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________________ प्रत्येक चरण में सोलह मात्रा हों, दोनों स्थानों पर चरणों में यमक हो। इसमें कहीं जगण ( पयोधर) का प्रयोग न किया जाये। चरण के अन्त में सुप्रिय दो लघु द्विमात्रिक हों। इसे अडिल्ला छन्द कहते हैं;32 जैसे.. आयण थिरु मणु धारेपिणु । संकप्यु वियप्यु (वि) छंडेष्यिणु || जिउ सेणियहु गणे0 भासिर । मण संदेह सल्लु णिण्णासिङ ।। पासणाहचरिठ 1/9 पत्ता : इसमें बासठ मात्रायें होती हैं। पिंगल कवि ने इसे उत्कृष्ट कहा है। दोनों चरणों में चतुमात्रिक सात गण तथा अन्त में तीन-तीन लघु रखना चाहिए 63 जैसे इय साहुहु क्यणे वियसिय वयण पंडिएण हरिसेप्पिणु । तें कन्वरसायणु, सुहसयदायणु पारद्धठ मणु देपिणु || पासणाहचरिड 18 द्विपदी : प्रथम चरण के आरम्भ में जहाँ इन्द्र (षट्कलगण) हो, उसके बाद दो धनुर्धर (चतुष्कल) हो तथा फिर दो पदाति (चतुष्कल) स्थापित करो, अन्त में मधुकर चरण (षटकल) दो। इसे द्विपदी कहते हैं।64 मुख में (सर्वप्रथम) घटकल की स्थापना कर पाँच चतुष्कलों की स्थापना करो। अन्त में एक गुरु देकर उसे द्विपदी कहना चाहिए।65 जैसे भो धणय जक्ख अवहारि दक्खा इह भरहवासि कासीणिवासि । वाणारसीहिँ जण मण हरीहिँ अससेण गेहि णं सरय. मेहि 62 सोलह मत्ता पाउ अडिलह वेवि जमक्का भेउ अलिहा हो ण पओहर किं पि अडिल्लह, अन्त सुपिअ भग छंदुःअडिएका प्राकृत पेंगलम् 1:127 63 पिंगल कह दिदउछंद उक्रिट्ठ पत्त मत्तवासति करि। ___ च३ मत सत्त गण दि पाअ तिगिण तिगि लहु अंत धरि। वही 199 64 आइग इंदु जत्थ हो पढमहि जिज्जइ तिणि धणह। तह पाइकजुअल परिसंठवहु विविचिन सुन्दर।। 1/152 ।। प्राकृत पेंगलम 65 छक्कल मुह संवावि कइ चलु पंच ठवेहु। अंतहि एकह हार दइ दोअइ छंद कहेहु।। प्राकृत मंगलम् 1/754
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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