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शब्दार्थ का उस प्रकार अनित्यधर्म माना है, जिस प्रकार कटक, कुण्डल आदि शरीर के अनित्य धर्म हैं। इसी प्रकार जगन्नाथ ने भी अलंकारों को काव्य की
आत्मा, व्यंग्य को रमणीयता प्रयोजक धर्म मानकर ध्वनिवादियों का ही समर्थन किया है अतएव किसी कृति में अलंकारों का रहना आवश्यक सा है। 'पासणाहचरिउ' में अलंकारों को टा इरा में दृष्टिगार होती है.. . पासणाहचरिउ में रहधू की उत्प्रेक्षायें :
उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना करने को उत्प्रेक्षा कहा जाता है। 'पासणाहचरित' में महाकवि रइधू ने प्रचुर मात्रा में उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग किया है। नीचे उनकी उत्प्रेक्षायें दृष्टव्य हैं
स्वर्ण रेखा नदी समुद्र की ओर जाती हई ऐसी प्रतीत होती है, मानो सवर्ण की रेखा हो और मानो वह तोमर राजा के पुण्य से ही वहाँ आयी है।।
डोंगरेन्द्र का पुत्र तेजस्विता में मानो प्रत्यक्ष सूर्य था मानो पृथ्वी पर यश का नवीन अंकुर ही उत्पन्न हुआ था अथवा जय श्री ने अपना भाई ही प्रकट कर दिया हो।10
खेमसिंह साहू ऋषियों को दान देने में मानो दान (मदजल) से युक्त गन्धहस्ति के समान था।11
खेमसिंह की धनवरती नामक प्रणयिनी नररत्नों की उत्पत्ति के लिए मानो खान स्वरूप थी।12
काशी नामक देश ऐसा प्रतीत होता था मानो पृथ्वी रूपी युवती का सुख पूर्वक पोषण करने वाला वर ही हो।13
वामादेवी के नूपुरों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि उसके चरणों में धारण किए हुए नुपूर इस प्रकार रुणझण किया करते थे, मानो वे उसके आज्ञापालक किंकर ही हों।14।
6 डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री; हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशोलन पृ.
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7 सोवग्णरेह णं उबहि जाग्य णं तोमरणित्र पुगणेण आय। 1:3 8 तेय गलु णं पच्चक्नु भाणु। 115 9 ण णवइ जसंकुरु पुहमि जात। 1.5 10 णं जयसिरोए पयडियठ भाउ। 115 11 रिसि दाणवंतु गंधहत्थिा 1.5 12 णररयणहँ [ उप्पत्ति खाणि 16 13 कासी णाम देसु तहिं सुहबरु। ग भहिजुवइहिं सुहयोषसवरु॥ 1:9 14 रणरणंति णेकर णं किंकर 1/10