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"कासुमिच्छाघरति'' कहा गया है, का चार संवरों में उल्लेख किया गया है। इसका तात्पर्य है कि बौद्ध लोग निगण्ठनातपुत्त ने पार्श्वनाथ के धर्म में जो सुधार किया था, उससे परिचित थे। यथार्थ में कुशील ने परिग्रह का स्थान नहीं लिया था अपितु कुशील को अलग से जोड़ा गया था, जिसे स्पष्टतया बौद्ध नहीं समझ सके।
जैन धर्म में पाँच व्रतों का सन्दर्भ अंगुत्तर निकाय में हैं।171 इसमें निर्देश है कि निगण्ठनातपुत्त ने पाप में पड़ने के पाँच मागं बतलाये हैं :
1. प्राणातिपात, 2, अदत्तादान, 3. अब्रह्मचर्य, 4. मृषावाद, 5. सुरामैरेयमद्यप्रमादस्थान।
यह भी आंशिक सत्य है। पहले चार पाप सही कहे गए हैं, यद्यपि वे जैन क्रम से नहीं हैं। पाँचत्रां परिग्रह है, जिसका उल्लेख किया जाना चाहिए था। जैन नीतिकार के अनुसार -
"सुरामैरेयमद्यग्नमादस्थान'' हिंसा का ही रूप है, अलग श्रेणी नहीं। इस प्रकार इस क्रम में परिग्रह छूट गया है। ये उल्लेख दो निष्कर्षों पर पहुँचाते हैं :1. पार्श्वनाथ की परम्परा में चार व्रत थे। 2. निगण्ठनातपुत्त ने अन्तिम का विभाजन अपरिग्रह और अकुशील के रूप
में किया।
पालि उल्लेखों में दो दोप हैं : 1. व्रतों के नाम जैनों के पारम्परिक क्रम के अनुसार नहीं दिए गए हैं। 2. परिंग्रह, जो कि अन्तिम पाप है, पालि साहित्य में उपेक्षित है। पालि त्रिपिटकों के सम्पादक या तो निगण्ठनातयुत्त के सुधार से परिचित नहीं थे अथवा उन्होंने उसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं समझा।
सारे पालि प्रसंगों में परिग्रह की भूल उल्लेखनीय है। भारतीय नीतिशास्त्र में परिग्रह त्याग का योग जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह एक नया विचार था, जो पहले--पहल पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों में जोड़ा गया। __जैकोबी ने कहा है - बौद्धों ने नालपुस महावीर के सिद्धान्तों का वर्णन करने में भूल की है, सम्भवत: ये महावीर के पूर्ववर्ती पार्श्वके सिद्धान्त थे। यह
171 अंगर निकाय . २