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शैली में जहाँ कवि एक और बाणभट्ट के निकट दिखाई देता है। वहीं लोकजीवन के यथार्थ चित्रण में स्वयम्भृ का स्मरण हो जाता है।13 पउमसिरीचरिउ :
कवि धाहिल विरचित 'पलमसिरीचरिउ. (पद्मश्रींचरित) चार सन्धियों की रचना है। यद्यपि कवि ने इसे धर्मकथा कहा है, किन्तु यह एक प्रेम कथा काव्य हैं, जिसमें समुद्रदत्त और पद्म श्री के प्रेम व्यापारों का सुन्दर वर्णन है। रचना छोटी होने पर भी काम्यात्मक कार से मह वणं है। भावानुभावों का बहुत ही सुन्दर चित्रण इस काव्य में हुआ है। वस्तुवर्णन अलंकृत होने पर भी स्वाभाविक है। लोक जीवन की झलक भी इसमें मिलती है। वर्णन विस्तृत तथा मधुर है।14 पउमसिरीचरित की हस्त लिखित प्रति सं. 1191 विक्रम की लिखित मिलती है। अत: उसके पहले धाहिल का समय निश्चित है।15 सुकुमालचरिउ : ___महाकवि श्रीधर ने 'सुकुमालचरिउ', 'पासणाहचरिउ' और 'भविसयतचरिउक' ये तीन अपभ्रंश रचनायें की। 'सुकुमालचरि3' की रचना अगहण कृष्ण तृतीया चन्द्रवार विक्रम सं. 1208 में हुई। सुकुमालचरिउ में छः सन्धियाँ हैं। इसमें मुकुमाल स्वामी के पूर्व जन्मों की कथा दी है। पासणाहचरिंउ में 12 सन्धियाँ हैं और परम्परा से प्रसिद्ध कथा के आधार पर ही तीर्थंकर की कथा कवि ने प्रस्तुत की है। भविसयत्तचरिउ :
भविरमय चरित्र में श्रुतपञ्चमी व्रत के फल को प्रकट करने के लिए कवि ने भविष्यदत्त की प्रसिद्ध कथा उपस्थित की है। जिसमें कथा की दृष्टि से कोई नवीनता नहीं है। भाषा, छन्द, शैली सब कुछ अपभ्रंश के अन्य जैन चरित काव्यों के समान है16
13 डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : भविमयदकहा तथा अपभ्रंश कथाकाब्य पृ. 330 14 डॉ. देवेन्दकुमार शास्त्री : 'भविसवतकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य, पृ. 333 '15 प्राकृत और आनभ्रंश स्नाहित्य तथा उनका हिन्दी पर प्रभाव ( राम सिंह तोगर) . 132 16 वही, पृ. 123