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________________ राजा ने अन्य किसी दिन संसार की असारता को जानकर सागर गुप्त मुनि के पास मुनि दीक्षा ले ली और गिरि-कन्दराओं, मृगों अर्थान सिंह आदि वन्य जीवों के भय को छोड़कर वहीं स्थित हो बाह्याभ्यन्तर तप एवं रलय का ध्यान करते हुए सोलह भावनाओं को आराधना करने लगे। जब वे महामुनि खदिरवन में मृतकासन से कार्यात्मग मुद्रा में स्थित थे तभी वह जो मगमारक भील था तथा जिसने तप में श्रेष्ठ मुनीन्द्र को बींधा था और फिर मरकर वह वहाँ से तमतमा नामक नरक में गया था, वहीं जीव वहाँ पर्याप्त दुख सहन कर पुनः निकला और उसी वन में सिंह योनि में उत्पन्ना हुआ, जहाँ मुनि निरन्तर ध्यान में मग्न थे। उसने उन मुनिराज को देखकर तथा दुनींतिपूर्ण वैर का स्मरण कर वेगपूर्वक उन्हें खा डाला। क्षमागुण के धारक वे मुनि चौदहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। देवों के द्वारा वन्दित एवं अनिन्द्य वह देव नाना प्रकार के भोग-विलासों को बीसरसागर की आयु तक . भोगता रहा। बीस पखवारों में श्वास छोड़ता था जिसे सेवा-शुश्रूषा की भावना से सुरनारियाँ झेलती थीं। उसने बीस सहा वर्ष आयु को भोगा और अहर्निश भोगों से अपने मन को रजित करता रहा। वह सिंह (कमठ का जीव) भी मरकर धूमप्रभा नामक नरक में उत्पन्न हुआ और दुख भोगता रहा। हे रविकीर्ति नरेश्वर ! तुम इसे भली भाँति जानो तथा मिथ्यात्व और कषाय से मोहित मत होओ। काल सीमा को समाप्त कर वह देव भरत क्षेत्र की काशी नामक नगरी के राजा अश्वमेन की रानी वामा देवी के यहाँ गर्भ में आकर प्रभु पार्श्वनाथ नाम के जिनेश्वर रूप में जन्म लिया। धूमप्रभा से निकलकर वह (कमठ का जीव) तीन क्रोध के वशीभूत कमठ नामक शापस हुआ और फिर वह पंचाग्नि तप का क्लेश सहकर तथा शरीर छोड़कर संवर नामक देव हुआ। आकाश मार्ग से जाते हुए एक दिन उसने तप तपते हुए ध्यान स्थित स्वामी पार्श्वनाथ जिनेन्द्र को देखा और पूर्वभव का वेर जानकर उसने महान आपत्तिकारक उपसर्ग किया इस कारण अपना आसन कम्पित होने से शेषनाग (धरणेन्द्र) वहाँ आया और उसने उपसर्ग का निवारण किया। हे नरेश ! यही वैर का कारण 'जानो। __ यह वृत्त सुनकर उस रविकीर्ति नरेश ने विमल सम्यक्त्व ग्रहण करके पार्श्व जिनेश के चरणों में प्रणाम किया फिर अपने नगर को लौटकर जिनभक्त हो गृहस्थ के व्रतों का पालन करने लगा। उस रविकीर्ति ने सारे महीतल को जिनायतनों से अलंकृत किया। इस प्रकार वह अखण्डराज्य करने लगा FessMETASTESTESTestess so Usesterestseesrustess,
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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