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________________ मार्ग एवा ना क. किसी को ज्ञान किन्तु योगी जिनेन्द्र (इस उपसर्ग से) रञ्चमात्र भी विचलित न हुए प्रलयकालीन पवन से आहत धाराओं से व्याप्त होने पर भी पार्श्वप्रभु की योगमुद्रा भङ्ग नहीं हुई महाकवि रइधु का जिनभक्ति में अटूट विश्वास है। असुरेश्वर तीर्थकर पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं : "हे जिनवर, आपके चरणों के दर्शन से मैं पाप से मुक्त हुआ है। और महान गुणों से युक्त देव हुआ हूँ। तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले हे देव! आपने लोकों में समस्त भव्य जनों की आशाओं को परिपूर्ण किया है, स्थावर, जङ्गम एवं सूक्ष्म प्रदेश वाले समस्त जीवनिकायों को सुरक्षित किया है तथा (आप) निरीह, नृसिंह, निर्द्वन्द्व, दम्भरहित, निरुञ्जन, नित्य, शङ्कर एवं ब्रह्मा हैं। निर्लोभ, निर्मोह, निक्रोध, निदोष, निरभिमानी, ज्ञानी, भवाम्बुधि के शोषक, शीलयुक्त, तपरूपी क्रीड़ा से युक्त, आत्मस्वरूप में लीन, तीनों लोकों के लिए बन्धु स्वरूप एवं पाप रूपी मल रहित हे जिनेश्वर आपके गुण अनन्त हैं। उनका वर्णन कर सकने में मैं समर्थ नहीं हूँ उपर्युक्त विवरण से जिनभक्ति सम्बन्धी निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं : 1. जिनेन्द्र दर्शन से पापों से मुक्ति मिलती है। 2. भव्य जनों की आशायें पूर्ण होती हैं। 3. महान गुणों का प्रादुर्भाव होता है। पासणाहचरिउ में दो प्रकार के तपों का चित्रण प्राप्त होता है : 1. सांसारिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए किया गया तप। 2. कर्म के क्षय के लिए किया गया तप) इन दो तपों में जैनधर्म में दूसरे प्रकार तप को स्वीकार किया गया है, क्योंकि पहले तप का प्रयोजन संसार है जबकि दूसरे तप का प्रयोजन मोक्ष है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है : अपत्य वित्तोत्तर लोक तृष्णया तपस्विन: केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनः जन्मजराजिहासया त्रयीप्रवृत्तिं समधीरनारुणत् ॥ 3 पासणाहचरिउ 418 4 वही 419 । वही 4:10 Resnessesresrasteresriesres 23rdesasiestesteresdeskes
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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