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________________ द्वारा कर्मास्त्र होता है। पंच महाव्रतों के भार को धारण न करने से, पञ्च समितियों का पालन न करने से तथा प्रकट राग से कर्मास्रव होता है। जीव कर्म से आबद्ध होता है और भवावली (संसार) को प्राप्त करता है। मन, वचन एवं काय के अशुभ एवं सारहीन संचार से अशुभ कर्मास्रव होता है, उसके कारण जीव बहुत से दुःखों को भोगता है और चौरासी लाख योनियों में घूमता है। शुभ योग से शुभ आस्त्रत्र होता है, जिसके कारण जीव वांछित लक्ष्मी प्राप्त करता है। जिस प्रकार सरोवर में जल नालियों के द्वारा आता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में कर्ममल आता है। 123 आते हुए उस कर्मास्रव को, जो संबर के द्वारा नहीं रोकता है, वह शठ टूटी हुई नाव में चढ़कर अपने को संसार रूपी सरोवर में उतारता है। 124 इस प्रकार कर्मों के आने रूप आस्रव के बारे में चिन्तन करना ही आस्त्रवानुप्रेक्षा है। संवरानुप्रेक्षा : आस्रव द्वारों का रुक जाना संवर कहलाता हैं। यतिवर मिथ्यात्व के लिए सम्यक्त्व, योगों के निरोध के लिए गुभि, क्रोध के दमन हेतु क्षमा, मान की जीतने के लिए मार्दव, माया के निवारणार्थ आर्जव, लोभ को विदीर्ण करने के लिए संतोष ( शौच ) का पालन करके कर्मास्रव को अवरुद्ध करते हैं। कायोत्सर्ग से शरीर को मण्डित करते हैं। अशुभ लेश्या. संज्ञा आदि का त्याग करते हैं. जिससे शुद्ध भावना की प्राप्ति के उपरान्त संवर बढ़ता है। मोक्षमार्ग के लिए चतुर्गति के तापों के भय का हरण करने वाला ही सहचर है 1125 इस प्रकार संबर की प्राप्ति के कारणों के बारे में चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। निर्जरानुप्रेक्षा : जो भव्य जीव संवर को धारण करता है, वह चिरकाल से अर्जित दुखरूप प्रचुर शुभाशुभ कर्मों की निर्जरा करता है। 126 सविपाक और अविपाक के भेद से उत्तम निर्जरा दो प्रकार की होती है। 127 अपना समय आने पर कर्मों का नष्ट 123 पास 3:20 124 वही घसा 45 125 नही 3:21 126 वही, घत्ता - 46 127 वही 3/22/1 XXXSXS 192 K
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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