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___ अनेक सुखों को प्रदान करने वाले, जिन धर्म रूपी रसायन का जिसने नरभव में सेवन नहीं किया वह दुर्लभ रत्न के समान नर जन्म को हार जाता है और शुभगति को दूर कर देता है। सन्धि -7:
श्री पार्श्व जिनेश देवों एवं मनुष्यों से परिचरित होकर विहार करने लगे और संसार से पार उतराने वाली वे अपनी वाणी से भव्यजनों का शासन करते हुए धर्म का प्रकाश करने लगे। वै लोक पूज्य देवाधिदेव सभी के मन के संशयों के मिटाने वाले थे।
किन्हीं ने घर का मोह छोड़कर तथा सभी प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाले महाव्रत तथा किन्हीं ने अणुव्रत धारण कर लिये। अश्वसेन ने मुनि और वामादेवी ने आर्यिका पद धारण किया।
पार्श्व के तीर्थ में दस गणधर हुए, जिन्होंने श्रेष्ठ जिनवाणी का उद्धार किया। उन पार्श्व के चार सौ चतुर्दशपर्यों के धारी एवं अठारह सौ शिष्य कहे गये हैं। पन्द्रह सौ अवधिज्ञान के धारक मुनि, उनसे तिगने विकिया ऋद्धि के धारक और उनसे भी तिगुने वहाँ प्रधान केवली थे। एक हजार नन्चे स्त्रीमुक्त स्थान को प्राप्त करने वाले, नौ सौ मनः पर्ययज्ञानधारी मुनीन्द्र, इन्द्रों द्वारा स्तुत्य आठ सौ वागेश्वर, अड़तीस हजार आर्थिकायें, एक लाख व्रती, श्रावक एवं श्राविकाओं की संख्या तीन लाख थी असंख्यात देव स्वामी पर्व की सेवा कर रहे थे। वहाँ तिर्यञ्चों का कोई प्रमाण ही न था। वे जिनवर भाषित पदार्थों को सुन रहे थे। । ___चतुर्विध संघ के साथ विहार करते हुए वे पार्थ जिनेन्द्र "सम्मेद शिखर" पहुँचे। उस पर्वत की चोटी पर मन और वचन को अवरुद्ध करके काययोग से जिन भगवान ने शीघ्र ही दप-कपाटक-समुद्घात किया। इस प्रकार चार समयों में पार्श्व ने दण्ड, कपाट, प्रतर एवं लोक पूर्ण समुद्घात करके समस्त संसार को पार कर लिया। वेदनीय, नाम एवं गोत्र; इन तीन अघातिया कर्मों को आयुकर्म के समान कर लिया और ध्यान में इस प्रकार स्थित हुए कि जिससे कर्म कट जावें। आत्म प्रदेशों का संवरण करके वे जिनवर तीसरे शुक्ल-ध्यान में स्थित हो गये,। जिसमें उन्होंने अघातिया कर्मों की शेष बहत्तर प्रकृतियों का क्षय किया। तेरहवें गुणस्थान में ही स्थित रहते हुए फिर अयोग केवलि गुणस्थान में स्थित हो गये, वहाँ पाँच्च लघु अक्षरों के उच्चारण काल जितनी स्थिति करके कर्मों की शेष अन्तिम तेरह प्रकृतियों का क्षय किया, इस प्रकार इन पचाप्ली PastessesmaushSTATESTShors rusheshasKasesesxey