रियों से मन्त्रणा किया करते थे । "पासणाहचरिउ" में उल्लेख मिलता है कि जब राजा अरविन्द को कम के व्यभिचार का पता लगता है तो वे अपने मंत्री मरुभूति से इस बात की सत्यता के विषय में विचार-विमर्श करते हैं 39 और जब मरुभूति हे नरेन्द्र ! वह माननीय नहीं है, अयुक्त है; ऐसा कहकर प्रतिकार करता है तो राजा भी उसका उल्लघंन नहीं करता | 40 इससे सिद्ध होता हैं कि राजा मंत्री की बात पर विश्वास करते थे।
शोक के समय राजा को मंत्री ही सान्त्वना एवं धर्मोपदेश देकर उनके शोक को दूर करते थे । अर्ककीर्ति के मंत्री ने शक्रवर्मा की मृत्यु से उद्विग्न शोक के क्षणों में इसी प्रकार उपदेश द्वारा सान्त्वना दी थी। 41
सैन्य व्यवस्था :
देश की सुरक्षा और शत्रु का मान मर्दन करने के लिए प्रत्येक राज्य में सैन्य व्यवस्था की जाती थी। सेना का प्रमुख सेनानायक या सेनापति कहलाता था । राजकार्य को चलाने के लिए दण्ड (सेना) को एक प्रमुख अंग माना गया है कौटिल्य ने सैन्यबल पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि राजा पर बाह्य एवं आन्तरिक दो प्रकार के कोप आते हैं। अमात्यादि का कोप आन्तरिक कोप कहलाता है तथा बाह्य कोप शत्रु के आक्रमण से उत्पन्न कोप होता है। इन दोनों कोपों में आन्तरिक कोप अधिक कष्टदायक होता है। इन दोनों कोपों से
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महाभारत: शान्ति पर्व 83/26 सोमदेव : नीतिवाक्यामृत 10/21
पास 6/3
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अपनी रक्षा करने के हेतु राजा को दण्डऔर कोष को अपने अधीन रखना चाहिए।42
दण्ड (सेना) की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कौटिल्य अर्थशास्त्र' में कहा गया है कि-दण्डनीति अप्रास वस्तुको प्रास करा देती है, जो प्राप्त हो चुका हो उसकी रक्षा करती है, यह रक्षित वस्तु को बढ़ाती हैं और बढ़ी हुई वस्तु का उपयुक्त पात्र में उपयोग करती हैं। लोक यात्रा (सामाजिक व्यवहार) इस दण्ड नीति पर निर्भर है, अत एव जो राजा लोकयात्रा का निर्माण करने में तत्पर हो, उसे चाहिए कि सदा दण्डनीति का उपयोग करने को उद्यत रहे।43 सेना की परिभाषा :
जो शत्रुओं का निवारण करके धन, दान व मधुर भाषणी द्वारा अपने स्वाभी को सभी अवस्थाओं में शक्ति प्रदान करती है. उसका कल्याण करती हैं. उसे सेना करते हैं।44 सेना के भेद :
समस्त प्राचीन ग्रन्थकर्ता आचार्यों ने सेना के चार अंग माने है और उसे चतुरङ्ग बल के नाम से सम्बोधित किया है।45 '' पासणाहचरिउ" में कालयवन नरेन्द्र और राजा अर्वकीर्ति के युद्ध के समय चार प्रकार की सेना का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है।
1. हस्ति सेना46 2. अश्व सेना47 3. रथ सेना48 4. पदाति सेना49
42 कौटिल्य अर्थशास्त्र 8/2
आलव्यलाभार्था लब्धापरिरक्षिणी रक्षितविवर्धनो वृद्धस्य तीथेषु प्रतिपादनी छ । तस्यामायत्ता लोकयात्रा। तस्माल्लोकयात्रार्थी नित्यमुद्यतदष्ठ: स्यात् ॥ कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 114 द्रविाणदानप्रियभाषणाभ्यापराति निबारणेन यद्धि हितं म्वामिनं सावस्थास चलते
संवणोतीति बलम्-नीतिवाक्यामृत 22.1 45 पद्मचरित 27:47, बराङ्गचरित 2/58-59 द्विवसन्धानपहाकव्य 16:8 46 पास. 36 47 वहीं 3.6 48 बहो 3.6 49 दही 37 ASIASISASTESTSrastastess 163 MsThesesexsusrusress,
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हस्ति सेना : ___चतुरंग बल में हस्ति सेना को प्रमुखता दी गई है।50 'पासणाहचरिउ' में हस्ति सेना का वर्णन इस प्रकार मिलता है- मदोन्मत्त हथियों पर सवार होकर योद्धागण चल पड़े। उत्तम स्वर्ण से सुशोभित उन योद्धाओं ने कुछ भी न देखा, अरिजनों को मृत्यु का मार्ग दिखाते हुए तथा उनका सम्मर्दन करते हुए हाथियों के समूह चल पड़े, जिससे सुमेरुपर्वत पर क्षोभ आ गया 51 ___'कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार अपनी सेना के आगे चलना, नये मार्ग, निवास स्थान तथा घाट निर्माण के कार्य में सहायता देना, बाहु की तरह आगे बढ़कर शत्रु सेना को खदेड़ना, नदी आदि के जल का पता लगाने, पार काने या उतारने, विषम स्थान ( तृणों तथा झाड़ियों से ढंके स्थान और शत्रु सेना के जमघट के संकटमय शिविर) में घुसना, शत्रु शिविर में आग लगाना और अपने शिविर में लगी आग बुझाना केवल हस्ति सेना से ही विजय प्रास करना, छितराई हुई अपनी सेना का एकत्रीकरण, संघबद्ध शत्रुसेना को छिन्न-भिन्न करना, अपने को विपत्ति से बचाना, शत्रुसेना का मर्दन, भीषण आकार दिखाकर शत्रु के हृदय में भय संचार करना, अपनी सेना का महान गुपेन्ड को पकड़ना, अपनी सेना को शत्रु के हाथ से छुड़ाना, शत्रु के प्राकार, गोपुर, अट्टालक आदि का भंजन और शत्रु के कोश तथा वाहन का अपहरण; ये सब काम हस्ति सेना से ही सम्पन्न होते हैं। अश्व सेना :
अश्वसेना अपनी वेगशीलता के लिए प्रख्यात रही है। आचार्य सोमदेव के अनुसार अश्व सेना चतुङ्ग सेना का चलता-फिरता भेद है, क्योंकि अश्च चपलता एवं वेग से गमन करने वाले होते हैं।53 'पासणाहचरिड' में उत्तम घोड़ों पर सवार, हाथ में कृपाण और तलवार लिए स्वर्ण कवच पहने हुए,54 योद्धाओं का उल्लेख मिलता है, जो अश्वसेना का परिचायक है। अश्वसेना के प्रभाव को दर्शाते हुए कत्रि रइधु कहते हैं कि उत्तम घोड़ों के गमन करने के कारण (उनके
50 51 52 53 54
नीतिवाक्यामृत 2212 पास. 36 कौटिलीयम् अर्थशास्तम् 10/4 नीतिवान्यामत 2217 पास. 36
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पैरों के खुर पृथ्वी को भग्न करने लगे,55 प्रचण्ड घोड़ों के द्वारा गजयूथ खण्डित कर दिए गए।56 घोड़ो की चञ्चरता सागर के समान थी। घोड़ी पर जीने कसे जाने का भी उल्लेख मिलता है। ___आचार्य सोमदेव ने अश्वसेना की प्रशंसा करते हुए कहा है कि- जिस राजा के अश्वसेना प्रधानता से विद्यमान है, उस पर युद्धरूपी गेंद से क्रीड़ा करने वाली लक्ष्मी प्रसन्न होती है और दूरवर्ती शत्रु भी निकटवर्ती हो जाते हैं। इसके द्वारा वह आपत्ति में समस्त मनोरथ प्राप्त करता है। शत्रुओं के सामने जाना, वहाँ से भाग जाना, उन पर आक्रमण करना, शत्रुसेना को छिन्न-भिन्न कर देना; ये कार्य अश्वसेना द्वारा सिद्ध होते हैं।58 अश्वों में जात्यश्व को प्रधानता दी गई है और उसे विजय का कारण माना है।59
'कौटिल्य अर्थशास्त्र' से ज्ञात होता है कि अश्वगालन को प्रमुखता दी जाती थी। कौटिल्य के ही अनुसार अश्वपालन विभाग के प्रमुख अधिकारी को अश्वाध्यक्ष कहा जाता था।60 रथ सेना : ___ यह चतुरङ्ग सेना का तृतीय उपयोगी अंग था। पासणाहचरिउ' में रथ सेना का संक्षिप्त उल्लेख मिलता है। राजकुमार पार्थ कालयवन से हुए युद्ध में राजा रवि कीर्ति की सहायता करने के लिए "देव घोष" नामक रथ पर सवार होकर गए थे।61 जिस रथ पर राजा, युद्ध आदि करने जाते थे, वे रथ उत्तम धवलवर्ण के छत्र एवं ध्वजाओं से सुशोभित होते थे52 मेरी दृष्टि में छत्र, ऐश्वर्य और ध्वजा स्वतंत्र देश के सूचक होते होंगे। रथ पर आरूढ़ योद्धा धनुष-बाण से लड़ते थे।63 वराङ्गचरित' के इस कथन से भी इसी बात की पुष्टि होती है - रथों पर
55 56 57 58
59
पास. 36-3 वही 3/7.3 वहीं 3/7-6 नीतिवाक्यामृत 22/8 वहीं 229 कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 2/30 पास. 36-7 वहीं 377/7-8 वहीं, घत्ता 32
60 61 62 63
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सवार योद्धाओं के सिर पर मुकुट बँधा रहता था। वे अपने शरीर को कवच द्वारा सुरक्षित रखने का यल करते थे तथा उनका प्रमुख अस्त्र धनुष-बाण होता था पदाति सेना5 :
हस्ति, अश्व तथा रथमय सेना के आगे पदाति सेना चलती थी।66 "पासणाहचरिउ" में पदाति सेना की अत्यन्त वीरता का वर्णन किया गया हैप्रचुर धूलि से धूसरित शरीर वाले वे धीर पुरुष मार्ग में ऐसे जा रहे थे, मानो पर्वत ही हों।57 सैनिकों के द्वारा खींची गई तीक्ष्ण तलवारें साक्षात् यमराज की जीभ के समान प्रतीत होती थीं 8 समर्थ पदातिगण आह्वान करते थे और दोनों
ओर की सेनाओं के योद्धागण थककर मरते थे। दौडते हए किसी को छाती में बीध दिया गया, मानो स्वामी के दान का फल ही सफल हो गया हो, शक्ति नामक अस्त्र के प्रहार से कोई-कोई भट ऐसा काट दिया गया, मानो भग्न शरीर से ही अपना जीवन धारण कर रहा हो|70 अस्त्र-शस्त्र :
युद्ध के अवसर पर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। इपासणाहचरिउ' में कविवर रइधु ने प्रसंगवश निम्नलिखित अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख किया है
करवाल,71 खग्ग,72 असि7 (तलवार), छुरिय74 (छुरी), फरिस75 (फरसा), कुन्त कुदालु (कुदाल), कुहाड़ी78 (कुल्हाड़ी), फालु
.
'परागचरित 17/7A रइभू : पास. 3:7-9 वराङ्गचिरत 17:18 पास. 36-6 जही 37.1 वही 3/7-9 वहीं 3/8:4-5 वहीं 3/2,14 वहीं 3/7 वही 56 वही 5/6
वही 5/6 76 वही 56 77 वही 5/6 78 वही 56 79 वहीं 5:6
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Xexexesxes nsterstates
( फावड़ा), धणुवरु०० ( धनुष), सत्ति81 ( शक्ति नामक अस्त्र), कुठार, B2 तथा
घण83 (घन, हथौड़ा)।
दूल ( दूत ) 84 :
दूत का लक्षण :
जो अधिकारी दूरदेशवर्ती राजकीय कार्य का साधक होने के कारण मन्त्री के समान होता है, उसे दूत कहते हैं। 85
दूतों के भेद :
-
दूत तीन प्रकार के होते हैं 1 निःसृष्टार्थ, 2. परिमितार्थ, 3. शासनहर 1 निः सृष्टार्थ :
स्वामी के कान के पास रहने वाला, रहस्य रक्षा करने वाला, सुयोजित पत्र लेकर जल्दी जाने वाला, मार्ग में सीधे जाने वाला, शत्रुओं के हृदय में प्रवेश कर कठिन से कठिन कार्य को सिद्ध करने वाला तथा विवेकी बुद्धि वाला 87 दूत निः सृष्टार्थ कहलाता है। आचार्य सोमदेव के अनुसार जिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि विग्रह को उसका स्वामी प्रमाण मानता था, वह निः सृष्टार्थ है। जैसेपाण्डवों के कृष्ण 88
परिमितार्थ या मितार्थ :
परिमित समाचार सुनाने वाला 89 अथवा राजा द्वारा भेजे हुए सन्देश और लेख को जैसा का तैसा शत्रु से कहने वाला१० दूत परिमितार्थं या मितार्थ
कहलाता था।
BO
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
पास. बत्ता --- 32
वही 3/8
वही 3/12
वही 5/19
वही घत्ता 26 नीतिवाक्यामृत 16/1 आदिपुराण 44/136-137
वही 3489 नीतिवाक्यामृत 13/4 आदिपुराण 43/202 नीतिवाक्यामृत
SX25) 167
2
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शासनहर :
उपहार के भीतर रखे हुए पत्र को ले जाने वाला दूत शासनहार कहा जाता हैं।
गाईचरिर में वर्णिम टुन ।
"पासणाहचरिउ" की तृतीय सन्धि के प्रारम्भ में कुशस्थलनरेश अर्ककीर्ति का मंत्री राजा अश्वसेन के पास दूत के रूप में आता है और राजा अश्वसेन से यवन नरेन्द्र द्वारा शत्रुवर्मा को मारे जाने और उनके पुत्र अर्ककीर्ति के सहायता माँगने आदि का वृतान्त कहता है। अपने वार्तालाप के बीच ही वह यवन नरेन्द्र के दूत द्वारा धमकी देने की भी बात कहता है, जिससे सिद्ध होता है कि दूत अपने शासन की ओर से धमकी देने का भी कार्य करते थे। द्रत के विशाल मति वाल, विद्वान्, दूसरों के हृदयों के विचारों को जानने वाला और अर्थज्ञाता आदि लक्षणों का भी यहीं पता चलता है।92
उपर्युक्त पासणाहचरिउ में वर्णित दूत के लक्षणों एवं कथन आदि से उसका शासनहर नामक दूत होना सिद्ध होता है। डॉ. राजाराम जैन ने भी उसे शासनहर दूत ही माना है। युद्ध : युद्ध का कारण : ___पौराणिक कथानकों में युद्धों के प्रसंग प्राय: नायक की वीरता को प्रदर्शित करने के लिए रखे जाते होंगे, ऐसा 'पासणाहचरित' से आभास मिलता है। प्राचीनकाल में प्रायः युद्ध किसी न किसी कारण से होते थे, जैसे-श्रेष्ठता का प्रदर्शन, साम्राज्य विस्तार, स्वाभिमान की रक्षा और कन्या। 'पासणाहचरिउ' में वर्णित कालयवन और अर्ककीर्ति का युद्ध "कन्या" के कारण ही होता है। युद्ध वर्णन :
'पासणाहचरिउ' में एकमात्र कालयवन और राजा अर्ककीर्ति के बीच ही युद्ध होना दिखाया गया है। इस युद्ध में राजा अर्ककीर्ति की सहायता राजकुमार -. ..91 आदिपुराण 43/202 92 पास. 3/1-2 93 रइधू ग्रन्थावली, भूमिका, प.17 94 तहु णियपुत्ति देहि सुहि णिवसहि ।। -पास. 3:2
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पार्श्व ने भी की थी। इस युद्ध का वर्णन कवि ने इस तरह किया है, मानो वह प्रत्यक्षदर्शी रहा हो। पाठक भी इस वर्णन को पढ़कर वीररस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। वर्णन इस प्रकार है -
कालयवन एवं राजा रविकीर्ति (अर्ककीर्ति) क्रोधावेश में आकर रण में प्रविष्ट हो गये और दर्प से उदभट वे दोनों ही राजा जय श्री के हेत परस्पर में भिड़ गये।95 अत्यन्त तीक्ष्ण तलवारें खींच ली गई, मानो यमराज प्रत्यक्ष ही जीभ दिखा रहा हो! बीस पार्श्व हिण भाकन नेसन मानकर कोई भी योद्धा शस्त्र धारण नहीं कर पा रहा था। प्रचण्ड घोड़ों के द्वारा गजयुथ खण्डित कर दिये गये। बलशाली योद्धा परस्पर में (दोनों ओर के) एक-दूसरे को खण्डित करने लगे। किसी का हाथी, तो किसी का घोड़ा विदीर्ण हो गया। किसी के द्वारा किसी का शीर्ष हो छिन्न-भिन्न हो गया। किसी ने अञ्जन पर्वत के समान कान्ति वाले मदोन्मत्त हाथी को मार गिराया. तो किसी ने सागर की चञ्चल तरंग के समान घोड़े को सुभट सहित मार गिराया। चन्द्रनख नामक शस्त्र के द्वारा उत्तम धवल वर्ण के छत्र काट दिये गये, उससे ऐसा लगने लगा मानो रणभूमि में कमल (सफेद) ही खिल उठे हों। फहराती हुई ध्वजायें काट दी गई, उससे ऐसा प्रतीत होता था मानो पृथ्वी पर असतियों के वस्त्र ही पड़े हों। समर्थ पदातिगण आह्वान करते थे और दोनों ओर की सेनाओं के योद्धागण टक्कर मारते थे। दोनों ओर को सेनाओं के युद्ध करते-करते शत्रुओं का दल (कालयवन की सेना ) भाग उठा।96 अपनी सेना को भागते हुए देखकर कालयवन बहुत क्रुद्ध हुआ और परस्पर सवार होकर तथा हाथ में धनुष-बाण लेकर क्रोधावेश में आकर दौड़ा7 और भागते हुए अपने योद्धाओं को रोका। क्रोध के पूर से उसे पीछे से मारा। वे भी लज्जा से भरकर पुनः युद्ध में लग गये
और क्रोध के पूर से वहीं हाथी एवं घोड़ों को विदीर्ण करने लगे। कोई किसी के द्वारा नाम लेकर ललकारा गया तो कोई जिनवचन का उच्चारण करने लगा। दौड़ते हुए किसी योद्धा की छाती को बींध दिया गया, मानो स्वामी के दान का फल ही सफल हो गया हो। "शक्ति" नामक अस्त्र के प्रहार से कोई - कोई योद्धा ऐसा काट दिया गया मानो भग्न शरीर से ही वह जीवन धारण कर रहा
95 पास. घता-31 96 वहीं 317 97 बही वत्ता-32 EASKESTANTastess
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हो। विदीर्ण एवं मरे हुए योद्धाओं से पृथ्वी रुंध गई, तो योद्धागण उनके सम्मुख आकर दौड़ते थे, तब उससे राजा अर्ककीर्ति की सेना उसी प्रकार त्रस्त हो गई, जिस प्रकार वेदगान में स्वरभग्न होने से कोई यति भ्रष्ट हो जाता है। अपने सैन्य को भागते हुए देखकर जब तक रविकीर्ति ने उसे धैर्य बँधाया और मारो-मारो करते हुए दौड़ा तभी उसका शत्रु कालयवन उसके सम्मुख आया और वे दोनों नृप सिंह के समान कुद्ध हो गये। वे दोनों नरेश्वर धनुष-बाण हाथ में लेकर परस्पर तर्जना कर ही रहे थे, तभी देवों एवं मनुष्यों में श्रेष्ठ पार्श्व जिनेश भी वहाँ पहुँचे 99 जैसे ही पार्श्व जिनेश को कालयवन ने देखा, वह उनके प्रताप से भयभीत होकर युद्धभूमि छोड़कर भाग गया। युद्ध का फल :
युद्ध हमेशा दो पक्षों में ही होता है और उनमें से एक पक्ष अन्यायी, राजलोलुपी होता है और दूसरा न्यायवान्। युद्ध में प्रायः अन्याय पर न्याय की और असत्य पर-सत्य की ही जीत होती है। अतः हम कह सकते हैं कि युद्ध का परिणाम शान्ति की स्थापना एवं प्रजा के हितों की रक्षा करना ही होता था।
98 99 100
पास.38 वही बत्ता 33 वहीं 339-6
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सप्तम परिच्छेद धर्म और दर्शन
धर्म का लक्षण : ___ जो धारण करे सो धर्म है। "धरतीति धर्मः" यह उसका निरुक्त्य र्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि-"चारित्र ही वास्तव में धर्म है, जो धर्म है वह साम्य है, साम्य मोह, क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है। श्री समन्तभद्रस्वामी ने धर्म की परिभाषा को सर्वाङ्गीण बनाते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है। महाकवि रइधू ने दस अंगों एवं रत्नत्रय से युक्त धर्म को श्रेष्ठ मानते हुए बारह विध तप का धारण एवं तेरहविध चारित्र का आचरण ही धर्म है;4 ऐसा कहा है। धर्म प्राप्ति हेतु चार कषायों का निग्रह आवश्यक है। अतः क्षमा भाव से क्रोध का दमन किया जाता है, मार्दवभाव से मानकषाय को जीता जाता है, आर्जवभाव से माया का निवारण किया जाता है एवं सन्तोष से लोभ को विदीर्ण किया जाता है। दयाप्रवर धर्म ही सारभूत है, जो उसे धारण कर मन को स्थिर नहीं करता, वह स्वयं अपने को ठगता है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ने धर्म शब्द की व्युत्पत्ति-"ध्रियते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा धर्मः अथवा इष्टे स्थाने धो इति धर्मः" इस प्रकार की है। जिससे सिद्ध होता है कि जो आत्मा को इष्ट स्थान-मुक्ति में धारण कराता है अथवा जिसके द्वारा लोक के श्रेष्ठ स्थान में धारण किया जाता है अथवा जो लोक को श्रेष्ठ स्थान में धारण करता है, वह धर्म है।
1 "धाराणार्थो धृतो धर्म शब्दो वान्त्रिपरिस्थित;" -पद्मचरित, रविषेण, 14/103 2 पारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिों ।
मोहवरखोह विहोणो परिणामो अपणो हु सभो ॥ प्रवचनसार: आ. कुन्दकुद, गाथा-7 3 सदृष्टिज्ञान वृत्तानि, धर्ष धर्मेश्वर। विदुः । - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३ 4 पासणाहचरि3/23 5 वही 3/21:3-4 6 वही 3:22
द्रष्टव्य-तीर्थकर महावीर और आचार्य परम्परा, खण्ड-1 पृ. 487 PAShasyxsesexesxesexes 171 kestasxemesesxestores
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धर्म की आवश्यकता : ___ मानव जोबन के प्रमुख चार उद्देश्य निर्विवाद हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्षा इस चारों में से मोक्ष का मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। इस दु:खमयी संसार का प्रत्येक जीव शाश्वत सुख की निरन्तर अभीप्सा करता है
और उसकी प्राप्ति हेतु अनेकानेक उपाय भी। किन्तु धर्म रूप श्रेणी का आश्रय लिए बिना उसके चे उपाथ 'गृगमरीचिका' बनकर रह जाते हैं। अर्थ और काम सांसारिक दुःखों को बढ़ाने में साधक ही बनते हैं. ऐसी स्थिति में एक धर्म ही ऐसा मार्ग बचता है जो व्यक्ति को परम शान्ति के आगार. गोक्ष में पहुँचाने का मार्ग बताता है और कर्ममल कलंक से युनः आत्मा को शुद्ध एवं स्वभावगत करके मोक्ष में पहुँचाने का काम करता है। धर्म का माहात्म्य :
दयानधान धर्म छोड़कर प्राणी के लिए इस संसार में कोई अन्य सहायक नहीं है। व्यक्ति धर्म के बिना चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है। दयाप्रवर धर्ग ही सारभूत है, जो उसे धारण करअपने मन को स्थिर नहीं करता, वह स्वयं अपने को लगता है।10 धर्म ही लाखों दु:खों का निवारण करने वाला है। धर्म ही दुस्तर भवसमुद्र से पार उतारने वाला है। धर्म मे ही तेज, रूप बल एवं विक्रम प्राप्त होते हैं। धर्म से ही दीर्घ आयुष्य एवं पराक्रम प्रास होता है। धर्म से इन्द्र, फणीन्द्र एवं नरेन्द्र की गति मिलती है और धर्म से हो आकाश में गमन करने वाला रवि एवं चन्द्र होता है। धर्म से ही संसार परम्परा का नाश होता है, धर्म में ही मोक्ष लक्ष्मी की प्रामि होती हैं। श्रमं ही कल्याणमित्र है. धर्म ही परम स्वजन है। धर्म से कोई भी व्यक्ति दुर्जन नहीं दिखाई देता। ध से इस संसार में क्या क्या प्राप्त नहीं होता? धर्म में ही कामधेन घर में दही जाती है अर्थात धम कामधेन के समान ही इच्छित फल का देने वाला है।11 धर्म के बिना वह मनुष्य भाव विफान है। यह समझकर वैसा उपाय करो जिससे पाप रूपी वृक्ष को काटकर शीघ्र ही परमात्म पद प्राप्त किया जा सके।12
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8 रइभ : पाम . मना -10 । वही : 165 11 वी धना 47 11 वहीं 323 | वही, घल्ला -48
2
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सर्वोत्कृष्ट धर्म :
'पासणाहचरिउ' के कर्ता महाकवि रइध जैन धर्म के अनुयायी और जैन तत्वों के महान जाता थे अत उन्होंने जैनधर्म को ही सर्वोत्कृष्ट धर्म माना था। उनकी इस भावना की झलक पासणाचरिर' में भी दिखाई देती है, यथा जिनवर की नागी सुनना.13 दया करना,14 क्षमा पाव रखना,15 संत्रर धारण करना 16 मधु मद्य माँस का त्याग 17 सत्य बोलना आदि कार्यों को करना ही सवोत्कृष्ट धर्म है। जिन धर्म की महत्ता बताते हा वे कहते है कि अनेक सुखों को प्रदान करने वाले जिनधर्म रूपी रसायन का जिसने नरभव में मेवन नहीं किया त्रास दुर्लभ रत्न के समान प्राप्त नर जन्म को हार जाता है और शुभगति को दूर कर देता है।19 धर्म के भेद :
धर्म के दो भेद हैं-सागार धर्म20 और मुनि21 धर्म (अनगार धर्म) इन दो प्रकार के धर्मों को मनुष्यों के दो आश्रम भी कहा गया है।22 सागार धर्म के पालक गृहस्थ अवस्था में रहकर कषायों को मन्द करने और इन्द्रियों के विषय जीतने के साधन रूप अगन्नता का पालन करते हैं। अनगार धर्म के पालक वीतरागी मुनि होते हैं, वे गृहस्थपने का त्याग, सर्वथा आरम्भ परिग्रह तथा विषय - कषाय से रहित होकर निज शुद्धात्मस्वरूप की सिद्धि के अर्भ महाव्रत, तप, ध्यान आदि की साधना करते हैं। गृहस्थ ( श्रावक ) धर्म :
जो जिनवर की वाणी सुनते हैं, वे प्रावक कहलाते हैं |23 श्रावक आध्द जैन गृहस्थ के लिए रूढ़ है। आचार्यकल्प एं. आशाधर जी के अनुसार- न्यायपूर्वक
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13 ग्इ : पाम 18 16 14 यहां 3/21 9 15 वहीं 3:215 16 वही 372| 8 17 | 5:18
बहो 55 19 बही 677 29 वही 5.7.5 2143 22 पदाचरित 5/126 23 रा पास. 18 16 PASSxsxesxesiestusess) 173 kmsrustestostushasaster
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धन कमाने वाला, गुणों की तथा माता-पिता आदि गुरुओं और सम्यक्त्र आदि गुणों से श्रेष्ठ मुनियों की पूजा करने वाला, प्रशस्त और सत्य वचन बोलने वाला, परस्पर में विरोध न कर धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन पुरुषार्थों का सेवन करने वाला, अर्थ व काम पुरुषार्थों के योग्य स्त्री, ग्राम नगरादि और गृह से युक्त होने वाला, लज्जाशील, योग्य आहार तथा बिहार को करने वाला, आर्यपुरुषों की संगति करने वाला, अपने ऊपर किए हुए ठपकारों को जानने वाला, इन्द्रियों को वश में करने वाला, धर्म की विधि को प्रतिदिन सुनने वाला, दु:खी प्राणियों पर दया करने वाला और पापों से डरने वाला पुरुप गृहस्थ धर्म को धारण करने योग्य है।24 श्रावक कुल समुद्र में गिरे हुए रत्रप्राप्ति के समान ही दुर्लभ है/25 गृहस्थ धर्म का सेवन करने वाले व्यक्ति को पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन आवश्यक बताया गया है, क्योंकि यह शाश्वत सुख प्राप्त कराने वाले हैं26
अणुव्रत का स्वरूप :
हिंसादिक से एकदेश निवृत होना अणुव्रत है। इसी का खुलासा हमें आचार्य समन्तभद्र की इस परिभाषा से मिलता है.
प्राणतिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूच्छेभ्यः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति 128
अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाँच पापों से विरक्त होना ही अणुव्रत है। अणुव्रत के भेद :
अणुव्रत पाँच प्रकार के होते हैं : 1. अहिंसाणुव्रत
2. सत्याणुव्रत 3. अचौर्याणुव्रत 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत 5. परिग्रह परिमाणुव्रत
- - - - - - - .24 पं. आशाधर : सागारधर्मामृत 111 25 रइधु: पास. 1/8-14 26 वही, धत्ता-76 27 द्र. पूज्यपाद कृत सवार्थसिद्धि: हिन्दी व्याख्या 7/2 28 रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3:52
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अहिंसाणुवत: ___मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय,
चौइन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का घात न करना, अहिंसाणुव्रत है.29 जीवों के लिए मैत्री का विधान किया गया है। अपनी ज्ञान शक्ति के अनुसार जीव को जानकर उसे नहीं मारना चाहिए।30 जिससे प्राणियों के प्राणों का क्षय होता है, वैसा उपदेश किसी को भी न दे। मधु, मद्य और मांस का दूर सं हा त्याग कर देना चहिए, जिससे दया का भाव बढ़े 2 पाँच उदुम्बरों के भक्षण से अपनी रक्षा करो तथा कन्द-मूल का त्याग करो। संसार रूपी वन में वास कराने वाली उक्त वस्तुओं को सज्जन व्यक्ति न तो स्वयं चखे और न उनके सेवन का दूसरों को उपदेश ही दे,33 सो अहिंसाणुव्रत है। सत्याणुव्रत :
जो स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है तथा विपत्ति का कारणभूत सत्यवचन भी न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है, उसी को सत्याणुव्रत कहते हैं। 4 विवेकशील व्यक्ति को ऐसा वचन बोलना चाहिए, जिसमें पाप की अल्प भी सम्भावना न हो. वह तत्त्व को प्रकट करे, तत्त्व का ही उपदेश दे और तत्त्व ही बोले। जिनवर द्वारा भाषित तत्त्व को दूषित न करे। सत्य से देव एवं मनुष्य भी चरणों में प्रणाम करते हैं। सत्य से तीर्थङ्कर की वाणी भी प्राप्त होती है।35. अचौर्याणुव्रत :
स्वयं अथवा अन्य व्यक्तियों के द्वारा दिए गए. पर द्रव्य को ग्रहण नहीं करना,मार्ग में पड़े हुए अथवा रखे हुए परद्रव्य को नहीं लेना, न उसे दूसरे व्यक्ति को देना, न अपने हाथों से स्पर्श करना, चोरों के समूह में भ्रमण नहीं करना, चोर के साथ व्यापार एवं स्नेह नहीं करना, न लोभ से उसके घर जाना
29 रनकरण्ड श्रावकाचार 3/53 30 रइधू: पा.5/4-2 31 वही 5/4.4 32 वही 5,48 33 वहीं, घत्ता-75 34 रनकरण्ड श्रावकाचार ३:55 35 रहनू : पास. 5/5:13
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और मन, वचन एवं काय से चोर के कार्यों का त्याग कर देना 36 सो अचौर्याणुव्रत है। अचौर्याणुव्रत के पालन करने से लोक और परलोक में सुन की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्याणुव्रत :
अत्यन्त सुन्दर पर नारी को देखकर अपनी दुर्निवार दृष्टि को रोकना, जोजो भी पर युवतियाँ हों, उन्हें माँ एवं बहिन के समान मानना, अपनी पत्नी में ही रमण करना तथा इतर सन्त्रका पाप जानकर त्याग कर देना38 सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसी व्रत का दूसरा नाम स्वदार सन्तोषव्रत भी है। इसी के विपरीत स्त्रियों के लिए भी स्वपतिसन्तोषव्रत जानना चाहिए। जो व्यक्ति इस लोक में दासी एवं वेश्याओं में आसक्त होता है, उसको नियम से एक भी व्रत नहीं होता।40 परिग्रहपरिमान : __ धन, धान्य, स्वर्ण, गृह, दासी, दास, ताम्बूल, विलेपन एवं उत्तम सुवास इनके प्रति लोभ की भावना का त्यागकर41 इन वस्तुओं का परिमाण कर लेना सो परिग्रह परिमाणु व्रत कहलाता हैं। पंचाणुव्रत धारण करने का फल :
ये पंचाणुव्रत दुःखों का क्षय करने वाले हैं।42 अणुव्रतधारियों के अवधि ज्ञान, अणिमा, महिमादि अष्ट ऋद्धियाँ और परम सुन्दर शरीर प्राप्त होते हैं।43 गुणवत: गुणव्रत का स्वरूप और भेद :
जो अणुव्रतों की या अष्टमूलगुणों की रक्षा करें, उसे गुणव्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन प्रकार के होते हैं :
36 पास, 5:5:4-7 37 वही 5 5/7 ॐ वही 5:5:8-12 39 आ. समन्तभद्रकृत रनकरण्ड श्राजकाचार 3.59 40 रइधू : पा. 5/5:11 41 नही 5:5/13 14 42 वही घत्ता-76 43 आ. समन्तभद्र-रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3:63
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:
1. दिग्व्रत, 2. अनर्थदण्डव्रत और 3. भोगोपभोगपरिमाणव्रत | 44
1. दिग्व्रत :
करता
दिशाओं, विदिशाओं का हुए एक विरोध करना एवं दिन-प्रतिदिन प्रभातकाल में नियम ग्रहण करना, प्रथम ( दिग्वत नामक ) गुणव्रत है, जो कि पाप का हरण करने वाला है । 45 जिनभासित धर्म का जहाँ पालन न किया जा सके, वहाँ भव्य जन आजन्म न जाय, पापासक्तमनवाले खस बब्बर, भील, पुलिन्द आदि जहाँ निवास करते हों, मन को स्वप्न में वहाँ नहीं जाने देना चाहिए 46
2. अनर्थदण्डव्रत :
प्रयोजन रहित पाप बंध के कारणभूत कार्यों से विरक्त होने को अनर्थ दण्डव्रत कहते हैं | 47
अनर्थदण्डव्रत के भेद :
अनर्थदण्डव्रत पाँच प्रकार का होता है- पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुः श्रुति, प्रमादचर्या 148 (1) पापोपदेश
(2) हिंसादान
(3) अपध्यान दूसरों के प्रति बुरा विचारना ।
(4) दु: श्रुति (5) प्रमादचर्यां
तीन पापबंधके कारणभूत कार्यों का उपदेश देना। हिंसा के कारणभूत हथियारों व उपकरणों को देना।
-
रागादिवर्धक खोटे शास्त्रों का सुनना ।
निष्प्रयोजन यहाँ वहाँ घूमना, पृथ्वी खोदना, वनस्पति आदि का तोड़ना।
अनर्थदण्डव्रत धारी के लिए करणीय बातें 44
अनर्थदण्डव्रत का धारी जीव असि, छुरिका, फरसा, कुन्त आदि वध करने वाले आयुध न तो लेवे और न बेचे। अपनी कुदाल, कुल्हाड़ी एवं फावड़ा किसी
47
48
44
45 रइधू पास 5/6/1-2
46
कही 5/6/3--5
रत्नकरण्ड श्राकाचार 4/67
रत्नकरण्ड श्रावकाचार 4/74 वही 4/75
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को भी काम में लाने हेतु न दे। अनेक पाप के कारणभूत महुआ आदि एवं लाख, विष, लोहा तथा सन आदि वस्तुयें न बेचे। माजरि कुत्ता, नकुल, गिद्ध आदि सैकड़ों जीवों के प्राणों का हरण करने वाले (शिकारी) तथा माँसाहारी पापी दासी एवं पासों को न रखे और पाते, इ के प्रति माध्यस्थ भाव ही धारण करे 3.भोगोपभोग परिमाणव्रत :
विषयासक्ति को कम करने के लिए हमेशा भोगोपभोग सम्बन्धी वस्तुओं का परिमाण करना, सो भोगोपभोग परिमाणवत हैं।50 अपने मन को स्थिर करके भोगों एवं उपभोगों की संख्या सीमित करना चाहिए जिनसे संवर बढ़ता है, संसार रूपी वृक्ष जल जाता है और सुस्थिर (मोक्ष) पद प्राप्त होता है। शिक्षाव्रत शिक्षाव्रत की परिभाषा:
जिनके प्रभाव से विशेष श्रुतज्ञान का अभ्यास हो या जिससे मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिले, उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं।52 शिक्षाव्रत के भेद :
शिक्षाव्रत चार प्रकार के होते हैं-1-देशव्रत, 2-सामायिक, 3-प्रोषधोपवास, 4 -अतिथिसंविभाग (वैयावृत्य)53 1. देशव्रत :
दिग्वत में धारण किए गए विशाल देश का दिवस-पक्षादि काल की मर्यादा से प्रतिदिन त्याग करना, सो अणुव्रतधारियों का देशव्रत होता है।54
49 रइधु : पासणाहचरिंउ 5/6 50 समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डनावकाचार 4/82 51 रइधू : पास. घत्ता-77 52 रनकरण्डश्रावकाचार, भावार्थ 5/91 53 वही 5/9] 54 देशावकाशिक स्यात्कालपरिच्छेदेन देशस्य ।
प्रत्यहमणुप्रताना प्रतिसंहारो विशालस्य ॥ वही :92 sterestassiusmastistes) 178MSTShasteshsrussy
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25
2. सामायिक शिक्षाव्रत :
" सभी जीवों को मैं नियम से क्षमा करता हूँ, वे भी मुझे प्रसन्न होकर क्षमा करें" ऐसा विचारकर सभी सावद्य कर्मों का त्याग करे तथा जिन भगवान् के सम्मुख बैठकर निष्कपट भाव से पर्यङ्कासन भारकर, मन को स्थिर करके और सुखकारी रत्नत्रय का स्मरण करके अपनी शक्तिपूर्वक संकल्प छोड़कर सामायिक करे। ज्ञानी व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध, चेतन, पवित्र, अमूर्त, निरञ्जन एवं निर्दोष आत्मा का भावनापूर्वक ध्यान करे। निश्चय से इसे सामायिक शिक्षाव्रत समझना चाहिए। 55
3. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत :
• अष्टमी, चुतर्दशी एवं पर्व के दिनों में आरम्भ कार्यों में संवर करें, सप्तमी एवं नवमी को भव्यजन लालसा छोड़कर एक बार भोजन करे। आशा छोड़कर तथा जिन भगवान को प्रणामकर मन एवं वचन की शुद्धिपूर्वक पञ्चमी का उपवास ग्रहण करे। उस दिन सावध कर्मों का त्याग करे और अहर्निश शुभ धर्मध्यान में रत रहे, तदनन्तर सत्पात्र को भोजन कराकर ग्रास ले, यही प्रोषधोपवास नामक शिक्षावत है |56
4. अतिथि संविभाग व्रत :
गुणवान् व्यक्ति को घर के दरवाजे पर आये हुए सत्पात्र को पड़गाहना चाहिए। अपनी शक्तिपूर्वक उसे बड़े ही गौरव के साथ मान ( कषायादि) की छोड़कर दान देना चाहिए। यही अतिथि संविभागव्रत है 57
व्रत की परिभाषा और उसकी भावनायें :
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाँच पापों से विरक्त होने को व्रत कहते हैं । 58 से व्रत भावनाओं से युक्त हैं। प्रत्येक व्रत की पाँच पाँच भावनायें होती हैं, 59 जो इस प्रकार हैं
55 रइधू पास 5/7/16
56 वहो 5017-11
57 वही 5/7/12 14
58 हिंसानृतस्तेथाहापरिग्रहेभ्यो त्रिरतिर्व्रतम् । 59 तस्थैयांर्थ भावनाः पंच पंच
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तत्वार्थसूत्र 7/1
तत्वार्थसूत्र 7:3
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अहिंसाणुव्रत की पाँच भावनायें : वाग्गुप्ति
- वचन को रोकना। मनोगुप्ति
- मन की प्रवृत्ति को रोकना। ईर्यासमिति - चार हाथ जमीन देखकर चलना। आदाननिक्षेपण समिति-- भूमि को जीवरहित देखकर सावधानी से
किसी वस्तु को उठाना, रखना। आलोकित पानभोजन :
देख-शोधकर भोजनपान ग्रहण करना। इस प्रकार ये पाँच60 अहिंसाव्रत की भावनायें हैं। सत्यव्रत की पाँच भावनायें :
क्रोधप्रत्याख्यान - क्रोध का त्याग करना। लोभप्रत्याख्यान - लोभ का त्याग करना। भीरुत्वप्रत्याख्यान - भय का त्याग करना। हास्यप्रत्याख्यान .. हास्य का त्याग करना। अनुवीचिभाषण - शास्त्र की आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलन।
ये पाँच1 सत्यव्रत की भावनायें हैं। अचौर्यव्रत की पाँच भावनायें: शून्यागारावास - पर्वतों की गुफा, वृक्ष की कोटर आदि निर्जन स्थानों
में रहना। विमोचितावास - राजा वगैरह के द्वारा छुड़वाए हुए दूसरे के स्थान में ।
निवास करना। परोपरोधाकरण .. अपने स्थान पर ठहरे हुए दूसरे को नहीं रोकना। मैक्ष्यशुद्धि - शास्त्र के अनुसार भिक्षा की शुद्धि रखना। सधर्माविसंवाद .. सहधर्मी भाईयों से यह हमारा है, वह आपका है,
इत्यादि कलह न करना। ये पाँच62 अचौर्याणुव्रत की भावनायें हैं।
60 तत्वार्थसूत्र 714 61 "क्रोधलोभभौरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनु वीचिभाषणं च पञ्च ।" - वहीं 725 62 "शून्यागार विमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धि सश्रमविसंवादाः पञ्च।'' वहीं 7/6 xsxasistemasxeSISTAAS180 SASRASHARASIMITES
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ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनायें : स्त्रीरागकथा श्रवणत्याग - स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं के
सुनने का त्याग करना। तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणत्याग - स्त्रियों के मनोहर अंगों के देखने का त्याग
करना। पूर्वरतानुस्मरण त्याग
अव्रत अवस्था में भोगे हुए विषयों के
स्मरण का त्याग करना। वृष्येष्टरस त्याग
- कामवर्धक गरिष्ठ रसों का त्याग करना। स्वशरीरसंस्कार त्याग . अपने शरीर के संस्कारों का त्याग करना।
को गाँध63 रन दिला की नामें हैं। परिग्रह त्यागवत की पाँच भावनायें : ___ स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण) इन पाँच इन्द्रियों के इष्ट, अनिष्ट विषयों में क्रम से रागद्वेष का त्याग करना। ये पाँच64 परिग्रह त्यागवत की भावनायें हैं। सप्तव्यसन15 त्याग : व्यसन की परिभाषा:
जहाँ अन्याय रूप कार्य को बार-बार सेवन किये बिना चैन नहीं पड़े, ऐसी आदतों का पड़ जाना व्यसन कहलाता है अथवा व्यसन नाम आपत्ति का भी है, इसलिए जो घोर दुःख को उत्पन्न करे, अत्यन्त विकलता को उत्पन्न करे, वही व्यसन कहलाता है 6ि जिस कार्य को एक बार करने पर भी उचित-अनुचित के विचार रहित हो पुनः प्रवृत्ति हो वह व्यसन कहलाता है।67 व्यसन से तात्पर्य बुरी आदतों, बुरे कार्यों से है। लोक में निंद्य सात व्यसन निम्न प्रकार कहे गए
63 'स्त्रीगिकथा श्रवणतन्मनोहराङ गनिरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण वृष्येष्ट रसस्वशरीर
संस्कारत्यागाः पञ्च।" - तत्वार्थ सूत्र 717 64 "मनोज्ञापनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्चा" वहीं 7/B 65 रइधू : पास. 1/3,3/24 66 मूलाचार 67 स्यावादम जरी PastessesSMSIATES 181 CAKesrussesses
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जुआ :
धृष्ट, पापिष्ठ एवं दर्पिष्ठ द्यूतान्ध जन्म भर भी क्लिष्ट कर्मों का अनुसरण नहीं करता। वह गुणहीन जुआरी व्यक्ति घर का द्रव्य चुराचर ले जाता है और उस सबको हारकर, भय त्रस्त होकर भटकता रहता है। पत्नी, पुत्री और बहिन उसका विश्वास नहीं करती, सभी लोग उसे देखकर उसका उपहास करते हैं। उसके लिए न धर होता है और न गृहिणी, न भूख, न प्यास और न निद्रा और वह लोगों के घरों के छिद्र ढूंढता रहता है। जुआरी व्यक्ति पीटा जाता है, लूट लिया जाता है और (कारागार) में बन्द कर दिया जाता है, यह सोचकर जुए का व्यापार (कार्य) छोड़ दो।68 'मांसाहार :
जीवों को मारने से वसा, रुधिर, मेदा एवं अस्थिमिश्रित माँस की उत्पत्ति होती है। जो पापी व्यक्ति निर्दोष तिर्यञ्च का वधकर मन में रागपूर्वक उसके मांस का भक्षण करता है, वह मनुष्य के रूप में प्रत्यक्ष यम कहा जाता है। ऐसा जानकर तथा उसकी निकृष्ट स्थिति सुनकर मांस भक्षण को छोड़ देना चाहिए।69 मद्यपान :
मद्यपान से उन्मत्त व्यक्ति भटकता रहता है। लज्जा छोड़कर वह नीच कार्य करने लगता है। स्त्री के गले में बाँह डालकर उसे बुलाता है और माता अथवा बहिन आदि जो मन में आता है, वही कहकर पुकारता और भगता है। भार्या को देखकर "माँ" इस प्रकार कहकर उसे प्रणाम करता है। सुरारसपान के कारण चक्कर काटता हुआ लडखड़ाकर चलता एवं बल खाता हुआ वह मार्ग के मध्य में ऊपर मुख किये हुए लेट जाता है। कोई भी व्यक्ति सम्मान के साथ उसे नहीं देखता। श्वान उसके मुँह में शीघ्र ही पेशाब कर देता है, किन्तु वह उसको भी श्रेष्ठ सुवर्णरस (मदिरा) समझ लेता है और हे मित्र ! कल्याणकारी अमृतपान के समान यह मदिरा और दो, और दो;" इस प्रकार कहता है, व्यर्थ बोलता हुअ वह सभी के लिए अपना माथा झुकाता है एवं गाता हुआ भी लड़खड़ाता हुआ घूमता रहता है। यह जानकर भी जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय का संवरण कर तत्कार
69 69 70
रइधू : पास. 5/981-5 वही 5/9/6--8 वही 5/10
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ही मद्यपान छोड़ देता है, वह अनेक दुःखों के आकर संसारसमुद्र को भी क्रीड़ा के समान पार कर लेता है। वेश्या सेवन : __ जो सुरामद में मत्त होकर मांस का स्वाद लेती है, जो जन्मभर किसी के भी रूम सौन्दर्य में आसक्त नहीं होती, जो द्रव्यवान् (धनवान्) नीच व्यक्ति का भी सम्मान करती है तथा उसके साथ रमिसुखों को म: , और दुः: बहुः गुणवान् एवं सुन्दर होने पर भी अर्थहीन व्यक्ति को अपने घर में प्रवेश नहीं करने देती। अन्य को भोगती है और अन्य को देखती है तथा किसी अन्य ही व्यक्ति का मन में ध्यान करती है। जिस प्रकार वारुही का जल रथ को काट देता है, उसी प्रकार वेश्या अपने स्नेहसे वर्तन करती है। कूट कपट आलापों से मनोरंजन करती है और पेट पालने के निमित्त अपने शरीर का मर्दन कराती है। जो देखने वालों के लिए गुजाफल के समान सुन्दर है किन्तु भोगने में वह प्राण लेवा है। यह जानकर बाजारु (वेश्या) स्त्रियों को छोड़ो। दुर्लभ शील रूपी रत्न को भग्न मत करो।/2 शिकार :
शिकार खेलना भी दुखों का कारण है, अतः निदोष प्राणियों को नहीं मारना चाहिए। बेचारे शूकर, साँभर एवं हरिण अपने शरीर की रक्षा करते हुए वन में घूमते रहते हैं, दाँतों के अग्रभाग में तृण दबाए एवं भय से काँपते हुए वे पर्वत, नदी, सरोबर एवं गुफाओं में रहा करते हैं। जो पापी उन्हें सन्ताप देता है, वह अनन्त दुखों को प्राप्त करता है। जो अपने शरीर की वेदना को जानता है, वह अन्य के प्राणों का ध्वंस नहीं करता।73
सद्बुद्धि वाला व्यक्ति तिर्यञ्चों को भी अपने बच्चों के समान मानता है, उनकी रक्षा करता है और वध नहीं करता। वह व्यक्ति कहीं भय नहीं देखता, पृथ्वी एवं स्वर्ग भवनों में वह देवियों का भोग करते हुए ज्ञान का धारी बनता है।74
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71 रधी : पास, घत्ता - 81 72 बही 5:11/19 73 वहीं 5/11/10-16 74 वहीं, घत्ता- 82
SASRCISesReshestestesies 18s bestessesdesikesteskesiess
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चोरी :
तस्कर दूसरे के द्रव्य को चुराकर काँपते हए उसे छिपाकर बाहर भाग जाता है। अत्यन्त व्याकुल होकर घने वन में जाकर वहाँ अपने शरीर को संकुचित कर निर्जन स्थान में छिप जाता है। यदि कभी वह किसी प्रकार उस जंगल से निकलता है तो सोचने लगता है कि कोई मुझे देख न ले, कोई जाग न उठे! अत्यन्त साहस करके यदि वह गया भी, तो फिर कहीं कोतवाल उसे देख लेता है और उसे बाँधकर राजा के सम्मुख लाकर दिखा देता है और तब उसमें वह (राजा) लाखों दगुणों की संभावना करता है। राजन्य वर्ग के लोगों द्वारा उसे शूली पर चढ़ा दिया जाता है, हाथ, पैर या शिरच्छेद कर दिया जाता है, मारे जाते हए भी उसे कोई नहीं बचाता और वह पापी मरकर शीघ्र ही नरक को प्राप्त करता है। परस्त्री सेवन का त्याग : ___परस्त्री के दुर्गति के द्वार के समान रूप को चित्त में धारण मत करो।76 कामुक व्यक्ति परस्त्रियों को देखते ही कामदेव के बाणों से विंध जाता है। वह अपने मन में तिल-तिल करके जलता रहता है। उन्हें प्राप्त न कर वह दुराश, ने भग्न हो जाता है, इस प्रकार वह बहुत से पापों को अर्जित करता है। विरहातुर होकर वह दुखी होता है, हँसता है, त्रस्त होता है और वह कामी देव एवं गुरु को भी नहीं मानता। दूसरों की प्रियतमा को प्राप्त न कर वह कलपता रहता है और अहर्निश मदन ज्वाला से सन्तप्त होता है। एकान्त प्रदेश में यदि बड़ी कठिनाई पूर्वक कभी प्राप्त कर भी लिया तब भय से दानों का मन बड़ा क्षुब्ध रहता है कि कहीं कोई देख न ले या बाँध न ले। जहाँ इतना बड़ा दुख है, वहाँ सुख कसा अथवा उसे बाँधकर राजा के पास ले जाया जाता है और सिर मुँड़ाकर उसे गधे की पीठ पर बैठाया जाता है, फिर सिर पर झाड़ बाँधकर उसे नगर में भ्रमण कराते हैं अथवा उसका अवयव (अंग) ही भग्न कर दिया जाता है; यह सब जानकर परस्त्री का त्याग कर देना चाहिए और अपने शुद्धकुल को नहीं लजाना चाहिए।
75 76 77
रइधू : पास. 5:12 वही, घत्ता-83 वही 513
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रात्रि भोजन त्याग :
मनुष्यों को दिन में ही भोजन कर लेना चाहिए, रात्रि में उसकी मन में आकांक्षा भी नहीं करना चाहिए। जिस रात्रि में क्षुधातुर निशाचर किलकिलाते रहते हैं, रवि पश्चिम समुद्र में लुप्त हो जाता है, मकड़ी, मच्छर एवं मक्खियों से भरा आकाश भी दिखायी नहीं देता, उस रात्रि में बुद्धिमान् व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए।78 अनछना जल का त्याग : ____ अनछना जल किसी को भी नहीं देना चाहिए, स्वयं भी कभी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि दो घड़ी वाले जल में सम्पूर्छन प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं।79 मनि धर्म : ___ मुनि संसार रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्य के समान0 और वीतरागी81 होते हैं। मुनिराज बाह्य आभ्यन्तर तप के भार को धारण करते हैं, विषम परीषहों को भी सहन करते हैं, रत्नत्रय का ध्यान करते हैं, तप से शरीर को तपाते हैं, करण (त्रिगुप्ति) के द्वारा मन के प्रसार को रोकते हैं। 2 राग-द्वेष को तिरस्कृत करते हैं, जीव- अजीव रूप पदार्थों को जानते हैं,83 केशलोंच करते हैं।84 मुनि का मन अत्यन्त निर्मल होता है।85 मुनि के लिए निग्रन्थ (जिग्गंथ)86 शब्द का भी प्रयोग हुआ है। भगवान पार्श्व ने अपनी दिव्यध्वनि में कहा है कि जो परिग्रह रहित निग्रंन्ध साधु हैं, जिन्होंने काम के तीव्र दाह को शान्त कर दिया है, स्वाध्याय एवं ध्यान में अहर्निश प्रवीण हैं, मांस तथा पक्ष में पारणा लेने के कारण क्षीणकाय हो गये हैं, मोह, माया एवं प्रमाद को छोड़ दिया है, उनके चरणों में भावपूर्वक प्रणाम करो, क्योंकि मोक्षप्राप्ति के लिए निर्ग्रन्थ मार्ग को छोड़ अन्य मार्ग नहीं है।8?
78 रइधु : पास. 58 79 वहीं 1/25 १० वहीं 6:12:9 8] वहीं 6:12:13 82 वही घत्ता 124 83 वही 6/20] 84 वही 421 85 वहीं 15 86 वहीं 111 87 वही 5:3
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मुनि की विशेषताये8 : __1. मुनि प्रायः गिरि कन्दराओं में रहते हैं।
2. वे बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करते हैं। 3. रत्नत्रय का ध्यान करते हैं। 4. विषय परीषहों को सहन करते हैं। 6. तप से शरीर को तपाते हैं। . 7. मन के प्रसार (चंचलता) को रोकते हैं। 8. राग और द्वेष से रहित होते हैं। 9. जीव-अजीव रूप पदार्थों को जानते हैं। 10. अहर्निश शुद्धात्मा की आराधना करते हैं।
11. मासोपवास भी करते हैं। ___12. ग्यारह अंगों (जिनवाणी) का अभ्यास करते हैं।
13. कायोत्सर्ग करते हैं। 14. क्षमागुण के धारक और काम के दिशाम होते हैं। मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण : ___मुनिराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान; ये छह आवश्यक, स्नान त्याग, दन्त घावन त्याग, भूमि शयन, केशलोंच, नग्नत्व, खड़े होकर आहार लेना, दिन में एक बार भोजन लेना-ये सात व्रत, इस तरह अट्ठाईस मूल गुणों का पालन करते हैं।89 पाँच महाव्रत :
हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों के पूरी तरह त्याग करने को पाँच महाव्रत कहते हैं।91 पाँच समिति :
ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग, ये पाँच समितियां हैं। 2 इनका खुलासा इस प्रकार इस प्रकार है
88 1 से 14 तक देखें पास. : रधु 6/19,घत्ता 124 एवं 6/20 89 आचार्य कुन्धुसागर : मुनिधर्मप्रदीप, . 4 90 रइधू : पास. 3:20
91 तत्त्वार्थसूत्र 771-2 ___92 "इंर्या भाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गः समितयः।'-तत्त्वार्थसूत्र 9:5
PSISesiestusharestastess 186 CCTesresrasesxesxesxes
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2
ईर्यासमिति :
नेत्रगोचर जीवों के समूह से बचकर गमन करने वाले मुनि के प्रथम ईर्यासमिति होती है, यह व्रतों में शुद्धता उत्पन्न करती है। 93
भाषा समिति :
सदा कर्कश और कठोर वचन छोड़कर यलपूर्वक प्रवत्ति करने वाले यति का धर्म कार्यों में बोलना भाषासमिति है 94
एषणासमिति :
शरीर की स्थिरता के लिए पिण्ड शुद्धि पूर्वक मुनि का आहार ग्रहण करना एषणा समिति है
आदान निक्षेषण समिति :
देखकर योग्य वस्तु का रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है 96 उत्सर्ग समिति :
इसे प्रतिष्ठापनसमिति भी कहते हैं। प्रासुक (जीव-जन्तु से रहित ) भूमि पर शरीर के भीतर का मल-मूत्र छोड़ना उत्सर्ग समिति है
गुप्ति
:
विषय सुखाभिलाषा रहित मन, वचन, काय की यथेष्ट प्रवृत्ति का रोकना गुति है | 98 अज्ञानी जी करोड़ों जन्मों में तप करके जिसने कर्मों को दूर करता है उतने कर्मों को ज्ञानी (आत्मज्ञानी) जीव अपने मन, वचन और काय इन तीनों को वश में करके क्षण भर में नष्ट कर देता है 99 इन गुसियों से योगों का निरोध होता है। 100
93
हरिवंश पुराण 2/122
94
वही 2/123
95 वही 2/124
96
वही 2/125
'वही 2/125
97
98 तत्त्वार्थसूत्र 9/4 छहढाला 2/19
99
100 रइधू पास 3 / 21
:
అట్టట్టడ 1875/5/5/esexx
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पंचेन्द्रियों का निरोध :
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कणं ( श्रोत्र) ये पाँच इन्द्रियाँ हैं।101 इन इन्द्रियों की विषयों के प्रति प्रवृत्ति रोकना ही इन्द्रिय निरोध कहलाता है। इन्द्रिय जनित सुख बिजली के समान चंचल माना गया है।102 पंचेन्द्रियों के (आसक्ति पूर्वक) रसास्वादन से विकार उत्पन्न होता है।103 छह आवश्यक:
समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गः ये छह आवश्यक हैं।104
समता:
किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष न रखकर सदा आत्म स्वभाव की ओर दृष्टि लगाना।
स्तुति :
पूज्य पुरुषों (तीर्थङ्करों) के गुणों की प्रशंसा करना, स्तुति करना। वन्दना :
सिद्ध के स्वरूप की प्राप्ति के लिए तीर्थङ्करों की श्रद्धा भक्तिपूर्वक वन्दना करना। प्रतिक्रमण:
प्रमाद से लगे हुए दोषों को निन्दा एवं आलोचनापूर्वक उनसे अरुचि या ग्लानि करना। प्रत्याख्यान : ___ जिन दोषों से ग्लानि हुई है, उनका आगे के लिए त्याग करना।
101 तत्वार्थसूत्र 2:19 102 ''इंदिय-सुह तड़ि-तरलत्तणड।"-रइथू: पास. 3/14 103 वही 3/20 104 इदमावश्यकषट्कं समतास्तधबन्दनाप्रतिक्रमणं । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यम्।।
आ. अमृतचन्द्र पुरुषार्थ सिद्धयुपाय 9:201
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कायोत्सर्ग
:
शरीर से ममत्त्र छोड़कर आत्मध्यान में लीन होकर शरीर से एकाग्रतापूर्वक
तप करना।
परीषह जय 105 :
संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों का क्षय करने के लिए जो सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं।106 इनकी संख्या बाईस हैं, जो इस प्रकार हैं- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण, स्पर्श, मद, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन | 107 इन वेदनाओं को जीतना ही परीषह जय कहलाता है।
आठ मदों का त्याग :
1
ज्ञान, पूजा ( प्रतिष्ठा), कुल, जाति, बल, ऋद्धि ( धन सम्पत्ति) तप और शरीर; इन आठ का आश्रय करके गर्व करना मद कहलाता है। 108 मुनि इन आठ मदों के त्यागी होते हैं।
तप 109 :
समस्त रागादि भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में लीन हो जाना अर्थात् आत्मलीनता द्वारा पर विकारों पर विजय प्राप्त करना, तप कहलाता है । 110 तप बारह प्रकार का होता है 111 :
अनशन (उपवास), अत्रमौदर्य ( एकाशन) वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं । 112 प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य
105 रहधू पास 3/1, 6:12, 7:2
106
1
" मार्गाच्यवननिजैरार्थं परिषोढव्याः परोषहाः । तत्त्वार्थसूत्र 9/8
12
107 'क्षुत्पिापसाशीतोष्णदंशमशक्रनाग्न्यारति स्त्रीचर्या निषद्याशय्याक्रोशन्नधयाचनालाभ रोगतृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कार प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि।"- तत्त्वार्थसूत्र 99 108 ज्ञानं पूजां कुलंजातं बलमृद्धिं तपो वपुः।
अष्टावाश्रित्यमानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार 25 109 रइधू पाम 7:5
14
110 'समस्त रागादिपर भावेन्च्छत्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः । "
आ. कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार : तात्पर्यवृत्ति संस्कृत टीका ( जयसेन कृत) गाथा - 79
•
111 रइधू पास 3:23 112 तत्त्वार्थसूत्र 9/19
189 SXXXXxxxxs
189
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स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह आभ्यन्तर तप हैं।113 ये सभी बारह प्रकार का तप धर्म कहलाता है। अनुप्रेक्षा : ___ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म- स्वाख्यात इन बारह के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है।114 अनित्यानुप्रेक्षा :
पुद्गल, आयु, धन, राग, राज्यभोग, स्त्रीभोग भाग्य, नवयौवन, सौन्दर्य और इन्द्रियसुख आदि सभी बिजली के सपान चंचल हैं, यहाँ तक कि अवसान (मृत्यु) के समय शरीर भी अपना नहीं रहता, इस प्रकार समस्त जगत को अनित्य मानकर अपने मन में नित्य, निरञ्जन और शुद्ध जीव की भावना का चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।115
अशरणानुप्रेक्षा : ____ बन्धु-बान्धव, स्त्री, पुत्र, कलत्र, हाथी, सिंह, योद्धा शरीर आदि में से कोई भी किसी की रक्षा नहीं कर सकते, इस संसार में दयाप्रधान धर्म (जिनधर्म) को छोड़कर प्राणी के लिए अन्य कोई सहायक नहीं,116 इस प्रकार की भावना का चिन्तन करना, अशरणानुप्रेक्षा है। संसारानुप्रेक्षा : __ यह जीव चारों गतियों में भटकता हुआ अनेक प्रकार के दुखों को सहता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है और सुख-दु:ख रूप कर्मों को भोगता है, कोई भी किसी का सहायक नहीं,117 इस प्रकार संसार के स्वरूप का चिन्तन करना; संसारानुप्रेक्षा है।
113 तत्त्वार्थसूत्र 9120 114 बही 917 115 रइभू : पास. 3/74 एवं घत्ता-39 116 वही 3:15 एवं घत्ता-40 117 वहीं 3/16
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एकत्वानुप्रेक्षा :
यह जीव स्वयं ही कर्मों का कर्ता और उसका भोक्ता है। अकेला ही चारों गतियों में भटकता रहता है। दर्परहित आत्मा बिल्कुल असहाय और अकेला है, शुद्ध जीव अकेला ही निरञ्जन, ज्ञानमय एवं कर्मविमुक्त होता है, यहाँ संसार में उसका कोई अन्य नहीं118 इस प्रकार की भावना का चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। अन्यत्त्वानुप्रेक्षा :
शरीर, पंचेन्द्रियजनितसुख, माता-पिता, पुत्र, मित्र, बन्धु, भवन, हाथी, घोड़े आदि सब बाह्य पदार्थ हैं, मेरा कुछ भी नहीं है। जीव (आत्मा) ही मेरा हैं।119 इस प्रकार की भावना करना अन्यत्वानप्रेक्षा है। अपने मन में अन्यत्व को जानकर भी जो दुर्शन नहीं कर, अनेकों दुःख और लाखों गोलियों से युक्त संसार में भटकता रहता है।120 अशुच्यानुप्रेक्षा :
यह अशुचि देह अशुचि पदार्थों में से उत्पन्न हुई है। जो शोक, रोग तथा अनेको दु:खों से आच्छादित रहती है, अत्यन्त दुर्गन्धिपूर्ण है और जिसमें से पसीना और मैल विगलित होते रहते हैं। वह सप्त धातुओं का घर, अस्थि-पंजर से युक्त, चमाच्छादित, अन्तड़ियों की पोटली और यमराज के मुख में पड़कर असार एवं विकृत हो जाती है। यह शरीर श्रीखण्ट, कर्पूर आदि तथा देवों द्वारा मान्य क्षीरसागर के जल से धोने पर भी पवित्र नहीं होता।121 तप, व्रत, एवं संयम का धारण करना ही संसार में शरीर का सार है. उन्हें धारण किये बिना जीव के लिए माया एवं मदप्रचुर यह शरीर केवल कास्त्रव का ही कारण बना रहता हैं।122 इस प्रकार देह की अशुचिता का चिन्तन करना अशुच्यानुप्रेक्षा है।। आनवानुप्रेक्षा :
मिथ्यात्व, अविरति, योग और कषाय तथा पंचेन्द्रियों के रसास्वादन से उत्पन्न विकार, नोकषाय और अज्ञान के विविध प्रकार आदि अनेक भावों के
118 पास 3/17 एवं बत्ता-42 119 वही 3/18 120 वही, घत्ता- 43 121 वही 3/19 122 वही, धत्त!-44
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द्वारा कर्मास्त्र होता है। पंच महाव्रतों के भार को धारण न करने से, पञ्च समितियों का पालन न करने से तथा प्रकट राग से कर्मास्रव होता है। जीव कर्म से आबद्ध होता है और भवावली (संसार) को प्राप्त करता है। मन, वचन एवं काय के अशुभ एवं सारहीन संचार से अशुभ कर्मास्रव होता है, उसके कारण जीव बहुत से दुःखों को भोगता है और चौरासी लाख योनियों में घूमता है। शुभ योग से शुभ आस्त्रत्र होता है, जिसके कारण जीव वांछित लक्ष्मी प्राप्त करता है। जिस प्रकार सरोवर में जल नालियों के द्वारा आता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में कर्ममल आता है। 123 आते हुए उस कर्मास्रव को, जो संबर के द्वारा नहीं रोकता है, वह शठ टूटी हुई नाव में चढ़कर अपने को संसार रूपी सरोवर में उतारता है। 124 इस प्रकार कर्मों के आने रूप आस्रव के बारे में चिन्तन करना ही आस्त्रवानुप्रेक्षा है।
संवरानुप्रेक्षा :
आस्रव द्वारों का रुक जाना संवर कहलाता हैं। यतिवर मिथ्यात्व के लिए सम्यक्त्व, योगों के निरोध के लिए गुभि, क्रोध के दमन हेतु क्षमा, मान की जीतने के लिए मार्दव, माया के निवारणार्थ आर्जव, लोभ को विदीर्ण करने के लिए संतोष ( शौच ) का पालन करके कर्मास्रव को अवरुद्ध करते हैं। कायोत्सर्ग से शरीर को मण्डित करते हैं। अशुभ लेश्या. संज्ञा आदि का त्याग करते हैं. जिससे शुद्ध भावना की प्राप्ति के उपरान्त संवर बढ़ता है। मोक्षमार्ग के लिए चतुर्गति के तापों के भय का हरण करने वाला ही सहचर है 1125 इस प्रकार संबर की प्राप्ति के कारणों के बारे में चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है।
निर्जरानुप्रेक्षा :
जो भव्य जीव संवर को धारण करता है, वह चिरकाल से अर्जित दुखरूप प्रचुर शुभाशुभ कर्मों की निर्जरा करता है। 126 सविपाक और अविपाक के भेद से उत्तम निर्जरा दो प्रकार की होती है। 127 अपना समय आने पर कर्मों का नष्ट
123 पास 3:20
124 वही घसा 45 125 नही 3:21
126 वही, घत्ता - 46 127 वही 3/22/1
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होना सविपाक निर्जरा और समय से पूर्व ही तप के द्वारा कर्मों का नष्ट हो जाना या कर देना, सो अविपाक निर्जरा कहलाती है। 28 निर्जरा से सम्यक् ज्ञान प्रकाशित होता है और ज्ञान से लोकालोक माषित होता है।129 इस प्रकार हे भाई! तू विषय कषायों और अपने मन की चंचलता भरी आदतों का त्यागकर अपने आनन्दमयी निज स्वरूप का ध्यान करो, जिससे तेरे दुखदायक कर्मबन्ध की निर्जरा हो जाय और केवलज्ञान का प्रकाश हो।130 धर्मानुप्रेक्षा :
दयाप्रवर धर्म ही सारभूत है, जो उसे धारण कर अपने मन को स्थिर नहीं करता वह स्वयं अपने को ठगता है।131 दस धर्म, रत्नत्रय, बारह विध तप एवं तेरहविध चारित्र का आचरण ही धर्म है। धर्म ही समस्त दु:खों का निवारण एवं संसार समुद्र से पार उतारने वाला है। धर्म से ही तेज, रूप, बल एवं विक्रम प्राप्त होते हैं। धर्म से ही मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति होती है। धर्म ही कल्याणमित्र है, धर्म ही परम स्वजन है। धर्म से कोई भी व्यक्ति दुजन नहीं दिखाई देता।132 धर्म के बिना यह मनुष्य भव विफल है, यह समझकर वैसा उपाय करो, जिससे
पापरूपी वृक्ष को काटकर शीघ्र ही परमात्मपद को प्रास किया जा सके।133 इस • प्रकार धर्म के बारे में चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है। लोकानुप्रेक्षा :
लोक तीन हैं, (अधः, मध्य और ऊर्ध्व), जो तीन वात वलयों पर आधारित हैं और छह द्रव्यों से निरन्तर भरे हए हैं। यह लोक (तीनों क्रमश:) वेत्रासन. झल्लरी एवं पटह के समान हैं और चौदह राजू ऊँचा तथा प्रथुल है। लोक का सम्पूर्ण क्षेत्रफल 343 राजू है, जो किसी के द्वारा कम या अधिक नहीं किया जा
128 निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना ।
तप करि जो कर्म खिपावे, सोई शिव सुख उपजावे ।।
पं.दौलतराम जी कृत छहढाला 5/11 129 रइधू : पास. 3/22 130 तजि कषाय मन की चलचाल, घ्याओ अपनो रूप रसाल ।
झरे कर्मबन्धन दुःख-दान, बहुरि प्रकाशै केवलज्ञान ||
कविवर बुधजन कृत छहदाला, 1/10 131 रइधू : पास., घत्ता- 47 132 वही 3/23 133 वही, धत्ता-48
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सकता है। सभी पात्रों ने परिपूर्ण है और कहीं-कहीं त्रम जावों ।। आच्छादित है! बहुत पाय व अधोगति को प्राप्त होते हैं और वहाँ विभिन्न प्रकार दरख पाते हैं। प्रधान तथा परस्त्रीहरण में आसक्त रहकर, सप्त अमन एवं मंदिर में मस्त होकर वे नरकगति का भोग करके पुनः नरकगति में फर पपकर्मों के फलस्वरूप तियञ्चगति प्रास करते हैं, कभी मनुष्य हो : गं अनेक ऋद्धियों से युक्त होकर राज्य करते हैं।134 इस
र ; मा प्रदेश सा नहीं हैं जहाँ चिरकाल तक इस जीव ने जोवन. E!!| प्रा न किया ह),135 इस प्रकार मन में लोक के स्वरूप का चिन्तन करना लं. कानप्रेक्षा है। बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा :
समस्त गतियों में मनुष्यता ही दुर्लभ है और उसमें भी अत्यन्त दुर्लभ है उत्तम कुल ही प्राप्तिी दीर्घायुमा एक इन्द्रियों को पाला प्रार होने पर भी कभी निरोगशा की प्राति नहीं होती। यदि जीव यौवन, लक्ष्मी एवं कान्ति प्रास कर भी ले, तो धर्म अच्छा नहीं लगता। यदि उस धर्म को किसी प्रकार कष्ट से प्राप्त कर भी ले तब परमार्थ से गुरुवचनों को नहीं सुनता। यदि वह भी सुन ले नो कुगतिबाला 'बह जोव उसे धारण नहीं करता। वह दिनरात कुशास्त्रों में रत रहता है और हाय में प्राप्त हुए मनुष्य जन्म रूपी माणिक्य को पाकर भी खो देता है। यदि यह सब किसी प्रकार पा भी ले तो रत्नत्रय की भावना मन में नहीं 'भाता। यदि बड़ी अतिदुर्लभ रत्नत्रय मुझे किसी प्रकार प्राप्त हो गया है तो अब मैं उसमें किसी प्रकार आमाधान नहीं होगा। इस प्रकार ज्ञान की दुर्लभता के बारे । चिरान करना बोधिलथानप्रेक्षा है। धर्मस्वाख्यातानुप्रेक्षा :
, धन और स्वजन सभी शरदकालीन मेघ के समान क्षगभंगुर हैं।137 जिनेन्द्रदेव ने जो अहिंसाधर्म कहा है, सत्य उसका आधार एवं क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य में क्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है,
114 गस. 3/24 १२: पट्टी, प्रता--49. 136 बी 3/25 13 बहीं, पत्ता. 50
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I
अपरिग्रह उसका आलम्बन है। इसकी (धर्म की ) प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःखों को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संगर परिभ्रमण करते हैं परन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है; ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के धर्मानुराग वश उसकी प्राप्ति के लिए, सदा यत्र होता है। 138
उपर्युक्त द्वादश अनुप्रेक्षाओं को जो जीव ह्रदय में धारण करता है. उन्हें संबर की प्राप्ति होती है, जिसमे शुभाशुभ कर्मों का आना रुक जाता
है।
मोक्ष प्राप्ति का उपाय :
रत्नत्रय139 :
सम्यग्दर्शन, सम्यकजीन
अभिहित किए जाते हैं। इतना
कही गई हैं।140
:..
रत्नत्रय की महत्ता :
जिसने रत्नत्रय रूपी श्रेष्ठ रत्नों को प्राप्त कर लिया के लिए शोक नहीं किया जाता । 141 रत्नत्रय से युक्त धर्म ही श्रेष्ठ हैं। 142 जिसने पात्र की जान लिया, वह विषयों में आसक्त कैसे रह सकता है 2143
141 रहधू पास. 3/3
142 वही 3/23
TH: 2014.
सम्यग्दर्शन :
मिथ्यात्व के निरोध के लिए सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन) कहा गया है। 144 तत्त्वार्थं का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। 145 आचार्य समन्तभद्र के अनुसार -
138 सर्वार्थसिद्धि ( पूज्यपाद) संस्कृत टीका - 810
139 रइधू पास 3/3, 3/23, 3/25 इत्यादि ।
140 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्गः " तत्त्वार्थसूत्र - 1/1
143 वही 4/5
144 वही 3 / 21
ना.
य
145 तत्रार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " तत्त्वार्थसूत्र 12
-
237235) 195 195 SXSXexxsexxxxsxesi
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सत्यार्थ अथवा मोक्ष के कारणभूत देव-शास्त्र और गुरु का आठ अंग सहित, तीन मूढ़ता रहित, आठ मद रहित श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन कहलाता है।146 जिनशासन में संवेग एवं निर्वेद, निन्दा तथा आत्मगर्हा, उपशम तथा बहुभक्ति वात्सल्यता एवं अनुकम्पा;147 इन गुणों से सम्यक्त्व होता है।148 सम्यग्दर्शन के लक्षण :
'पासणाहचरिउ' में कविवर रइधू ने सम्यग्दर्शन के लक्षणों का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि-"अरहन्त ही देव हैं अन्य कोई नहीं। वह अठारह दोषों से रहित, निष्काम और इन्द्रियरूपी गजसमूह का दलन करने के लिए सिंह के समान हैं। उस केवलज्ञान लोचन देव को प्रणाम करो, जिन्होंने लोकालोक के भेद को जान लिया है और जो परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ साधु हैं, जिन्होंने काम के तीव्रदाह को शान्त कर दिया है, स्वाध्याय एवं ध्यान में अहर्निश प्रवीण हैं, मास अथवा पक्ष में पारणा लेने के कारण वाणाप हो गये हैं, जिन्होंने मोह, माया एवं प्रमाद को छोड़ दिया है, उनके चरणों में भी भावपूर्वक प्रणाम करो। दया धर्म के प्रति अनुराग करो, जो चिरकृत पाप कर्म का नाशक है। मोक्ष प्राप्ति के लिए निर्ग्रन्थ मार्ग छोड़ अन्य मार्ग नहीं। धन्य दशलक्षण धर्म का पालन करो। इस प्रकार से सम्यक्त्व के लक्षण कहे गये हैं. भव्यजनों को इनकी मन में दृढ़ भावना करना चाहिए।149 सम्यग्दर्शन के आठ अंग150 :
(1) निः शङ्का : जिन कथित देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप में शङ्का न करना।
(2)निः काङ्क्षा : सांसारिक सुख की इच्छा नहीं करना।
(3) निर्विचिकित्सा : धर्मात्माओं के शरीर में ग्लानि न करते हुए उनके गुणों में प्रीति रखना।
.
146 रनकरण्डश्रावकाचार 14 147 रइथू : पास., पत्ता-73 148 वहीं 5/3 149 वही 5/3 150 यही 512
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(4)अमूढ़दृष्टि : कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं की मन, वचन और काय से प्रशंसा नहीं करना।
(5) उपगृहन : जैनधर्म के पालन में हुई निन्दा को दूरकर जैनत्व के गौरव को सुरक्षित रखना।
(6) स्थितिकरण : सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र से पुरुषों को पुनः धर्म में स्थिर कर देना
(7) वात्सल्य : साधर्मी भाइयों के प्रति नि:स्वार्थ धर्मानुराग रखना।
(8) प्रभावना : अज्ञान दूरकर जैन धर्म का माहात्म्य प्रकट करना व बढ़ाना। सम्यग्दर्शन की महिमा :
सम्यग्दर्शन से दुर्गतिरूप दुःख भग्न हो जाता है।151 सम्यक्त्व से सुन्दर सम्पदादि का भोग करके फिर शिवपद (मोक्ष) प्राप्त करते हैं।152 सम्यक्त्व के बिना जीव अनेक दुःखों के आकर भवसागर में गिरता है, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं। सम्यक्त्व से युक्त नारकी जीव भी मनुष्य होकर शिवपद को प्राप्त करता है
और संसार में परिभ्रमण नहीं करता। 53 ऐसा जानकर जो व्यक्ति सम्यक्त्व के साथ परमधर्म को करता है, उसका जन्म सफल है।154 सम्यग्ज्ञान:
आचार्य समन्तभद्र के अनुसार -"जो वस्तु के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकतारहित और विपरीततारहित जैसा का तैसा सन्देहरहित जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है।"155 सम्यग्ज्ञान से लोकालोक भासित होते हैं।156
151 रइघू : पास. 3/9 152 वही 5/3 153 वही घना-74 154 वहीं 514 155 अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् ।
नि: सन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ -- रत्नकरण्डश्रावकाचार 2:48 156 रइधू : पास. 3/22
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सम्यकचारित्र:
मन्यग्दर्शन और सन्या मान सहित व्रत, गुप्ति, समिति आदि का अनुष्ठान करना. उत्तमक्ष मादि दश धर्मों का पालन करना, मूलगुण और उत्तरगुणों का धारण करना, मम्याक्जाति है अश्वता विषय कषाय. वासना, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशौल और परिग्रहरूप क्रियाओं से निवृत्ति करना, सम्यक्चारित्र है।157 जिनाभिषेक एवं जिनपूजा : __ 'पासणाहयरिंउ' में जिनपूजा का प्रसङग आया है। सर्वप्रथम 1008 लक्षणों से युक्त, भगवान का उतने ही कलशों से अभिषेक किया गया। दुन्दुभि, कंसाल, परह, बाल एवं नानाप्रकार के मधुर वाद्य बज रहे थे। पुन: इन्द्र ने दीर्घबाहुनाथ का मटन किया, फिर शुद्धोटक से जिनवर को स्नान कराकर गन्धोदक की बन्दना की। श्रेष्ठ बस्त्र में पर
पाक के समान भगवान को दूसरे आसन पर स्थापित किया।
सोन्द्र गिनिर्मित झारी में जल ले भगवान के सम्मुख तीन धारायें देकर पूजा का उत्तम विधि प्रारम्भ 511159 जिसकी गन्ध के राग से लुब्ध होकर भ्रमरावली गुंजन कर रही थी, जिसके प्रभाव से स्वर्ग में समस्त अभिलियित वस्तुयें पूर्ण हो गईं और पित दाह आदि व्याधियाँ भंग हो गईं। ऐसे चन्दन से भक्ति भावपूर्वक चर्चा (पूजा) की, मानो भविष्य में होने वाले तीव्रताप से अपने को दूर कर रहा हो। प्रमदवन में जाकर राय चम्पा और मालती (पुष्य) लाकर शची ने भव्यमाला ग्रथित की। इन्द्र ने उसे लेकर वीतराग भगवान के पादमूल में स्थापित कर दिया, मानो कामदेव के वाण से ही भगवान के चरणों की पूजा को हो। निर्मल शालि बीजों को छोटी छोटी ढेरियाँ लगा दी गईं, मानो आकाश में सुन्दर धार्मिक नक्षत्र ही स्थिर हो गए हैं। प्रिय वास से सुवासित, ताजे, लक्षलक्ष पक्वान्न स्वर्ण-निर्मित स्वच्छ पात्रों में सजाकर रखे गये। सर्यकान्ति के समान दीप्त स्वर्ण भाजन में चित्त को सुख देने वाला, धूमरहित शुद्ध दीपक सजाकर इन्द्र दुन्दुभिरव के साथ अनुरागपूर्वक नृत्य करने लागा, मानो वह भी
157 असुहादो विणिवित्तो सुहे पवित्तो य जाण चारित्त। .
बदसमितितरूव ववहारणाया दुजिण भणिय ॥ - द्रव्यसंग्रह-45 158 रइधू : पास. 2/12 - 159 वही, धात्ता--22
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सहस्त्र भुजाओं से उन भगवान की पूजा कर रहा हो। धूपवत्ती से निकलने वाला धूम आकाश में ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानो वह जीव लोक के लिए मोक्ष का मार्ग दिखा रहा हो, उसने प्रचुर गन्ध से युक्त धूप खेई, वह ऐसी शोभायमान हुई जैसे मानो भयातुर दोलर लिन भगवान गावराशि काम रही हो। करा नक्ष की शाखा में पके हुए, नेत्रों एवं चित्त को प्रमुदित करने वाले,इष्टकर एवं सुस्वादु नारियल आदि सैकड़ों फल भगवान की पादपीठ के समीप चढ़ा दिए. जो भव्यजनों के लिए श्रेष्ठ एवं नित्य सुख प्रदान करते थे। जल, गन्ध, पुष्प, अक्षत. भक्ष्य (नैवेद्य), दीप, धूप तथा फल: इन आठ द्रव्यों से युक्त पुग्गाजनित :: अन्य व्यञ्जन भी, जो लाखों दुःखों को नष्ट करने वाले थे, भगवान के ! में चढ़ाये गये,160 इस प्रकार से जिन भगवान की चारों गलियों का नाश करने वाली पूजा की|161 पाषाण प्रतिमा की पूज्यता :
पासण्याहवरिउ में एक प्रमंग आया है कि राजा आनन्द ने एक मुनिराजको "पाषाण-प्रतिमा के अर्चन एवं हवन से क्या पुण्य होता है. इस निय ... जिसके उत्तर में मुनिराज ने कहा-"जो मणियों एवं धातु से घटित जि-21 प्रतिमा का निर्माण कराता है, पृथिबी तल पर उसके पुण्य का वर्णन मानकर सकता है? गुणवान् इन्द्र भी उसे नमन करता है। जो निभानपूर्वमः जिनप्रतिबिम्ब की अष्ट प्रकार से अर्चना करता है, जो मेरु शिरवर पर समस्त इन्द्रों के द्वारा पूजा जाता है, जो केवल ज्ञान आदि गुणों से सगृद्ध है और पूर्ण विशुद्ध है; ऐसे जिनवर को जो भावपूर्वक मन में मानता है, वह व्यक्ति शाश्वत सुख को पा लेता है और जो पाषाण प्रतिमा मानकर उसकी निन्दा करता है और उसे भग्न करता है, वह मरकर नरक में जाता है, बहुत दुखों को भोगता है और वह पापी वैतरणी में डूबता है।
हे राजन् ! यद्यपि जिन-प्रतिमा अचेतन है तथापि उसे वेदन शुन्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रूप से परिणाम ही पुण्य पाप का कारण्य होता है। जिस प्रकार वनभित्ति पर कन्दुक पटकने कर उसके सम्मुख यह फट जाती है, उसी प्रकार दुःख-सुख कारक निन्दा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रभाव से यद्यपि प्रतिमा भग्न नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं, उनमें से
160 पास. 2/13 161 बही, घत्ता 23
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धार्मिक कर्मों को स्वर्ग का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान का चिन्तन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश च्यान करो।162 दान163 :
अपने तथा पर के उपकार के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।164 दान चार प्रकार का होता है
औषधिदान, ज्ञानदान, अभयदान और आहारदान165 दान की प्रेरणा देते हुए आचार्य पद्मनन्दि ने लिखा है किसत्पात्रेषु यथाशक्ति, दानं देयं गृहस्थितैः । दानहीना भवेत्तेषां, निष्फलै व गृहस्थता।।168
अर्थात् गृहस्थ श्रावकों को शक्ति के अनुसार उत्तम पात्रों के लिए दान अवश्य देना चाहिए, क्योंकि दान के बिना उसका गृहस्थाश्रम निष्फल ही होता
षोड़श भावनायें167 (सोलह कारण भावनायें)
षोडश भावनायें निम्नलिखित हैं1. दर्शन विशुद्धि:
जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि दर्शन विशुद्धि है।168 2. विनय सम्पन्नता:
सम्यग्ज्ञान आदि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञान के निमित्त गुरु आदि में योग्य रीति से सत्कार-आदर आदि करना तथा कषाय की निर्मक्ति करना, विनय सम्पन्नता है।169
162 रइधू : 'पास. 6.78 163 वही 1/3 164 "अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्।"-तत्वार्थसून 7/38 165 पं. द्यानतरायकृत दशलक्षणपूजा की जयमाला (त्याग सम्बन्धी पद) 166 पद्मनन्दिपंचविंशत्तिका : उपासकसंस्कार, शोक 31 167 रइधू : पास. 215 168 तत्त्वार्थवार्तिक 6/24 की व्याख्या, वार्तिक नं. । 169 वही वार्तिक नं.2, .sesxesesexsasrushes 200 kusheszxsrusisxestess
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3. शीलवतेष्वनतिचार : ___अहिंसा आदि तथा उनके परिपालन के लिए क्रोधवर्जन आदि शीलों में काय, वचन और मन की निदोष प्रवृत्ति शीलवतेष्वनतिचार है।170 4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग: ___ जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने वाले मति आदि पाँच ज्ञान हैं। अज्ञान निवृत्ति इनका साक्षात्फल है तथा हित प्राप्ति, अहित-परिहार और उपेक्षा व्यवहित फल हैं। इस ज्ञान की भावना में सदा तत्पर रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।171 5. संवेग :
शरीर मानस आदि अनेक प्रकार के प्रिय वियोग, अप्रिय संयोग, इष्ट का अलाभ आदि रूप सांसारिक दुखों से नित्य भौरुता संवेग है।172 b. त्याग :
पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु देना त्याग है।173 7. तप: ____ अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है।
174
8. साधुसमाधि :
जैसे भण्डार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शान्त की जाती है, उसी तरह अनेक व्रत-शीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधुसमाधि है।175 9. वैयावृत्य :
गुणवान् साधुओं पर आये हुए कष्ट रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा करना बहु उपकारी वैयावृत्य है।176
170 तत्वार्थवार्तिक 6/24 की व्याख्या, वार्तिक नं. ३ 171 वही, वार्तिक नं.4, 172 वही, वार्तिक नं.5 173 वहीं, वार्तिक नं.6 174 बही, वार्तिक नं.7 175 वही, वार्तिक नं. 8 176 वही, वार्तिक नं.१ Postasisesexsuspasses 2016xsesasxesiasmustester
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10, 11, 12, 13. अर्हदाचार्यबहुश्रुत प्रवचन भक्ति :
केवलज्ञान, श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारी परहित प्रवण और स्वसमय विस्तार निश्चयज्ञ अर्हन्त, आचार्य और बहुश्रुतों में तथा श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले मोक्षमहल की सीढ़ी रूप प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग रखना अहंद् भक्ति, आचार्य भक्ति, बुहत्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति हैं।177 14, आवश्यकापरिहाणि : ___सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग: इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा कि स्वाभाविक क्रम से करते रहना आवश्यकापरिहाणि है। सर्व सावध योगों को त्याग करना, चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है। तीर्थङ्करों के गुणों का स्तवन चतुर्विंशतिस्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड़गासन या पद्मासन से चार बार शिरोन्नति और आवर्तपूर्वक वन्दना होती है। कृत दोषों की निवृति . प्रतिक्रमण है। भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है। अमुक समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।178 15. मार्ग प्रभावना : ___महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा सूर्यप्रभा के समान जिनपूजा से सद्धर्म का प्रकाश करना, मार्ग प्रभावना है।179 16. प्रवचनवत्सलत्व :
जैसे गाय अपने बछड़े से स्नेह रखती है, उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओत-प्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है।180
लोकों के लिए सुखदायक, जो तीर्थङ्कर हो चुके हैं, आगे होंगे तथा जो वर्तमान में हैं, वे सभी सोलह कारण भावनायें भाकर (ध्याकर) तथा आत्मा के शुद्ध परमात्मगुण को पाकर ही सिद्ध हुए हैं।181 अतः हमें भी यथाशक्ति इनका ध्यान करना चाहिए।
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177 तत्वार्थ यात्र्तिक 6:24 की व्याख्या, वार्षिक नं. 10 178 चही वार्तिक नं. 11 179 वहीं, बार्तिक नं. !? 780. बही, पार्तिक. 15 181 रइथ: पास. 6:20
తత్ర తత్ర బ్ర 202 బ్రత తద్రుడు
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Kesxesxes
'तीर्थङ्कर" तीर्थ शब्द से बना है। तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति है- तरति संसारमहार्णव येनः तत् तीर्थम । अर्थात् जिसके द्वारा जीव इस अपार संसार सागर से पार होता है, उसे तीर्थ कहते हैं और ऐसा तीर्थ धर्म ही है, अतः धर्म तीर्थ के कर्त्ता या चलाने वाले को तीर्थङकर कहते हैं।
तीर्थङ्कर182 :
"
अष्ट प्रातिहार्य 183 :
तीर्थकर भगवान के आठ प्रातिहार्य निम्नलिखित होते हैं 184 : 1. अशोक वृक्ष का होना, जिसके देखने से शोक नष्ट हो जाय। 2. रत्नमय सिंहासन ।
3. भगवान के पीछे भामण्डल का होना।
4. भगवान के मुख से निरक्षरी दिव्य ध्वनि का होना ।
5. देवों द्वारा पुष्प वृष्टि होना:
6. यक्ष देवों द्वारा चौंसठ चंदरों का ढोला जान्न ।
7. दुन्दुभि बाजों का बजना |
चौंतीस अतिशय 185
10
"पासणाहचरिउ " में तीर्थङ्कर भगवान महावीर के चौंतीस अतिशयों से युक्त होने का उल्लेख आया है। इन चौतीस अतिशयों में 10 (दस) जन्म से, (दस) केवलज्ञान होने पर और 14 (चौदह) देवकृत होते हैं। ये चौंतीस अतिशय निम्नलिखित हैं
जन्म के दस अतिशय 186 :
जन्म के इस अतिशय इस प्रकार हैं :
1. अत्यन्त सुन्दर शरीर 2 अतिसुगन्धमयशरीर, 3. पसेत्र ( पसीना ) रहित शरीर, 4. मलमूत्ररहित शरीर, 5. हित-मित प्रिय वचन बोलना, 6. अतुल्य बल, 7. दुग्ध के समान सफेद रुधिर, 8. शरीर में 1008 लक्षण, 9. समचतुरस्त्रसंस्थान
182 पास 3:10/1
183 बड़ी 4:15,7/1
184 द्र बाबू ज्ञानचन्द जैन (लाहौर) : जैन बाल गुटका. प्रथम भाग, पृ.68
185 रड़धू पास 5/17/1
186 श्री बाबू ज्ञानचन्द जैन (लाहौर): जैन बाल गुटकर, प्रथम भाग, पृ. 65-66
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शरीर अर्थात् शरीर के अगों की बनावट, स्थिति चारों तरफ से ठीक होना, 10. . वज्रवृषभनाराचसंहनन। केवलज्ञान के दस अतिशय187 : 1. एक सौ योजन तक सुभिक्ष अर्थात् जहाँ केवली भगवान रहते हैं, उससे चारों
ओर सौ. सौ योजन तक सुभिक्ष होता है। 2. आकाश में गमन, 3. चार मुखों का दिखाई पड़ना, 4. अदया का अभाव, 5. उपसर्ग का अभाव, 6. कवल (ग्रास) आहार का न होना, 7. समस्त विद्याओं का स्वामीपना, 8. केशों और नाखूनों का न बढ़ना, 9. नेत्रों की पलक नहीं टिमकाना, 10. छाया रहित शरीर। देवकृत चौहह अतिशय188 : 1. भगवान की अर्द्धमागधी भाषा का होना। 2. समस्त जीवों में परस्पर मित्रता होना। 3. दिशा का निर्मल होना। . 4. आकाश का निर्मल होना। 5. सब ऋतु के फल फूल धान्यादिक का एक ही समय फलना। 6. एक योजन तक की पृथ्वी का दपर्णवत् निर्मल होना। 7. चलते समय भगवान के चरण-कमल के तले स्वर्णकमल का होना। 8. आकाश में जय-जय ध्वनि का होना। 9. मन्द सुगन्ध पवन का चलना। 10. सुगन्धमय जल की वृष्टि होना। 11. पवन कुमार देवों द्वारा भूमि को कण्टक रहित करना।
187 रइधू : पास., घत्ता 67 एवं 4/17 188 वहीं 4/17
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12. समम्त जीवों का आनन्दमय होना ।
13. भगवान के आगे धर्मचक्र का चलना ।
14. छत्र, चमर, ध्वजा, घण्टादि अष्टमगल द्रव्यों का साथ रहना ।
द्रव्य-विवेचन :
द्रव्य छह होते हैं। 189 धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और द्रव्य के छह प्रकार हैं | 190
धर्म द्रव्य :
गमन में परिणत पुद्गल और जीवों को गमन में सहकारी धर्मद्रव्य है। जैसेमछलियों के गमन में जल सहकारी है। गमन न करते हुए पुद्गल व जीवों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता । 191
पुद्गल ये
अधर्मद्रव्य :
ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है। जैसे- पथिकों को ठहरने में छाया सहकारी है। गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है। 192
आकाश द्रव्य :
जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश देता है, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। 193 आकाश के दो भेद हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश। धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव, जितने आकाश में है, वह लोकाकाश कहलाता है और लोकाकाश से बाहर अलोकाकाश कहलाता है। 194
189 रइव पास, 3/14 190 तत्वार्थसूत्र 5/1
191 गुहारिणाण भ्रम्मो, पुग्गण जीवाण गमण सहयारी ।
-
तोयं जह मच्छार्ण, अच्छंता व सो नेई ॥ द्रव्यसंग्रह, गाथा 17 192 ठाणजुदाण अथम्मो पुग्गल जीवाणठाण सहयारी ।
छाया जह पहियाणं अच्छतां क्षेत्र सी धरई । वहीं, गाथा - 18 193 अवगासदाण जोग्गं जीवादीणं वियाग आया।
जेहं लोगागा अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ - वही, गाथा - 19 194 धम्मा धम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जात्रदिये
आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुति ॥ - वही, गाथा-20
Restesteststus 205 (235
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त्रैलोक्य का स्वरूपः
प्रथम जिनेन्द्र (भगवान ऋषभदेव) हारा कथित सर्वाकाश अनन्तानन्त रूप में प्रकाशित है। उसके मध्य में महान तीन लोक हैं, जो असंख्य प्रदेशों से। विशिष्ट हैं, अकृत्रिम हैं, स्वत: सिद्ध हैं और प्रसिद्ध हैं, न कोई उसका हरण करता है और न निर्माण। धनवातवलय, तनुवातवलय एवं घनोदधिवातलय पर आधारित हैं। सम्पूर्ण लोक जीवाजीवों से भरा है। उन सभी का पिण्ड जिन भगवान ने बीस-बीस सहस्र योजन प्रमाण ऊपर -अपर कहा है। ऊर्ध्व प्रदेश में क्रमश: होन-हीन हैं तथा लोक के शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमश: हीनहनि हीन हैं तथा लोक के शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमश: दो कोरी, एक कोस एवं शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमश: दो कोस, एक कोस एवं पन्द्रह सौ पचहत्तर (1575) धनुष प्रमाण है।
यह लोक बौदह रजू प्रमाण ऊँचा है और इसका समस्त क्षेत्रफल 343 घन राज़ है। उमी के मध्य सुप्रसिद्ध असगाड़ी है, वह सर्वत्र त्रय जीवों के भरी हुई है। दुःखनाशक भगः।। 117 के बाहर के क्षेत्र को पाँच प्रकार के स्थावरों से मग हा कहा है। मारणातक मुगात एवं उपपाद-समुद्घात करते समय इन तीनोंकों में उनका गगन गाड़ी के बाहर भी अविरुद्ध हैं। ___ लोक के मूलभाग में उसका प्रमाण पूर्व से पश्चिम में सात राजू कहा गया है
और फिर मध्यलोक में एक राजू, ऊर्ध्व- लोक में ऊपर जाकर पाँच राजू और पुनः एक राज विभक्त है। दक्षिण और उत्तर दिशा में लोक का आयाम सर्वत्र निरन्तर सात राजू जानना चाहिए।195
दस, सोलह, बाईस, अट्ठाईस, चौंतीस, चालीस एवं छयालीस रज्जू अर्थात् कुल 196 रज्ज प्रमाण सात (नरक) पृथ्वियों का घनफल जानना चाहिए।196
इस प्रकार सातों नरकों का प्रमाण एक सौ छियानवे रज्जू है। एक सौ सैंतालीस रज्जू ऊर्ध्व लोक का प्रमाण जानना चाहिए। इस प्रकार गणना करके, ये 343 रज्जू कहे गये हैं।197
195 रइधू : पास. 5.14 196 वही, घत्ता-85 197 वही 5:15
RSesiesdeseseResidesxesy 2oe kestesOSRASIRSASURES
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नरक वर्णन ( अधोलोक) प्रथम घम्मा नरक : .
तिर्यक लोक के मध्य में एक सहस्र योजन प्रमाण कनकाचल का तल है। उसके नीचे धम्मा नामक प्रथम नरक है, जिसके तीन भाग हैं। प्रथम भाग का नाम खर पृथ्वी है, जो सोलह योजन मोटी है। नौ प्रकार के भवनवासी देव वहाँ रहते हैं और मनोवाछित सुखों को भोगते हैं। सात प्रकार के रसिक व्यन्तर देव भी वहाँ सुख भोग भोगते हुए रहते हैं।198
पकबहुल नामक दूसरा भाग भी चौरासी सहस्र योजन मोटा है। वहाँ एक प्रकार के अस् कुमार आतिक देवों का निवास स्थान है।199
तृतीय तोय 'बहुल नामक भाग भी अस्सी सहस्र योजन मोटा है। दु:खों में परिपूर्ण उन नरक भागों में नारकी लोग निवास करते हैं और एक दूसरे को प्रताड़ित करते रहते हैं।200
प्रथम ना में प्रसार हैं20। तभ्यः लोप :: Tो हरिपूर्ण विन : प्रकार के हैं-इन्द्रक, श्रेण E ikणक । यहाँ पर आपके आभन नारकी जीय निवास 13 ___PITE :
मादा अंगुल अधिक तीन हाथ है। : 1 स्थान में पक रहना है 22044 प्रथम रक में का आ पमा एक सरगर वं जघन्य आय दस
05 प्रथम नरक की पृथ्वी का नाम्। रत्नप्रभा है।206 जिसकी प्रभा, चित्र आदि रत्नों को प्रभा के समान है, वह रल प्रभा भूमि है।207
__ --- --- -. . - - * : पान. 5.15 199 हो. धा- 200 ही 5:16/1.3 201 बहो 5/16/7 202 वही 5/16/11 203 वही 5/16:15-16 204 वही, घत्ता-87 205 वही 5/07/4,8 206 वहीं, घत्ता -88 207 इ. सवार्थसिद्धि : पूज्यपाद : पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्या टीका, 367 पृ. 147 aslesesesxesxxshashess) 207CSTMesxesxesxesesxes
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प्रथम नरक में नारकियों का अवधिज्ञान केवल एक योजन प्रमाण कहा गया है208
अमनस्क जीव प्रथम नरक तक उत्पन्न होता है।209 वहाँ से निकलकर जीव शोभा युक्त तीर्थंकरत्व को भी प्रास करता है और चौंतीस अतिशयों से परिपूर्ण आठवीं पृथ्वी प्राप्त कर वह धन्य हो जाता है।210 वे नारायण, प्रत्तिनारायण, बलभद्र और जयलक्ष्मी के धारी तथा छह खण्डधारी चक्रेश्वर पद प्राप्त करते हैं। बाधा से रहित होते हैं तथा सुगति को साधने के कारण उनका नरकों में आगमन नहीं होता।11 इस नरक में उष्ण वेदना होती है212 द्वितीय वंशा नरक:
द्वितीय नरक वंशा नाम वाला है।13 इसमें ग्यारह नरक प्रस्तार हैं, जिनमें नारकियों के कुल दुःखों से परिपूर्ण रहते हैं।214 इसमें दुखों को देने वाले पच्चीस लाख बिल हैं।15 ये बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं कुसुमप्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं, जहाँ पर नाना प्रकार के अमित नारकी जीव निवास करते हैं 216 इस नरक के जीवों का शरीर चौदह दण्ड एवं बारह अंगुल अधिक छह हाथ है।17 इस नरक में उत्कृष्ट आयु का प्रमाण तीन सागर है218 तथा जघन्य आयु एक सागर प्रमाण कही है।219 इस नरक की भूमि का नाम शर्कराप्रभा है। 220 जिसकी प्रभा शर्करा के समान हो, वह शर्कराप्रभा भूमि है 21 इस नरक में
- -- - - --- - - - - 208 रइघु : पास. 5/18/2 209 वहीं, 3/18/6 210 वहीं,5/18/15-16 211 वहीं, बत्ता- 89 212 सर्वार्थसिद्धि: पूज्यपाद, व्याख्या टीका 371, पृ. 150 213 पास. 5/16/4 214 वही 5/16/7 215 वही 5/16/11 216 वही 5/16/15-16 217 वही 5/17/1 218 वही 5/17:4 219 वहीं 5/178 220 वही,पत्ता- 98 221 सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद : पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्या टीका 367, पृ. 147
Desesesesxesxesesistej 2os deskesiestesesacsiesdes
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नारकियों का अवधिज्ञान केवल आधा कोस कम एक योजन है।222 मार्जार आदि दुखपूर्ण जीव इसी नरक में जन्म लेते हैं।23
इस (वंशा) नरक से निकलकर जीव शोभायुक्त तीर्थंकरत्व को प्राप्त करता है। उनका पुनः नरक में आगमन नहीं होता, वे नारायण, बलभद्र, प्रतिनारायण, चक्रेश्वर आदि पद को प्राप्त करते हैं. बाधारहित होते हैं।224 इसमें उष्णवेदना होती है|225 तृतीय सेला नरक :
तीसरा नरक जिन भगवान ने सेला नाम वाला बताया है।226 इसमें नो नरक प्रस्तार227 तथा पन्द्रह लाख बिल हैं।228 ये बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं कुसुम प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं, जिसमें नाना प्रकार के अमित नारकी जीव निवास करते हैं 29 इस नरक के जीवों का देह प्रमाण इक्कीस दण्ड एवं अठारह अंगुल अधिक नौ हाथ हैं।230 आयु का उत्कृष्ट प्रमाण सात सागर है231 तथा निकृष्ट आयु तीन हजार वर्ष है।232 इस (सेला) नरक का द्वितीय भाग बालु प्रभा है।233 इसकी प्रभा बालु को प्रभा के समान है, अत: यह भूमि बालु प्रभा कही गई है।234 इस नरक के नारकियों का अवधि ज्ञान केवल तीन कोस प्रमाण है।235 इस नरक में पापी विहङ्गम जन्म लेते हैं, जहाँ वे निरन्तर घातों से सन्तप्त होते हैं।236 तृतीय नरक से निकलकर जीव शोभायुक्त तीर्थकरत्व को
222 रइभू : पास. 5/18:3 223 वही 5:18/6 224 वही 5:18 एवं पत्ता-89 225 सर्वार्थसिद्धि. व्याख्या ट्रीका 371 पृ. 150 226 पास. 5/16114 227 वहीं 5:16:8 228 बही 51/16/12 229 वही 5:16/15 16 230 बही 5:16.77 231 वही 5:17/4 232 वही 5:17/9 233 वही,पत्ता -88 234 सर्वार्थसिद्धिः हिन्दी व्यारव्या-367. पृ. 147 235 पास, 5/18/3 236 "सिंजाइ जति विहंगम पाविय, णिच्च जस्थ घायहिँ संतात्रिय ॥'' वही 5/18/7 Pastestakesxesesses 209 SxeshisxesxSEXSI
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प्रास करता है तथा पुनः नरक में आगमन नहीं होता37 चतुर्थ नरक अजनानाम वाला है, इसमें सात नरक प्रस्तार और दस लाख बिन हैं। ये बिल भी तीन प्रकार के होते हैं इन्हक, श्रेणीबद्ध और कुसुमप्रकीर्णक। इनमें नाना प्रकार के अमित नारकी जीव निवास करते हैं।238 इस नरक में जीवों की देह का प्रमाण बयालीस दण्ड एवं छत्तीस अंगुल अधिक अठारह हाथ है।239 इस नरक के नारकियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण दस सागर240 तथा निकृष्ट आयु का प्रमाण सात हजार वर्ष है।241 इस नरक की पृथ्वी का अपर नाम पङ्कप्रभा है।42 जिसकी प्रभा कीचड़ के समान है. वह पङ्कप्रभा भूमि है।243 इस नरक के नारकियों का अवधिज्ञान प्रमाण हाई कोस है।244 इसमें विहङ्गम जन्म लेते हैं|245 चतुर्थनरक से लौटकर जीव मोक्ष पद पाता है किन्तु नियम से तीर्थङ्कर नहीं होता 46 इस नरक में तीन उष्णता है, किन्तु पापवर्श जीव उस सब को । सहता है।247 पञ्चम अरिष्टा नरक :
पञ्चम नरक अरिष्टा नाम वाला कहा गया है। इसमें पाँच नरक प्रस्तार तथा तीन लाख बिल हैं। वे बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं कुसुमप्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं, जहाँ पर नाना प्रकार के नारकी जीव निवास करते हैं PAB इस नरक के जीवों का देह प्रमाण चौरासी दण्ड एवं बहनर अंगुल अधिक छत्तीस हाथ है।249 इस नरकके नारकियों की उत्कृष्ट आयु सत्रह सागर250 तथा निकृष्ट :
Privar
-..237 पास.5:18/15 238 वही5/16 239 वही 5/17:2 240 वहीं 5/17.5 241 वही 5/17/8 242 पास. पत्ता- 88 243 सर्वार्थसिद्धि, व्याख्या-367.1. 147 244 पास. 5/18/4 245 वहीं 5/788 246 "चस्थिहिं आदिउ सिवपउ पावइ, तित्थयर विणउणिय भावइ।" वही 5:18:14 247 बही 5/19:1 248 वही 5/16 249 वही 5/17 250 वहीं 5:17.5
sxesexestusesTastesYes 210 Asleshusshastasistessess
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आयु दुखों से पृणं दस सागर होती है।251 इस नरक पृथ्वी का अपर नाम धूमधा है।252 जिसकी प्रभा धुंवा के समान है, वह धूमप्रभा भूमि है।253
पाँचवें नरक में अवधिज्ञान का प्रमाण गणधरों ने दो कोस माना है।254 दुखों के सङ्गम सिंह इस नरक में उत्पन्न होते हैं 255 इस नरक में तीव्र शीत
और उष्णता है।256 तीव शीत और उष्णता के कारण जीव अत्यन्त दुखों को भोगते हैं। पांचवें नरक से निकल कर जीव ( मनुष्य होकर) व्रत तप करता है, किन्तु वहाँ भी वह मोक्ष प्राप्त नहीं करता।257 षष्ठम मघवी नरक :
छठवें नरक का नाम मघवी कहा गया है। इसमें तीन नरक प्रस्तार तथा पाँच कम एक लाख अर्थात् 95000 बिल हैं। ये बिल इन्द्रक. श्रेणीबद्ध एवं कुसुमप्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं तथा यहाँ पर नाना प्रकार के अमित नारकी औव निवास करते हैं।25B इस नरक के जीवों का देह प्रमाण एक सौ अड़सठ दण्ड एवं एक सौ चवालीस अंगुल अधिक बहतर हाथ है।259 इस नरक के नारकियों की उत्कृष्ठ आयु बाईस सागर260 तथा निकृष्ट आयु सत्रह सागर होती है।61 इस नरक की पृथ्वी का अपर पाम तग:प्रभा है।262 जिसकी प्रभा अन्धकार के समान है, वह तम:प्रभा भूमि है।263 छउवें नरक में अविधज्ञान का क्षेत्र डेढ़ कोस पर्यन्त माना गया है।।64 स्त्री, मत्स्य इसी नरक में
252 पास 5179 252 व्ही. पत्ता 88 253 सर्वार्थसिद्धि : पं. फूलचन्द्र शास्त्री, टोका, हिन्दी व्याण्ड्या -367. पृ. 147 251 पास. 5/18:4 255 वहीं 5/18/8 256 वही 5/19/2 257 वही 5/18/13 255 वहीं 5:16 259 वही 5:17 260 वहीं 5:15 26] वहीं 5:17:10 262 बही घना-88 26- साध सद्रि पं. फलचन्द शास्त्री. टोका हिन्दी व्याख्या, पृ. 147 264 पास. 514:5
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उत्पन्न होकर पूर्वार्जित कर्मों को भोगते हैं।265 इस नरक से लौटकर जीव मनुष्यत्व प्राप्त करता है, किन्तु उसे चारित्र की प्राप्ति नहीं होती,266 सप्तम माधवी नरक :
सप्तक नरक माधवी कहा गया है। इसमें एक नरक प्रस्तार है , जिनमें नारकियों के कुल दुखों से पूर्ण रहते हैं, तथा पाँच निकृष्ट बिल हैं। ये बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और कुसुमप्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं 267 इस नरक के जीवों का देह प्रमाण तीन सौ छत्तीस दण्ड एवं दो सौ अठासी अंगुल अधिक एक सौ चबालीस हाथ है68 इस नरक के नारकियों की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर269 एवं जघन्य आयु बाईस सागर की है।270 इस नरक को काजल के समान काला, घोर अन्धकार पूर्ण तथा दुःखों से व्यास कहा गया है। इस माघवी नरक की पृथ्वी का अपर नाम महातमः प्रभा हैं।271 जिसकी प्रभा प्रगाढ़ अन्धकार के समान है, वह तम:तमप्रभा भूमि है।272 इस नरक में नारकियों का अवधिज्ञान केवल एक कोस पर्यन्त प्रमाण कहा गया है।273 पुरुष तथा मत्स्य इस नरक में पूर्वार्जित कर्मों को भोगते हैं|274 इस नरक के दुःख सहकर जो जीव वहाँ से मरकर लौटता है, वह तिर्यञ्च होता हैं। वह मरकर पुन: नरक में ही जाता है और पूर्वजन्म का स्मरणकर दुःख सहता है275 छठवें एवं सातवें नरक की विविध वेदनायें :
छठवें एवं सातवें नरक में तीव्र शीत होती है। यदि वहाँ एक लाख योजन प्रमाण लोहे का गोला डाल दें तो वह भी तीव्र उष्णता के कारण क्षणमात्र में गल जाता है और तीव्र शीत से स्थानान्तर में विलीन हो जाता है। वहाँ क्षेत्रोद्भव
...
265 पास.5:18/9 266 वही 5/18:12 267 वहीं 516 268 वही 5/17 269 वही 5:175 270 बही 5/17/10 271 बही, घत्ता-88 272 सार्थसिद्धि पूज्यपाद : पं. फूलचन्द शास्त्री बीका, हिन्दी व्याख्या 367, पृ. 147 273 पास. 5/1815 274 वही 5:18:9 275 सत्तमणरयहँ जो आवेप्यिणु तिरिंउ होइ पुण दुवखुसहेप्पिणु .
परइ पुणु वि सो जाइ मरेप्पिणु, दुक्ख सहइ चिरजम्मु सहेप्पिणु । वहीं 5/18:10.11 ASRestastesesxesesiasis) 212 sxssessiesesxeses
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असुरोद्भव, मानसिक एवं कायोद्भव वेदनाओं से भयभीत हुए नारकी परस्पर में एक दूसरे का हनन करते हैं और वहाँ निमिष भर के लिए भी उन्हें सुख प्राप्त नहीं होता। संडासी से नारकियों के मुँह फाड़कर उनमें लौहा गलाकर भर देते हैं, उनसे शरीर गल जाता है, किन्तु फिर क्षणमात्र में उसी प्रकार मिल जाता है, जिस प्रकार पोर के बिन्दु निरन्तर संगठित हो जाते हैं। क्षेत्र की विशेषता के कारण पूर्व बैर को जानकर नारक वृन्दों के द्वारा उनका दमन किया जाता है। उनको धगधगाते हुए (दग्ध) अङ्गारों के समान तप्त लौह स्तम्भों का आलिङ्गन कराकर वे कहते हैं कि रे दुष्ट ! तूने पूर्वकाल में छल से परस्त्री का आलिङ्गन किया था।'' अन्य दूसरे शाल्मलि वृक्ष लाकर तृण अथवा वृक्ष डालियों के समान शरीर एवं सिर तहस-नहस कर डालते हैं। यदि वहाँ से वह किसी प्रकार छूट भी जाता है, तो वह तीन प्यास से घुटने लगता है। फिर उनके सिर पर हथौड़ों के प्रहार से आघात करते हैं और उन्हें तस तेल के कड़ाहों में डाल देते हैं, जिससे उन्हें कुम्भीपाक में पकाए जाने के समान जलन के दु:खं होते हैं276
इस प्रकार जीव अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है। वहाँ (नरक में) जन्म लेकर जीव किस प्रकार सुख प्राप्त कर सकता है। मध्य लोक का वर्णन : ___मध्य लोक एक रज्जू प्रमाण विस्तारवाला कहा गया है, जो द्वीपों एवं सागरों से युक्त है। वे द्वीप एवं सागर जिनेन्द्र ने असंख्य कहे हैं। अपने आयाम में वे दुगुने- दुगुने बताये गये हैं। उसके मध्य में द्वीपों में प्रधान तथा उनके राजा के समान जम्बू द्वीप है। वह एक लाख योजन विशाल प्रमाण वाला हैं, यद्यपि वह आकार में सबसे लघु है, परन्तु गुणों में ज्येष्ठ है।277 भरत क्षेत्र का वर्णन :
मेरुपर्वत की दक्षिणी दिशा में धनुषाकार भरतक्षेत्र है। उसमें ऋषि लोग भ्रमण किया करते हैं। उसका प्रमाण 526 योजन से छह कला अधिक है अर्थात् भरत क्षेत्र का प्रमाण कुछ अधिक है; ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। उसके मध्य में सुन्दर विजयार्ध पर्वत है, जो पच्चीस योजन ऊँचा है और पचास बोजन विस्तार वाला है, जो दीर्घत्व के प्रसार में सागर तक चला गया है।
276 णस. 519 27 पास. 5/27:14
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महीतल से दस योजन ऊपर इसकी दो श्रेणियाँ विद्याधर समूह से बसी हुई हैं। दक्षिण दिशा की श्रेणी में पचास करोड़ तथा उत्तर श्रेणी में साठ करोड़ सुखकारी पुर स्थित हैं और प्रत्येक पुर में करोड़ गाँव हैं। प्रत्येक गाँव में खेचर राजा राज्य किया करते हैं। उस पर्वत के शिखर पर नौ पूर्णभद्र नामक कूट हैं, जिन्हें देखकर देवगण भी पगुभव का अनुभव करते हैं।278_
सरोवरों एवं गुफाओं को पूर्ण करने वाली गंगा एवं सिन्धु नदियों द्वारा भरत क्षेत्र के छह खण्ड किए गये हैं। (उनमें से दक्षिण भरत के तीन खण्डों में से मध्य का खण्ड आर्यखण्ड है और शेष) पाँच खण्डों में भयानक म्लेच्छों का निवास है। जिन भगवान का धर्म वहाँ नहीं जाता279
आर्यखण्ड धर्म एवं कर्म के भेदों से समृद्ध है। उसकी उत्तदिशा में सुखकारी हिमत्रान्-हिमवन्त नामक कुलाचल हैं। उस कुलाचल का विस्तार 105272119 योजन और ऊँचाई एक सौ यौजन है। अपने आयाम में यह सागर पर्यन्त विस्तृत है, उसके ऊपर ग्यारह सुखकारी कूर हैं, जिनमें व्यन्तरदेव निवास करते हैं। उसके ऊपरी शिखर पर पद्म नामक महाहद है, जिसका आयाम एक सहस्र योजन है। उसकी चौड़ाई इसकी आधी और गहराई दस योजन है। उसके मध्य में एक पुण्डरीक कहा जाता है, जो एक योजन प्रमाण है और कभी भी विलीन नहीं होता। उसकी कर्णिकायें कनकवर्ण की कही गई हैं, जिनका प्रमाण एक-एक कोस का है और जो उत्तम तेज से दीप्त हैं। उस पर श्री नामक देवी
अपने-अपने परिजनों के साथ निवास करती हैं और मनोवांछित सुखों का बिलास करती है।280 गङ्गा, सिन्धु एवं रोहित आदि श्रेष्ठ नदियाँ स्वयं पद्महद से निकली हैं। वे गङ्गा आदि नदियाँ सवा छह योजन विस्तृत तथा उससे दस गुने लम्बे समुद्र में गिरती हैं।281 सिन्धु नदी पश्चिम समुद्र में गिरती है, विजयार्ध उनका मित्र है। इससे (इस प्रकार गङ्गा, सिन्धु एवं विजयार्ध पर्वत से विभक्त होकर) भरतक्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। हिमवान एवंत की उत्तर दिशा में हैमवत् नाम का क्षेत्र है, जो कल्प वृक्षों से युक्त है। 10525112 योजन प्रमाण वाला हिमवत् नामक पर्चत है। यही हिमवन्त क्षेत्र का भी विस्तार है और समुद्र
28 पास. 5:27:5-12 279 कहीं घत 8 280 पास. 5:24 28 वा धत्ता. १२
Resmashasxesxesxestesses 214 RASICSesxxsrusILSESXASS
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r anslations तक दोघं है। वहाँ मनुष्यों की आयु एक पल्य एवं शरीर का प्रमाण एक गव्यूतिहै।
वे वहाँ मनोवाञ्छित भोगों को भोगते हैं, वहाँ 7 शीत है, न उष्णता और न रोग-शोक। वे आँवले के बराबर ही आहार ग्रहण करते हैं अथा कभी भी मलमूत्र का त्याग नहीं करते है।282 वह भोग भूमि जघन्य होने पर भी श्रेष्ठ सुखों की खानि है। रोहित एवं रोहितास्या नाम की चञ्चलन वाली दो नदिया है, उनका. कहीं स्खलन नहीं होता283 उन दोनों नदियों का प्रथम निर्गमन मख साढ़े बारह योजन कहा गया है, फिर क्रम-क्रम से दस गुनी विस्तीर्ण होकर वे दोनों नदियाँ पूर्व एवं अपर सागरों को प्राप्त होती हैं।284
हैमवत् क्षेत्र की उत्तर दिशा में दो सौ योजन ऊँचा एवं अत्यन्त सुन्दर महा हिमवन्त नाम का कुलाचल हैं, जो दीर्घता में समुद्र तक फैला है। जो 421010/19 योजन प्रमाण है। यह उस पर्वत का विस्तार है, उस पर आठ कूट कहे गये हैं। पुन: वहाँ पद्म नामक महाहृद है, जिसका अन्नगाह बीस योजन कहा गया है। उसका आयाम दो सहस्त्र तथा विस्तार उससे आधा है। उसके मध्य में बज्रमय दो योजन विस्तार वाला कमल हैं, जिसके पत्र दो योजन विस्तीर्ण हैं। उसकी कर्णिका भी दो योजन प्रमाण है, जिस पर "ह्री" नाम की देवी सदा निवास करती है। उस पर्वत के सरोवर से उत्तर दिशा में रोहित एवं हरित नदियाँ निकली हैं। वहाँ हरिवर्ष नाम का पवित्र क्षेत्र है, जहाँ के निवासी मनुष्य स्वभाव से ही सरल चित्त होते हैं। वहाँ मनुष्यों को आयु दो पल्य की होती है और उनके शरीर का प्रमाण दो गाह प्रमाण होता है। उनका भोजन एक अक्ष (बहेड़ा) प्रमाण होता है। वे मलमूत्र विसर्जन नहीं करते, फिर भी उनका शरीर नीरोग बना रहता है285 __8421- योजन हरि वर्ष क्षेत्र का प्रमाण है। वह कल्पवृक्षों का स्थान है और वहाँ समस्त मध्यम भोगभूमियाँ286 हैं। लम्बाई में वह रौद्र जलचरों से युक्त पूर्व एवं अवर समुद्र से सटा हुआ है। उस क्षेत्र में हरित् एवं हरिकान्ता नामक दो
.--.
.
282 पास. 5:29 283 वहीं घना-100 284 वही 5:30:12 285 पाम. 5.003 I 28 व अत्ता- CE
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नदियाँ बहती हैं, जो मूल में पच्चीस योजन हैं और आगे बहकर क्रमशः उससे दस गुनी स्थूल हो जाती हैं। वे नदियाँ पूर्व एवं पश्चिम समुद्रों में गिरती हैं।
हरि क्षेत्र की उत्तर दिशा में निषध पर्वत है। वह हरिक्षेत्र से विस्तार में दुगुना और ऊँचाई में चार सौ योजन है। उसके ऊपर नौ कूट बने हुए हैं। वहीं तिगिच्छ नामक महा सरोवर कहा गया है। उसका अवगाह, विस्तार एवं लम्बाई महापद्म से दुगुनी है। उसमें कर्णिका वाले पुष्कर कहे गए हैं, जिन पर 'धृति" नामक पवित्र देवी निवास करती हैं।
हरिकान्ता एवं सीता; ये दोनों पवित्र एवं शाश्वत नदियाँ तिगिज्छ सरोवर से निकलती हैं। वे पचास योजन बहकर आती हैं और वहाँ दोनों मिलकर पूर्व समुद्र में गिरती हैं। उसकी उत्तर दिशा में विदेह क्षेत्र है, जिसनः ५ में सुपर्ण दीप्त मेरुपर्वत है 287 उसका आकार हाथी के दाँत के समान और सौन्दर्य चन्द्रमा के समान है। मेरुपर्वत की चारों विदिशाओं से चार पर्वत निकलते हैं। उन चार विदिशाओं में288 सुरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि हैं, वहाँ के उत्तम लोग तीन पल्य जीते हैं। उनके शरीर तीन गव्यूति प्रमाण होते हैं और वहाँ नितान्त सुखदायक श्रेष्ठ कल्पवृक्ष मनोवाञ्छित सुख देते हैं। सुरकुरु की रचना के समान ही उत्तरकुरु की रचना है। उस विदेह क्षेत्र का प्रमाण 336844/19 योजन कहा गया है।
कनकाचल की पूर्व दिशा में स्थित क्षेत्र पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा में स्थित क्षेत्र अपर विदेह कहा जाता है। एक-एक में सोलह-सोलह क्षेत्र हैं। विजयार्द्ध एवं गङ्गा, सिन्धु आदि नदियाँ प्रति क्षेत्र के मध्य में रहती हैं। ये दोनों ही विविध प्रकार के धन-धान्य से पूरित एवं सरस हैं और वहाँ कालचक्षु स्पर्श नहीं करते। दोनों में सदैव चतुर्थकाल रहता है और जिनकथित धर्म कभी घटता नहीं। उनकी आयु कोटि वर्ष निश्चित है और वह तारतम्य के भेद से कही गई है। वहाँ तीर्थंकरों तथा उसी प्रकार चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव एवं प्रतिवासुदेव की कोई संख्या नहीं है और वहाँ धर्म की धुरा के धारक श्रेष्ठ केवलि, ऋषि एवं चारणमुनि उत्पन्न होते रहते हैं। उनके शरीर पाँच सौ धनुष और तेज से दीप्त एवं पर्वत के समान धैर्यवान् होते हैं।
287 पास. 5/31 288 वही घत्ता-102 usesxesxesyasrusesxsesi 216 testostessesxesxesxesxesy
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__ उत्तर दिशा में जो नील कुलाचल हैं, वह भी सिद्धशिला के समान सुखकारी हैं, इसके बाद रुक्मि एवं शिखरी पर्वत जानिए, वहाँ केशरी और महापुण्डरीक (सरोवरों) को मानें। वहीं पुण्डरीक सरोवर भी है। इन तीनों (सरोवरों) को ज्ञानीजन "नदियों का जन्मदाता" कहते हैं।
दक्षिण देश में रम्यक् , हैरण्यवत् तथा ऐरावत नामक क्षेत्र एवं सीतोदा प्रधान नदियाँ हैं P90 लवणोदधि (द्वीप) का वर्णन : __ लवणोदधि नामक सागर जम्बूद्वीप से दुगुना प्रमाण वाला वर्णित है, जिसका विस्तार दो लाख योजन कहा गया है और जो दिशाओं एवं विदिशाओं को बड़वानल से युक्त करता है। द्वीप के बाहर एक विशाल बज्रमयी वेदिका सुशोभित है। उसकी बारह योजन की वीथी है, जिसका मध्यभाग एक आठ योजन वर्णित है। उसका ऊपरी भाग चार योजन और ऊँचाई आठ योजन प्रमाण है, उसकी दोनों दिशाओं में अखण्ड उपवेदिकायें हैं और वह देवारण्य (पवित्र उपवन) से सुशोभित है। 31 धात की खण्ड द्वीप का वर्णन :
लवणोदधि के बाद धातकीखण्ड (डीप) है, जो लवणोदधि से दुगुना है। यह चार लाख योजन है। इसके पूर्व और पश्चिम दिशा में दो सुमेरुपर्वत हैं और जिन पर प्रत्येक दिशा में स्वर्ण वर्ण वाले देवता क्रीडायें किया करते हैं। प्रत्येक से सम्बन्धित चाँतीस क्षेत्र हैं और उतने ही विजयार्ध हैं। छह कुलाचल और चौदह नदियाँ एवं सरोवर हैं। इन आर्य भूमियों में उत्तम मनुष्य विलास करते हैं।292 कालोदधि द्वीप का वर्णन :
कालोदधि नामक द्वीप धातकी खण्ड से दोगुना अर्थात् आठ लाख योजन विस्तार वाला है 293
289 पास. 5:32 290 वही घता-103 291 वही 5:33 से 6 292 की 5:337 से 11 293 वही 5.33/13
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पुष्कारार्द्ध द्वीप का वर्णन :
पुष्कारार्द्ध द्वीप सोलह लाख योजन विस्तार वाला है तथा मानुषोत्तर पर्वत से विभक्त है। वह वलयाकार से उसके मध्य में स्थित है, इसलिये इस द्वीप का माम पुष्करार्द्ध द्वीप कहा गया है। इसके मध्य में पूर्व एवं अपर दोनों दिशाओं में मेरु (पर्वत) स्थित हैं, जो देवताओं को प्रिय हैं।294 सूर्य एवं चन्द्रमा का प्रमाण295 ; ___ जम्बूद्वीप में दो दो सूर्य एवं चन्द्रमा होते हैं। लवण समुद्रों में चार-चार सूर्य एवं चन्द्र, धातको खण्ड में बारह-बारह सूर्य एवं चन्द्र, कालोदधि में ब्यालीसब्यालीस सूर्य चन्द्र और पुष्करार्द्ध द्वीप में बहत्तर-बहत्तर सूर्य एवं चन्द्र हैं। ये निरन्तर मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं और अढ़ाई द्वीप के अन्धकार का नाश करते हैं।
जम्बूद्वीप में छत्तीस ध्रुव तारे, रौद्र जल वाले लवणसमुद्र में एक सौ उन्तालीस, धातकी खण्ड में एक हजार दस, कालोदधि में इकतालीस हजार एक सौ बीस और पुष्कराद्धं द्वीप में त्रेपन हजार दो सौ तीस ध्रुव तारे हैं, जो कि निश्चल हैं।
अढ़ाई द्वीप के बाहर भी अन्धकार का नाश करने वाले चन्द्र, सूर्य एवं नक्षत्र घण्टाकर रूप में हाथी की गति के समान विचरण करते हुए जहाँ स्वयम्भूरमाणसागर पार होता है, वहाँ तक स्थित हैं। ऊर्ध्व लोक : ___ मेरु से ऊपर लोक के अन्त के क्षेत्र को ऊवं लोक कहते हैं। इसके दो भेद हैं : कल्प और कल्पातीत। जहाँ इन्द्र, सामानिक आदि की कल्पना होती है, वे कल्प हैं। जहाँ यह कल्पना नहीं है, वे कल्पातीत हैं296 ___ स्वर्ग के कल्पभाग में रहने वाले देव (इन्द्र) कहलाते हैं और कल्पातीत भाग में रहने वाले अहमिन्द्र कहलाते हैं।
294 पास. 5.33:15 मे 18, 295 वही 5:34 296 . लोथंडकार महावीर कौर उनकी प्राचार्य परम्परा अनुप 1]. -7 Tushresxestusxesiesresses 218 lisxessiesresthesiresiesmes
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देव चार निकाय के होते है297 भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक298। अब यहाँ उन चारों प्रकार के देवों का वर्णन किया जा रहा है भवनवासी का अर्थ :
जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है, वे भवनवासी कहलाते है।299 भवनों का स्थान : ___ 'रत्नप्रभा के पंकबहुल भाग में असुर कुमारों के भवन हैं और खर पृथ्वी भाग में ऊपर और नीले एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष नौ प्रकार के कुमारों के भाग 350 . . . . . . भवनवासी देवों के भेद : भवनवासी देव दस प्रकार के होते हैं :
1.असुर कुमार, 2. नागकुमार,3. द्वीप कुमार, 4. उदधि कुमार. 5. विद्युत् कुमार, 6. स्तनित कुमार, 7. दिक् कुमार, 8. हेमकुमार, 9, अग्निकुमार, 10. वायु कुमार 301 भवनवासी देवों के श्री चिह्न :
भवनवासी देवों के मुकुट में क्रमश: चूडामणिरत्न, फण, गरुड़, गज, मकर, स्वस्तिक, बज्र, सिंह, कलश और धोड़े ये श्री302 चिह्न होते हैं। भवनवासियों के भवनों की कुल संख्या :
भवनवासी देवों के भवनों की कुल संख्या सात करोड़ एवं बहत्तर लाख है। वहाँ के जिन भवनों की संख्या भी उतनी ही है।303
297 "देवाश्रतुणिकाया'' | तत्वार्थसूत्र 4:11 298 सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, संस्कृत टीका, अध्याय-- 4, सूत्र.1 293 "भवपेषु वमन्तीत्येवंशीला भवनवासिन : ||- सर्वार्थसिद्धि, संस्कृत टीका सं. 4617.
178 300 लही ए. 178 301 अमरतुमार पाय दाबोबहि. विन-णित दिसनी मागह।
हेमकुम र वाउ.. बलर थिर भवागवामि दहए जाहि किर || रइधु : पास. 5/20:23 302 चुडामणि फणि गरुट-गक भयर बटमाणं वज
हरि-कलसंपु - तुरउ ए जागाह. 'भावाणाहं सिरचिहइ माणहु ॥ वहीं 55205-6 303 सनकोडिवाहत्तरिलक्खइँ, नेत्तिबाई लगभवणहु मंखहिं ।। वहो 5/2014 astesexSTARAISISTS 219kxsResesxesasrestess
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भवनवासी देवों के शरीर का प्रमाण :
जिनेन्द्र देव ने भवनवासी देवों में से असरकुमार देवों के सुन्दर शरीर का प्रमाण पच्चीस धनुष कहा है। शेष नौ भवनवासी देवों के शरीर का प्रमाण दसदस दण्ड है।304 भनववासी देवों का आयु प्रमाण :
भवनवासी देवों में से अतुर कुमारों की माला , एक मागा प्रमाण नाग कुमारों की तीन पल्य, हेम कुमारों की अढ़ाई पल्य तथा द्वीप कुमारों की सुन्दर दो पल्य की आयु है। शेष भवनवासी देवों की आयु का प्रमाण पूर्वापेक्षा आधा-आधा पल्य कम-कम अर्थात् डेढ़ पल्य प्रमाण जानना चाहिए।305 तथा जधन्य आयु की स्थिति दस हजार वर्ष मानी है 1906 भवनवासी देवों की पट्ट देवियाँ और उनके रूप :
सभी भवनवासी देवों की पाँच-पाँच पट्ट देवियाँ कही गई हैं। असुर . कुमार-त्रिक में उनकी पट्ट देवियाँ रति क्रीड़ा के आवेग से आठ-आठ हजार रूप बनाती हैं। शेष देवों की पट्टदेवियाँ छह-छह सहस्र रूप बनाती हैं और अद्भुत सुखों को भोगतो हैं।307 अवधिज्ञान का क्षेत्र:
सभी भवनवासी देवों के अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्य कोटि योजन प्रमाण होता है।308 व्यन्तर देव :
जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है, वे व्यन्तर देव कहलाते हैं।309 वे किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत एवं पिशाच के भेद से आठ प्रकार के हैं। उनके निवास स्थान तीन प्रकार के हैं-पुर, आवास और भवन। ऊपर वालों
304 असुरह देह पमाणु वि दिलउ, धागुह पंचवीसह सुमणिद्गुर।
से साह वि दहंदर पमाणिक, पामजिर्णै णाण जाणिउ" पास.5/2017-8 305 वही, 5/20/9-11 306 सर्वार्थसिद्धि 4:37 पृ. 194 307 रइधू : पास. 5:20/12.14 308 वहीं 5:20/15 309 "विविधदेशान्तराणि येषां निवासास्ते व्यन्तरराः ।
सर्वार्थसिद्धि- संस्कृत टीका 463. पृ.179
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को आवास कहा जाता है, नीचे वालों को भवन के नाम से जाना जाता है और मध्य प्रदेश में जो निलय है, उन्हें पुर कहा गया है, सभी अवधिज्ञान से प्रकाशित होते हैं। कोई तो गिरि कन्दराओं अथवा विवरों में निवास करती है और कोई सुरगिरि के शिखरों पर धवलगृहों (महलों) में, कोई आकाश में विचरण करते हैं तो कोई नन्दन वन में विहार करते हैं और कोई तरु शिखरों पर निवास करते हैं। व्यन्तरों के गृह सरकण्डों के वन में होते हैं।310
सभी व्यन्तर देवों के शरीर का प्रमाण दस धनुष कहा गया है। उनकी आयु (उत्कृष्ट) एक पल्य से कुछ अधिक होती है311 तथा जघन्य आयु दस सहस्र वर्ष हैं312 ज्योतिष्क देव :
ज्योतिषी देव (ज्योतिष्क देव) पाँच प्रकार के हैं-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे313 ये सब पाँचों प्रकार के देव ज्योतिर्मय हैं, इसलिए इनकी "ज्योतिषी'' यह सामान्य संज्ञा सार्थक है।314 ___ ज्योतिष्क देव आकाश में पृथ्वी से सात सौ नब्बे (790) योजन ऊँचाई छोड़कर है, उनके सम्बन्ध में कहा गया है कि वे जिन भगवान के निष्क्रमणकाल में देवताओं के मेरु पर्वत पर जाते समय अपने क्रम से जाते हैं। आयु एवं शरीर प्रमाण :
चन्द्रमाओं की आयु एक लाख अधिक पल्य प्रमाण जानना चाहिए। सूर्यो की आयु एक हजार अधिक एक पल्य प्रमाण है, तथा शुक्रों की आयु सौ अधिक एक पल्य है। पुनः बृहस्पतियों की आय पल्य प्रमाण हैं। शेष बुद्ध, मङ्गल एवं शनि की आयु आधा-आधा पल्य है और ताराओं का आयु प्रमाण पल्य का चौथाई भाग है।
अपनी कान्ति से अन्धकार को नाश करने वाले इन ज्योतिषियों के शरीर का प्रमाण सात-सात धनुष है।
310 रइधू पास. 5/21 311 रइथ: पास. धना-2 312 वही 5/22/1 313 "ज्योतिष्का : सूर्याचन्द्रमसग्रहनक्षत्रप्रकीर्णक तारकाश्च ।।
सर्वार्थसिद्धि, अध्याय-4 सूत्र. 12,पृ. 179 314 वही, हिन्दी व्याख्या. पृ. 179
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ज्योतिष्क देवों के विमानों का प्रमाण :
चन्द्रमा का विमान एक योजन प्रमाण है। उससे कुछ कम सूर्य विमान का प्रमाण है। शुक्र का विमान एक कोस है तथा बृहस्पति का विमान उससे एक चौथाई कम है। शेष ज्योतिष्क देवों के विमानों का प्रमाण आधा एवं चौथाई कोस माना गया है। तारों की दूरी में भेदः
तारों की दूरी में तीन भेद होते हैं- उत्तम, मध्यम और जघन्य। तारों में विशेष अन्तर क्रमश: सात, पचास और एक सहस्र माना गया है। ज्योतिष्क देवों के वाहक :
चन्द्र और सूर्य के विमानों को प्रति दिशा में अभंग रूप से चार-चार सहस्र सिंह, गजेन्द्र, वृषभ एवं तुरंग निरन्तर चलाते रहते हैं। वे यानों के वाहक उन देवताओं के भृत्यदेव हैं। गृहों के विमानों के आठ सहस्त्र (देव) वाहक हैं और नक्षत्रों के चार सहन, तारों के विमानों के दो सहस्र देववाहन कहे गये हैं।915 गति :
वे ज्योतिष्क देव आकाश को घेरते हुए इक्कीस अधिक ग्यारह सौ योजन तक कनकाचल को छोड़कर प्रदक्षिणा दिया करते हैं।316 स्वर्ग कल्पों का वर्णन :
सुदर्शन पर्वत के ऊपर केश के अग्रभाग प्रमाण अन्तराल पर ऋजु विमान स्थित है। वही प्रमाण ढाई द्वीप का है। उसके सोलह स्वर्ग स्थान हैं: 1. सौधर्म, 2. ईशान, 3. सनत्कुमार, 4. 'माहेन्द्र, 5. ब्रह्म, 6. ब्रह्मोत्तर, 7. लान्तव, 8. कापिष्ठ,9. शुक्र, 10. महाशुक्र, 11, शतार, 12. सहस्रार, 13. आनत, 14. ग्राणत, 15. आरण और 16. अच्यत। अधस्तन मध्यम और ऊर्ध्व नामों से विहित नौ ग्रेवेयक हैं। उनके ऊपर नवविध अनुत्तर हैं और उसके भी ऊपर श्रेष्ठ सर्वार्थसिद्धि · स्वर्ग है, उसके भी ऊपर ब्रह्मलोक कहा गया है। पटल संख्या:
सौधर्म और ईशान के इकतीस विपुल पटल होते हैं। उसके ऊपरी युग्म सानत्कुमार-माहेन्द्र में सात, ब्रह्म-ब्रह्ममोत्तर में चार, लान्तव-कापिष्ठ में दो,
315 रइधू : पास.5.22 316 वही घत्ता-93
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Wakakata
शुक्र - महा शुक्र तथा शतार एवं सहस्रार में क्रमश: एक- एक आनत- प्राणत, आरण और अच्युत में छह-छह तथा ग्रैवेयकों में नौ-नौ पटल होते हैं। नौ अनुत्तर तथा सर्वार्थसिद्धि में क्रमश: एक एक पटल। इस प्रकार ये त्रेसठ पटल होते हैं 17
स्वर्गों की विमान संख्या :
सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख विमान, ईशान स्वर्ग में अट्ठाईस लाख गृह विमान 318 सनत्कुमार स्वर्ग में बारह लाख विमान, माहेन्द्र में आठ लाख विमान, ब्रह्म एवं ब्रह्मोत्तर में चार लाख, लान्तव एवं कापिष्ठ में पचास हजार विमान, शुक्र एवं महा शुक्र में चालीस हजार विमान, शतार एवं सहस्रार में छह सहस्र विमान और आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग में क्रमश: सातसात सौ विमान हैं।
-
अधस्तन तीनों ग्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह विमान, मध्यम ग्रैवेयक में एक सौ साल विमान, ऊपरी ग्रैवेयक में इकानवे विमान कहे गये हैं। नौ अनुदिशों में नौ-नौ नभगामी विमान और नौ अनुत्तरों में पाँच-पाँच विमान कहे गये हैं। ये विमान इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं कुसुम प्रकीर्णक नाम के तीन भेद वाले हैं। 319 सोलह स्वर्गों के देवों की आयु :
सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देवों की आयु का प्रमाण दो सागर, सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्ग के देवों की सात सागर, 320 ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के देवों की दस सागर, लान्तव कापिष्ठ स्वर्ग के देवों की चौदह सागर, शुक्र- महाशुक्र के देवों की सोलह सागर, शतार सहस्त्रार स्वर्ग के देवों की अठारह सागर आनत - प्राणत स्वर्ग के देवों की बीस सागर, आरण और अच्युत स्वर्ग के देवों की बाईस सागर प्रमाण आयु होती हैं।
·
सर्वार्थसिद्धि में तैंतीस सागर की आयु होती है और वहाँ के निवासी देव अहर्निश सुख-समृद्धि का भोग करते हैं।
-
प्रथम स्वर्ग की जो उत्कृष्ट आयु होती है, वहीं उसके ऊपर वाले स्वर्ग की जघन्य आयु होती है।
317 रइधू पास 5/23 318 बही, यत्ता-- 94 319 वही 5/24 320 वही, धत्ता - 95
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देवों की ऊँचाई:
सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देवों की ऊँचाई सात-सात हाध है। उसके बाद कमी का R : आधा-साधा हीन प्रपाण जानना चाहिए। सवार्थिसिद्धि में जो अहमिन्द्र देव हैं, उनके शरीर का प्रमाण एक हाथ है। देवों का अवधिज्ञान :
प्रथम दो कल्पों में निवास करने वाले देव प्रथम नरक पृथ्वी तक अपने ज्ञान से देख सकते हैं, उसके ऊपर के देव तीसरी नरक पृथ्वी में रहने वालों को देखते हैं। उसके ऊपर के चार स्वर्गों के सुरेश (शुक्र-महाशुक्र, शतार और सहस्रार के देव) सम्पूर्ण चौथे नरक तक देख सकते हैं। उन चार स्वर्गों के जो पवित्र देव हैं वे पाँचवी नरक भूमि को जानते हैं। नौ प्रकार के प्रैवेयक छठवीं नरक भूमि को और पुनः अनुदिशवासी अहमिन्द्र देव सातवीं नरक पृथ्वी को । जान सकते हैं। पाँच निर्मलतर अनुत्तर विमानों के देव सम्पूर्ण त्रिजगनाली (सनाड़ी) को जानते हैं। देवों का नीचे की ओर जाने वाला इस प्रकार का ज्ञान होता । इसी प्रकार ऊर्ध्व दिशा में भी केतु विमान तक विमानवासी देवों का ऐसा ही ज्ञान होता है।321 अप्सराओं की आयु एवं उत्पत्ति सीमा : ___ अप्सराओं की जघन्य आयु अर्धपल्य एवं उत्कृट आयु पचपन (55) पल्य प्राप्त होती है। उन देवियों की उत्पत्ति दो स्वर्ग तक कही गई है, जहाँ वे मनोवाञ्छित अतिशय सुखों का भोग करती हैं। 22 स्वर्गों में सख के प्रकार : __प्रथम दो कल्पों में कायसुख, उसके आगे दो कल्पों में स्पर्श सुख और आगे-आगे चार-चार द:खों का निग्रह करने वाले स्वर्गों में रूप, शब्द एवं मन का सुख होता है।323 देवों में विशेषता भेद :
तापस व्रत धारण करके जो शिव का ध्यान करते हैं और पञ्च तत्त्वों की भावनायें करते है, वे मरकर ज्योतिष्क देव होते हैं अथवा कोई-कोई व्यत्तर
321 रइधू : पाम. 5:25 322 वही 5/25,015-16 323 बही, घत्ता-96
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गति में भी उत्पन्न होते हैं। जो उत्तम श्रावक व्रत धारण करते हैं। जो श्रेष्ठ नारी आर्यिका व्रत धारण कर मरती हैं, वह सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं। मुनि को छोड़कर उसके ऊपर अन्य कोई नहीं जाता। वे मुनि यथाजात लिङ्ग धारण करके, शरीर के भोगों और परिग्रह का त्याग करके, अभिमान, कषाय और दोषों से मुक्त होकर ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में जाते हैं। इन स्वर्गों में क्रम-क्रम से देव हीन मान वाले होते हैं।
स्थिति, प्रभाव, सुख, दीप्ति तथा लेश्या तथा इन्द्रियों की विशुद्धि एवं आयु, ये कपर की ओर अधिक-अधिक हैं।324 सिद्धक्षेत्र अथवा मोक्ष का वर्णन :
सर्वार्थसिद्धि के ऊपर बारह योजन प्रमाण पवित्र सिद्धक्षेत्र है। दक्षिण-उत्तर में वह सात राजू प्रमाण तथा पूर्व-पश्चिम में एक राजू चौड़ा सुशोभित है! उसके मध्य में चन्द्र महल के समान गोल, सीधा, छत्राकार एवं पवित्र आठ योजन मोटा दैदीप्यमान क्षेत्र है, जिसका विस्तार पैंतालीस लाख योजन कहा गया है। उसके ऊपर सिद्धों का निवास है, उसमें सिद्ध निवास करते हैं, जो नित्य, अरूपी एवं सम्यक्त्व प्रमुख गुणों के धारी तथा अष्ट ऋद्धियों से युक्त, अमूर्तिक, विवर्ण (रूप से रहित), ज्ञान के पिण्डस्वरूप, अष्टकर्म-रहित और अखण्ड सुखों के धारी होते हैं। परमानन्दामृत से निरन्तर तृप्त, श्रेष्ठ अनन्त गुणों के आकर एवं आत्मरस से सिक्त होते हैं। सभी सिद्ध तनु वातवलय के अन्त में निवास करते हैं, इसके ऊपर वे नहीं जाते। कोई सिद्ध समूह वहाँ पर्यङ्कासन में और कोई सिद्ध समूह कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हैं। अन्तिम शरीर से किञ्चिद् हीन उत्पत्ति जरा एवं मरण के दुख.25 से रहित ये सिद्ध त्रिजग में सारभूत हैं तथा भव्यजनों के लिए उत्तम बोध प्रदान करते हैं।925 काल:
समस्त द्रव्यों के उत्पादादि रूप परिणमन में सहायक "कालद्रव्य" होता है। इसका लक्षण वर्तना है। यह स्वयं परिवर्तन करते हुए अन्य द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक होता है। काल द्रव्य के दो भेद हैं-1-निश्चयकाल और 2-व्यवहार
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324 रइथू : पास. 5/26 325 वही 5/26 326 वहीं, घत्ता-97 Passisxesyaneshastases 225 sesxesxesesxexxsess
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बिना काय ,
काल/निश्चयकाल अपनी द्रव्यात्मक सत्ता रखता है और वह धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान समस्त लोकाकाश में स्थित है। __कालद्रव्य भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण से युक्त है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि से रहित होने के कारण अमूर्तिक है। प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्य के समान वह लोकाकाश व्यापी एक द्रव्य नहीं है क्योंकि प्रत्येक लोकाकाश प्रदेश पर समय भेद से अनेक द्रव्य स्वीकार किये बिना कार्य नहीं चल सकता है।
कालद्रव्य के कारण ही वस्तु में पर्याय परिवर्तन होता है। पार्धा के कालकृत सूक्ष्मतम परिर्वतन होने में अथवा पुद्गल के एक परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना काल या समय लगता है, वह व्यवहार काल का एक समय है। ऐसे असंख्यात समयों की आवलि, संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास, सात उच्छ्वासों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, 381/2 लवों की नाली, दो नालियों का एक मुहूर्त और तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है। इसी प्रकार पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूगि, पूर्व, नयुतांग, नयुत आदि संख्यातकाल के भेद हैं। इसके पश्चात् असंख्यात काल प्रारम्भ होता है, इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट; ये तीन भेद हैं।
अनन्तकाल के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद किये गये हैं। अनन्त का उत्कृष्ट प्रमाण अनन्तानन्त है।327 जीव :
"चेतनालक्षणो जीव: 328 इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीव का लक्षण चेतना है। उपयोग भी जीव का लक्षण है,329 वह ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से दो प्रकार का है|330
327 द्र. तीर्थंकर महावीर और उनकी और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड-1,पृ. 361 328 पूज्यापादः सर्वार्थसिद्धि 1/4 की संस्कृत टीका। 329 वहीं 2/8 330 वहीं 219 HSxSishusteresmasasxes 226LSIOSXesxesxesexsi
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ज्ञानोपयोग:
मति, श्रतु, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, ये आठ भेद दर्शनोपयोग के हैं। 31 दर्शनोपयोग :
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन; ये चार भेद दर्शनोपयो के हैं जीव के भेद: ___ जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त।333 संसारी जीव के समनस्क अर्थात् जो मन सहित हैं और दूसरे अमनस्क अर्थात् जो मन से रहित हैं, ये दो भेद हैं। 334इन्हें क्रमशः सैनी और असैनी भी कहते हैं। संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से भी दो प्रकार के हैं।335
त्रस जीव:
जिनके त्रस नामकर्म का उदय है, वे बस कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर अयोग केवली तक के सब जीव वस हैं।336 स्थावर जीव :
जिनके स्थावर नामकर्म का उदय है, वे स्थावर जीव कहलाते हैं। ये एकेन्द्रिय होते हैं। स्थावर जीव-पृथ्वीकाबिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के भेद से पाँच प्रकार के होते हैं।337 भव्य और अभव्य जीव :
जीवों के भव्य और अभव्य ये दो भेद और भी हैं।
331 पूज्यवाद : सर्वार्थ सिद्धि. संस्कृत टोका 29 332 वहीं 219 333 "संसारिणो मुक्तारुष''-तत्त्वार्थसत्र 2:10 334 "समनस्कामनस्काः " वही 2/11 335 वही 2/12 336 "दीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥ वहीं 2:14 337 "पृथिव्यलेजोवाधुबनस्पतय: स्थावररा:" तत्त्वार्थसूज 2:13 Postxmesasrusiashashusiasj 227 keshrastastushasxese
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भव्य जीव: ___ जिनमें रत्नत्रय गुण प्रकट करने की योग्यता होती है, वे भव्यजीव कहलाते हैं। भव्य जीवों के तीन भेद होते हैं1. निकट भव्य :
तद्भव मोक्षगामी या दो-चार भव में ही मोक्ष जाने वाले निकट भव्य कहलाते हैं। ये व्यक्त सम्यग्दृष्टि होते हैं। 2. दूर भव्य :
कई भवों के बाद मोक्ष जाने वाले (अव्यक्त सम्यग्दृष्टि) जीव "दूर भव्य" कहलाते हैं। 3. दूरानुदूर भव्य :
जो कभी मोक्ष नहीं जाते, सिर्फ उनके मोक्ष जाने की शक्ति मात्र रहती है, जिससे वे भव्य कहलाते हैं, किन्तु उनकी शक्ति कभी व्यक्त नहीं होती अतएव वे सदाकाल अभव्यों की ही तरह संसार में ही निवास करते हैं।938 अभव्य जीव:
जिनमें रत्नत्रय गुण प्रकटाने की योग्यता नहीं होती, वे अभव्य जीव कहलाते
.
।
सिद्ध जीव (मुक्त जीव):
जिन्होंने संसार, शरीर और अष्टकर्मों को जीत लिया है और जो लोकाकाश के अन्त में निवास करते हैं, वे सिद्ध या मुक्तजीव कहलाते हैं।
ये सिद्ध जीव नित्य, अरूपी एवं सम्यक्त्व-प्रमुख गुणों के धारी, अष्ट ऋद्धियों से युक्त, अमूर्तिक, विवर्ण (रूप से रहित), ज्ञान के पिण्डस्वरूप, अष्टकर्मरहित और अखण्ड सुखों के धारी, परमानन्दामृत से निरन्तर तृस, श्रेष्ठ अनन्त गणों के आकर एवं आत्मरस से सिक्त होते हैं, जन्म-जरा और मरण से रहित हैं।339
शुद्ध (सिद्ध) जीव अकेला ही निरञ्जन, ज्ञानमय एवं कर्म विमुक्त 340 होता है। ये सिद्ध जीव त्रिजग में सारभूत तथा भव्यजनों के लिए उत्तम बोधि प्रदान करते हैं। 341
338 पुरुषार्थ सिद्धयुपाय की हिन्दी टीका, पृ. 98 टीकाकार - पं. मुन्नालाल रांधेलीय वर्णी 339 पास. 5/26 340 वही घत्ता-42 341 वहीं, पत्ता-97
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पुद्गल :
जिसमें " पूरण" - बाहरी अंश मिलने की शक्ति और " गलन " - गल जाने की शक्ति की क्रिया होती रहती है, उसे पुद्गल कहते हैं। 342 पुद्गल रूपी द्रव्य है, 343 जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाया जाता है। 344
विविध विषय :
'गुणस्थान 345 :
गुणों के स्थानों को अर्थात् विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैन शास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का अर्थ आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की उसके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापत्र अवस्थाओं से है । 346 मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म, साम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलिजिन तथा अयोग केवली; इस प्रकार ये चौदह गुणस्थान हैं । 347
कषाय 348 :
जो आत्मा को करें अर्थात् चारों गतियों में भटकाकर दुख दें, 349 उसे कषाय कहते हैं। कषाय के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ ।। इनके दमन करने के लिए क्रमशः क्षमा, मार्दव, आर्जव व संतोष (शौच ) का सहारा लेना पड़ता है 350 प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन; ये चार भेद होते हैं। इस प्रकार चारों कषायों के सोलह भेट भी हो जाते हैं। अत: इन्हें सोलह कषाय 351 भी कहते हैं।
342 तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा खण्ड- 1 पृ. 349
343 तत्त्रार्थसूत्र 5/5
344 वही, 5/23
345 पास 4/12
346 पं. सुखलाल जी दर्शन और चिन्तन, पृ. 263
347 गोम्मटसार जीव कांड 9/10
348 पास 12,3/20, 406, 4/13
349 पं. पन्नालाल जी कृत मोक्षशास्त्र की हिन्दी टीका, पृ, 16
350 पास. 3/21
351 वही 4/6
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.
मिथ्यात्व352 :
जिनदेव, जिनशास्त्र, जिनगुरु एवं जीवादि तत्त्वों के प्रति श्रद्धान न होकर जिन शासन के विपरीत मान्यताओं को मानना, तदनुरूप आचरण करना मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व का निरोध सम्यक्त्व से होता है।353 योग854 :
काय, वचन और मन की क्रिया योग है 355 उसके दो भेद हैं-शुभयोग और अशुभयोग। मन, वचन, काय के अशुभ एवं सारहीन संचार से अशुभ कत्रिव होता है, जिसके कारण जीव चौरासी लाख योनियों के दुःखों को भोगता है। शुभयोग से शुभ कर्मास्त्रव होता है, जिसके कारण जीव वाञ्छित शिव लक्ष्मी को प्राप्त करता है।356 लेश्या357 :
जिससे जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे, उसको लेश्या358 कहते हैं। कषाय के उदय से अनुरक्त योग की प्रवृत्ति को भी लेश्या359 कहा गया है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल: ये छह भेद लेश्या के हैं। 360 इनमें से प्रारम्भ की तीन बुरी और अन्तिम तीन अच्छी लेश्यायें हैं। अभक्ष्य361 :
जो भक्ष्य अर्थात् भोजन के योग्य नहीं है वह अभक्ष्य कहलाता है। जिन पदार्थों में त्रस और स्थावर जीवों की उत्पत्ति स्वतः होती रहती है, वे अभक्ष्य कहलाते हैं। इन पदार्थों को अनिष्ट व अनुपसेव्य भी कहते हैं। मर्यादा से रहित पदार्थ भी अभक्ष्य की श्रेणी में आते हैं। मुख्यत: बाईस अभक्ष्य कहे गये हैं. जो इस प्रकार हैं
352 रइधू : पास 1/5,3721 353 "मिच्छन्तहु सम्मन्तु पठन्तउ," वही 3/21 354 वही 3/20 355 "कायवाङ्मनः कर्मयोगः" तत्वार्थसूत्र 6:1 356 पास. 3/20 357 वही 3:21 358 गोम्मटमार जीवकांड, गाथा 488 359 यही गाथा-489 360 सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, संस्कृत टीका, अध्याय-2, सूत्र-5 361 पास. 1/8 sxeseSTASTRASTESesmals 230 kusesxasyasruseshisiness,
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ओला घोर बड़ा निशि भोजन, बहुबीजा बेंगन संधान । बड़ पीपर ऊमर कठूमर, पाकर फल जो होय सुजान ॥ कन्दमूल माटी विष आमिष, मधु भाखन अरु मदिरापान ।
फल अति तुच्छ तुषार चलितरस, ये जिनमत बाईस बखान 1962 पाँच उदुम्बर363 :
ऊमर, कठूमर, बड़, पीपर और पाकर, ये पाँच उदुम्बर फल कहलाते हैं।
जिन वृक्षों में से दूध निकलता है, उन्हें उदुम्बर फल कहते हैं। इनके फलों को तोड़कर देखा जाये तो उनमें से जीव निकलते हैं। उनका सेवन करने से इन जीवों की हिंसा हो जाती है, अत: इन्हें त्याग देना चाहिए964 ज्ञान365 :
जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान काल, समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा पर्यायों (अवस्थाओं) को जाने, उसे ज्ञान कहते हैं।366 यह ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय और केवल के भेद से पाँच प्रकार का है।367 इनमें प्रारम्भ के दो परोक्ष ज्ञान और शेष तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं।368 अष्टकर्म36 :
अष्टकर्म निम्नलिखित हैं370 1, ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5, आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय। ज्ञानावरण:
जो ज्ञान को आवृत करे या जिसके द्वारा ज्ञान का आवरण किया जाय, वह ज्ञानावरण है।
362 श्री अभय जिनवाणी संग्रहः लेखिका आर्थिका, अभयमती जी, 1230 363 पास. 514 364 श्रावक धर्म : लेखक डॉ. रमेश चन्द जैन, पृ. 12 365 पास, 2:4 366 जाणइ तिकालविसए दब्धगुणे पज्जए ये बहुभेदे।
पच्क्स च परोक्खं अगेण गाणेति गं बोति ॥ गोम्मटसार जीकांड, गाथा- 298 367 "मतिश्रुतात्रधिमनः पर्यय केवलानिज्ञानम्" । 368 "आद्ये परोक्षम् प्रत्यक्षमन्यत्' - तलवार्थसूत्र 1/11 369 पास.71 370 द्र. तत्वार्थसूत्र 814
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दर्शनावरण :
जो आत्मा के दर्शन गुण को आवृत करे या जिसके द्वारा दर्शन गुण का आवरण किया जाय, वह दर्शनावरण है।
वेदनीय :
जो अनुभव किया जा सके, वह वेदनीय है जिसके द्वारा सुख-दुख का अनुभव हो, वह वेदनीय है।
मोहनीय :
जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है, वह मोहनीय है।
आयु :
जिसके द्वारा नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव पर्यायों को प्राप्त हो, वह आयु
है।
नाम :
जो आत्मा का नारकी, मनुष्यादि रूप से नामकरण करे या जिसके द्वारा नामकरण हो, वह नामकर्म है।
गोत्र :
जिसके द्वारा जीव उच्च और नीच कहा जाता है, वह गोत्र है।
अन्तराय :
जिसके द्वारा दाता और पात्र के बीच में विघ्न आवे, वह अन्तराय है या जिसके रहने पर दाता दानादि क्रियायें न कर सके या दानादि की इच्छा से विमुख हो जावे, वह अन्तराय है।
जैन आगम में उपर्युक्त आठ कर्मों में से आदि के चार कर्मों को घातिया और अन्त के चार कर्मों को अघातिया के नाम से अभिहित किया गया है। घातिया कर्मों के घात से केवलज्ञान (सम्यर ज्ञान) और अघातिया कर्मों का नाश होने पर मोक्ष या सिद्ध पद की प्राप्ति होती है।
चतुर्गति 37 1:
गतियाँ चार कही गई हैं
1. नरकगति, 2. तिर्यञ्च गति 3. मनुष्यगति और 4. देवगति ।
1
371 रइधू पास 3/21, 3/24, 3/25
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दशलक्षण धर्म372 :
दशलक्षणों से युक्त धर्म दशलक्षण धर्म कहलाता है। धर्म के दशलक्षण उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य कहे गये हैं।373 उत्तम क्षमा:
दुष्ट लोगों के दुर्वचनों से तिरस्कार,हास्य, ताड़न-मारण आदि क्रोध की उत्पत्ति के कारण होने पर परिणामों में मलिनता नहीं आना, प्राणीमात्र के प्रति क्षमा भाव, रखना; उत्तम क्षमा कहलाती है। उत्तम मार्दव : __उत्तम जाति, कुल, रूप, ज्ञान, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, बल, तप आदि के विद्यमान होते हुए भी मान (घमण्ड) नहीं करना उत्तम मार्दव कहलाता है। उत्तम आर्जव: ___ मन, वचन व काय की कुटिलता को छोड़कर परिणामों में सरलता बनाए रखना; उत्तम आर्जव कहलाता है। उत्तम शौच :
लोभ, अभिलाषा आदि के अभाव होने पर परिणामों में निर्मलता या शुचिता होना शौच है। उत्तम सत्य :
सुन्दर, कटुता से रहित, अहिंसक, प्रशस्त वचन बोलना उत्तम सत्य है। उत्तम संयम:
छह काय के जीवों की रक्षा करना और पाँचों इन्द्रियों तथा मन को वश में रखना; उत्तम संयम कहलाता है।
उत्तम तप:
अनशन, सामायिक आदि बारह प्रकार का तप करना; उत्तम तप कहलाता
372 रइधू : पास. 2/15,513 373 "उत्तमक्षमामास्वार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।"
तत्त्वार्थसूत्र 916
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उत्तम त्याग:
चार प्रकार का दान करना व राग-द्वेष आदि का त्याग करना; उत्तम त्याग कहलाता है। उत्तम आकिंचन्य :
अन्तरङ्ग व बहिरंग परिग्रह का त्याग करके आत्म स्वरूप से भिन्न शरीरादिक में ममत्वरूप परिणामों का अभाव होना, उत्तम आकिंचन्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य :
स्त्रीमात्र का त्याग करके, शील से युक्त हो, अपने आत्मस्वरूप में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है।
उपर्युक्त दश धर्मों का पालन करने से वीतरागता की प्राप्ति होती है। जैनेतर धार्मिक मान्यतायेंतावस (तापस )374 :
'पासणाहचरिउ' में जैनधर्म की मान्यताओं के विपरीत शैव तापसों का भी उल्लेख मिलता है। जब कमठ व्यभिचारी होने के कारण जंगल में पहुँचा तो उसे वहाँ एक तापस समूह दिखायी पड़ा जो इस प्रकार था
कोई तापस शिव-शिव की घोषणा कर रहा था, कोई ऊँचे हाथ करके तप कर रहा था, कोई भभूत से अपने गात्र की रचा कर रहा था, कोई पंचाग्नि के ताप से तप्त हो रहा था, कोई अक्षमाला को लेकर जाप कर रहा था, कोई जङ्गल का श्रेष्ठ वल्कल वस्त्र धारण किए हुए था, कोई सन्ध्यावन्दन करता हुआ दिखाई दे रहा था।375 ने तापस शरीर पर भस्म376 और सिर पर जटायें धारण करते थे377 वे तीव्र तप करते थे, पञ्चाग्नि तप के व्रती थे, केवल फल, कन्द एवं मूल का भक्षण करते थे, वे अपने पुत्र-कला एवं घरबार को छोड़े
हुए थे।
374 रइधू : पास. 3:11,6:516 375 वहीं 6/6 376 वही, घत्ता-112 377 वही, 6/8 378 बही,3111
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अष्टम परिच्छेद उपसंहार
पार्श्वनाथ चरित विषयक रचनाओं में रइधूकृत 'पासणाहचरिउ' का स्थान __ भारतीय जीवन, साहित्य एवम् कला में भगवान पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व सूत्र में मणि के समान पिरोया हुआ है। आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् जैसे-कोलबुक, स्टीवेंसन, एडवर्ड टामस, शाण्टियर, गेरिनो, पुसिन, याकोबी एवं ब्लूमफील्ड तथा भारतीय जैसे - डॉ. भण्डारकर, डॉ. बेल्वेल्कर, डॉ. दास गुप्ता, डी.डी. कौशाम्बी एवं डॉ. राधाकृष्णन प्रभृति विद्वानों ने उन्हें सप्रमाण ऐतिहासिक महापरुष सिद्ध किया है। उनके महनीय व्यक्तित्व को आधार बनाकर प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश के अनेक कवियों ने लेखनी चलायी हैं, तदनुसार अभी तक 20 रचनायें ज्ञात हो सकी हैं, जो स्वतन्त्र रूप से भगवान पार्श्वनाथ पर ही मिलती हैं। ये रचनायें हैं-जिनसेन (8वीं शताब्दी) कृत पार्श्वभ्युदय, वादिराजसृरि कत पार्श्वनाथचरित ( 1025 ई.), पदमकीर्ति कृत पासणाहचरित (शक सं. 999), देवदत्त (10 वीं शताब्दी ई. का अन्तिम भाग) कृत पासणाहचरिङ, देवप्रभसूरि कृत पासणाहचरिय (1111 ई.) देवचन्द्र कृत पासणाहचरिङ ( 1463 ई.), माणिक्यचन्द्रसूरि कृत पार्श्वनाथचरित (1219 ई.), विनयचन्द्र सूरि (1229-1288 ई.) कृत पार्श्वनाथचरित, सर्वानन्द सूरि कृत पार्श्वनाथ चरित (1234 ई.), भावदेवसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित ( 1355 ई.), सकलकीति कृत पार्श्वनाथपुराण (पन्द्रहवीं शताब्दी का प्रारम्भ), रइधू (1400-1479) कृत पासणाहचरिउ, असवाल कवि कृत पासणाहचरिठ (1422 ई.) तेजपाल कृत पासपुराण (15 वीं सदी ई.) पदमसुन्दरमणि कृत पार्श्वनाथचरित (1558 ई.), हेमविजयगणिकत पार्श्वनाथ चरित (1575 ई.), वादिचन्द्र कृत पार्श्वपुराण ( 1583 ई.), उदयवीरगणिकृत पार्श्वनाथ चरित (1597 ई.) तथा चद्रकीर्ति कृत पार्श्वपुराण ( 1597 ई.) इनमें रइधूकृत पासणाहचरिउ का विशिष्ट स्थान है। इसका कारण यह है कि रइधू को अपने पूर्ववर्ती पार्श्वनाथचरितों की एक लम्बी
। रइध्रु ग्रन्थावलो-भाग 1 (भूमिका पृ. 23) Resiastesesxesdesisxesies 235 kesesexsSASXESIAS
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श्रृंखला प्राप्त हुई, उनका भली-भांति अध्ययन कर कवि ने कथावस्तु को सुन्दर ढंग से ग्रथित किया।
धू का पासवरित पाक अप अंश मामः: पर अधिकार तथा काव्य कौशल का सुन्दरप्रमाण है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में तप के द्वारा समस्त आयु को सुखा देने वाले भट्टारक सहस्त्रकीर्ति, उनके पट्टघर श्री गुणकीर्ति नामधारी भट्टारक के पट्ट में होने वाले यश: कीर्ति तथा उनके अन्यतम शिष्य खेमचन्द्र को प्रणाम किया है। ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा देने वाले अपने आश्रयदाता साहू खेमसिंह अथवा खेऊ साहू अग्रवाल का भी उन्होंने परिचय दिया है। इससे उनका कृतज्ञता गुण प्रकट होता है। तोमरवंश की गोपाचल शाखा के 9 राजाओं में से चतुर्थ राजा डूंगरसिंह का भी उन्होंने स्मरण किया है।
कवि की रचना का उद्देश्य यह दर्शाना है कि आध्यात्मिक शक्ति के सामने संसार की सारी भौतिक शक्तियाँ तुच्छ हैं, वे उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती हैं। आकाश में अपने विमान को रुका हुआ देखकर संवरदेव के मन में आश्चर्य उत्पन्न हुआ (और बोला)-"वन में सोते हुए सिंह को किसने अगा दिया है? किसने आकाश में जाते हुए सूर्य को क्षुब्ध किया है, किस बलवान ने अलंध्य जलनिधि को लाँघा है?' इस प्रकार मन में सोचकर ज्यों ही देखा तो उसने जिनेश्वर पार्श्वनाथ को पाया। उनको देखकर वह दुष्ट (संवरदेव) कुद्ध हुआ और उसने तत्क्षण ही अपने अवधिज्ञान से उन्हें पहचान लिया और अपने आप बोला-"तुम कमठ नाम के जो ब्राह्मण थे, उसे इसी दुष्ट मरुभूति ने घर से निकाल दिया था। यही वह महादोषी है। मैं इसे ध्यानावस्था में ही यमराज के घर भेज देता हूँ.2 ऐसा सोचकर उसने उपद्रव प्रारम्भ किया।
आकाश में प्रचण्ड वन तड़तड़ाने, गरजने, घड़घड़ाने और दर्पपूर्वक चलने लगा। तड़क घड़क करते हुए उसने सभी पर्वत समूहों को खण्ड-खण्ड कर डाला। हाथियों की मुर्राहट से मदोन्मत्त साँड चीत्कार कर भागने लगे। आकाश भ्रमर, काजल, ताल और तमाल वर्ण के मेधों से उसी प्रकार आच्छादित हो गया, जिस प्रकार कुपुत्र अपने अपयश से। मृगकुल भय से त्रस्तहोकर भाग पड़े
और दुःखी हो गए। जल धाराओं पक्षियों के पंख छिन्न-भिन्न हो गए। नदी, सरोवर, गुफायें, पृथ्वीमण्डल एवं वनप्रान्त सभी जल से प्रपूरित हो गए। वहाँ
2 पासणाहचरिउ 47
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मार्ग एवा ना क. किसी को ज्ञान किन्तु योगी जिनेन्द्र (इस उपसर्ग से) रञ्चमात्र भी विचलित न हुए प्रलयकालीन पवन से आहत धाराओं से व्याप्त होने पर भी पार्श्वप्रभु की योगमुद्रा भङ्ग नहीं हुई
महाकवि रइधु का जिनभक्ति में अटूट विश्वास है। असुरेश्वर तीर्थकर पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं :
"हे जिनवर, आपके चरणों के दर्शन से मैं पाप से मुक्त हुआ है। और महान गुणों से युक्त देव हुआ हूँ। तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले हे देव! आपने लोकों में समस्त भव्य जनों की आशाओं को परिपूर्ण किया है, स्थावर, जङ्गम एवं सूक्ष्म प्रदेश वाले समस्त जीवनिकायों को सुरक्षित किया है तथा (आप) निरीह, नृसिंह, निर्द्वन्द्व, दम्भरहित, निरुञ्जन, नित्य, शङ्कर एवं ब्रह्मा हैं। निर्लोभ, निर्मोह, निक्रोध, निदोष, निरभिमानी, ज्ञानी, भवाम्बुधि के शोषक, शीलयुक्त, तपरूपी क्रीड़ा से युक्त, आत्मस्वरूप में लीन, तीनों लोकों के लिए बन्धु स्वरूप एवं पाप रूपी मल रहित हे जिनेश्वर आपके गुण अनन्त हैं। उनका वर्णन कर सकने में मैं समर्थ नहीं हूँ
उपर्युक्त विवरण से जिनभक्ति सम्बन्धी निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं : 1. जिनेन्द्र दर्शन से पापों से मुक्ति मिलती है। 2. भव्य जनों की आशायें पूर्ण होती हैं। 3. महान गुणों का प्रादुर्भाव होता है। पासणाहचरिउ में दो प्रकार के तपों का चित्रण प्राप्त होता है : 1. सांसारिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए किया गया तप। 2. कर्म के क्षय के लिए किया गया तप)
इन दो तपों में जैनधर्म में दूसरे प्रकार तप को स्वीकार किया गया है, क्योंकि पहले तप का प्रयोजन संसार है जबकि दूसरे तप का प्रयोजन मोक्ष है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है :
अपत्य वित्तोत्तर लोक तृष्णया तपस्विन: केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनः जन्मजराजिहासया त्रयीप्रवृत्तिं समधीरनारुणत् ॥
3 पासणाहचरिउ 418 4 वही 419 । वही 4:10
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हे भगवान् कितने ही सन्तान प्राप्त करने के लिए, कितने ही धन प्राप्त करने के लिए तथा कितने ही मरणोत्तर काल में प्राप्त होने वाले स्वर्गादि की तृष्णा से तपश्चरण करते हैं, परन्तु आप जन्म और जरा की बाधा का परित्याग करने की इच्छा से इष्टानिष्ट पदार्थों में मध्यस्थ हो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकते
'पासणाहचरिउ' में इस प्रकार के तप का आचरण करने वाले भगवान पार्श्व हैं, जिनके सामने कठिनाई के पहाड़ उपस्थित होते हैं फिर भी वे जरा भी विचलित नहीं होते हैं। फलतः संवर देव को विफल प्रयास होना पड़ता है। इसके विपरीत मन से कमठ तपस्या करता है। अपने भाई के प्रति उसका वैर शान्त नहीं होता है और जब उसका भाई पञ्चाग्नि तपस्या से तप्त उसे नमस्कार कर चरणों में सिर रखता है, तभी वह अपने भाई के सिर पर शिला का आघात करता है, जिससे वह (मरुभूति) मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। कमठ का जीव जन्म-जन्म में मरुभूति के जीव से बदला लेता है। इस प्रकार कमठ का तप आत्मप्राप्ति में कुछ भी सहायक नहीं होता है। __'पासणाहरिउ' में कर्म तथा उसके फल के प्रति अटूट आस्था व्यक्त को गयी हैं। बन्धन से मुक्ति कैसे हो, वह बतलाना रधू का अभीष्ट हैं। पावं पर किया गया संवर देव का उपसर्ग उनके पूर्वकृत कर्मों का पत्र फल था, जिसे तीर्थकर होने पर भी भोगना अनिवार्य था। पार्श्व की साधना बन्धन से मुक्त होने का उपाय थी। __काव्यशास्त्रीय दृष्टि से 'पासणाहचरिउ' एक सफल महाकाव्य है। महाकाव्य में जिन गुणों का होना आवश्यक है, उनका सन्निवेश 'पासणाहचरिउ' में हुआ हैं। कवि ने काव्य की शोभा बढ़ाने के लिए अलङ्कारों का प्रयोग किया है। उनके अलङ्कार प्रयोग स्वाभाविक हैं, उससे काव्य बोझिल नहीं हुआ है।
रइधू ने 'पासणाहरिइ' में नौ छन्दों का प्रयोग किया है। अधिकांशतः पद्धडिया छन्द का प्रयोग हुआ है। गुणों की दृष्टि से प्रसाद गुण की बहुतायत है, किन्तु ओज एवं माधुर्य गुण का प्रयोग भी यथास्थान किया गया है।
पासणाहचरिउ के आन्तरिक अनुशीलन से उसमें प्रतिपादित सामाजिक, राजनैतिक तथा धार्मिक परिस्थिति का भी पता चलता है। यहाँ-सुपुत्र कुपुत्र, अच्छा भाई-बुरा भाई, सभी के उदाहरण प्राप्त हैं। विभिन्न प्रकार की जातियों एवं वर्गों से बहाँ परिचय होता है। अनेक प्रकार के व्यसन तथा उसके दुष्परिणामों का वर्णन किया गया है। इससे समाज के परिष्कार की शिक्षा प्राप्त होती है। PASTESTMETESexestesteSTS 238 ASXXSYemestesexeSXSI
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प्राचीन भारत की राजनैतिक प्रणाली की जानकारी भी 'पासणाहचरिउ' से होती है। राजा प्रजा का सदैव ध्यान रखता था। वह समस्त कलाओं में निष्णात होता था, तथा युद्ध क्षेत्र में धुरधर होता था। राजा का पुत्र ही राज्याधिकारी होता था। राज्य के सप्ताङ्ग की यहाँ चर्चा की गयी है। कार्य की सिद्धि के लिए पंचाङ्ग मन्त्र पर बल दिया गया है। दूत एवं सैन्य व्यवस्था के भी यहाँ उल्लेख प्राप्त होते हैं।
जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों को सरल भाषा में समझने के लिए पासणाहचरिठ' बड़ा उपयोगी है। जैन आचार्यों एवं कवियों का उद्देश्य काव्यरचना के सहारे धार्मिक तत्त्वों का सुन्दर विवेचन रहा है। जिस प्रकार मिश्री-मिश्रित औषधि गुणकारी होती है, उसी प्रकार धर्म तत्त्व के उपदेश काव्य रूपी मिश्री में मिश्रित होकर और भी अधिक मधुर लगते हैं। रइधू की वर्णन शैली से यह बात परिलक्षित होती है। इस प्रकार अपने काव्य कौशल के माध्यम से रइधू ने भारतीय साहित्य के भण्डार की श्रीवृद्धि करने में अनुपम योग दिया
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सूक्तियाँ
i. शिवोह उच्च कप्परुमखु तहु फल को णउ वंछइ ससुक्खु ।
पा, 1/8 - 1/10 अपने घर में उत्पा कल्पवृक्ष के सुखद फल को कौन नहीं चाहता? 2. पुण्णेण पत्तु जइ कामधेणु को णिस्सायइ पुणु हि गयरेणु। पा, 1/8-2/10
यदि पुण्य कर्म से कामधेनु प्रास हो जाय तो अपने घर में मात्र धूलि उड़ाने
वाले हाथी को कौन आश्रय देगा? 3. रयणु व्च दुलहु सावयहु जम्म। पा, 1/8-14/10
श्रावक-कुल समुद्र में गिरे हुए रत्न-प्राप्ति के समान ही दुर्लभ है। 4. ते सवण जि सुणहिँ जिणिंदवाणि। पा. 1/8- 16/10
श्रवण वे ही हैं जो जिनवर की वाणी सुनते हैं। 5. सोएं णासइ तणु-कंति-छाया पा. 313-1/36
शोक से शरीर की कान्ति नष्ट हो जाती हैं। 6. तहु सलहणु किज्जइ अहिउ लोइ जो तवभरु गिण्हइ एत्थु कोइ।
पा. 3/3-8/36 इस लोक में जो कोई तप के भार को ग्रहण करता है, उसी की अधिक सराहना की जाती है। अच्छरिउ काइँ जं तमहुभरु दिणयर-पुरउ पलाइ लहु ।। पा. 3/4-14/38 यदि सूर्य के सम्मुख अन्धकार का भार तत्काल ही हट जाय तो उसारें आश्चर्य ही क्या? बालाणलो किं ण रण्णं डहेऊण संकीरए भप्फवण्णं। पा. 3/5-6/38 क्या अग्नि की एक चिनगारी समस्त वन को जलाकर भस्म नहीं कर
देती? 9. सर-भिण्णु बंभज्जई भट्ठउ || पा, 358-7142
वेदगान में स्वरभग्न होने से ब्राह्मण यत्ति भृष्ट हो जाता है।
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10. कुमुणि च सय भन्यौँ दट्ठ । पा. 3:41.7142 ___विषयरूपी भुजङ्ग से दष्ट होकर कुमुनि पतित हो जाता है। 11. पोएं नम :-7:42.
रवि के तेज से अन्धकार का भार नष्ट हो जाता है। 12. णसदसणेण दुग्गई दुहु तव-पहाइँ णं भग्गउ भणरुहु। पा. 3/9-8/42
सभ्यग्दर्शन से दुर्गति रूप दुख अथवा तप के प्रभाव से कामदेव भग्न हो
जाता हैं। 13. अप्पादंर्माण कम्महं गण (णासइ) पा. 319-9/42
आत्मदर्शन से कर्मसमूह नष्ट हो जाता है। 14. किं मिच्छाइट्ठिहु करइ भत्ति जो वि फेडई संसार - आंत। पा.3:12.-5:44
जो संसार के दुःख को नष्ट नहीं कर सकता, उस मिथ्यादृष्टि की भक्ति
क्यों करते हो? 15. जीव हंगस्थि ताण। पा. 3/13-846
संसार में जीवों के लिए मृत्यु से त्राण नहीं है। 16. आउखई गय एव जाहिं।। पा. 3/13-10146
सभी आयु के क्षय के बाद मृत्यु को प्राप्त होते ही हैं। 17, अंजलिंजलु व्व आउसु ढलए। पा. 3/14--2146
आयु अन्जली के जल के समान ढलती जाती हैं। 18. महवाधणु व्व धणु सुहु अथिरु जूवाधणु व्ब खाँण होइ परु। पा. 3:14
3/46 धन एवं सुख इन्द्रधनुष के समान अस्थिर हैं (वे) जुए के धन के समान
क्षणभर में दूसरे के हो जाते हैं। 19. कंतारइ तारायण तरला। पा. 3/14-5/46
स्त्री भोग तारागण के समान तरल हैं। 20. णवजोव्वणु णइपूरु व वरसइ। पा. 3/14-6/46
नवयौवन (वर्षा कालीन) नदी के पूर के समान क्षीण हो जाने वाला है। 21. लावण्णु वण्णु दिणि-दिणि ल्हसइ। पा. 3/14-6/46
सौन्दर्य और वर्ण प्रतिदिन हीयमान हैं।
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22. अंदय - सुह तडि तरलतणन। पा. 5/14-7146
इन्द्रिय सुख बिजली के समान चंचल है। 23. भारुवह य जरपत्तुव- सारसु तह रज्जु भाउ साल क पा ::I
6:48 राज्यभोग। भी भारोपहत जीर्णपत्र के समान किसी के लिए शाशा नको
होता। 24. (बहुधाचे) सामि-- भिच्चु भिन्यु वि दासतांना पा. :16 4:48
बहुस पापों के कारण स्वामी भृत्य और भृत्य दास बन जाता है। 25. मुणि तासु सरीरहु सास इहु जं तन्न -वय संजम घरणु। पा, 3:19-:57.
तप, व्रत एवं संयम का जा धारण है, वही इस संसार में शरीर का रंगर
जानिए। 26. मान वय काय असहसंचारे असा मुआयना पा. 3:20
5:52 मन, वचन एवं काय के अशुध पत्र सारहीं। संचार से अशुभ कमांश्रव
होता है। 27. मित्तह सम्म पतला . 321212 ..
मिथ्यात्व के निराध के लिये गयकाय पाहा । 28. खमा-परिणामें कोह णिहा पा. 3/21 35
क्षमाभाव से क्रोध का दम्। य: 1 ! : 29. माणु वि मद्दवभावे जिप्यइ। पा. २:21. ३.५
मार्दव भाव से मानकषाय को जीता जाता है। 30. माया अजवेण पारिजइ। पा. 3212
आर्जनभाव मे माया का निवारण किया जाता 31. संतोसें लोहु वि दारिजर। पा. 3/21 4732
सन्तोष से लोभ को विदीर्ण किया जाता है। 32. संवर सासयमग्गहु सहयरु। पा. 3:21 8/54
मोक्षमार्ग के लिए संवर (ही) सहचर हैं। 33. संवर पुन्च किणिज्जर विरलहँ पा. 3/22-7354
संवर पूर्वक निर्जरा बिरलों के लिए ही होती है।
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34. धम्मुजि सारउदयपउरो णियमणि जिणवरु सुच्चई। जो करइ ण मणवइ धरिवि श्ररु सो अप्पाणठ वंचइ । पा. 3/22-9-10/54
दयावर धर्म ही सारभूत है। उसे धारण कर अपने मन को स्थिर नहीं करता, वह स्वयं अपने को उगता है।
35. धम्मे तेउ-- रूड - बलु - विक्कमु धम्मे दीहाउसु वि परक्कमु ॥
पा. 3/23-4/54
धर्म से ही तेज, रूप, बल एवं विक्रम की प्राप्ति होती है। धर्म से ही दीर्घायुष्य एवं पराक्रम प्राप्त होते हैं।
36. धम्मु सुहिउ धम्मु त्रि पर सज्जणु 1 पा. 3/23-7/54 धर्म ही कल्याण मित्र है, धर्म ही परम स्वजन है।
37. धम्मे कामधेणु गिहि दुब्भइ । पा. 3/23-8/54 धर्म से ही कामधेनु घर में दुही जाती है।
38. सव्वहं गइहिं दुहु मणुयत्तणु, तर्हि वि दुनहु उत्तमहं कुलत्तणु।
पा. 3/25-1 /56
समस्त गतियों में मनुष्यत्व ही दर्लभ है और उसमें भी उत्तम कुल की प्राप्ति दुर्लभ है।
39. खाण दिठु णट्टु तणु- धणु-सयणु सरय अब्भ--संकासउ । पा. 3/25-9/56 तन, धन और स्वजन सभी शरद कालीन मेघ के समान क्षणभर में दिखाई देकर नष्ट हो जाते हैं।
40. संजोयहु नियमें मुणि विओउ । पा. 4/5-8/64 संयोगके नियम से ही वियोग होता है।
41. महु-मज्ज - मंसु वज्जियइ दूरि । पा. 5/4-8/84
मधु, म और माँस का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए।
42. सच्चै सुरणर पणमंति पाय । पा.5/5-3/86 सत्य से देव और मनुष्य भी चरणों में प्रणाम करते हैं।
43. सन् लब्भइ तित्थयरवाय। पा. 5/5-3/86 सत्य से तीर्थंकर की वाणी प्राप्त होती है।
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44. जा-जा अण्णहु जुवई सुजाण मण्णइ जणणि-बहिणी समाण।
पा.5/5-9186 जो जो भी परयुतियाँ हों, उन्हें सुजान व्यक्ति माँ एवं बहन के समान
मानता हैं। 45. दासी वेसहिं जो रतु लोइ तहु णियमें क्ठ णउ एक्कु होइ। पा.. 5/5-11/86
जो व्यक्ति इस लोक में दासी एवं वेश्याओं में आसक्त होता है, उसको
नियम से एक भी व्रत नहीं होता। 46. जीवहु सबहु णियमें खमामि ते मझु खमंतु वि चित्तरामि। पा. 517-186
सभी जीवों को मैं नियम से क्षमा करता हूँ, वे भी मुझे प्रसन्न होकर क्षमा
करें। 47. जहिं पसरइ तमभरु दिठ्ठि वि सहयरु खयर वि जत्थ ण संचरहि। तहिं दोसपहायरि एत्थ विहावरि किं सावथ भोयणु करहि।।
पा. 5/7-15-16/88 जहाँ अन्धकार का प्रसार हो, देखना भी कठिन हो, जब पक्षी भी संचार न करते हो, उस दोष उत्पन्न करने वाली रात्रि में श्रावक भोजन कैसे कर
सकता है? 48. अणगालिङ जल कासु ण दिज्जद। पा. 5/8-6/90
अवछना जल किसी को भी नहीं देना चाहिए। 49, जूवंधु णरु थिट्ठठ्ठ पावितु दप्पिट्टु जम्मे वि उ सरइसो कम्मु
सुविसिछु। पा. 5/9-1190 घृष्ट, पापिष्ठ एवं दर्पिष्ठ द्यूतान्ध मनुष्य जन्म भर भी विशिष्ट कर्मों (पुण्य)
का अनुसरण नहीं करता। 50 जिह जलवरुहि रहु आयट्टइ तिह वारा पुणु णेहें बट्टइ ।
पा,5/11-5/92 जिस प्रकार वारूही का जल रथ को काट देता है, उसी प्रकार वेश्या अपने
स्नेह से वर्तन करती है (अर्थात् धन को काटती है)। 51. सीलरयणु मा दुलहु भज्जहु। पा. 5/11-9/92
दुर्लभ शीलरूपी रत्न को भग्न मत करो।
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52, णिय डिंभममाण तिरिय विमाइ रक्खइ बहइ | सुमइणरु।
पा, 5:11. 17194 सद्बुद्धि वाला व्यक्ति तिर्यचों को भी अपने बच्चों के समान मानता है,
उनकी रक्षा करता है और वध नहीं करता। 53. इय आणिनि चारही पाविय कोहसंसागुनि उ भिन्नइ!
पा. 5/12-9/94 घोर पापी चोर के सम्बन्ध में यह (पूर्ववृत्तान्त) जानकर उसका संगम
भी भी मत कर 54. पतिय पहियि माय शिकापुः णिया। तिल तिरनु झिज्जइ।
पा. 5:13-194 कामुक व्यक्ति परस्त्रियों को देखते ही कामदेव ( के बाण) से बिंध जाता
है। यह अपी मन में तिल-तिल करके जलता रहता है। 5. कल ... !
१. वह लोनार दर परत दारा
पा. - 14:726 परदाराममन सुल, ब पन नं कीर्ति का विनाशकारी एवं दोनों लोकों
के विरुद्ध है। 56. पाविय तणड णेहु कहांध गाँव किन दमियदेहु। पा. 6.9 - 1130
पापी का देहदमन करने वाला नेह कभी भी नहीं करना चाहिए। 57. कुत्थियलिंगिह समाणु णउ किंजई परिचउ ताहँ माणु। पा. 619 -2:130
अभिमानी एवं कुत्सित वेश धारण करने वाले लोगों से न परिचय करना
चाहिए और न सम्मान। 58. भवियव्वु ण फेडइ एत्थु कोइ। पा. 6/9-3/730
इस (संसार) में भवितव्यता को कोई नहीं भेंट सकता। 59. जेम घणागमु खणेण पणठ्ठउ तिम संसारसरूउ वि दिन।
पा, 6/10-7/132 जिस प्रकार घने बादल का आगमन क्षणभर में नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार से संसार का स्वरूप भी वैसा ही है।
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60. तणु-धणु विज्जुललवसन सांसइ। था, 6/10-8/132
शरीर और धन विद्युल्लेखा के समान कहे गये हैं। 61, हिंसइ गरइ दुक्खु पाविज्जइ, जिउ संसारसमुद्दि णिमज्जइ, चउरासिीति
जोणि भामिज्जई। पा. 6/12-1-2/134 हिंसा से नरक में दुख प्राप्त होता है, जिससे जीव संसार समुद्र में डूबता है
और चौरासी योनियों में भ्रमण करता है। 62. हिंसइ पंगुलु णरु बहिरंधर। पा. 6/12--3/134
हिंसा से व्यक्ति पङ्गु, बहरा एवं अन्ध होता है। 63. हिंसइ णीसु वि तिलपिंडासणु। पा. 6/72 4/134
जो हिंसा करता है अथवा जो तिलमात्र भी (मांस) भक्षण करता है, वह
नाश को प्राप्त होता है। 64. तुवि परिणामु जि कारण वुत्तड, पावहो पुण्णहो होइ णिरुत्तर।
पा.6/18-12/140 संसार में निश्चित रूप से परिणाम (भाव) ही पुण्य और पाप का कारण
होता है। 65. कज्जु वि णिय परिणाम मुणि पा,6/18-17/140
कार्य भी अपने अपने (कर्मों के) परिणाम ही हैं। 66, जिण धम्मरसायणु सहसयदायण णरभवि जेण ण भावियउ। सो जम्म वि
हारइ सुहगइ वारइ रयणु व दुल्लहु पात्रियउ।। पा. 6/22 - 14-15/44 अनेक सुखों को प्रदान करने वाले, जिनधर्मरूपी रसायन का जिसने नरभव में सेवन नहीं किया वह दुर्लभ रत्न के समान प्राप्त नर- जन्म को हार जाता
हैं और शुभगति को दूर कर देता है। 67, दुजण-सज्जण ससहाब जे वि दोसई गुणाई गिण्हति ते नि ।।
पा.716.6/152 जो दुर्जन अथवा सज्जन जैसे स्वभाव से युक्त हैं, वे तदनुसार दोषों एवं गुणों को ग्रहण करते हैं।
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शोध प्रबन्ध में प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्थ तालिका
1. अपभ्रंश साहित्य
हरिवंश कोछड़
डॉ. रमेशचन्द जैन
2. अहिच्छत्रा की
पुरासम्पदा 3. आदिपुराण
भारतीय साहित्य मन्दिर फवारा, दिल्ली, प्र.सं. दि जैन अतिशय क्षेत्र अहिच्छेत्र, जिला बरेली प्र.सं. भारतीय ज्ञानपीठ. काशी. द्वितीय संस्करण
आचार्य जिनसेन . सम्पादक-पं. पन्नालाल साहित्याचार्य डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री
4. अदिधुगण में
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गणेशप्रसाद वगी, दिगम्बर जैन नन्थमाला, वाराणसी 1968 ई. जैन विश्व भारती, लाडनूं
5. भाचाराला 6. आवश्यक नियुक्ति 7. इण्ट्रोडक्शन टू प्राकृत 8. उत्तरपुराण
कुलना आचान्यं भट्ट
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जैन श्वेताम्बर तेरापन्धी महासभा, कलकत्ता
9. उत्तराध्यवन सूत्र
10 अंगुजर निकाय 11. कोटिलीय अर्थशास्त्रम्
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औरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट मैसूर. 1960 ई.
वर्णी जैन ग्रन्थमाला, मेरठ
12. करकंह चार 13 कल्याणमन्दिर स्तोत्र 14. काव्यादर्श 15. छहढाला 16. जैनधर्म का प्राचीन
इतिहास 17. जेनिज्म इन बुदिर
लिट्रेचर
बलभद्र जैन
ट्रॉ. भागचन्द जैन
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sxesxesexSSSXSTATESTEReshusiasrustushastraskay 18. जैन निबन्ध रत्नावली मिलापचन्द कटारिया 19. जैन साहित्य और पं. नाथू राम प्रेमी हिन्दो ग्रन्थ्य रत्नाकर इतिहास
कार्यालय, हीरावाग
गिरगाँव, बम्बई, प्र.सं. 20. जैन बालगुटका ज्ञानचन्द्र जैनो 21. जैन साहित्य का वृहद अम्बालाल प्रे. शाह पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध इतिहास (भाग-5)
संस्थान, वाराणसी, प्र.मं. 22. जैन साहित्य का बृहद् डा. गुलाबचन्द चौधरी पाश्नाथ विद्याश्रम शोध - इतिहास ( भाग 6)
संस्थान, वाराणसी 1975 ई.
प्र.सं. 23. जैन सूत्राज (दि भाग) 24. तिलोयपारगती डॉ. यतिवृषभ
जीत्रराज जैन ग्रन्याला संस्कृति संरक्षक संघ म. डॉ. ए. एन. उपाध्ये फखटण गली, सोलापुर, और हीरालाल जैन
प्र.सं. 25. तत्वार्धवार्तिक
- कद्देल ५, २ . माशी,
प्र.मं. 26. तत्वार्थमूत्र आ. उमास्वामि
गणेसणप्रसाद वाणी जैन ग्रथमाला ,नरिया, वाराणसी.
प्र.सं. 27. तोथंकर महावीर और डॉ.नेमिचन्द्र शास्त्री भा.. द. जैन विद्वत् परिषद्, उनकी आचार्य परम्परा
सागर (म. प्र.) 28. हिसन्धान महाकाव्य
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प्र.सं. 1944 ई. 29. द्रव्य संग्रह 30. दर्शनसार देवसेनाचार्य
श्रीनाथराम प्रेमी, मन्त्री जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय,
हीरा बाग, बम्बई। 31. उत्तराध्ययन सूत्र सम्पा. जालशारपेण्टियर 32. दीघनिकाय सम्या. भिक्षु जगदीश कश्यप बिहार राज्य पालि प्रकाशन
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1958 ई. 33. नीतिवाक्यामृत सोमदेव मूरि
सम्या. सुन्दरलाल शास्त्री
धनञ्जय
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34. निशीथसूत्र
मम्मा. उपाध्याय अमरमुनि
एम. एल. शमा
35. नीतिवाक्यामुन में
राजनीति 36. पदमचरित
(भाग 1,2,) 37. पार्श्वनाथ चरित
आचार्य विषण
सति ज्ञानपीइआगरा, अ.स भारतीय ज्ञानपीट काशी, प्र.सं. भागि आनपाठ, काशी, प्र.सं. माणिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला. समिति, बम्बई, वि.सं. 1973 ई.
वादिराज मूरि सम्पा. मनोहरलाल शास्त्री
3. पाश्वपुरण भूधरदास 39. पउचिरय
लिपल्ला
40. प्रवचनसार
आचायं कुन्दन
41. पद्मनन्दि पविशति
पथमनन्दि
42. पदमचरित में प्रतिपादित डॉ. सोश चन्दन।
भारतीय संस्कृति
ग्राकृत कम्ट सोमाइटी, वाराणी। दि. जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर। भा.. जैन महासभा प्राांसस्थान पीयूष भारती, जैन मन्दिर के पार बिजनौर (उ.प्र.) दि. जैन परिपट, पब्लिशिंग हाउस, देहली। चौखम्भा संस्कृत सीरीज,
आफिस, वाराणसी। जैक प्रचार समिति जात स्थान | दार्ग, गुजफ्फरनगर ( उ. प्र.)
43. पुरुषार्थसिद्धयुपाय
आचार्य समृनचन्द्र
डॉ. जगदीश चन्द्र जैन
44. प्राकृत साहित्य का
तिहास 45. पार्श्वनाथ चौरंत का
समीक्षात्मक अध्ययन
डॉ. जयकुमार जैग
46. वृहत्संहिता 47. प्राकृत और अपभ्रंश
साहित्य तथा उसका
वराहमिहिर रासिंह तामा
हिन्दी परिषद प्रकाशन प्रयाग विश्वविद्यालय, प्र.
सं.
हिन्दी पर प्रभात्र
1963 ई.
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48. पात्रततीर्थ हस्तिनापुर
डॉ. रमेशचन्द्र जैन
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र,
नापुर, जिला मेस्ट (3. प्र...प्र.मं
भा. द. जैन तीर्थ क्षेत्र कोटी बम्बई. पालीय ज्ञानपीठ, कोशी
49. चन्दाबाई अभिनन्दन
ग्रन्थ 50. भट्टारफ सम्प्रदाय डॉ. विद्याधर जोहरपुरकर 51. भारत के दिगम्बर जेन लभद्र जैन
तीथं ( भाग -1) 52. भविसवत्तकहा और डॉ. देवेन्द्र कगार शास्त्री
अपभ्रंश कथा काव्य 53. भागवतः सूत्र 54. महाकवि रहके डॉ. नासग जैन
साहित्य का
आलोचनात्मक परिशीला 55. 'हाभारत ( शान्तिप) 5. गांअन्किाथ 5 मा 59. निवज्ञान के पुखराज जैन
प्राकृत, जैन माघ और अहिंसा शोध संस्थान, बैंगाली 127 ई.
60. पण 61. २
कालिदान माता.हो. गजाणा जैन
धावनी
जीवगज ग्रन्थमाला, शोलापुर
62. रसधारण्ट श्रावकाचार चायं मन्संगद्र 6. रामायण कानो संस्कृति शान्तिकुमार नानूराम व्या 64 fary धर्मसूत्र
5. वृहत्कथाकोश हरिषेण 66. वराङ्गारित जटामिह नन्दि
माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई.प्र. सं.
67. विविधिताश्रकल्प 68. शुक्रनीतिर 69. श्रीमदभागबन
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________________ 70. समवायांग 71. सिरिपासनाहचरिठ देवभद्रसूरि 72. स्थानाङ्ग 13. साहित्यदर्पण विश्वनाथ चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, चतुर्थ संस्करण, 1976 ई.. 74. सवार्थसिद्धि आचाथं पूज्यपाद भारताम ज्ञानपाठ, कारा अनु. पं. फूलचन्द्र शास्त्री 75. सागार धर्मामृत पं. आशाघर भारतीय ज्ञानपीठ, देहली। 76. संस्कृत काव्यके डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, देहली। विकास में जैनाचार्यों | का योगदान 77. षट्खंडागम आ. पुष्प दन्त एवं भूतबलि जोत्रराज जैन ग्रन्थमाला { धवला टोका) शोलापुर 78. हरिभद्र के कृत डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री प्राकृत, जैनधर्म एवं अहिंसा कथा साहित्य का शोध संस्थान, वैशाली आलोचनात्मक परिशीलन 79. हरिवंश पुराण आ. जिनसेन भारतीय ज्ञानपीठ काशी। 80 हिस्ट्री आफ दिवर्ल्ड हमसवार्थ 81. क्षत्रिय क्लेन्स इन बुद्धिस्ट इण्डिया 82. त्रिलोकसार पत्र-पत्रिकायें- पार्श्वज्योति, अनेकान्त, माइन रिव्यू, जैन विद्या , जन एण्टीक्वेरी