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________________ पुरोवाक् डॉ. रमेशचन्द जैन रोटर एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग वर्द्धमान कॉलेज, बिजनौर (उ.प्र.) + नीतिकारों ने कहा है किजीवितं ? अनवद्यं' अर्थात् जीवन क्या है? इसके उत्तर में कहा गया है कि निर्दोष जीवित ही वास्तव में जीवन है। भगवान् पार्श्वनाथ के जीव ने निर्दोष जीवन जीने की अनेक जन्मों से साधना की थी। उन्हें अपनी साधना के लिए प्रत्येक जीवन में कठिन परीक्षा की घड़ियों से गुजरना पड़ा, यहाँ तक कि इस परीक्षा की कसौटी पर खरा उतरने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग भी करना पड़ा, तो भी वे अपने कर्त्तव्य से किञ्चित् मात्र भी विचलित नहीं हुए। उनकी वैरी कमल के साथ अनेक जन्मों तक शत्रुता चलती रही। देवाधिदेव पार्श्वनाथ भगवान् का जीव शुभ का प्रतीक बनकर निरन्तर अच्छाई करता रहा, जबकि कमठ का जीव अशुभ का प्रतीक बनकर अच्छाई का बदला बुराई से चुकाता रहा। फलतः शुभ के प्रतीक को निर्वाण और अशुभ के प्रतीक को संसार मिला। बुराई के ऊपर अच्छाई की विजय 'भारतीय साहित्य और संस्कृति का मूल मन्त्र रहा है। इसी अच्छाई की सेवा और स्तुति के लिए धरणेन्द्र अपनी पत्नी के साथ आया और समीध में छत्र तानकर खड़ा हो गया। कुछ समय बाद भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान उपलब्ध हो गया। उनके सामने उपसर्गकर्ता कमठ था और स्तुतिकर्त्ता धरमेन्द्र भी था, किन्तु उनका दोनों के प्रति समभाव था। उनके इस समभाव ने ही उन्हें नमस्करणीय बना दिया। कहा भी है कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचिते कर्म कुर्वती । प्रभोस्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तुवः ॥ अर्थात् कमठ और धरणेन्द्र दोनों ने अपने अपने स्वभाव के योग्य कर्म किया, किन्तु पार्श्वनाथ की दोनों के प्रति तुल्य मनोवृत्ति थी ऐसे पार्श्वनाथ हमारे कल्याण के लिए होवें । भगवान् पार्श्वनाथ की कठिन जीवन साधना और आत्मत्व की उपलब्धि कवियों के गुणगान का विषय रही है। यही कारण है कि आचार्य गुणभद्र,
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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