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________________ (नवम्) गुणस्थान के नौ अंशों में नाशकर दसवें गुण स्थान पर आरुढ़ हुए,97 तो वहाँ संज्वलन लोभ का नाश किया। (इस प्रकार समस्त मोहनीय कर्म को नष्ट किया, उपशान्तमोह नामक यह 11वां गुणस्थान कहलाता है) और फिर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में आरूढ़ हुए और उसमें सोलह प्रकृतियों (निद्रा, प्रचला = 2 कर्म प्रकृतियों + पांच ज्ञानावरण + चार दर्शनावरण + पाँच अन्तराय कर्म प्रकृतियाँ = 16 प्रकृतियों) को नष्ट किया। __इस प्रकार प्रथमतः उन्होंने सैंतालीस कर्म प्रकृतियों का उच्छेद किया और फिर सोलह कर्म प्रकृतियों का निवारण किया, इस प्रकार कुल (47-16 - 63) सठ कर्म पकनियों का निवारण किया। फिर 12वें गणस्थान में आरोहण किया। सठ प्रकृतियों के समूह को भग्न करने पर पार्श्व को केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। एक खम्भे के समान महान त्रिलोक और अलोक को भी ज्ञान से प्रत्यक्ष देख लिया। जो त्रिलोक सूक्ष्म एवं स्थूल जीवों से भरा हुआ है, वह सब केवल ज्ञान के होते ही विस्फुरायमान हो उठा/98 आत्मा के स्वरूप का सहभावी, शाश्वत एवं मनरहित, अनिन्द्य, अलक्ष्य, श्रेष्ठ, इन्द्रियसुखरहित. एवं कर्म से अपराभूत परम आनन्द हुआ,99 जिससे वे पार्श्व तीनों लोकों में महान, विचित्र, पवित्र एवं अचिन्त्य परमात्म पद में लीन होकर स्थित हो गये। विकल्प रहित समाधि में लीन, कर्मों की प्रेसठ प्रकृतियों से सहित सयोगी जिनेन्द्र एक शुद्धात्म में लीन हो गये। इस प्रकार चैत्र के पवित्र कृष्ण पक्ष में चतुर्थी के दिन शोभन नक्षत्र में जिनेन्द्र (पार्श्व) ने केवलज्ञान प्राप्त किया।100 'उत्तरापुराण' में भी इसी काल का उल्लेख आया है।101 मेरे विचार से रइधू ने किसी नक्षत्र का नाम न लेते हुए जो सोभगरिविख (शोभन नक्षत्र) का प्रयोग किया है उसका तात्पर्य शुभ नक्षत्र से ही जानना चाहिए। 97 रइधू : पासणाहचरिठ, 4/12, घत्ता 63 98 वही; 4/13 99 वही बत्ता 64 100 वही 4/14 101 उत्तरपुराण 73743 144 Castesastusxexxsesex 16 Semestesxesxesexesxsi
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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