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आयु तक स्त्री रहित सुखों का आस्वादन कर शोक, रोग एवं आतङ्क विहीन हो, परमात्मरस की भावना में लीन रहते हुए सरस अतीन्द्रिय सुखों का भोगकर मन में सम्यग्दर्शन की भावना करके जम्बूद्वीप के कौशल देश की अयोध्यापुरी में पर्वत के समान बज्रबाहनामक नरेश की प्रभंकरी नामक पगरानी के गर्भ में आकर आनन्द नामक अत्यन्त रूपवान पुत्र के रूप में जन्म लिया। ___ जन्म से निडर व तेजस्वी वह आनन्द नाम का शुद्ध हृदय नरेश्वर किसी दिन जिन मन्दिर गया, वहाँ नाना मणियों से जटित स्वर्ण कलशों से जिन प्रतिमाओं का अभिषेक किया, पूजा की और नमस्कार कर बैठकर गया। तभी वहाँ एक मुनिवर पधारे। तब माया रहित सन्तुष्ट राजा ने मुनि के चरण कमलों में नमस्कार किया और पृथ्वी पर सिर लगाकर गर्व छोड़कर चिरकृत अशुभ कर्मों का विध्वंश किया। नमस्कारोपरान्त राजा ने मुनिराज से पूछा कि-"पाषाण प्रतिमा के अर्चन एवं न्हवन से क्या पुण्य होता है? यह प्रश्न सुनकर मुनिराज ने कहा क्रि-जो व्यक्ति जिनवर को भावपूर्वक मन में मानता है, वह व्यक्ति शाश्वत सुख (मोक्ष) को पा लेता है और जो पाषाण प्रतिमा मानकर उसकी निन्दा करता है और उसे भग्न करता है वह मरकर नरक में जाता है, बहुत दुखों को भोगता है और वह पापी वैतरणी में 'डबता है।" __ हे राजन्! यद्यपि जिन प्रतिमा अचेतन है तथापि उसे वेदन शून्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रूप से परिणाम (भाव) ही पुण्य और पाप के कारण होते हैं। जिस प्रकार वज्रभित्ति पर कन्दुक पटकने पर उसके सम्मुख वह फट जाती है, उसी प्रकार दुख-सुखकारक निन्दा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रहार से यद्यपि प्रतिमा भङ्ग नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं। उनमें से धार्मिक कर्मों को स्वर्ग का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान का अहर्निश चिन्तन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश ध्यान करो। यह सुनकर राजा ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया और उसी वचन को अपने मन में भाया।
मुनिराज को प्रणाम करके राजा अपने भवन में आया और फिर सूर्यमण्डलाकार जिन भवन का निर्माण कराया और वहाँ वह अत्यन्त उत्साह से उनका नित्यदर्शन कर तथा तीन प्रदक्षिणायें देकर उनका ध्यान करता था। इसी प्रकार अन्य अनेक विधियों का आश्रय लेता हुआ वह वहाँ अमुनि अर्थात गृहस्थ होते हुए भी मौनाश्रित अर्थात् मुनि के समान शोभायमान होता था। उस Sxsasxesesxesasrusesi 5 Pustashasxesyasrusrussess