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के भयंकर उपसर्ग कमठ ने सात दिन तक किए। 1 रइधू ने संवर देव द्वारा किये गये भंयकर उपसर्ग का चित्रण स्वाभाविक रूप में करते हुए लिखा है कि - "उसने विक्रिया ऋद्धि से मेघों का निर्माण कर जल बरसाना प्रारम्भ किया कि कोई भी उसे रोकने में समर्थ नहीं हो सका। आकाश में प्रचण्ड वज्र तड़तड़ाने, गरजने, घड़बड़ाने और दर्पपूर्वक चलने लगा। तड़क-धड़क करने हुए उसने सभी पर्वत समूहों को खण्ड-खण्ड कर डाला। हाथियों की गुर्राहट से मदोन्मत्त सांड़ चीत्कार कर भागने लगे। आकाश भ्रमर, काजल, ताल और तमाल वर्ण के मेघों से उसी प्रकार आच्छादित हो गया जिस प्रकार कुपुत्र अपने अपयश से। मृगकुल भय से त्रस्त होकर भाग पड़े और दु: :खी हो गए, जल धाराओं से पक्षियों के पंख छिन्न भित्रा हो गये। नदी, सरोवर, गफायें, पृथ्वी मण्डल एवं वनप्रान्त सभी जल से प्रपूरित हो गए। वहाँ मार्ग एवं कमार्ग का किसी को भी ज्ञान न रहा लेकिन इससे पार्श्व प्रभु रन्चमात्र भी विचलित नहीं हुए। दुर्जनों की कलह के समान उस (संवर) ने कहीं भी मर्यादा नहीं रखी और वह पापी भगवान पर मनमाना उपसर्ग करने लगा। विक्रियाऋद्धि धारण कर अपनी शक्ति भर उसने अनेकविध क्लिष्ट एवं भयानक रूप निर्माण करके दिखलाए।82 पुन; जलधर को बरसाया, प्रलयकालीन मेघ का गर्जन होने लगा, पर्वत खहड़ा उठे, कायर व्यक्ति डर गये। विस्तीर्ण जलधाराओं से पृथ्वी खण्डित हो गई। जल कल्लोलें पृथ्वी को रेलती-पेलती हुई जिन भगवान के शरीर के पास तक पहुँच गई. फिर भी प्रलयकालीन पवन से आहत धाराओं से व्याप्त होने पर भी पार्श्वप्रभु की योगमुद्रा भङ्ग नहीं हुई। अत्यन्त दुस्सह जल सम्मुख दौड़ पड़ा और जिनेन्द्र (पार्श्व) के कण्ठ तक पहुँच गया।83 उपसर्ग कर्ता कौन :
इस प्रकार पार्श्व के ऊपर भयंकर उपसर्ग किए जाने का तो सभी ग्रन्थकारों ने वर्णन किया है किन्तु उपसर्गकत्ता के नाम के बारे में भिन्नता है। जहाँ उत्तरपुराण में उसका नाम "संवर ''84 बताया है, वहीं वादिराजसूरि ने
81 उत्तरपुराण 73/138 82 रइधू : मासणाहचरिउ 4/8 83 वहीं 4/9 84 उत्तरपुराण 73/736