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________________ पुद्गल : जिसमें " पूरण" - बाहरी अंश मिलने की शक्ति और " गलन " - गल जाने की शक्ति की क्रिया होती रहती है, उसे पुद्गल कहते हैं। 342 पुद्गल रूपी द्रव्य है, 343 जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाया जाता है। 344 विविध विषय : 'गुणस्थान 345 : गुणों के स्थानों को अर्थात् विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैन शास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का अर्थ आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की उसके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापत्र अवस्थाओं से है । 346 मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म, साम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलिजिन तथा अयोग केवली; इस प्रकार ये चौदह गुणस्थान हैं । 347 कषाय 348 : जो आत्मा को करें अर्थात् चारों गतियों में भटकाकर दुख दें, 349 उसे कषाय कहते हैं। कषाय के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ ।। इनके दमन करने के लिए क्रमशः क्षमा, मार्दव, आर्जव व संतोष (शौच ) का सहारा लेना पड़ता है 350 प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन; ये चार भेद होते हैं। इस प्रकार चारों कषायों के सोलह भेट भी हो जाते हैं। अत: इन्हें सोलह कषाय 351 भी कहते हैं। 342 तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा खण्ड- 1 पृ. 349 343 तत्त्रार्थसूत्र 5/5 344 वही, 5/23 345 पास 4/12 346 पं. सुखलाल जी दर्शन और चिन्तन, पृ. 263 347 गोम्मटसार जीव कांड 9/10 348 पास 12,3/20, 406, 4/13 349 पं. पन्नालाल जी कृत मोक्षशास्त्र की हिन्दी टीका, पृ, 16 350 पास. 3/21 351 वही 4/6 Sxxcxcxxxw5) 229 (XSXSXXXX
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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