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________________ क्यों करते हो?" यह सुनकर कमठ नामक दुष्ट तापस क्रुद्ध हो उठा और बोला - __ "हे नरश्रेष्ठ, अप्रिय क्यों बोलते हैं, हमारी क्या अज्ञानता हो गई? बड़े मात्सर्यपूर्वक आप परनिन्दा क्यों कर रहे हैं?" उक्त तापस कमठ ही था, उसको बार सुनकर गाध में सन्नी अज्ञानता को दूर करने के उद्देश्य से पूछा - "बताओ, तुम्हारा गुरु मरकर कहाँ उत्पन्न हुआ है?" पार्श्व के वचन सुनकर आरक्त नेत्र होकर वह कमठ प्रत्युत्तर में बोला - "इस बात को प्रत्यक्ष कौन जान सकता है? तुम ज्ञान में बड़े दक्ष दिखाई दे रहे हो। यदि तुम जानते हो तो इस बात को बताओ।" यह सुनकर पार्श्वनाथ बोले . "तुम्हारा यह गुरु मरकर वृक्ष की कोटर में दपीला सर्प हुआ है। अरे मूर्ख, क्या जलते हुए को नहीं देख रहा है? वृक्ष फाड़कर तू उसे प्रत्यक्ष देख ले।" उपर्युक्त वचन को सुनकर वह धृष्ट चिल्लाया - "मेरे जो महान गुरु थे तथा जो तपस्या के कारण क्षीणकाय थे और जो पञ्चाग्नि के ताप-सहन करने में अत्यन्त प्रवीण थे, वे सर्प कैसे हो सकते हैं?" ऐसा कहकर उसने तीक्ष्ण कुठार से उस काष्ठ को बीचों बीच से फाड़ दिया और उसमें उसने अर्धदग्ध सर्पयुगल को अपना सिर धुनते हुए देखा।89 उपर्युक्त संवाद के माध्यम में रइधू ने पार्श्व को व्यावहारिक धरातल पर लाते हुए अनुचित क्रिया काण्ड का विरोध करते हुए दिखाया है। शायद रचनाकार का यह आशय रहा हो कि "बुराई को जानते हुए भी विरोध न करना पाप करने के समान ही है।'' अस्तु विरोध करके नायक के पुण्यशील व्यक्तित्व को ही लेखक ने उजागर किया है। अश्वसेन और मंत्री का संवाद : पार्श्व नाग-नागिनी का आकस्मिक मरण देख द्रवीभूत हो वैराग्य को प्राप्त हुए। यह जानकर पिता अश्वसेन जब पुत्र-विरह से दुखी हो, खिन्न चित्त हो -- - - 89 पास. 3:12
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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