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का सेवन करने लगा। मणिमय कुण्डल युगल और मुकुट का धारी वह प्रबल श्रेष्ठ देव अप्सरागणों को क्षुब्ध करने वाला हुआ। सोलहसागर की दीर्घ आयु को क्रीड़ापूर्वक भोगकर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में जहाँ लोकों में श्रेष्ठ नगरी शोभायमान है, वहाँ जयश्री के स्थान स्वरूप अशनिगल (विधुम् विपक्ष श्रेष्ठ विधाधर राजा के यहाँ उसकी तड़ितवेगा नाम की पत्नी के गर्भ में वह देव आया और जन्म लेकर अशनिवेग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहाँ राज्यभोग भोगकर निवेद को प्राप्त हो उसने समाधिगुप्त नाम के श्रेष्ठ मुनि के समीप तप भार धारण कर लिया।
. क्रोध, मान, माया एवं मद को शोषित करते हुए शील युक्त हो मोह का दहन करते हुए जब वह ऋषि हिमगिरि की गुफा में नासाग्रदृष्टि करके कायोत्सर्ग में स्थित था, तभी कुक्कुट नामक जो विषधर धूमप्रभा नरक में अत्यन्त दुख भोगकर इसी गिरिंगुफा में अजगर हुआ था उसने उन मुनि को खा लिया। उस अजगर के द्वारा निगला जाकर वह ऋषि श्रेष्ठ मरकर अच्युत स्वर्ग में आठ ऋद्धियों का स्वामी एवं जय लक्ष्मी का धारी सुन्दर देव हुआ और वहाँ बाईस सागर पर्यन्त सुख भोगता हुआ वह देव इसी द्वीप के ऊपर विदेह स्थित पद्म नामक देश में आशापुरी नाम की नगरी में वज्रपीड़ नामक राजा की विजय नाम की रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ और पूर्वकृत पुण्य के उदय से वज्रनाभ नाम का सुप्रसिद्ध चक्रेश्वर हुआ। उसका छियानवे हजार रानियों का अन्तःपुर था। एकछत्र पृथ्वी को भोगकर उसने फिर उसे बूढ़ी दासी के समान त्याग दिया और क्षेमकर स्वामी को प्रणाम करके एक हजार राजाओं के साथ तप ग्रहण कर पर्वत पर स्थित हो सर्व हितकारी तप करने लगा।
अजगर (कमठ का जीव) मरकर छठवें नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ बाईस सागर पर्यन्त दुःख भोगकर पुन: संसार में क्लेश सहकर उसी वन में आकर शवर भील (कुरंग नाम वाला) हो गया।
कुरंग नामक उस दुष्ट शबर ने वहाँ महामुनि को ध्यान मग्न देखा। वह पापी उन्हें देखकर क्रोधित हो उठा और अपने पूर्व भव के वैर का स्मरण कर उसने उन साधु को बाण से बेध दिया, जिससे उनका शरीर जर्जरित हो गया, तथापि मुनीश्वर विचलित नहीं हुए और समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर भव-व्याधि का क्षयकर वे क्षणमात्र में ही प्रैवेयक में उत्पन्न हो, श्रेष्ठ सुखों के स्थान स्वरूप विमान में प्रसन्न मन वाले अहमिन्द्र हो गये। उस विमान में सत्ताईस सागर पर्यन्त