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________________ केवल ज्ञानोपरान्त तीर्थङ्कर की स्थिति : केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर तीर्थकरों का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है ऐसा यतिवृषभ ने लिखा है।102 अन्य शास्त्रों का भी यही मत है। केवलज्ञान महोत्सव : शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर तीर्थङ्कर को समस्त लोक और अलोक को प्रकट करने वाला केवलज्ञान जब प्रकट हो जाता है तभी इन्द्र का आसन कम्पायमान होने लगा, जिससे इन्द्र ने भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति को जान लिया और स्वयं ही वहाँ आकर उसने मन, वचन, काय रूप त्रिशुद्धिपूर्वक स्तुति कर स्तोत्रपाठ किया एवं उनके चरणों में नमस्कार किया।103 इस प्रकार सभी देव एवं मनुष्यों ने भक्तिभावपूर्वक उनके केवलज्ञान की पूजा की और हर्ष मनाया। पार्श्व का केवलि काल : भ. पार्थ जिनेन्द्र के केवलि काल की संख्या आठ मास अधिक उनहत्तर वर्ष प्रमाण है।104 पार्श्व का चिह्न: भ. पार्श्वनाथ का चिह्न सर्प था।105 पार्श्व का संघ : महाकवि रइधू ने पार्श्वनाथ के गणघरों की संख्या दस बताई है।106 तिलोयपण्णत्ती107 तथा आवश्यक नियुक्ति 108 में भी पार्श्व के दस गणधरों के होने की पुष्टि होती है। यही संख्या समस्त उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों को मान्य है। गणधरों के नामों के विषय में ग्रन्थकाल एकमत नहीं हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' में 102 तिलोगपण्णत्ती 41705 103 रइ : पासणाइचारिक 4/14 104 तिलोयपण्णत्ती 4/960 105 वही 4/605 106 पासणाहचरिउ 7/2 107 तिलोयपण्णत्ती 4/963 108 आवश्यक नियुक्ति 290
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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