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________________ न sxesxesxesxess कायोत्सर्ग : शरीर से ममत्त्र छोड़कर आत्मध्यान में लीन होकर शरीर से एकाग्रतापूर्वक तप करना। परीषह जय 105 : संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों का क्षय करने के लिए जो सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं।106 इनकी संख्या बाईस हैं, जो इस प्रकार हैं- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण, स्पर्श, मद, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन | 107 इन वेदनाओं को जीतना ही परीषह जय कहलाता है। आठ मदों का त्याग : 1 ज्ञान, पूजा ( प्रतिष्ठा), कुल, जाति, बल, ऋद्धि ( धन सम्पत्ति) तप और शरीर; इन आठ का आश्रय करके गर्व करना मद कहलाता है। 108 मुनि इन आठ मदों के त्यागी होते हैं। तप 109 : समस्त रागादि भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में लीन हो जाना अर्थात् आत्मलीनता द्वारा पर विकारों पर विजय प्राप्त करना, तप कहलाता है । 110 तप बारह प्रकार का होता है 111 : अनशन (उपवास), अत्रमौदर्य ( एकाशन) वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं । 112 प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य 105 रहधू पास 3/1, 6:12, 7:2 106 1 " मार्गाच्यवननिजैरार्थं परिषोढव्याः परोषहाः । तत्त्वार्थसूत्र 9/8 12 107 'क्षुत्पिापसाशीतोष्णदंशमशक्रनाग्न्यारति स्त्रीचर्या निषद्याशय्याक्रोशन्नधयाचनालाभ रोगतृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कार प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि।"- तत्त्वार्थसूत्र 99 108 ज्ञानं पूजां कुलंजातं बलमृद्धिं तपो वपुः। अष्टावाश्रित्यमानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार 25 109 रइधू पाम 7:5 14 110 'समस्त रागादिपर भावेन्च्छत्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः । " आ. कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार : तात्पर्यवृत्ति संस्कृत टीका ( जयसेन कृत) गाथा - 79 • 111 रइधू पास 3:23 112 तत्त्वार्थसूत्र 9/19 189 SXXXXxxxxs 189
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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