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________________ स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह आभ्यन्तर तप हैं।113 ये सभी बारह प्रकार का तप धर्म कहलाता है। अनुप्रेक्षा : ___ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म- स्वाख्यात इन बारह के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है।114 अनित्यानुप्रेक्षा : पुद्गल, आयु, धन, राग, राज्यभोग, स्त्रीभोग भाग्य, नवयौवन, सौन्दर्य और इन्द्रियसुख आदि सभी बिजली के सपान चंचल हैं, यहाँ तक कि अवसान (मृत्यु) के समय शरीर भी अपना नहीं रहता, इस प्रकार समस्त जगत को अनित्य मानकर अपने मन में नित्य, निरञ्जन और शुद्ध जीव की भावना का चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।115 अशरणानुप्रेक्षा : ____ बन्धु-बान्धव, स्त्री, पुत्र, कलत्र, हाथी, सिंह, योद्धा शरीर आदि में से कोई भी किसी की रक्षा नहीं कर सकते, इस संसार में दयाप्रधान धर्म (जिनधर्म) को छोड़कर प्राणी के लिए अन्य कोई सहायक नहीं,116 इस प्रकार की भावना का चिन्तन करना, अशरणानुप्रेक्षा है। संसारानुप्रेक्षा : __ यह जीव चारों गतियों में भटकता हुआ अनेक प्रकार के दुखों को सहता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है और सुख-दु:ख रूप कर्मों को भोगता है, कोई भी किसी का सहायक नहीं,117 इस प्रकार संसार के स्वरूप का चिन्तन करना; संसारानुप्रेक्षा है। 113 तत्त्वार्थसूत्र 9120 114 बही 917 115 रइभू : पास. 3/74 एवं घत्ता-39 116 वही 3:15 एवं घत्ता-40 117 वहीं 3/16 peshesideskYSTROSSIOSIS 19o desesxeSISkeSResiestes
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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