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दुख मत मानिए, सम्पूर्ण जिनेश्वरों के लिये यही रीति है कि उन्हें अभिषिक्त करा के माता के गृह में लाया जाता है। सुरों एवं असुरों द्वारा सेवित "श्री पार्श्वनाथ" नामक इन भगवान को आप लीजिए!'' इस प्रकार कहकर एवं जिन भगवान की माता को प्रणाम कर इन्द्राणी इन्द्र के पास आ गई। राजा अश्वसेन के लिए भी इन्द्र ने दैदीप्तमान रत्त्राभूषण एवं पवित्र वस्त्र प्रदान किए। अनन्तर नृप द्वारा आदेश पाकर इन्द्र स्वर्ग चला गया तथा जिनेन्द्र देव भी अपने पितृ गृह में निवास करने लगे। पार्श्वजिन के अंगरक्षक देव तथा अप्सरायें उनका पालन-पोषण करने लगीं। इस प्रकार भगवान हिन्डोले में बढ़ने लगे। उनका पवित्र शरीर दश अतिशय से युक्त तथा तीन प्रकार के ज्ञान से अलंकृत था। इस प्रकार पार्श्व जिन विविध क्रीड़ाओं को करते हुए क्रमश: यौवन को प्राप्त हुए। अब उन की अवस्था तीस वर्ष और काया नौ हाथ प्रमाण थी। सन्धि -3 :
जब राजा अश्वसेन सभामण्डल में विराजमान थे तभी कुशस्थल नरेश अर्वकीर्ति के दूत ने आकर कहा कि आपके श्वसुर जो दीक्षित हो गये थे ऐसे शक्रवर्मा को यवननरेन्द्र ने मारकर उनके पुत्र अर्क कीति' से अपनी पुत्री देने को कहा है। यह वृत्तान्त सुनकर राजा अश्वसेन अपने श्वसुर की मृत्यु को जानकर शोकाभिभूत हो गये। तब मंत्री के द्वारा सांत्वना दिए जाने पर राजा अश्वसेन ने युद्ध की तैयारी करने को कहा। राजा का आदेश सुनते हो समस्त योद्धा और सैन्य समूह तैयार हो गया। जब राजा अश्वसेन अपनी सेना के साथ प्रयाण करने लगे तब यह जानकर पाश्वनाथ ने पिता के पास आकर कहा कि मेरे जैसे वज्र हृदय वाले पुत्र के रहते हुए आपको युद्ध में जाने की क्या आवश्यकता है? यह सुनकर अश्वसेन ने पहले तो मना किया किन्तु पार्श्वप्रभु के बार-बार आग्रह करने पर वे उन्हें युद्ध में भेजने हेतु तैयार हो गए। __युद्ध क्षेत्र में कालयवन नरेन्द्र और राजा अर्ककीर्ति में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ द्वारा अर्कीर्ति की सहायता करने से कालयवन भाग गया और अर्ककीर्ति विजयी हुए।
तीर्थङ्कर पाश्वं के प्रताप को जानकर अर्ककीर्ति ने उन्हें प्रणाम किया और उनके गुणों की प्रशंसा करता हुआ उन्हें अपने नगर कुशस्थल ले गया। नगर में पार्श्व के पहुँचने पर नगर वासियों द्वारा उनका भव्य स्वागत किया गया और