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इस प्रकार जब गर्भ नौ मास का पूर्ण हो गया तब वामादेवी का मुख पीत वर्ण का हो गया जो गर्भ के यश के प्रकाश के सदृश था। पौयमास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन शुभनज द्र.. हुआ जब सुरपति ने भगवान का जन्म हुआ जानकर सात पैर आगे बढ़कर जिनस्तुति की, फिर अपने ऐरावत हाथी को लेकर मन्दर पर्वत (सुमेरु पर्वत) पहुँचा। अन्य देवगणों से साथ क्षणभर में ही इन्द्र वाराणसी आ गया। वाराणसी नगरी की तीन प्रदक्षिणा करके वे सब राजा अश्वसेन के महल में आये। इन्द्र के आदेश से इन्द्राणी ने प्रसूतिगृह में जाकर जिनेन्द्र को देखा और माता सहित जिनेन्द्र को प्रणाम करने के बाद माँ (वामा) के लिए एक मायामयी बालक देकर परमेश्वर को उठाकर वहाँ से चल पड़ी और उस बालक को अपने प्रियतम को दिया। इन्द्र ने भी नमस्कार कर अनन्त सुलक्षणों से लक्षित शरीर वाले उस सुन्दर मुख वाले बालक को ले लिया। दोनों भुजाओं से जब इन्द्र ने उसे गोद में उठाया तो ईशान सुरेन्द्र ने उन पर छत्र तान दिया। मस्तक पर विराजमान कर इन्द्र उसी क्षण आकाश मार्ग से चला। सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र भगवान् के ऊपर चँवर डुलाने लगे। अन्य चतुर्निकाय के देव भी भक्तिपूर्वक यथाशक्ति राग को प्रकाशित कर रहे थे। जिन भगवान के रूप को देखकर भी जब इन्द्र तृप्त नहीं हुआ तब उसने सहस्र नेत्र धारण कर लिये और उन नेत्रों से जब उसने नाथ को निहारा तब उसका कर्ममल प्रक्षालित हो गया और उसने सोचा कि "आज मेरा यह जन्म सफल हो गया।" ___इन्द्र ने अपने परिवार के साथ सुमेरुपर्वत पर जाकर एक उच्च सिंहासन पर भगवान जिनेन्द्र को प्रतिष्ठापित किया। देवगणों ने हाथों हाथ क्षीर सागर से भरे हुए स्वर्ण कलशों को लाना प्रारम्भ किया, तब 1008 लक्षणों से युक्त उन शिशु भगवान का 1008 कलशों से अभिषेक किया। अभिषेक एवं गन्धोदक वन्दन के उपरान्त इन्द्र ने अष्ट द्रव्य से भक्तिभावपूर्वक जिनेन्द्र की पूजा की। पूजोपरान्त इन्द्र ने प्रभु के कानों का छेदन संस्कार करके कुण्डल युगल से मण्डित किया। अन्य अंगों में भी मणिजटित आभूषण पहनाये। अनन्तर "श्री पार्श्वनाथ" यह नाम रखकर वाराणसी आ गये। - जब वह इन्द्र नगर में पहुँचा तब इन्द्राणी ने जिनेन्द्र को अपने हाथों में ले लिया और वामादेवी को वह पुत्र समर्पित कर दिया तथा प्रणाम करके कहा . हे वामा माता ! सज्जनों को सुख देने वाले पुत्र के अपहरण का किसी भी प्रकार का